विकिपीडिया:विवादास्पद वर्तनियाँ
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वर्तनी की विविधता
देवनागरी लिपि में कालक्रम में अनेक परिवर्तन आये हैं। कुछ भाषा विज्ञानी जैसे सुनीति कुमार चाटुर्ज्या, डॉ॰ रघुवीर आदि मानते हैं कि हिन्दी भाषा का जन्म संस्कृत से हुआ है लेकिन इस बात को हिन्दी के कई बड़े भाषाविज्ञानी नकार चुके हैं जिनमें रामविलास शर्मा व किशोरीदास वाजपेयी[1] का नाम उल्लेखनीय हैं। समय के साथ-साथ हिन्दी को सरल बनाने के उपाय किये गये। इसी क्रम में कई वर्तनियों हेतु कुछ विकल्प स्वीकार किये गये जिससे हिन्दी में वर्तनी की विविधता हो गयी। इससे वर्तनियों के दो रुप प्रचलित हो गये - एक तो पारम्परिक देवनागरी वाले तथा दूसरे सरल आधुनिक हिन्दी वाले। इस विविधता के कुछ प्रकार हैं:
पञ्चमाक्षर तथा अनुस्वार
पञ्चमाक्षरों में ङ् तथा ञ् के नीचे विभिन्न वर्ण लगते हैं जिस कारण इनकी संरचना बदल जाती है। इससे नये हिन्दी पाठक कई बार इनसे बनने वाले संयुक्ताक्षरों को समझ नहीं पाते। इसलिये सरलता हेतु यह व्यवस्था की गयी कि पञ्चमाक्षरों के स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग भी स्वीकार किया जाय। उदाहरण के लिये - परम्परा एवं परंपरा।
हलन्त शब्द
कई शब्द जिनके उच्चारण के अनुसार अन्त में हलन्त आता था उन्हें आधुनिक हिन्दी में बिना हलन्त के भी लिखा जाने लगा। उदाहरण के लिये - स्वागतम् तथा स्वागतम। श्रीमान्---श्रीमान आदि है
ये तथा यी के स्थान पर ए तथा ई
आजकल विभिन्न शब्दों में ये तथा यी के स्थान पर ए तथा ई का प्रयोग भी किया जाता है। उदाहरण - गयी तथा गई, आयेगा तथा आएगा आदि। परन्तु संस्कृत से हिंदी में आने वाले शब्दों (स्थायी, व्यवसायी, दायित्व आदि) में 'य' के स्थान पर 'इ' या 'ई' का प्रयोग अमान्य है।
वर्तनी परम्परा
- विकिपीडिया की परम्परा के अनुसार संस्कृत, धर्म तथा भारतीय संस्कृति आदि सम्बंधी लेखों में पारम्परिक शुद्ध वर्तनी का प्रयोग किया जाता है जबकि विज्ञान, गणित, तकनीक आदि सम्बंधी लेखों में सरलता हेतु आधुनिक हिन्दी वर्तनी का प्रयोग किया जा सकता है। पञ्चमाक्षरों में केवल ङ् तथा ञ् ही हैं जिनसे बने संयुक्ताक्षर सभी को सरलता से समझ नहीं आते, अन्य सभी पञ्चमाक्षरों से बने संयुक्ताक्षर आसानी से पढ़े एवं समझे जा सकते हैं। अतः सामान्य लेखों में केवल इन्हीं दो पञ्चमाक्षरों को कम प्रयोग किया जाता है।
- लेख का शीर्षक/नाम (चाहे वह किसी भी विषय से सम्बंधित हो) शुद्ध उच्चारण तथा वर्तनी की दृष्टि से मूल पारम्परिक वर्तनी में रखा जाता है। खोज तथा पुनर्निर्देशन हेतु आधुनिक वर्तनी वाले नाम को पारम्परिक वर्तनी वाले शीर्षक पर पुनर्निर्देशित किया जाता है। उदाहरण के लिये पंडित को पण्डित पर पुनर्निर्देशित किया जाना चाहिये।
- लेख शीर्षक की शुद्ध वर्तनी में यदि नुक्ता (़) है तो बिना नुक्ते वाली वर्तनी को नुक्ते वाली सही वर्तनी वाले शीर्षक पर पुनर्निर्देशित किया जाता है। उदाहरण के लिये शाहरुख खान को शाहरुख़ ख़ान पर।
- इसके अतिरिक्त लेख के शुरू में विषय के नाम में बोल्ड में पहले पारम्परिक वर्तनी तथा फिर कोष्ठक में आधुनिक वर्तनी लिखी जाती है। उदाहरण: गङ्गा (गंगा) भारत की एक प्राचीन नदी है।
- इसी प्रकार भाषा शैली में संस्कृति सम्बंधी लेखों में तत्सम शब्दावली तथा सामान्य लेखों में तद्भव शब्दावली का प्रयोग होता है।
कि और की
'कि' और 'की' दोनों अलग अलग हैं। इनका प्रयोग भी अलग अलग स्थानों पर होता है। एक के स्थान पर दूसरे का प्रयोग पूर्णतः गलत है।
- कि दो वाक्यों को जोड़ने का काम करता है जैसे- उसने कहा कि कल वह नहीं आएगा। वह इतना हँसा कि गिर गया। यह माना जाता है कि कॉफ़ी का पौधा सबसे पहले ६०० ईस्वी में इथियोपिया के कफ़ा प्रांत में खोजा गया था।
- की संबंध बताने के काम आता है जैसे- राम की किताब, सर्दी की ऋतु, सम्मान की बात, वार्ता की कड़ी।
कीजिए या करें
सामान्य रूप से लिखित निर्देश के लिए करें, जाएँ, पढें, हटाएँ, सहेजें इत्यादि का प्रयोग होता है। कीजिए, जाइए, पढ़िए के प्रयोग व्यक्तिगत हैं और अधिकतर एकवचन के रूप में प्रयुक्त होते हैं।
ए और ये
आधुनिक हिंदी में दिखायें, हटायें आदि के स्थान पर दिखाएँ, हटाएँ आदि का प्रयोग होता है। यदि ये और ए एक साथ अंत में आएँ जैसे किये गए हैं तो पहले स्थान पर ये और दूसरे स्थान पर ए का प्रयोग होता है।
जैसे कि, जो कि
यह दोनों ही पद बातचीत में बहुत प्रयोग होते हैं और इन्हें सामान्य रूप से गलत नहीं समझा जाता है, लेकिन लिखते समय 'जैसे कि' और 'जो कि' दोनों ही गलत समझे जाते हैं। अतः 'जैसे' और 'जो' के बाद 'कि' शब्द का प्रयोग ठीक नहीं है।
विराम चिह्न
सभी विराम चिह्नो जैसे विराम, अर्ध विराम, प्रश्न वाचक चिह्न आदि के पहले खाली जगह छोड़ना गलत है। खाली जगह विराम चिन्हों के बाद छोड़नी चाहिए। जैसे - सबसे पहले सन् १८१५ में कुछ अंग्रेज़ यात्रियों का ध्यान असम में उगने वाली चाय की झाड़ियों पर गया जिससे स्थानीय क़बाइली लोग एक पेय बनाकर पीते थे । गलत है, और सबसे पहले सन् १८१५ में कुछ अंग्रेज़ यात्रियों का ध्यान असम में उगने वाली चाय की झाड़ियों पर गया जिससे स्थानीय क़बाइली लोग एक पेय बनाकर पीते थे। सही है।
हिन्दी में किसी भी विराम चिह्न यथा पूर्णविराम, प्रश्नचिह्न आदि से पहले रिक्त स्थान नहीं आता। आजकल कई मुद्रित पुस्तकों, पत्रिकाओं में ऐसा होने के कारण लोग ऐसा ही टंकित करने लगते हैं जो कि गलत है। किसी भी विराम चिह्न से पहले रिक्त स्थान नहीं आना चाहिये।
समुच्चय बोधक और सम्बंध बोधक शब्दों का प्रयोग
संबंध बोधक तथा दो वाक्यों को जोड़ने वाले समुच्चय बोधक शब्द जैसे ने, की, से, में इत्यादि अगर संज्ञा के बाद आते हैं तो अलग लिखे जाते हैं और सर्वनाम के साथ आते हैं तो साथ में। उदाहरण के लिए-
- अक्षरग्राम आधुनिक भारतीय स्थापत्य का अनुपम उदाहरण है। इसमें प्राचीन पारंपरिक शिल्प को भी समान महत्त्व दिया गया है। संस्थापकों ने पर्यटकों की सुविधा का ध्यान रखा है। हमने भी इसका लाभ उठाया, पूरी यात्रा में किसीको कोई कष्ट नहीं हुआ। केवल सुधा के पैरों में दर्द हुआ, जो उससे सहन नहीं हुआ। उसका दर्द बाँटने के लिए माँ थी। उसने, उसको गोद में उठा लिया।
है और हैं
है और हैं दोनों अलग अलग हैं। इनका प्रयोग भी अलग अलग स्थानों पर होता है। एक के स्थान पर दूसरे का प्रयोग ठीक नहीं समझा जाता है। है एक वचन है और हैं बहुवचन जैसे एक आदमी धूप में चला जा रहा है। बहुत से लोग प्रार्थना कर रहे हैं।
अनुस्वार तथा पञ्चमाक्षर
पञ्चमाक्षरों के नियम का सही ज्ञान न होने से बहुधा लोग इनके आधे अक्षरों की जगह अक्सर 'न्' का ही गलत प्रयोग करते हैं जैसे 'पण्डित' के स्थान पर 'पन्डित', 'विण्डोज़' के स्थान पर 'विन्डोज़', 'चञ्चल' के स्थान पर 'चन्चल' आदि। ये अधिकतर अशुद्धियाँ 'ञ्' तथा 'ण्' के स्थान पर 'न्' के प्रयोग की होती हैं।
नियम: वर्णमाला के हर व्यञ्जन वर्ग के पहले चार वर्णों के पहले उस वर्ग का पाँचवा वर्ण आधा (हलन्त) होकर लगता है। अर्थात् कवर्ग (क, ख, ग, घ, ङ) के पहले चार वर्णों से पहले आधा ङ (ङ्), चवर्ग (च, छ, ज, झ, ञ) के पहले चार वर्णों से पहले आधा ञ (ञ्), टवर्ग (ट, ठ, ड, ढ, ण) के पहले चार वर्णों से पहले आधा ण (ण्), तवर्ग (त, थ, द, ध, न) के पहले चार वर्णों से पहले आधा न (न्) तथा पवर्ग (प, फ, ब, भ, म) के पहले चार वर्णों से पहले आधा म (म्) आता है। उदाहरण:
- कवर्ग - पङ्कज, गङ्गा
- चवर्ग - कुञ्जी, चञ्चल
- टवर्ग - विण्डोज़, प्रिण्टर
- तवर्ग - कुन्ती, शान्ति
- पवर्ग - परम्परा, सम्भव
आधुनिक हिन्दी में पञ्चमाक्षरों के स्थान पर सरलता एवं सुविधा हेतु केवल अनुस्वार का प्रयोग भी स्वीकार्य माना गया है। जैसे: पञ्कज - पंकज, शान्ति - शांति, परम्परा - परंपरा। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि पुरानी पारम्परिक वर्तनियाँ गलत हैं, नई अनुस्वार वाली वर्तनियों को उनका विकल्प स्वीकारा गया है, पुरानी वर्तनियाँ मूल रूप में अधिक शुद्ध हैं। यह प्रयोग मजबूरीवश स्वीकार करना पड़ा था। मैनुअल हिन्दी टाइपराइटर अंग्रेजी टाइपराइटर की 48 कुंजियों पर ही हिन्दी के वर्णों को येन-केन प्रकारेण संयोजित करके बनाए गए थे। जिनमें ङ और ञ वर्ण नहीं थे, अतः इनके स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग करके काम चलाना पड़ता था।
यद्यपि पञ्चमाक्षर के स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग देवनागरी की सुन्दरता को कम करता है तथा शब्द का उच्चारण भी पूर्णतया शुद्ध नहीं रह पाता। इसके अतिरिक्त कम्प्यूटिंग सम्बंधी आन्तरिक प्रोसैसिंग के कार्यों यथा नैचुरल लैग्वेंज प्रोसैसिंग हेतु भी पञ्चमाक्षर का प्रयोग उपयुक्त है। परन्तु वर्तमान समय में विशेषकर पाठ्य पुस्तकों एवं प्रिण्ट मीडिया में सरलता हेतु अनुस्वार वाली वर्तनी ही प्रचलित हो गयी है। विशेषकर ञ तथा ङ् का प्रयोग काफी कम हो गया है।
विकिपीडिया की परम्परा के अनुसार संस्कृत, धर्म तथा भारतीय संस्कृति सम्बंधी लेखों में पञ्चमाक्षरों का प्रयोग होना चाहिए जबकि विज्ञान, गणित, तकनीक आदि सम्बंधी लेखों में सरलता हेतु आधुनिक हिन्दी का प्रयोग किया जा सकता है। हाँ लेख के शीर्षक (नाम) को शुद्ध उच्चारण तथा वर्तनी की दृष्टि से पञ्चमाक्षर में रखा जाय, चाहे वह किसी भी विषय से सम्बंधित हो। खोज तथा पुनर्निर्देशन हेतु आधुनिक वर्तनी वाले नाम को पारम्परिक (शुद्ध) पञ्चमाक्षर वाले शीर्षक पर पुनर्निर्देशित कर देना चाहिए ताकि शुद्ध उच्चारण एवं वर्तनी रहे। उदाहरण के लिये पंडित को पण्डित पर पुनर्निर्देशित किया जाना चाहिये।
लेकिन वर्ग के पञ्चमाक्षर के स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग करने या एक ही पाठ में दोनों रूपों का प्रयोग किए जाने पर गंभीर समस्या भी पैदा हो जाती है। विशेषकर वर्णक्रमानुसार साटन (alphabetical sorting) में, शब्दकोशों में शब्द के स्थान को निर्धारण करने में दोगले प्रयोग दिखते हैं। विशेषकर ई-शब्दकोशों में, नेचुरल लैंग्वेज प्रोसेसिंग में अत्यन्त अवैज्ञानिक तथा अतार्किक स्थितियाँ पैदा हो जाती हैं। शब्दकोश में कंकण आरम्भ में आता है तो कङ्कण सैंकड़ों शब्दों के बाद में आता है।
श्रृ और शृ
श्र तथा शृ भिन्न हैं। श्र में आधा श और र मिला हुआ है जैसे श्रम में। शृ में पूरे श में ऋ की मात्रा लगी है जैसे शृंखला या शृंगार में। अधिकतर सामान्य लेखन तथा कम्प्यूटर/इण्टरनेट पर श्रृंखला या श्रृंगार जैसे अशुद्ध प्रयोग देखने में आते हैं। श्रृ लिखने पर देखा जा सकता है कि इसमें आधा श् + र + ऋ की मात्रा है, जो सही नहीं हैं।
यह अशुद्धि इसलिए होती है क्योंकि पारंपरिक लेखन में श के साथ ऋ जुड़ने पर जो आकार बनता था वह अधिकतर यूनिकोड फॉण्टों में प्रदर्शित नहीं होता। शृ, आदि श से बनने वाले संयुक्त वर्णों को संस्कृत २००३ नामक यूनिकोड फॉण्ट सही तरीके से प्रदर्शित करता है। वह आकार इस प्रकार का होता है () उसमें श में ऋ जोड़ने पर प्रश्न वाले श की तरह श आधा दिखाई देता है और नीचे ऋ की मात्रा जुड़ती है, इसमें अतिरिक्त आधा र नहीं होता।[2]
श्र = श् + र् + अ जबकि शृ = श् + ऋ
"श्रृ" लिखना गलत है, क्योंकि श्रृ = श् + र् + ऋ = श् + रृ
क +ऋ =कृ, ख् +ऋ = खृ, ग् +ऋ =गृ, घ् +ऋ =घृ आदि की तरह हस्त लेख के अतिरिक्त श् +ऋ = शृ होता है और शृंगार शुद्ध शब्द है।
स्र तथा स्त्र
सहस्र (=स+ह+स+हलन्त +र = हजार) सही है, 'सहस्त्र' (=स+ह+स+हलन्त +त्र) गलत है (यह शब्द संस्कृत/हिन्दी में है ही नहीं)।
स्रोत (=source) और स्तोत्र (स्तुति के लिए प्रयुक्त पद्य/श्लोक) दोनों सही हैं किन्तु दोनों के बिलकुल अलग अर्थ हैं। अतः एक के स्थान पर दूसरे का उपयोग नहीं किया जाना चाहिए। किन्तु स्त्रोत बिलकुल गलत है। जब हाथ से लिखा जाता था, या टाइपराइटर से लिखा जाता था, तब 'स्रोत' और 'स्त्रोत' एक ही तरह से टाइप किए जाते थे। वहाँ एक मजबूरी थी, लेकिन कम्प्यूटर पर वह मजबूरी नहीं है।
विसर्ग और कोलन
'अतः' सही है जबकि 'अत:' गलत है, जबकि दोनों एक जैसे ही दिखते हैं। बात यह है कि पहले वाले में त के बाद विसर्ग (ः) है जबकि दूसरे वाले में त के बाद कोलन ( :) है।
इसी तरह 'दुःख' सही है और 'दु:ख' गलत।
सन्दर्भ
- ↑ हिन्दी की उत्पत्ति उस संस्कृत भाषा से नहीं है, जो कि वेदों में, उपनिषदों में तथा वाल्मीकि या कालिदास आदि के काव्यग्रंथों में हमें उपलब्ध है - हिन्दी शब्दानुशासन।
- ↑ देवनागरी “श” का रहस्य