अद्वैतवाद
अद्वैतवाद | |
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काल | सातवीं सदी से आरंभ |
उल्लेखनीय काम | ब्रह्मसूत्रभाष्य |
अद्वैतवाद वह दर्शन है जो ईश्वर को न एक मानता है और न ही अनेक। इसके अंतर्गत ईश्वर को "अगम, अगोचर, अचिन्त्य, अलक्षण तथा अनिर्वचनीय"[1] माना जाता है। इसके प्रवर्तक शंकराचार्य हैं। अद्वैतवाद का ब्रह्मसूत्र है- अहं ब्रह्मास्मि। इसके अनुसार संसार में केवल ब्रह्म ही सत्य है तथा जगत मिथ्या है। जीव और ब्रह्म या ईश्वर अलग-अलग नहीं हैं। यह संसार ब्रह्म की माया है। जीव संसार में व्याप्त अज्ञान के कारण ही ब्रह्म का साक्षात्कार नहीं कर पाता है जबकि ब्रह्म जीव के अंदर ही वास करता है। मात्र ब्रह्म की ही सत्ता स्वीकार करने के कारण इस दर्शन को अद्वैतवाद की संज्ञा दी गई।
भूमिका
[संपादित करें]'अद्वैतवाद' को स्थापित करने वालों में गौड़पादाचार्य सर्वापरि हैं। इनके शिष्य गोविन्दाचार्य तथा उनके शिष्य स्वामी शंकराचार्य हुए इन्हीं को अद्वैतवाद का प्रवर्तक माना जाता है। उन्होंने गौड़पादाचार्य के श्लोकों पर भाष्य की रचनी की। भाष्य के ये विचार 'अद्वैतवाद' के नाम से प्रख्यात हुए। स्वामी शंकराचार्य ने जैन मत तथा बौद्ध मत को शास्त्रार्थ में हराकर वैदिक सनातन धर्म की रक्षा की। ऐसे में भारत में नास्तिक मत समाप्त हो गया किंतु 'मायावाद' अर्थात् 'अद्वैतवाद' की स्थापना हो गई। शंकराचार्य के मत का हवाला देते हुए कहा गया कि- "जगत् माया है, जीव मिथ्या है और मोक्ष नैष्कर्म्य है जिसमें जगत्, जीव तथा जीवन तीनों का ब्रह्म में विलय हो जाता है।"[2]
अद्वैतवाद के अनुसार तत्व केवल चैतन्यस्वरूप आत्मा है जिसका साक्षात् अनुभव किया जा सकता है। अद्वैतवाद का वर्णन मुख्य रूप से ऋग्वेद में किया गया है। उपनिषदों में भी इसका उल्लेख मिलता है। तत्वमसि को इस मत का सिद्धांत माना जाता है जिसका अर्थ है- वह तू है।
यह दर्शन अनुभव पर आधारित है जिसके अनुसार हम विभिन्न रूपात्मक जगत् का अनुभव करते हैं। इसके अनुसार हमारा अनुभव हमेशा सत्य नहीं होता। इस सत्य में भ्रम की संभावना रहती है। भ्रम दोष से उत्पन्न होने के कारण ज्ञाता या ज्ञेय किसी में भी रह सकता है। यह दोष वास्तविक ज्ञान में बाधा का कारण है।
उपनिषद् के सार को विभिन्न विद्वानों ने बह्मसूत्र के रूप में लिखा जिनमें से मात्र बादरायण का ब्रह्मसूत्र ही उपलब्ध हुआ है।
शंकराचार्य के गुरु गौडपाद की माण्डूक्यकारिका में अद्वैतवाद का सबसे न्यायसंगत वर्णन मिलता है। गौडपाद बौद्धों के अद्वैतवादी मत से अत्यधिक प्रभावित थे। उनसे पहले ही बौद्धग्रंथों में मायावाद की व्याख्या की जा चुकी थी जिससे लाभ उठाकर गौडपाद ने अद्वैत वेदांत को और अधिक मज़बूत बनाने के लिए उसे तर्काधारित बनाया जिसके संपूर्ण तर्क अकाट्य माने जाते थे। हालाँकि अद्वैतवाद का प्रवर्तन शंकराचार्य ने किया था। उन्होंने अद्वैतवाद का विरोध करने वालों को शास्त्रार्थ में हराया। इस दर्शन के अनुसार यदि तर्क के द्वारा ऐसे तत्व की कल्पना की जाए जो अज्ञेय है तो उस तत्व का इस संसार से किसी प्रकार का कोई संबंध नहीं होना चाहिए। अज्ञेय होते हुए भी उस तत्व को संसार का मूल इसलिए माना गया है क्योंकि वही तो एक निरपेक्ष आधार है जिसके आधार पर सापेक्ष संसार की सृष्टि होती है। उस आधार के बिना संसार का अस्तित्व असंभव है। ज्ञाता और ज्ञेय उस एक तत्व के ही रूप हैं।
संस्कृत में छप्पय दीक्षित ने 'सिद्धान्तलेशसंग्रह' में अद्वैतवाद पर विस्तार से चर्चा की है इसीलिए यह ग्रंथ अद्वैतवेदांत का विश्वकोश कहा जाता है।
भारतीय विचारकों में स्वामी विवेकानंद, श्री अरविंद घोष आदि चिंतक अद्वैतवाद को मानने वाले हैं।
न्यूनतम कारण का नियम
[संपादित करें]अद्वैतवाद की आधार-शिला न्यूनतम कारण का नियम है। इसे और स्पष्ट करते हुए गंगाप्रसाद उपाध्याय लिखते हैं कि- "यदि हमको किसी घटना का कारण मालूम करना हो और उस घटना की व्याख्या एक कारण से हो सकती हो तो हमको उसके स्थान में एक से अधिक कारण नहीं मानने चाहिए। अर्थात् किसी घटना की मीमांसा करने के लिए जहाँ तक हो सके कम से कम कारणों को मानना आवश्यक है।"[3]
जगत् मिथ्या का नियम
[संपादित करें]अद्वैतवाद के अनुसार जगत् मिथ्या है। भ्रान्ति, अविद्या तथा अज्ञान के कारण जीव मिथ्या संसार को सत्य मान लेता है। इस दर्शन के अनुसार वास्तविक रूप में न तो किसी संसार की उत्पत्ति हुई, न कोई प्रलय आई। सत्य केवल ब्रह्मा है इसके अतिरिक्त कुछ सत्य नहीं है सब मिथ्या है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल की विश्व प्रपंच के अनुसार- "अद्वैतवाद ब्रह्मांड में केवल एक परमतत्त्व मानता है जो ईश्वर और प्रकृति दोनों है। वह शरीर और आत्मा ( या द्रव्य और शक्ति ) को परस्पर अभिन्न या अनवच्छेद्य मानता है।"[4]
अद्वैतवाद के अनुसार जीव और ब्रह्मा अलग-अलग हैं इसका कारण माया है। यह माया अविद्या है। माया या अविद्या जिस समय जीव से दूर हो जाती है, उस समय जीव ब्रह्मा का रूप हो जाता है।
यूरोपीय दार्शनिक
[संपादित करें]यूरोप के विभिन्न दार्शनिकों ने अद्वैतवाद का विभिन्न नामों से उल्लेख किया है। जैसे- फिश्ते ने इसे आत्मा कहा, ग्रीन इसे अपरिच्छिन्न चैतन्य कहते थे। हेगल निरपेक्ष प्रत्यय तथा ब्रैडले इसे अपरोक्षानुभव मानते थे।
पाश्चात्य दार्शनिक
[संपादित करें]अद्वैतवाद का आभास पाश्चात्य दर्शन में सुकरात के दर्शन में मिलता है जो कि प्लेटो के दर्शन में और अधिक स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। इसका प्रभाव कांट पर भी देखने को मिलता है।
अद्वैत तथा बौद्ध दर्शन में समानता
[संपादित करें]अद्वैत तथा बौद्ध विचारकों ने एक दूसरे के मत का खंडन किया किंतु एक-दूसरे को प्रभावित भी किया। ये दोनों मत तर्काधारित थे अतः इन दोनों में तर्कशास्त्र की बारीकी से पड़ताल की। इन दोनों के मतानुयायियों ने ज्ञान मार्ग को अपनाया।
हिंदी साहित्य में अद्वैतवाद
[संपादित करें]हिंदी साहित्य में सिद्धों तथा नाथों द्वारा आम बोलचाल की भाषा में अद्वैतवाद का प्रचार-प्रसार किया गया था। सरहपाद, तिल्लोपाद तथा गोरखनाथ अद्वैतवादी ही कहे जाते हैं। सिद्धों तथा नाथों ने भी अद्वैतवाद का अनुसरण किया तथा कबीर, ज्ञाननाथ आदि अनेक संत कवियों की साधना में अद्वैत तत्व वहीं से लिया गया है। बौद्ध जन के देश से बाहर जाने के कारण इस पद्धति का विश्व के अनेक क्षेत्रों जैसे- ईरान, मिस्र, अरब आदि में प्रसार हुआ। अद्वैतवाद के निर्गुण तथा सगुण भक्तिधारा पर पड़ने वाले प्रभाव को रेखांकित करते हुए अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास में लिखते हैं कि- "वेदान्त धर्म के प्रवर्त्तक स्वामी शंकराचार्य थे। उनका वेदान्त वाद अथवा अद्वैतवाद व्यवहार क्षेत्र में आ कर शिवत्व धारण कर लेता है। इसीलिये उनका सम्प्रदाय शैव माना जाता है। भगवान शिव की मूर्ति जहाँ गम्भीर ज्ञानमयी है वहीं विविध विचित्रतामयी भी। इसीलिये उसमें यदि निर्गुणवादियों के लिये विशेष विभूति विद्यमान है तो सगुणोपासक समूह के लिये भी बहुत कुछ देवी ऐश्वर्य्य मौजूद है। यही कारण है कि शैव सम्प्रदाय का वह परम अवलम्ब है।"[5]
हिंदी साहित्य की संत काव्यधारा के अधिकांश संतों पर अद्वैतवाद का प्रभाव पड़ा। कबीरदास, रैदास, गरीबदास, रज्जब, सुंदरदास, मलूकदास, भीखा, जगजीवनदास इत्यादि संत कवि इस मत से प्रभावित थे। आचार्य रामचंद्र शुक्ल कबीर पर अद्वैतवाद के प्रभाव को दर्शाते हुए हिंदी साहित्य का इतिहास में लिखते हैं कि- "अद्वैतवाद के स्थूल रूप का कुछ परिज्ञान उन्हें रामानंदजी के सत्संग से पहले ही था। फल यह हुआ कि कबीर के राम धनुर्धर साकार राम नहीं रह गए; वे ब्रह्म के पर्याय हुए।"[6] इसमें संदेह नहीं कि भारत में आने वाले सूफ़ी संतों पर भी अद्वैतवाद का प्रभाव पड़ा था। हिंदी साहित्य की सगुण भक्ति धारा के प्रसिद्ध लेखक तुलसीदास की कृति पर पड़ने वाले अद्वैतवादी प्रभाव को स्वीकार करते हुए हजारीप्रसाद द्विवेदी लिखते हैं कि- "म. म. पं. गिरिधर शर्माजी ने सप्रमाण सिद्ध किया है कि गोस्वामीजी ने रामायण में अद्वैत मत को ही मान्य समझा है।"[7]
अद्वैतवाद के उद्गम का उल्लेख करते हुए जयशंकर प्रसाद ने काव्य और कला तथा अन्य निबंध में लिखा है कि- "शैवों का अद्वैतवाद और उन का सामरस्य वाला रहस्य सम्प्रदाय, वैष्णवों का माधुर्य भाव और उन के प्रेम का रहस्य तथा कामकला की सौन्दर्य-उपासना आदि का उद्गम वेदों और उपनिषदों के ऋषियों की वे साधना प्रणालियाँ हैं, जिनका उन्होंने समय-समय पर अपने संघों में प्रचार किया था।"[8]
अद्वैतवाद का आधुनिक प्रभाव
[संपादित करें]अद्वैतवाद की विशेषताओं से प्रभावित होकर इस पर आधुनिक चिंतन भी हुआ है जिसके संबंध में स्वामी विवेकानंद ज्ञानयोग में कहते हैं कि- "अद्वैतवाद ही एकमात्र ऐसा धर्म है जो आधुनिक वैज्ञानिकों के सिद्धान्तों के साथ भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही दिशाओं में मिल जाता है, इतना ही नहीं वरन् इन सभी सिद्धान्तों से भी उच्चतर सिद्धान्तों को स्थापित करता है और इसी कारण से यह आधुनिक वैज्ञानिकों को बहुत भाता है।"[9]
हालाँकि विवेकानंद सगुण ईश्वर का समर्थन करते हैं लेकिन वे इसे आध्यात्मिक विकास में प्रथम सोपान मानते हैं। सगुण के बाद लक्ष्य तो अद्वैत ब्रह्म की प्राप्ति ही है। अद्वैतवाद अवतारवाद को नहीं मानता है। इसे समझाते हुए विवेकानंद लिखते हैं कि- "अद्वैतवाद का सिद्धांत है कि यह परमावधि का आदर्श नहीं हो सकता; निराकारता ही आदर्श है। आदर्श परिमित नहीं हो सकता। जो अप्रमेय से लघु है, वह आदर्श नहीं हो सकता। शरीर अप्रमेय हो नहीं सकता; यह असंभव है। परिमित होने ही से तो शरीर होता है। हमें शरीर और मन के बाहर जाना है, परे जाना है। यही अद्वैतवाद का कथन है।"[10]
इन्हें भी देखें
[संपादित करें]हिन्दी विकिस्रोत पर उपलब्ध साहित्य
[संपादित करें]- विश्व प्रपंच
- हिन्दी साहित्य का इतिहास
- काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध
- ज्ञानयोग
- विवेकानंद ग्रंथावली:ज्ञान-योग
- हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास
- ज्ञानेश्वरी
सन्दर्भ
[संपादित करें]- ↑ श्री संगमलाल, पाण्डेय (2000). वर्मा, डॉ. धीरेन्द्र (संपा॰). हिन्दी साहित्य कोश भाग-१ (पुनर्मुद्रित संस्करण). वाराणसी: ज्ञानमण्डल लिमिटेड. पृ॰ 16.
- ↑ रामानंद, तिवारी (1000). श्री शंकराचार्य का आचार दर्शन (प्रथम संस्करण). प्रयाग: हिन्दी साहित्य सम्मेलन. पृ॰ 1.
- ↑ गंगाप्रसाद, उपाध्याय (1928). अद्वैतवाद (प्रथम संस्करण). प्रयाग: कला कार्य्यालय. पृ॰ 8.
- ↑ रामचंद्र, शुक्ल (1920). विश्व प्रपंच (PDF). बनारस: श्री लक्ष्मीनारायण प्रेस. पृ॰ 15.
- ↑ अयोध्या सिंह उपाध्याय, 'हरिऔध' (1934). हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास. भागलपुर: पटना विश्वविद्यालय. पृ॰ 148.
- ↑ रामचंद्र, शुक्ल (1941). हिन्दी साहित्य का इतिहास. काशी: काशी नागरी प्रचारिणी सभा. पृ॰ 76.
- ↑ हजारीप्रसाद, द्विवेदी (1955). कबीर. बम्बई: हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर लिमिटेड. पृ॰ 98.
- ↑ जयशंकर, प्रसाद (1931). काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध. इलाहाबाद: भारती-भण्डार. पृ॰ 34.
- ↑ स्वामी, विवेकानंद (1959). ज्ञानयोग. नागपुर: श्री रामकृष्ण आश्रम. पृ॰ 154-155.
- ↑ स्वामी, विवेकानंद (1923). विवेकानंद ग्रंथावली : ज्ञान-योग. वाराणसी: नागरी प्रचारिणी सभा. पृ॰ 92.