राज्य
राज्य उस संगठित इकाई को कहते हैं जो एक शासन (सरकार) के अधीन हो। राज्य संप्रभुतासम्पन्न हो सकते हैं। इसके अलावा किसी शासकीय इकाई या उसके किसी प्रभाग को भी 'राज्य' कहते हैं, जैसे भारत के प्रदेशों को भी 'राज्य' कहते हैं।
राज्य आधुनिक विश्व की अनिवार्य सच्चाई है। दुनिया के अधिकांश लोग किसी-न-किसी राज्य के नागरिक हैं। जो लोग किसी राज्य के नागरिक नहीं हैं, उनके लिए वर्तमान विश्व व्यवस्था में अपना अस्तित्व बचाए रखना काफ़ी कठिन है। वास्तव में, 'राज्य' शब्द का उपयोग तीन अलग-अलग तरीके से किया जा सकता है। पहला, इसे एक ऐतिहासिक सत्ता माना जा सकता है; दूसरा इसे एक दार्शनिक विचार अर्थात् मानवीय समाज के स्थाई रूप के तौर पर देखा जा सकता है; और तीसरा, इसे एक आधुनिक परिघटना के रूप में देखा जा सकता है। यह आवश्यक नहीं है कि इन सभी अर्थों का एक-दूसरे से टकराव ही हो। असल में, इनके बीच का अंतर सावधानी से समझने की आवश्यकता है।
वैचारिक स्तर पर राज्य को मार्क्सवाद, नारीवाद और अराजकतावाद आदि से चुनौती मिली है। लेकिन अभी राज्य से परे किसी अन्य मज़बूत इकाई की खोज नहीं हो पाई है। राज्य अभी भी प्रासंगिक है और दिनों-दिन मज़बूत होता जा रहा है।
राज्य का अर्थ
[संपादित करें]यूरोपीय चिंतन में राज्य के चार मूल तत्व बताये जाते हैं -
निश्चित भूभाग , जनसँख्या , सरकार और संप्रभुता।
मैक्स वेबर ने राज्य को ऐसा समुदाय माना है जो निर्दिष्ट भूभाग में भौतिक बल के विधिसम्मत प्रयोग के एकाधिकार का दावा करता है।
गार्नर ने राजनीति विज्ञान का आरंभ और अंत राज्य को ही बताया है वहीं आरजे गेटल ने राजनीति विज्ञान को राज्य का विज्ञान बताया है।
भारतीय राजनीतिक चिन्तन में 'राज्य' के सात अंग गिनाये जाते हैं-
राजा या स्वामी, मंत्री या अमात्य, सुहृद, देश, कोष, दुर्ग और सेना। (राज्य की भारतीय अवधारणा देखें।)
कौटिल्य ने राज्य के सात अंग बताये हैं और ये उनका "सप्ताङ्ग सिद्धान्त " कहलाता है - राजा , आमात्य या मंत्री , पुर या दुर्ग , कोष , दण्ड, मित्र । राज्य का क्षेत्रफल बड़ा होता है। अर्थात बड़ा भूभाग से घिरा क्षेत्र।
भारतीय संविधान में राज्य की परिभाषा (अनुच्छेद 12)
भारतीय संविधान के भाग 3 में, जब तक कि संदर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो, “राज्य” के अंतर्गत भारत की सरकार और संसद तथा राज्यों में से प्रत्येक राज्य की सरकार और विधान- मंडल तथा भारत के राज्यक्षेत्र के भीतर या भारत सरकार के नियंत्रण के अधीन सभी स्थानीय और अन्य प्राधिकारी हैं ।
आधुनिक राष्ट्र राज्य का उदय एवं विकास
[संपादित करें]आधुनिक युग में राष्ट्र और राज्य प्राया एक से हो गए हैं राज्य की सीमाओं को ही राष्ट्रीय सीमाएं कहा जाता है। राज्य के हित को ही राष्ट्रीय हित मान लिया जाता है और विभिन्न राज्यों के परस्पर संबंधों को अंतरराष्ट्रीय संबंध कहा जाता है। राष्ट्र राज्य में वहां के सभी निवासी आ जाते हैं चाहे वह किसी भी जाति, धर्म, भाषा या संस्कृति आदि से संबंध रखते हो बशर्ते कि वह अपने सामान्य इतिहास, सामान्य हित और सामान्य जीवन के महत्व के प्रति सजग हो और एक केंद्रीय सत्ता के प्रति निष्ठा रखते हो वस्तुतः आधुनिक राष्ट्र-राज्य का विकास मानव सभ्यता की बहुत लंबी इतिहास का परिणाम है इनकी निम्नलिखित अवस्थाएं स्वीकार की जाती है।
कबीला राज्य- यह राज्य का सबसे पुराना रूप है जिसमें छोटे छोटे काबिले अपने अपने सरदार की शासन में रहते थे यह कबीले स्वजन समूह पर आधारित है समूहों पर आधारित थे कुछ कबीले खानाबदोश थे जिन्हें राज्य मानना ठीक नहीं होगा
प्राच्य साम्राज्य- यह वही स्थिति है जब नीलगंगा पीली नदी आदि की उर्वर घाटियों में प्रारंभिक सभ्यता का विकास हुआ और शहर बन गए इन जगहों पर भिन्न-भिन्न सुजन समूहों के लोग आकर मिलजुल कर रहने लगे प्राचीन मिस्र बेबीलोन सीरिया भारत और चीन के साम्राज्य इसी श्रेणी में आते हैं।
यूनानी नगर- राज्य जब ईजियन और भूमध्य सागर की ओर सभ्यता का विस्तार हुआ तब यूरोप प्रायद्वीप में भी राज्य का उदय हुआ। इस तरह यूनानी नगर राज्य अस्तित्व में आए क्योंकि वहां पर्वतों, घने जंगलों और समुद्र ने भूमि को अनेक घाटियों और द्वीपो में बांट दिया था। जिन की रक्षा करना सरल था परंतु समुद्री मार्ग से आपस में जुड़े हुए थे यहां छोड़ चुके नगर राज्य बस गए जिससे वहां निरंकुश निरंकुश शासक आदत में नहीं आए बल्कि यहां के नागरिक मिलजुलकर शासन चलाते थे।
रोमन साम्राज्य- जब आंतरिक कला और बाय आक्रमणों के कारण यूनानी नगर राज्य नष्ट हो गए। तब यूरोप में रोम सारी सभ्यता का केंद्र बना और रोमन साम्राज्य विकसित हुआ। विभिन्न जातियों धर्म और प्रथाओं को मानने वाले लोगों पर शासन करने के लिए विस्तृत कानूनी प्रणाली विकसित की गई। साम्राज्य की शक्ति पर धर्म की छाप लगा दी गई। उनकी अदम्य शक्ति के नीचे व्यक्तियों की स्वतंत्रता दबकर रह गई। अंततः यह शक्तिशाली साम्राज्य अपने ही भार को ना संभाल पाने के कारण छिन्न भिन्न हो गया।
सामन्ती राज्य- रोमन साम्राज्य के पतन के बाद केंद्रीय सत्ता लुप्त हो गई पांचवी शताब्दी ईस्वी से मध्यकाल का आरंभ हुआ जिसमें सारी शक्ति बड़े बड़े जमीदारों जागीरदारों और सामान सरदारों के हाथों में आ गई वैसे छोटे-छोटे राज्यों में राजा जिसकी सर्वोच्च मानी जाती थी परंतु शक्ति सामंत सरदारों के हाथ में ही रही। जनसाधारण के कृषि दासों के रूप में खेतों पर घोर परिश्रम करते थे। और उनका जीवन जमीदारों के अधीन था। सामंत सरदारों के अलावा धार्मिक तंत्र के उच्चाधिकारियों विशेषता पूर्व के हाथों में भी विस्तृत शक्तियां आ गई थी। चौदहवीं शताब्दी तक आते-आते अपनी शक्तियों का दुरुपयोग करने लगे और तब राजतंत्र की शक्ति को पुनर्जीवित किया गया। उन्हें दिनों वाणिज्य व्यापार और उद्योग के विकास के कारण भी जमीदारों की शक्ति को चुनौती दी जाने लगी।
आधुनिक राष्ट्र राज्य- 15वीं और 16वीं शताब्दी से यूरोप में राष्ट्रवाद का उदय हुआ तब जमीदारों और धर्म अधिकारियों की शक्ति क्षीण हो चुकी थी और नए आर्थिक संबंधों के अलावा लोग राष्ट्रीय भाषा और संस्कृति की एकता तथा देश की प्राकृतिक सीमाओं इत्यादि के विचार से अस्थाई समूह के रूप में जुड़ गए थे। इस तरह पहले फ्रांस स्पेन इंग्लैंड स्विट्जरलैंड नीदरलैंड रूस इटली और जर्मनी में राष्ट्र राज्यों का विकास हुआ। प्रारंभिक राज्यों में राजतंत्र का बोलबाला था जिसमें सारी सत्ता किसी राजा के हाथों में रहती थी परंतु 18वीं शताब्दी में यूरोप में संवैधानिक शासन का उदय हुआ सर्वप्रथम इंग्लैंड में गौरव क्रांति के अंतर्गत शांतिपूर्ण तरीके से संसद के हाथों में अधिकार प्राप्त हो गए इसके लिए फ़्रांस मे फ्रांसीसी क्रांति के अंतर्गत हिंसा का सहारा लेना पड़ा 18वीं और 19वीं शताब्दी के दौरान उपनिवेशवाद का सहारा लिया गया इस दौर में ब्रिटेन फ्रांस बेल्जियम और लैंड पुर्तगाल स्पेन इत्यादि ने एशिया अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के क्षेत्रों पर अपनी उपनिवेशवाद का जाल फैला कर उनका भरपूर दोहन किया दूसरे विश्व युद्ध के पश्चात उपनिवेशवाद का पतन होना शुरू हो गया और विश्व के क्षितिज पर नए नए राष्ट्र राज्य उदित हुए।
मैकियावेली की राज्य की अवधारणा
[संपादित करें]कई राजनीतिक दार्शनिकों की मान्यता है कि सबसे पहले निकोलो मैकियावेली के लेखन में आधुनिक अर्थों में राज्य के प्रयोग को देखा जा सकता है। 1532 में प्रकाशित अपनी विख्यात रचना द प्रिंस में उन्होंने 'स्टेटो' (या राज्य) शब्द का प्रयोग भू-क्षेत्रीय सम्प्रभु सरकार का वर्णन करने के लिए किया। मैकियावेली की एक अन्य रचना 'द डिस्कोर्सिज़' की विषय-वस्तु अलग है, लेकिन बुनियादी वैचारिक आधार उसका भी द प्रिंस जैसा ही है। मैकियावेली के अनुसार राजशाही में केवल प्रिंस ही स्वाधीन है, पर गणराज्य में हर व्यक्ति प्रिंस है। उसे अपनी सुरक्षा, स्वतंत्रता और सम्पत्ति बचाने के लिए वैसे ही कौशल अपनाने का अधिकार है। मैकियावेली के अनुसार गणराज्य में प्रिंस जैसी ख़ूबियों को सामूहिक रूप से विकसित करने की ज़रूरत है, और ये ख़ूबियाँ मित्रता और परोपकार जैसे पारम्परिक सद्गुणों के आधार पर नहीं विकसित हो सकतीं। गणराज्य में हर व्यक्ति नाम और नामा हासिल करने के मकसद से दूसरे के साथ खुले मंच पर सहयोग करेगा। मैकियावेली मानते थे कि राजशाही के मुकाबले गणराज्य अधिक दक्षता से काम कर सकेगा, उसमें प्रतिरक्षा की अधिक क्षमता होगी और वह युद्ध के द्वारा अपनी सीमाओं का अधिक कुशलता से विस्तार कर सकेगा। मैकियावेली के अनुसार यह सब करने की प्रक्रिया में ही शक्तिशाली, अदम्य और आत्म-निर्भर व्यक्तियों की रचना हो सकेगी।
ऐसे गणराज्यों को निरंकुशता में बदलने से कैसे रोका जा सकेगा? मैकियावेली इसके लिए दो शर्तें पेश करते हैं : हर गणराज्य को टिके रहने के लिए ऐसा प्रबंध करना होगा जिसमें हर व्यक्ति दूसरे के साथ सृजनात्मक ढंग से होड़ कर सके, किसी एक व्यक्ति को इतनी शक्ति अर्जित करने से रोकना होगा कि वह दूसरों पर प्रभुत्व जमा सके। उच्च- कुलीन अभिजनों या व्यापारिक प्रभुवर्ग और आम जनता के बीच प्रभुत्व को लेकर संघर्ष होता रहेगा जिनके गर्भ से गणराज्य को नयी ऊर्जा मिलेगी और अच्छे कानूनों का जन्म होगा, बशर्ते बेहतर राजनीतिक संस्थाओं के ज़रिये उन संघर्षों को काबू में रखा जा सके। कानून ऐसे होने चाहिए जिनकी जानकारी लोगों के सामने साफ़ कर सके कि गणराज्य में वे क्या-क्या बेखटके कर सकते हैं, और क्या करने पर उन्हें दण्ड भोगना होगा। आर्थिक समृद्धि की इजाज़त होनी चाहिए, पर निजी स्तर पर अत्यधिक सम्पत्ति अर्जित करने पर कानूनन रोक होनी चाहिए। नागरिक गुणों के विकास के लिए राज्य का एक धर्म होना चाहिए, पर मैकियावेली ईसाई धर्म को यह हैसियत देने के लिए तैयार नहीं थे। फ्लोरेंस की प्रतिरक्षा करने के अपने अनुभव के आधार पर मैकियावेली ने निष्कर्ष निकाला था, कि गणराज्य को आक्रमणों से बचाने के लिए नागरिकों की सेना होना चाहिए।
क्वेंटिन स्किनर मानते हैं कि मैकियावेली ने जब राज्य की चर्चा की तो वे एक प्रिंस के राज्य की बात कर रहे थे। वह उस अर्थ में निर्वैयक्तिक नहीं था, जिस अर्थ में आज इसका प्रयोग किया जाता है। युरोपीय आधुनिकता के शुरुआती दौर में चर्च और राजा दोनों के पास ही राजनीतिक शक्ति होती थी और दोनों के पास अपनी-अपनी सेनाएँ भी होती थीं। इससे चर्च और राजा के बीच युद्ध की भी सम्भावना बनी रहती थी। 1648 में तीस वर्षीय युद्ध के बाद वेस्टफ़ेलिया की संधि हुई। इसने चर्च की शक्ति कम की और राजा को उसके अपने क्षेत्र में प्राधिकार दिया। इसने अंतराष्ट्रीय स्तर पर सम्प्रभु राज्यों के अस्तित्व को स्वीकार किया।
हॉब्स की राज्य की अवधारणा
[संपादित करें]दार्शनिक स्तर पर समाज के लिए राज्य की अनिवार्यता स्थापित करने का श्रेय सत्रहवीं सदी के विचारक थॉमस हॉब्स और उनकी रचना लेवायथन को जाता है। इस पुस्तक के पहले संस्करण के आवरण पर एक दैत्याकार मुकुटधारी व्यक्ति का चित्र उकेरा गया था जिसकी आकृति छोटी-छोटी मानवीय उँगलियों से बनी थी। इस दैत्याकार व्यक्ति के एक हाथ में तलवार थी, और दूसरे में राजदण्ड। दरअसल, हॉब्स इस भौतिकवादी और आनंदवादी विचार के प्रतिपादक थे कि मनुष्य का उद्देश्य अधिकतम आनंद और कम से कम पीड़ा भोगना है। अगर दूसरे के आनंद में मनुष्य को सुख मिल सकता है, तो हॉब्स के अनुसार वह परोपकार के लिए भी सक्षम है। लेकिन, अगर संसाधन कम हुए या किसी किस्म का भय हुआ, तो मनुष्य आत्मकेंद्रित और तात्कालिक आग्रहों के अधीन हो कर परोपकार को मुल्तवी कर देगा। ऐसी स्थिति में उसे अपने ऊपर किसी सरकार का नियंत्रण चाहिए, वरना वह अपने सुख को अधिकतम और दुःख को न्यूनतम करने का अबाध प्रयास करते हुए सभ्यता और संस्कृति से हीन प्राकृतिक अवस्था में पहुँच जायेगा। जो कुछ उसके पास है, उसे खोने के डर से मनुष्य शक्ति के एक मुकाम से दूसरे मुकाम तक पहुँचने की कोशिशों में लगा रहेगा जिसका अंत केवल उसकी मृत्यु से ही हो सकेगा। अगर मज़बूत राज्य ने उसकी इन कोशिशों को संयमित न किया तो मानव जाति प्राकृतिक अवस्था में पहुँच जायेगी जहाँ हर व्यक्ति दूसरे के दुश्मन के रूप में परस्पर विनाशकारी गतिविधियों में लगा होगा। मनुष्य को नियंत्रित करने वाला यही परम शक्तिशाली और सर्वव्यापी राज्य हॉब्स के शब्दों में लेवायथन है। हॉब्स को कोई शक नहीं था कि अगर यह दैत्याकार हस्ती लेवायथन मनुष्य को शासित नहीं करेगी तो वह शांति और व्यवस्था हासिल करने के तर्कसंगत निर्णय पर नहीं पहुँच सकता। उस सूरत में मनुष्य एक-दूसरे को हानि न पहुँचाने के परस्पर अनुबंध पर भी नहीं पहुँच पायेगा। तर्कों की यह शृंखला हॉब्स को दिखाती है कि मनुष्य एक सामाजिक समझौते के तहत एक समाज रचता है जिसमें हर कोई अपना हित साधना चाहता है और इसीलिए दूसरों से करार करता है कि वह किसी दूसरे के हित पर चोट नहीं करेगा बशर्ते बदले में उसके हित पर चोट न की जाए। हॉब्स का विचार था कि इस समझौते का उल्लंघन न हो, इसलिए एक सम्प्रभु सत्ता की ज़रूरत पड़ेगी ताकि सार्वजनिक शांति और सुरक्षा की गारंटी की जा सके। यह सम्प्रभु केवल ताकत के डर से ही अपनी सत्ता लागू नहीं करेगा। हॉब्स ने लेवायथन के दूसरे अध्याय ‘ऑफ़ द कॉमनवेल्थ’ में कई तरह के सम्भव संवैधानिक रूपों की चर्चा की है। लेकिन, सिद्धांततः हॉब्स अविभाजित सत्ता के पक्ष में नज़र आते हैं। इसके लिए उन्हें राजशाहीनुमा सत्ता की वकालत करने में भी कोई हर्ज नहीं लगता।
हॉब्स की निगाह में यह सम्प्रभु निरंकुश नहीं होगा क्योंकि स्वयं को कायम रखने लायक परिस्थितियाँ सुनिश्चित करने के लिए उसे अपनी प्रजा को एक हद तक (आंतरिक खतरे और बाह्य अशांति से उसे सुरक्षित रखने के उद्देश्यों के मुताबिक) आज़ादी भी देनी होगी। भौतिक जिन्सों और समृद्धि का वितरण इस तरह सुनिश्चित करना होगा जिससे उस टकराव के अंदेशे हमेशा ठण्डे होते रहें जो परस्पर लेन-देन की प्रक्रिया से अक्सर पैदा होता रहता है। हॉब्स का विचार था कि धर्म निजी मामला है, पर उसके सार्वजनिक पहलुओं को पूरी तरह राज्य के मुखिया के फ़ैसले पर छोड़ देना चाहिए। राज्य का मुखिया ही चर्च का मुखिया होना चाहिए। बाइबिल जिन मामलों में स्पष्ट निर्देश नहीं देती, वहाँ राज्य के मुखिया का निर्देश अंतिम समझा जाना चाहिए।
अपने इन्हीं विचारों के कारण हॉब्स ने कैथॅलिक चर्च को अंधकार के साम्राज्य की संज्ञा दी, क्योंकि वह अपने अनुयायियों से राज्य के प्रति वफ़ादारी से भी परे जाने वाली वफ़ादारियों की माँग करता है। उन्होंने शुद्धतावादियों के विरुद्ध आवाज़ उठायी जो अंतःकरण के आधार पर राज्य के ख़िलाफ़ खड़े होने की अपील करते थे। हॉब्स का मतलब साफ़ था कि अगर शांति-व्यवस्था के साथ रहना है तो राजकीय प्राधिकार के उल्लंघन से बाज़ आना होगा। ज़रूरी नहीं कि राज्य की सम्प्रभुता का प्रतीक कोई व्यक्ति ही हो। वह किसी सभा और किसी संसद की सम्प्रभुता भी हो सकती है। इस लिहाज़ से हॉब्स के सिद्धांत में संसदीय सम्प्रभुता के लिए भी गुंजाइश है।
हॉब्स द्वारा पेश किये गये राज्य संबंधी सिद्धांत ने बाद के युरोपीय चिंतकों को प्रभावित करना जारी रखा। इस प्रक्रिया में एक सामान्य समझ उभरी जिसके मुताबिक राज्य राजनीतिक संस्थाओं का एक ऐसा समुच्चय माना गया जो एक निश्चित सीमाबद्ध भू-क्षेत्र में मुश्तरका हितों के नाम पर अपना प्रभुत्व स्थापित करता है। यह परिभाषा मैक्स वेबर की उस व्याख्या से बहुत प्रभावित है जो उन्होंने अपनी रचना ‘दि प्रोफ़ेशन ऐंड वोकेशन ऑफ़ पॉलिटिक्स’ में पेश की थी। इसमें वेबर ने आधुनिक राज्य के तीन पहलू बताये थे : उसकी भू-क्षेत्रीयता, हिंसा करने का उसका अधिकार और वैधता। वेबर का तर्क था कि अगर किसी सुनिश्चित भू-भाग में रहने वाले समाज में कोई संस्था हिंसा का डर दिखा कर लोगों से किन्हीं नियम-कानूनों का पालन नहीं करायेगी तो अराजकता फैल जाएगी। वेबर ने इस प्रश्न का उत्तर देने की कोशिश भी की है कि आख़िर लोग राज्य की बात क्यों मानते हैं? क्या केवल हिंसा के दम पर? या आज्ञापालन का कोई तर्क भी होता है? वेबर का जवाब यह है कि हिंसा का डर दिख़ाने के साथ-साथ राज्य अपने प्रभुत्व को वैध साबित करने की कवायद भी करता है ताकि आज्ञापालन का अहिंसक औचित्य प्रमाणित किया जा सके।
मिशेल फूको की राज्य की अवधारण
[संपादित करें]देखें, मिशेल फूको की राज्य की अवधारणा
राज्य की मार्क्सवादी अवधारणा
[संपादित करें]राज्य की प्राचीन भारतीय अवधारणा
[संपादित करें]सन्दर्भ
[संपादित करें]- 1. क्यू.आर.डी. स्किनर (1978), मैकियावेली, ऑक्सफ़र्ड युनिवर्सिटी प्रेस, ऑक्सफ़र्ड.
- 2. एस. पीटर डोनाल्डसन (1989), मैकियावेली ऐंड मिस्ट्री ऑफ़ स्टेट, केम्ब्रिज युनिवर्सिटी प्रेस, केम्ब्रिज.
- 3. क्वेंटिन स्किनर (1996), रीज़न ऐंड रेटरिक इन द फ़िलॉसफ़ी ऑफ़ हॉब्स, केम्ब्रिज युनिवर्सिटी प्रेस, केम्ब्रिज.
- 4. एस. टर्नर 92000), द केम्ब्रिज कंपेनियन टु वेबर, केम्ब्रिज युनिवर्सिटी प्रेस, केम्ब्रिज.
- 5. जे. बरनौर और डी. रैसमुसेन (सम्पा.) (1998), द फ़ाइनल फ़ूको, एमआइटी प्रेस, केम्ब्रिज.
- 6. के. डायसन (1980), द स्टेट ट्रेडिशन इन वेस्टर्न युरोप, मार्टिन राबर्टसन, ऑक्सफ़र्ड.
- 7. डेविड हेल्ड (1998), पॉलिटिकल थियरी ऐंड मॉडर्न स्टेट, वर्ल्ड व्यू-माया पब्लिशर्स, नयी दिल्ली.
- 8. स्वाहा दासा (2011), ‘राज्य’, संकलित, राजीव भार्गव और .)
इन्हें भी देखें
[संपादित करें]- राज्य की भारतीय अवधारणा
- मिशेल फूको की राज्य की अवधारणा
- राज्य की मार्क्सवादी अवधारणा
- संप्रभु राज्य
- सामाजिक संविदा का सिद्धान्त
- राष्ट्र
- भारत के राज्य
बाहरी कड़ियाँ
[संपादित करें]- राज्य के आवश्यक तत्व
- राज्य का अर्थ और परिभाषा क्या है
- राज्य ओर समाज में अंतर
- राज्य के जरूरी तत्व
- प्राचीन भारत में राजनीतिक विचार एवं संस्थाएँ (गूगल पुस्तक ; लेखक - रामशरण शर्मा)
- भारत के सभी राज्यों के जिले