चन्देल-चौहान युद्ध

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चन्देल-चौहान युद्ध
चन्देल और अजमेर के चौहानो के मध्य का युद्ध का भाग
तिथि 1179-1187 ईस्वी
स्थान सिरसागढ, दिल्ली, महोबा, कीर्ति सागर।
परिणाम चन्देल साम्राज्य की जीत
योद्धा
अजमेर के चौहान

(सहायक राजवंश)

  • चंद्रावती के परमार
  • नाडोला के चौहान
चन्देल साम्राज्य

(सम्मिलित राजवंश)

सेनानायक
पृथ्वीराज चौहान परमर्दिवर्मन
शक्ति/क्षमता
5 लाख सैन्यदल 3 लाख सैन्यदल
मृत्यु एवं हानि
4 लाख चौहान मारे गए 1 लाख चन्देल और गाहड़वाल मारे गाएं।

चन्देल-चौहान युद्ध, (English: Chandel-Chauhan War) अजमेर के चौहान वंश और जेजाकभुक्ति के चन्देल साम्राज्य के मध्य 1179 से 1187 ईस्वी के बीच लड़ा गया था, जिनमे जेजाकभुक्ति के चन्देल साम्राज्य की विजय तथा चौहानो की पराजय हुई। इन युद्धों में, राजा पृथ्वीराज तृतीय चौहान सम्राट परमर्दीवर्मन चन्देल से दो बार पराजित हुआ।[1][2][3][4]

भाग[संपादित करें]

कारण[संपादित करें]

मध्ययुगीन गाथागीतों के अनुसार, पृथ्वीराज पद्मसेन की बेटी से शादी करके दिल्ली लौट रहे थे। इस यात्रा के दौरान उस पर तुर्क सेना ( घुरिद) द्वारा हमला किया गया था। चौहान सेना हमलों को खदेड़ने में कामयाब रही, लेकिन इस प्रक्रिया में गंभीर हताहत हुए। वे अपना रास्ता भटक गए, और चन्देल साम्राज्य की राजधानी महोबा में पहुंच गए। चौहान सेना, जिसमें कई घायल सैनिक थे, ने अनजाने में चन्देल शाही उद्यान में एक शिविर स्थापित कर दिया। उन्होंने बगीचे के रखवाले को उनकी उपस्थिति पर आपत्ति करने के लिए मार डाला। जब परमर्दिवर्मन को इस बात का पता चला तो उन्होंने चौहान सेना का मुकाबला करने के लिए कुछ सैनिकों को भेजा। आगामी संघर्ष में चन्देलो को भारी नुकसान हुआ। तब परमर्दिवर्मन ने पृथ्वीराज के खिलाफ अपने सेनापति उदल के नेतृत्व में एक और सेना भेजने का फैसला किया। उदल ने इस प्रस्ताव के खिलाफ सलाह देते हुए तर्क दिया कि घायल सैनिकों पर हमला करना या पृथ्वीराज का विरोध करना उचित नहीं होगा इतनी सी बात पर। हालाँकि, सम्राट परमर्दिवर्मन अपने बहनोई माहिल परिहार (प्रतिहार) के प्रभाव में थे, जिन्होंने चन्देलो के खिलाफ गुप्त रूप से दुर्भावना को बरकरार रखा था। माहिल ने परमर्दिवर्मन को हमले की योजना पर आगे बढ़ने के लिए उकसाया। उदल के नेतृत्व में चन्देल टुकड़ी ने फिर चौहान सेना के खिलाफ दूसरा हमला किया, लेकिन हार गई। स्थिति तब शांत हुई जब पृथ्वीराज दिल्ली के लिए रवाना हुए।[5]

माहिल परिहार की राजनीतिक साजिश को सहन करने में असमर्थ, उदल और उनके भाई आल्हा ने चन्देल दरबार छोड़ दिया। उन्होंने जयचंद गहदवाल, कन्नौज के शासक के साथ शरण ली।[5] माहिल ने तब पृथ्वीराज चौहान को एक गुप्त संदेश भेजा, जिसमें उन्हें सूचित किया गया था कि परमर्दिवर्मन के सर्वश्रेष्ठ सेनापतियों ने महोबा छोड़ दिया है।

युद्ध[संपादित करें]

  • सिरसागढ़ का प्रथम युद्ध

पृथ्वीराज 1182 ईस्वी में चौहान अजमेर से निकला और ग्वालियर और बटेश्वर के रास्ते चन्देल साम्राज्य की ओर बढ़ा। सबसे पहले पृथ्वीराज ने सिरसागढ़ को घेर लिया, जो कि मलखान की किलेदारी में था। पृथ्वीराज ने मलखान को जीतने की (अपनी तरफ लेने की बिना युद्ध के) कोशिश की, लेकिन मलखान परमर्दीवर्मन के प्रति वफादार रहे और आक्रमणकारियों के खिलाफ लड़े। मलखान द्वारा आक्रमणकारी चौहान सेना के आठ सेनापतियों के मारे जाने के बाद, पृथ्वीराज ने स्वयं युद्ध की कमान संभाली और चन्देल सेनापति मलखान मारे गए।

मुख्य युद्ध[संपादित करें]

  • दिल्ली का युद्ध

दिल्ली के युद्ध में ब्रह्मजित और आल्हा ने चौहानों को हरा ब्रह्मजीत ने बेला चौहान (पृथ्वीराज III की पुत्री) से शादी की।[6][7][8]

  • महोबा का युद्ध

इसके बाद पृथ्वीराज ने चन्देलो की राजधानी महोबा पे हमला कर दिया, घमासान युद्ध हुआ। युद्ध में चन्देल पक्ष से ब्रम्हजित, ऊदल, जयचंद्र के 2 पुत्र एक भतीजे मारे गए। महोबा के युद्ध में चौहान चन्देलो से बुरी तरह पराजित हुए। युद्ध में पृथ्वीराज की पूरी सेना खत्म हो गई। सेनापति आल्हा ने पृथ्वीराज को जीवनदान दे लेकिन लेकिन वही परमर्दिवर्मन ने पृथ्वीराज के 5 पुत्रो को बंदी बना के ब्रम्हा की विधवा पत्नी बेला के सामने रख दिया, जिसके बाद बेला ने उनका सर काट अपने पति ब्रम्हजितवर्मन के साथ सती हो गई। ये सब के बाद पृथ्वीराज अपनी जान बचाके महोबा से भाग के मदनपुर में कहीं छुप गए।[7][6][1]

  • कीर्तिसगार का युद्ध

1187 में पृथ्वीराज ने पुन महोबा पे हमला किया। कीर्तिसागर के समीप घमासान युद्ध हुआ जिसमें परमर्दिवर्मन ने पृथ्वीराज को पराजित कर उन्हे भागने पर विवश कर दिया।[2][9][10][8]

संदर्भ[संपादित करें]

  1. Mohinder Singh Randhawa & Indian Council of Agricultural Research 1980, पृ॰प॰ 472.
  2. M.S. Randhawa & Indian Sculpture: The Scene, Themes, and Legends 1985, पृ॰प॰ 532.
  3. Parmal Raso, Shyam sunder Das, 1919, 467 pages
  4. Pandey(1993) pg197-332
  5. Sisirkumar Mitra 1977, पृ॰ 121.
  6. Sisirkumar Mitra 1977, पृ॰ 125.
  7. Sisirkumar Mitra 1977, पृ॰ 122.
  8. Parmaalraso 1189, पृ॰ Jagnikarao.
  9. Parmal Raso, Shyam sunder Das, 1919, 467 pages
  10. Pandey(1993) pg197-332