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मायावाद

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मायावाद का शंकर के अद्वेत वेदांत में मायावाद का विशिस्त तथा महतव्पूर्ण स्थान है |
माया को यहाँ तार्किक कुंजी कहा गया है |माया ईश्वर की शक्ति है जिसके द्वारा ईश्वर इस जगत की रचना करता है

आवश्यकता क्यों?-

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ब्रह्म के ऐक्तत्व ततः जगत के नानातत्व के सम्यक रूपक व्याख्या हेतु माया आवश्यक हो जाती है 

ज्ञान कैसे

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- शंकर के अनुसार पारमार्थिक सत् मात्र ब्रह्म है| ब्रह्म से भिन्न अन्य सत्ता नही है| व्यह्वारिक दृस्थी से सान्सारिक जीव तथा पदार्थ है, ऐसी स्तिथि में यह प्रश्न उठता है कि एकमात्र ब्रह्म और जीव्जगत की प्रपंच्मय स्त्तिथि के बीच समन्वय कैसे स्त्तापिथ किया जाए शंकर यहाँ माया का प्रयोग करते है जिसका ज्ञान अर्थापति प्रमाण से होता है

शंकर ने तो माया तथा अविद्या को एक ही अर्थ में प्रयोग किया था किंतु परवर्ती विचारको ने दोनों का अर्थ भिन्न माना है
१ माया भाव रूप है क्योंकि इस से जगत स्रृष्ठ होता है अविद्या अभाव रूप है क्योंकि इस से जीव बन्धन में पड़ता है
२ माया ईश्वर से जबकि अविद्या जीव से संबंधित है
विक्षेप तथा आवरण माया के दो कार्य है
माया ब्रह्म के सवरूप पर आवरण डाल देती है तथा इसके पश्चात् जगत को ब्रह्म पर विक्षेपित कर देती है

माया की निम्न विशेषताएँ मानी जाती हैं

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१ माया अचेतन है ज़ड रूप है
२ माया त्रिगुणात्मक है अर्थात सत्व, रजो, तमो गुणों से युक्त है
३ परन्तु शंकर की माया सांख्य की प्रकृति से निम्न रूपों में भिन्न है
३.१ माया परतंत्र है, प्रकृति स्वतंत्र है, माया का आधार ब्रह्म है जबकि प्रकृति निराधार है
३.२ माया मिथ्या है जब कि प्रकृति सत् है
३.३ माया द्वारा रचित जगत मिथ्या है, जबकि प्रकृति का वास्तविक परिणाम होने से जगत सत्य है
४ माया सगुण ब्रह्म की शक्ति है उस से सम्बन्धित है परन्तु ब्रह्म ख़ुद इस से प्रभावित नही होता है जेसे जादूगर

अपने ही जादू से अछूता रहता है 

५ माया अनादि है किंतु सांत है
६ माया अनिर्वचनीय है वह चतुष्कोटि से परे है [सत्, असत, सद्सत, न सत् न असत ]
७ माया का आश्रय तथा विषय ब्रह्म है
८ माया भाव रूप है वह असत नही है

रामानुज द्वारा आलोचना

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रामानुज द्वारा आलोचना माया के समंध मे रामानुज की स्थिति - रामानुज माया की एक वास्तविक ईश्वरीय शक्ति मानते है जिसका सव्रूप रहस्यमय है यह शक्ति मनुष्य की समझ से परे है इसी कारण यह माया कहालती है क्योंकि यह शक्ति वास्तविक है अत यह जगत भी वास्तविक है
रामानुज शंकर के मायावाद मे सात प्रमुख दोषों को बताते है जिन्हें सप्तानुपति कहते है
आश्रय- अनुप्पत्ति - माया का आश्रय क्या है ?यदि इस को ब्रह्म पे आश्रित मान ले टू ब्रह्म का शुद्ध ज्ञान सव्रूप होना तथा उसका अद्वेत्तत्व खंडित होगा माया का आश्रय जीव नही हो सकता क्योंकि जीव ख़ुद माया का कार्य है अतः माया का आश्रय असिद्ध है इसके उत्तर मे वेदान्ती कहते है की यधपि ब्रह्म ही माया का आश्रय है परन्तु ब्रह्म ही माया से प्रभावित नही होता जेसे जादूगर अपनी माया से ख़ुद प्रभावित नही होता
२ तिरोधाननानुपपत्ती- यदि बर्मा ख़ुद शुद्ध ज्ञान सव्रूप है तो फ़िर माया उसको आच्छादित कैसे कर लेती है यदि माया वास्तव मे
ऐसा कर लेती है तो ब्रह्म को शुद्ध ज्ञान सव्रूप नही मान सकते यदि ब्रह्म ऐसा है तो उसका तिरोधान असंभव है वेदान्ती कहते है जेसे सूर्य को मेघ ढक लेते है वेसे ही माया ब्रह्म को ढक लेती है
३ सव्रूपनुप्पत्ती-


४ अनिर्वचनीय अनुपपत्ति- शंकर माया को अनिर्वचनीय कहते थे, रामानुज के अनुसार ऐसा कहना भी एक प्रकार से व्यक्त्य्व देने के समान है विश्व मे दो ही कोटिया हो सकती है सत्- असत इन दोने से परे अनिर्वच्नीयता को मान लेना तर्कशास्त्र के नियमो का उल्लघन है 

वेदान्ती कहते है माया सत-असत से विलक्षण होने के चलते ही अनिर्वचनीय है, माया सत् नही है क्योंकि ब्रह्मज्ञान से इसका निराकरण हो जाता है पर यह बंध्यापुत्र की भांति असत भी नही क्योंकि इस की प्रतीति होती है
५ प्रमाणानु- पत्ति - रामानुज के अनुसार माया को सिद्ध नही किया जा सकता है प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द, किसी भी प्रमाण से ये सिद्ध नही होती है वेदान्ती कहते है की माया अर्थापति प्रमाण से सिद्ध होती है
६ निवर्तकानुपपत्ति - रामानुज के अनुसार माया को कोई निवर्तक[नाश करने वाला नही है ]अद्वेत वेदान्ती ब्रह्म जो निर्गुण, निराकार, है के ज्ञान को माया का निवर्तक मानते है, रामानुज के अनुसार निर्गुण निराकार का ज्ञान हो ही नही सकता है अद्वेत वेदांत के अनुसार ये ज्ञान ही माया का निवर्तक है इस ब्रह्म का ज्ञान ज्ञाता-ज्ञेय के भेद पर आधारित नही है अपितु ये तो अपरोक्ष -अनुभूति गम्य है आत्म्साक्षतार से प्राप्त होता है ब्रह्म ज्ञान सव्रूप है किंतु ज्ञान का विषय नही है
७ निव्र्त्यानुप्पत्ति - रामानुज के अनुसार यदि माया भाव रूप है तो फ़िर इसका नाश नही हो सकता है उसे दूर नही किया जा सकता है, वेदांत के अनुसार माया भाव रूप है यह कहने से वो सत् नही हो जाती है माया सत् से भिन्न है भाव रूप कहने का अर्थ है कि यह असत नही है