आल्हाजी बारहठ

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आल्हाजी बारहठ
जन्म हडुवा
पेशा
कार्यकाल 14th century
बच्चे 2 (दूल्हाजी, जेठाजी)
माता-पिता भांणोजी बारहठ
उल्लेखनीय कार्य Veermayan

आल्हाजी बारहठ (जिन्हें आल्हाजी रोहड़िया भी कहा जाता है) 14 वीं शताब्दी के कवि और घोड़ों के व्यापारी थे, जिन्होंने मंडोर के शासक राव चुंडा, जिन्हें मारवाड़ में राठौड़ शासन की नींव डालने का श्रेय दिया जाता है, को उसके बचपन में आश्रय प्रदान करने के लिए जाना जाता है।

परिवार[संपादित करें]

आल्हाजी बारहठ रोहड़िया वंश के एक चारण थे। [1] [2] इनका जन्म जैसलमेर के हडुवा गाँव के एक समृद्ध परिवार में भांणोजी बारहठ के यहाँ हुआ था। आल्हाजी एक कुशल कवि थे और साथ ही घोड़े और मवेशियों का भी व्यापार करते थे। उस समय इनके पास ५०० गायें थी। इनके नौकर-चाकरों के दस घर थे, जो साथ में ही रहते और मवेशी की देख-रेख किया करते थे। युवावस्था में पदार्पण करते ही इन्होंने अपनी जन्म-भूमि हङुवा को त्याग दिया और पोकरण से करीब बीस मील दक्षिण में ‘काळाऊ’ नामक ग्राम में आकर निवास किया।[3]

चुंडा को आश्रय[संपादित करें]

आल्हाजी राजस्थान के जोधपुर में स्थित कलाऊ नामक अपने कस्बे में रहते थे। महेवा के शासक और चुंडा के पिता वीरमदेव राठौड़ 1383 ईस्वी के आसपास जोहियों के खिलाफ युद्ध में मारे गए थे। उस समय चुंडा मात्र एक बच्चा था। चुंडा की माँ, जिन्हें मांगलियानीजी कहा जाता है, चुंडा की सुरक्षा को लेकर आशंकित थी और उसके लिए सुरक्षा की तलाश करना चाहती थी। वह कलाउ के आल्हाजी बारहठ के पास गई और चुंडा को उन्हें सौंप दिया। [4] [5] [6] [7] [8] [9]

कहा जाता है कि आल्हाजी के अधीन चुंडा की सुरक्षा सुनिश्चित करने के बाद, मांगलियानीजी सती हो गई थी। [1] [10] [11]

आल्हाजी ने चुंडा की असली पहचान छुपाते हुए चुंडा को १४ वर्ष तक अपनी शरण में पाला। बड़े होते हुए चुंडा आल्हाजी की गायों को चराया करता था। [2] [1]

रावल मल्लीनाथ से भेंट[संपादित करें]

एक दिन, चुंडा गायों-मवेशियों को चराने के दौरान थक गया और एक पेड़ के नीचे सो गया। जब आल्हाजी वहाँ पहुंचे, तो उन्होंने देखा कि चुंडा के सिर पर एक सांप छाया किए हुए बैठा था, जबकि वह सो रहा था। आल्हाजी ने इस घटना को चुंडा के भाग्य में एक शासक बनने के संकेत के रूप में लिया और उसे प्रशिक्षण देना शुरू किया। [2] [7] [9] [1]

बाद में, उपयुक्त समय आने पर, आल्हाजी ने चुंडा को घोड़े और हथियारों से लैस किया और महेवा की यात्रा कर और उसे रावल मल्लीनाथ के सामने पेश किया, और चुंडा की वास्तविक पहचान उनके(रावल के) भतीजे के रूप में सामने लाये। मल्लीनाथ ने चुंडा को सलोदी का एक थाना प्रदान किया। [2] [5] [6] [7] [9]

चुंडा ने एक योद्धा के रूप में अपना कौशल दिखाया और अपने क्षेत्र का विस्तार करना शुरू कर दिया। इधर मंडोवर के इंदा-प्रतिहारों और तुर्कों के बीच संघर्ष चल रहा था। आल्हाजी ने इंदा रायधवल एवं उसके बंधुओं से कहा कि तुम्हारे पास पर्याप्त सैन्य बल नहीं है। अत: मंडोवर के गढ़ की रक्षा ठीक तरह से नहीं हो सकेगी। ऐसी परिस्थिति में यही श्रेयस्कर होगा कि चूंडा का विवाह रायधवल अपनी पुत्री के साथ कर दे और मंडोवर का किला उनको दहेज में दे, ताकि चूंडा मंडोवर के किले की समुचित रूप से रक्षा कर सके। अतः 1395 में, मंडोर, इंदा राजपूतों से संधि में, राव चुंडा को दहेज के रूप में दिया गया और अंत में वह राठौड़ों की राजधानी बना। [3]

आल्हाजी की सहायता से मंडोवर का राज्य प्राप्त करने के बाद चूंडा का प्रभाव दिन दूना और रात चौगुना बढ़ने लगा।इस प्रकार राव चुंडा को राठौड़ आधिपत्य विरासत में मिला और राठौड़ों को सीमांत महेवा से मंडोर तक ले जाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। [1] [2] [9] [7] [12]

पुनर्मिलन[संपादित करें]

राव चूंडा को मंडोर के सिंहासन पर स्थापित होने के कुछ वर्ष बाद, अल्हाजी ने चुंडा को याद किया और उससे मिलने की इछा हुई। वह चुंडा से मिलने मंडोर गये जहां वे दरबार में रहे लेकिन अपना परिचय देने की जरूरत नहीं समझी। शुरू में जब चुंडा ने उन्हें दरबारियों के बीच आल्हाजी को नहीं पहचाना तब कहा जाता है कि एक दिन अल्हाजी ने यह दोहा कहा था: [13]

डिंगल [14] अनुवाद
चूंडा ना आवै चीत, काचर कालाऊ तणा।

भूप भयौ भैभींत, मंडोवर रै मालियै ॥

हे चूंडा ! क्या तुम्हें कलाऊ गाँव के काचर याद नहीं । अब वैभवशाली होकर मण्डोर के महलों में उन दिनों को क्यों भूल गये हो ?

यह सुनकर चूंडा को आल्हाजी की उपस्तिथी का आभास हुआ और वह उनके अभिवादन के लिए उठ खड़ा हुआ। चूंडा को अपने बाल्यावस्था के सारे दिन ध्यान में आ गये, जो उन्होंने आल्हाजी के घर पर बिताये थे। शीघ्र ही उनका यथोचित सम्मान किया गया। चूंडा ने आल्हाजी को अपना आधा राज्य देना चाहा, किन्तु इन्होंने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। बहुत आग्रह करने पर इन्होंने केवल बारह कोस लम्बी व बारह कोस चौड़ी जमीन अपनी गायों एवं घोड़ों के चारागाह के लिए लेना स्वीकार किया।[3]

विरासत[संपादित करें]

वर्तमान में, उसी जमीन में आज भोंडू, सियांधा और चक-डैर नामक तीन ग्राम बसे हुए हैं और आल्हाजी के वंशज आज तक इनका उपभोग करते आ रहे हैं। आल्हाजी के दो पुत्र हुए-बड़े पुत्र का नाम दूल्हाजी एवं छोटे का जेठाजी था। चूंडा ने इनको कई दूसरे गांव भी जागीर में दिए। दूल्हाजी के एक पुत्री माल्हण देवी हुई, जो शक्ति का अवतार मानी जाती है। इस प्रकार आल्हाजी का महान त्याग, निःस्वार्थ भाव, प्राचीन क्षत्रिय-चारण संबंध-निर्वाह, स्पष्टवादिता और चूंडा का इनके प्रति आभार प्रदर्शन सर्वथा स्तुत्य है।[3]

ग्रन्थकारिता[संपादित करें]

आल्हाजी ने 'वीरमायण' नामक कृति की रचना की थी, जिसकी एक खंडित प्रति जोधपुर के शुभकरण कविया के यहाँ प्राप्त हुई।[15] इस रचना में 90 से 160 तक छंद हैं। यह चूंडा के पिता वीरमदेव पर आधारित है, जो अंततः जोहिया के साथ युद्ध में मारा जाता है।[16] यह राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर द्वारा प्रकाशित और लक्ष्मी कुमारी चुंडावत द्वारा संपादित 'वीरवाण' (1960 ई.) से भिन्न है। उदयराज उज्ज्वल के अनुसार, इस कृति की तीन मूल प्रतियाँ अल्हाजी के वंशजों के पास सुरक्षित है।[3]

संदर्भ[संपादित करें]

  1. Singh, Sabita (2019-05-27). The Politics of Marriage in India: Gender and Alliance in Rajasthan (अंग्रेज़ी में). Oxford University Press. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-19-909828-6. In another case, when Viram, the ruler of Khed died, his wife Mangliyani did not commit sati immediately, but started living in her natal village, hiding her identity. Later, her son Chuda was given to Alha Charan while she decided to committed sati. There are references of the sons being handed to Brahmins and Charans before the queen decided to commit sati...In the episode of Rathor Chunda described by Nainsi, it is a Charan who recognizes him as a Rajput, but also equips him with a horse and weapons. सन्दर्भ त्रुटि: <ref> अमान्य टैग है; ":0" नाम कई बार विभिन्न सामग्रियों में परिभाषित हो चुका है
  2. Kothiyal, Tanuja (2016-03-14). Nomadic Narratives: A History of Mobility and Identity in the Great Indian Desert (अंग्रेज़ी में). Cambridge University Press. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-1-316-67389-8. Chunda herded the cattle of the Charan. One day when he got tired while herding, he fell off to sleep. Alha happened to come that way, and saw the boy sleeping with a serpent shading his head....The Charan equipped him with a horse and weapons and presented him to his uncle Malo, who granted him a distant thana of Salodi. सन्दर्भ त्रुटि: <ref> अमान्य टैग है; ":1" नाम कई बार विभिन्न सामग्रियों में परिभाषित हो चुका है
  3. Jijñāsu, Mohanalāla (1968). Cāraṇa sāhitya kā itihāsa: Rājasthāna ke prācīna evaṃ Madhyakālīna 275 cāraṇa kaviyoṃ, unake kāvya ke vibhinna rūpoṃ tathā pravr̥ttiyoṃ kā Jīvanacaritra sahita aitihāsika evaṃ ālocanātmaka anuśīlana. Ujvala Cāraṇa-Sabhā.
  4. Singh, Dhananajaya (1994). The House of Marwar (अंग्रेज़ी में). Lotus Collection, Roli Books. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-7436-002-1.
  5. Sinh, Raghubir (1984). Rao Udaibhan Champawat ri khyat: Up to Rao Rinmal and genealogies of the Rinmalots. Indian Council of Historical Research. After the death of Viram, the mother of his minor son, Chunda, had to seek refuge with Alha Charan. सन्दर्भ त्रुटि: <ref> अमान्य टैग है; ":2" नाम कई बार विभिन्न सामग्रियों में परिभाषित हो चुका है
  6. Rāva Udaibhāṇa Cāmpāvata rī khyāta. Śrī Naṭanāgara Śodha Saṃsthāna, Sītāmau. 2006. सन्दर्भ त्रुटि: <ref> अमान्य टैग है; ":3" नाम कई बार विभिन्न सामग्रियों में परिभाषित हो चुका है
  7. Ujwal, Kailash Dan S. (1985). Bhagwati Shri Karniji Maharaj: A Biography (अंग्रेज़ी में). [s.n.]]. While keeping the secret to himself for fear of Jagmal, Alha brought up Chunda as a Rajput warrior destined to raise the family’s name. Chunda fulfilled the hopes and expectations of his mother and his benefactor. सन्दर्भ त्रुटि: <ref> अमान्य टैग है; ":4" नाम कई बार विभिन्न सामग्रियों में परिभाषित हो चुका है
  8. Gurbaxani, Gitanjali (2018-09-15). Jodhpur: An Insight to a Gourmet Destination (अंग्रेज़ी में). Notion Press. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-1-64324-930-8.
  9. Chandra, Yashaswini (2021-01-22). The Tale of the Horse: A History of India on Horseback (अंग्रेज़ी में). Pan Macmillan. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-93-89109-92-4. Chunda had in fact had a humble start in life, spending his early boyhood in exile in the home of a Charan in a village, where he made himself useful looking after buffalo calves. सन्दर्भ त्रुटि: <ref> अमान्य टैग है; ":5" नाम कई बार विभिन्न सामग्रियों में परिभाषित हो चुका है
  10. Social Scientist (अंग्रेज़ी में). Indian School of Social Sciences. 2005.
  11. (वीर गडरिया) पाल बघेल धनगर
  12. Hooja, Rima (2006). A History of Rajasthan (अंग्रेज़ी में). Rupa & Company. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-291-0890-6.
  13. Paniker, K. Ayyappa (1997). Medieval Indian Literature: Surveys and selections (अंग्रेज़ी में). Sahitya Akademi. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-260-0365-5.
  14. Shal, kanheya Lal (1947). Rajasthan Ke Etihasik Pravad.
  15. Maru-Bhāratī. Biṛlā Ejyūkeśana Ṭrasṭa. 1983. वीरमायण :चारण आल्हा का यह काव्य उत्कृष्ट कोटि का वीर रस प्रधान खण्ड काव्य है। राव चूडा वीरमदेवोत को आल्हा ने गांव कालाऊ में शरण दी थी। वीरम को मार कर जोइए वंश को ही नष्ट करना चाहते थे तब माता मांगलियाणी चूंडा को लेकर चली गई थी।
  16. Sharma, Brij Sunder (1969). Mahākavi Suryamalla Miśraṇa smr̥ti grantha. Sūryamalla Smāraka Samiti. आल्हा कृत 'वीरमायण' वीर रस का प्रथम खण्ड काव्य है। इसके नायक राव वीरम (मारवाड़) परम वीर हैं जो जोइयों के साथ युद्ध में मारे जाते हैं। रानी माँगलियारणी अपने नवजात शिशु चूडा को लेकर बीस वर्षों तक आल्हा के घर काठाऊ में गुप्त रीति से रहती है, जहां चूंडा को अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा दी जाती है। अन्त में चूडा आल्हा को सहायता से मंडोवर का राज्य प्राप्त कर लेता है । इस कथा को लेकर ग्रन्थ की सृष्टि हुई है ।