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वन्दे मातरम्

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(वन्देमातरम् से अनुप्रेषित)
वन्दे मातरम् के रचयिता बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय
वन्दे मातरम् , पण्डित विश्व मोहन भट्ट जी की मोहन वीणा पर
अवनीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा बनाया गया भारतमाता का चित्र

वन्दे मातरम् ( बाँग्ला: বন্দে মাতরম) [1] बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय द्वारा संस्कृत और बाँग्ला मिश्रित भाषा में रचित एक गीत है जिसका प्रकाशन सन् १८८२ में उनके उपन्यास आनन्द मठ में अन्तर्निहित गीत के रूप में हुआ था।[2] इस गीत से सदियों से सुप्त भारत देश जग उठा और आधी शताब्दी तक यह भारत के स्वतंत्रता संग्राम का प्रेरक बना रहा।

इस उपन्यास में यह गीत भवानन्द नाम के संन्यासी द्वारा गाया गया है। इसकी धुन यदुनाथ भट्टाचार्य ने बनायी थी। इस गीत को गाने में ६५ सेकेंड (१ मिनट और ५ सेकेंड) का समय लगता है। सन् २००३ में, बीबीसी वर्ल्ड सर्विस द्वारा आयोजित एक अन्तरराष्ट्रीय सर्वेक्षण में, जिसमें उस समय तक के सबसे मशहूर दस गीतों का चयन करने के लिये दुनिया भर से लगभग ७,००० गीतों को चुना गया था और बी०बी०सी० के अनुसार १५५ देशों/द्वीप के लोगों ने इसमें मतदान किया था उसमें वन्दे मातरम् शीर्ष के १० गीतों में दूसरे स्थान पर था।[3]

चित्र:Constitution Page167 Rammanohar.jpg
भारतीय संविधान के पृष्ठ १६७ पर व्यौहार राममनोहर सिंहा द्वारा चित्रित वन्दे–मातरम् (सुजलाम् सुफलाम् मलयजशीतलाम् शस्यश्यामलाम् मातरम्)

यदि बाँग्ला भाषा को ध्यान में रखा जाय तो इसका शीर्षक "बन्दे मातरम्" होना चाहिये "वन्दे मातरम्" नहीं। चूँकि हिन्दीसंस्कृत भाषा में 'वन्दे' शब्द ही सही है, लेकिन यह गीत मूलरूप में बाँग्ला लिपि में लिखा गया था और चूँकि बाँग्ला लिपि में अक्षर है ही नहीं अत: बन्दे मातरम् शीर्षक से ही बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय ने इसे लिखा था। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए शीर्षक 'बन्दे मातरम्' होना चाहिये था। परन्तु संस्कृत में 'बन्दे मातरम्' का कोई शब्दार्थ नहीं है तथा "वन्दे मातरम्" उच्चारण करने से "माता की वन्दना करता हूँ" ऐसा अर्थ निकलता है, अतः देवनागरी लिपि में इसे वन्दे मातरम् ही लिखना व पढ़ना समीचीन होगा।

बांग्ला लिपि देवनागरी लिपि

বন্দে মাতরম্৷
সুজলাং সুফলাং
মলয়জশীতলাম্
শস্যশ্যামলাং
মাতরম্!

শুভ্র-জ্যোত্স্না-পুলকিত-যামিনীম্
ফুল্লকুসুমিত-দ্রুমদলশোভিনীম্,
সুহাসিনীং সুমধুরভাষিণীম্
সুখদাং বরদাং মাতরম্৷৷

সপ্তকোটীকন্ঠ-কল-কল-নিনাদকরালে,     
দ্বিসপ্তকোটীভুজৈধৃতখরকরবালে,
অবলা কেন মা এত বলে!
বহুবলধারিণীং
নমামি তরিণীং
রিপুদলবারিণীং
মাতরম্৷

তুমি বিদ্যা তুমি ধর্ম্ম
তুমি হৃদি তুমি মর্ম্ম
ত্বং হি প্রাণাঃ শরীরে৷
বাহুতে তুমি মা শক্তি,
হৃদয়ে তুমি মা ভক্তি,
তোমারই প্রতিমা গড়ি মন্দিরে মন্দিরে৷

ত্বং হি দুর্গা দশপ্রহরণধারিণী
কমলা কমল-দলবিহারিণী
বাণী বিদ্যাদায়িণী
নমামি ত্বাং
নমামি কমলাম্
অমলাং অতুলাম্,
সুজলাং সুফলাং
মাতরম্

বন্দে মাতরম্
শ্যামলাং সরলাং
সুস্মিতাং ভূষিতাম্
ধরণীং ভরণীম্
মাতরম্৷

वन्दे मातरम्
सुजलां सुफलाम्
मलयजशीतलाम्
शस्यश्यामलाम्
मातरम्।

शुभ्रज्योत्स्नापुलकितयामिनीम्
फुल्लकुसुमितद्रुमदलशोभिनीम्
सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम्
सुखदां वरदां मातरम्॥१॥

सप्तकोटि-कण्ठ-कल-कल-निनाद-कराले
द्विसप्तकोटि-भुजैर्धृत-खरकरवाले,
अबला केन मा एत बले।
बहुबलधारिणीं
नमामि तारिणीं
रिपुदलवारिणीं
मातरम् ॥२॥

तुमि विद्या, तुमि धर्म
तुमि हृदि, तुमि मर्म
त्वम् हि प्राणा: शरीरे
बाहुते तुमि मा शक्ति,
हृदये तुमि मा भक्ति,
तोमारई प्रतिमा गडी मन्दिरे-मन्दिरे ॥३॥

त्वम् हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी
कमला कमलदलविहारिणी
वाणी विद्यादायिनी,
नमामि त्वाम्
नमामि कमलाम्
अमलां अतुलाम्
सुजलां सुफलाम्
मातरम् ॥४॥

वन्दे मातरम्
श्यामलाम् सरलाम्
सुस्मिताम् भूषिताम्
धरणीं भरणीं
मातरम् ॥५॥

हिन्दी अनुवाद

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आनन्दमठ के हिन्दी, मराठी, तमिल, तेलुगु, कन्नड आदि अनेक भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रेजी-अनुवाद भी प्रकाशित हुए। डॉ॰ नरेशचन्द्र सेनगुप्त ने सन् १९०६ में Abbey of Bliss के नाम से इसका अंग्रेजी-अनुवाद प्रकाशित किया। अरविन्द घोष ने 'आनन्दमठ' में वर्णित गीत 'वन्दे मातरम्' का अंग्रेजी गद्य और पद्य में अनुवाद किया। महर्षि अरविन्द द्वारा किए गये अंग्रेजी गद्य-अनुवाद का हिन्दी-अनुवाद इस प्रकार है:

मैं आपके सामने नतमस्तक होता हूँ। ओ माता!
पानी से सींची, फलों से भरी,
दक्षिण की वायु के साथ शान्त,
कटाई की फसलों के साथ गहरी,
माता!

उसकी रातें चाँदनी की गरिमा में प्रफुल्लित हो रही हैं,
उसकी जमीन खिलते फूलों वाले वृक्षों से बहुत सुन्दर ढकी हुई है,
हँसी की मिठास, वाणी की मिठास,
माता! वरदान देने वाली, आनन्द देने वाली।

रचना की पृष्ठभूमि

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सन् १८७०-८० के दशक में ब्रिटिश शासकों ने सरकारी समारोहों में ‘गॉड! सेव द क्वीन’ गीत गाया जाना अनिवार्य कर दिया था। अंग्रेजों के इस आदेश से बंकिमचन्द्र चटर्जी को, जो उन दिनों एक सरकारी अधिकारी (डिप्टी कलेक्टर) थे, बहुत ठेस पहुँची और उन्होंने सम्भवत: १८७६ में इसके विकल्प के तौर पर संस्कृत और बाँग्ला के मिश्रण से एक नये गीत की रचना की और उसका शीर्षक दिया - ‘वन्दे मातरम्’। शुरुआत में इसके केवल दो ही पद रचे गये थे जो संस्कृत में थे। इन दोनों पदों में केवल मातृभूमि की वन्दना थी। उन्होंने १८८२ में जब आनन्द मठ नामक बाँग्ला उपन्यास लिखा तब मातृभूमि के प्रेम से ओतप्रोत इस गीत को भी उसमें शामिल कर लिया। यह उपन्यास अंग्रेजी शासन, जमींदारों के शोषण व प्राकृतिक प्रकोप (अकाल) में मर रही जनता को जागृत करने हेतु अचानक उठ खड़े हुए संन्यासी विद्रोह पर आधारित था। इस तथ्यात्मक इतिहास का उल्लेख बंकिम बाबू ने 'आनन्द मठ' के तीसरे संस्करण में स्वयं ही कर दिया था। और मजे की बात यह है कि सारे तथ्य भी उन्होंने अंग्रेजी विद्वानों-ग्लेग व हण्टर[4] की पुस्तकों से दिये थे। उपन्यास में यह गीत भवानन्द नाम का एक संन्यासी विद्रोही गाता है। गीत का मुखड़ा विशुद्ध संस्कृत में इस प्रकार है: "वन्दे मातरम् ! सुजलां सुफलां मलयज शीतलाम्, शस्य श्यामलाम् मातरम्।" मुखड़े के बाद वाला पद भी संस्कृत में ही है: "शुभ्र ज्योत्स्नां पुलकित यमिनीम्, फुल्ल कुसुमित द्रुमदल शोभिनीम् ; सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम्, सुखदां वरदां मातरम्।" किन्तु उपन्यास में इस गीत के आगे जो पद लिखे गये थे वे उपन्यास की मूल भाषा अर्थात् बाँग्ला में ही थे। बाद वाले इन सभी पदों में मातृभूमि की दुर्गा के रूप में स्तुति की गई है। यह गीत रविवार, कार्तिक सुदी नवमी, शके १७९७ (७ नवम्बर १८७५) को पूरा हुआ।कहा जाता है कि यह गीत उन्होंने सियालदह से नैहाटी आते वक्त ट्रेन में ही लिखी थी।

भारतीय स्वाधीनता संग्राम में भूमिका

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सन् १९०७ में भीखाजी कामा द्वारा फहराया गया ध्वज
१९०९ में प्रकाशित 'विजया' नामक तमिल पत्रिका का मुखपृष्ठ
चित्र:Kranti Geetanjali 2793.JPG
पण्डित राम प्रसाद 'बिस्मिल' कृत क्रान्ति गीतांजलि[5] में वन्दे मातरम् का मूल पाठ मातृ-वन्दना

१८८६ में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के द्वितीय वर्ष में ही कोलकाता अधिवेशन के मंच से कविवर हेमचन्द्र द्वारा वन्दे मातरम के कुछ अंश मंच से गाये गए थे। १८९६ में कांग्रेस के १२वें अधिवेशन में रवीन्द्र नाथ ठाकुर ने इसे गाया था। लोकमान्य बालगंगाधर तिलक को वन्दे मातरम् में इतनी श्रद्धा थी की शिवाजी की समाधि के तोरण पर उन्होंने इसे उत्कीर्ण करवाया था। सन् १९०१ में कलकत्ता में हुए एक अन्य अधिवेशन में श्री चरणदास ने यह गीत पुनः गाया। १९०१ के बाद से कांग्रेस के प्रत्येक अधिवेशन में वन्दे मातरम् गया जाने लगा। सन् १९०५ के बनारस अधिवेशन में इस गीत को सरला देवी चौधरानी ने स्वर दिया। ६ अगस्त १९०५ को बंग भंग के विरोध में टाउन हॉल की सभा में करीब तीस हज़ार भारतीयों ने इस गीत को एक साथ गाया। यहाँ तक की बंग भंग के बाद 'वन्दे मातरम संप्रदाय' की स्थापना भी हो गई थी।

ब्रिटिश सरकार इसकी लोकप्रियता से भयाक्रान्त हो उठी और उसने इस पर प्रतिबन्ध लगाने पर विचार करना शुरू कर दिया। इतना ही नहीं, इस गीत के विरुद्ध अंग्रेज सरकार दुष्प्रचार करने लगी और तरह-तरह से भ्रम फैलाने लगी। पिअरसन ने तो यहाँ तक लिख दिया की मातृभूमि की कल्पना ही हिन्दू विचारधारा के प्रतिकूल हैं और बंकिम महोदय ने इसे यूरोपियन संस्कृति से प्राप्त किया है। जबकि सच्चाई यह है कि भारत के लोग अनादि काल से धरती को माता कहते आये हैं (माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः / भूमि मेरी माता हैं और मैं उसका पुत्र हूँ। – अथर्ववेद १२-१-१५)। ईसाई मिशनरियों ने तो यहाँ तक कह डाला की वन्दे मातरम् राजनैतिक डकैतों का गीत है। १४ अप्रैल १९०६ के दिन बरिशाल में कांग्रेस के जुलुस में वन्दे मातरम का नारा लगाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। शांतिपूर्वक निकल रहे जुलुस पर पुलिस ने निर्दयतापूर्वक लाठीचार्ज किया।

कांग्रेस-अधिवेशनों के अलावा आजादी के आन्दोलन के दौरान इस गीत के प्रयोग के काफी उदाहरण मौजूद हैं। लाला लाजपत राय ने लाहौर से जिस 'जर्नल' का प्रकाशन शुरू किया था उसका नाम वन्दे मातरम् रखा। अंग्रेजों की गोली का शिकार बनकर दम तोड़नेवाली आजादी की दीवानी मातंगिनी हाजरा की जिह्वा पर आखिरी शब्द "वन्दे मातरम्" ही थे। सन् १९०७ में मैडम भीखाजी कामा ने जब जर्मनी के स्टुटगार्ट में तिरंगा फहराया तो उसके मध्य में "वन्दे मातरम्" ही लिखा हुआ था। आर्य प्रिन्टिंग प्रेस, लाहौर तथा भारतीय प्रेस, देहरादून से सन् १९२९ में प्रकाशित काकोरी के शहीद पं० राम प्रसाद 'बिस्मिल' की प्रतिबन्धित पुस्तक "क्रान्ति गीतांजलि" में पहला गीत "मातृ-वन्दना" वन्दे मातरम् ही था जिसमें उन्होंने केवल इस गीत के दो ही पद दिये थे और उसके बाद इस गीत की प्रशस्ति में वन्दे मातरम् शीर्षक से एक स्वरचित उर्दू गजल दी थी जो उस कालखण्ड के असंख्य अनाम हुतात्माओं की आवाज को अभिव्यक्ति देती है। ब्रिटिश काल में प्रतिबन्धित यह पुस्तक अब सुसम्पादित होकर पुस्तकालयों में उपलब्ध है।

राष्ट्रगीत के रूप में स्वीकृति

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स्वाधीनता संग्राम में इस गीत की निर्णायक भागीदारी के बावजूद जब राष्ट्रगान के चयन की बात आयी तो वन्दे मातरम् के स्थान पर रवीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा लिखे व गाये गये गीत जन गण मन को वरीयता दी गयी। इसकी वजह यही थी कि कुछ मुसलमानों को "वन्दे मातरम्" गाने पर आपत्ति थी, क्योंकि इस गीत में देवी दुर्गा को राष्ट्र के रूप में देखा गया है। इसके अलावा उनका यह भी मानना था कि यह गीत जिस आनन्द मठ उपन्यास से लिया गया है वह मुसलमानों के खिलाफ लिखा गया है। इन आपत्तियों के मद्देनजर सन् १९३७ में कांग्रेस ने इस विवाद पर गहरा चिन्तन किया। जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में गठित समिति जिसमें मौलाना अबुल कलाम आजाद भी शामिल थे, ने पाया कि इस गीत के शुरूआती दो पद तो मातृभूमि की प्रशंसा में कहे गये हैं, लेकिन बाद के पदों में हिन्दू देवी-देवताओं का जिक्र होने लगता है; इसलिये यह निर्णय लिया गया कि इस गीत के शुरुआती दो पदों को ही राष्ट्र-गीत के रूप में प्रयुक्त किया जायेगा। इस तरह गुरुदेव रवीन्द्र नाथ ठाकुर के जन-गण-मन अधिनायक जय हे को यथावत राष्ट्रगान ही रहने दिया गया और मोहम्मद इकबाल के कौमी तराने सारे जहाँ से अच्छा के साथ बंकिमचन्द्र चटर्जी द्वारा रचित प्रारम्भिक दो पदों का गीत वन्दे मातरम् राष्ट्रगीत स्वीकृत हुआ।

स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद ने संविधान सभा में २४ जनवरी १९५० में 'वन्दे मातरम्' को राष्ट्रगीत के रूप में अपनाने सम्बन्धी वक्तव्य पढ़ा जिसे स्वीकार कर लिया गया।

डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद का संविधान सभा को दिया गया वक्तव्य इस प्रकार है)[6] :

शब्दों व संगीत की वह रचना जिसे जन गण मन से सम्बोधित किया जाता है, भारत का राष्ट्रगान है; बदलाव के ऐसे विषय, अवसर आने पर सरकार अधिकृत करे और वन्दे मातरम् गान, जिसने कि भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में ऐतिहासिक भूमिका निभायी है; को जन गण मन के समकक्ष सम्मान व पद मिले। (हर्षध्वनि)। मैं आशा करता हूँ कि यह सदस्यों को सन्तुष्ट करेगा। (भारतीय संविधान परिषद, द्वादश खण्ड, २४-१-१९५०)

आनन्द मठ उपन्यास को लेकर भी कुछ विवाद हैं, कुछ लोग इसे मुस्लिम विरोधी मानते हैं। उनका कहना है कि इसमें मुसलमानों को विदेशी और देशद्रोही बताया गया है।[7] वन्दे मातरम् गाने पर भी विवाद किया जा रहा है। लोगों का कहना है कि-

  • इस्लाम किसी व्यक्ति या वस्तु की पूजा करने को मना करता है और इस गीत में भारत की माँ के रूप में वन्दना की गयी है;
  • यह ऐसे उपन्यास से लिया गया है जो कि मुस्लिम विरोधी है

क्या किसी को कोई गीत गाने के लिये मजबूर किया जा सकता है अथवा नहीं? यह प्रश्न सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष बिजोय एम्मानुएल वर्सेस केरल राज्य के एक वाद में उठाया गया। इस वाद में कुछ विद्यार्थियों को स्कूल से इसलिये निकाल दिया गया था क्योंकि उन्होने राष्ट्र-गान जन गण मन को गाने से मना कर दिया था। यह विद्यार्थी स्कूल में राष्ट्रगान के समय इसके सम्मान में खड़े होते थे तथा इसका सम्मान करते थे पर गीत को गाते नहीं थे। गाने के लिये उन्होंने मना कर दिया था। सर्वोच्च न्यायालय ने उनकी याचिका स्वीकार कर ली और स्कूल को उन्हें वापस लेने को कहा। सर्वोच्च न्यायालय का कहना था कि यदि कोई व्यक्ति राष्ट्रगान का सम्मान तो करता है पर उसे गाता नहीं है तो इसका मतलब यह नहीं कि वह इसका अपमान कर रहा है। अत: इसे न गाने के लिये उस व्यक्ति को दण्डित या प्रताड़ित नहीं किया जा सकता।

चित्रावली

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  • सन १९२३ में वन्दे मातरम् का सचित्र प्रकाशन हुआ जो अत्यन्त दुर्लभ है।

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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सन्दर्भ

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  1. "National Symbols of India". मूल से 23 मार्च 2008 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 29 अप्रैल 2008. पाठ "publisher" की उपेक्षा की गयी (मदद)
  2. "Vande Mataram". मूल से 29 अगस्त 2006 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 8 अप्रैल 2009.
  3. The Worlds Top Ten Archived 2006-08-21 at the वेबैक मशीन — BBC World Service
  4. बंकिम समग्र हिन्दी प्रचारक संस्थान वाराणसी पृष्ठ ९९१
  5. क्रान्ति गीतांजलि पृष्ठ 11
  6. "My India My People" (अंग्रेज़ी में). तेलुगूवनडॉट कॉम. मूल (एचटीएम) से 27 सितंबर 2007 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 17 मई 2007. |access-date= में तिथि प्राचल का मान जाँचें (मदद)
  7. "संग्रहीत प्रति". मूल से 4 जुलाई 2009 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 4 जनवरी 2007.
  • निहालचन्द्र वर्मा द्वारा सम्पादित बंकिम समग्र 1989 हिन्दी प्रचारक संस्थान वाराणसी