भारत के न्यायालयों में लंबित मामले

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भारत में अदालती मामलों (कोर्ट केस) का लंबन सभी स्तरों के न्यायालयों द्वारा पीड़ित व्यक्ति या संगठन को न्याय प्रदान करने में देरी का होना है। भारत में न्यायपालिका तीन स्तरों पर काम करती है - सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय, और जिला न्यायालय।[1] अदालती मामलों को दो प्रकारों में वर्गीकृत किया गया है - सिविल और क्रिमिनल। 2022 में पूरे भारत में लंबित रहने वाली सभी कोर्ट केस की संख्या बढ़कर 5 करोड़ हो गई, जिसमें जिला और उच्च न्यायालयों में 30 से भी अधिक वर्षों से लंबित 169,000 मामले शामिल हैं।[2][3][4] दिसंबर 2022 तक 5 करोड़ मामलों में से 4.3 करोड़ यानी 85% से अधिक मामले सिर्फ जिला न्यायालयों में लंबित हैं।[2] सरकार स्वयं सबसे बड़ी वादी है, जहां 50 प्रतिशत लंबित मामले सिर्फ राज्यों द्वारा प्रायोजित हैं।[5][6]

भारत में दुनिया के सबसे अधिक अदालती मामले लंबित हैं।[7] कई न्यायाधीशों और सरकारी अधिकारियों ने कहा है कि भारतीय न्यायपालिका के समक्ष लंबित मामलों की चुनौती सबसे बड़ी है।[8] 2018 के नीति आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार, हमारी अदालतों में मामलों को तत्कालीन दर पर निपटाने में 324 साल से अधिक समय लगेगा।[9] उस समय 2018 में 2.9 करोड़ मामले कोर्ट में लंबित थे। अदालतों में देरी होने से पीड़ित और आरोपी दोनों को न्याय दिलाने में देरी होती है। अप्रैल 2022 में बिहार राज्य की एक अदालत ने 28 साल जेल में बिताने के बाद, सबूतों के अभाव में, हत्या के एक आरोपी को बरी कर दिया।[10] उसे 28 साल की उम्र में गिरफ्तार किया गया था, 58 साल की उम्र में रिहा किया गया।

लंबित मामलों के कारण भारत के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) को 1.5% -2% तक का घाटा होता है।[11]

लंबित रहने के कारण[संपादित करें]

जजों और गैर-न्यायिक कर्मचारियों की कम संख्या[संपादित करें]

2022 में भारत में जजों की स्वीकृत संख्या प्रति दस लाख आबादी पर 21.03 की थी।[12] जजों की कुल स्वीकृत संख्या सर्वोच्च न्यायालय में 34, उच्च न्यायालयों में 1108, और जिला अदालतों में 24,631 थी।[13] भारत के विधि आयोग और न्यायमूर्ति वी एस मलीमथ की समिति ने जजों की संख्या प्रति दस लाख आबादी पर 50 तक बढ़ाने की सिफारिश की थी।[14]

संसद द्वारा एक कानून पारित करके भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या बढ़ाई जा सकती है।[15][16] एक उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या को उच्च न्यायालय द्वारा सिफारिश करके और संबंधित राज्य सरकार, उसके राज्यपाल, भारत के मुख्य न्यायाधीश और केंद्र सरकार द्वारा अनुमोदित किए जाने के बाद बढ़ाया जा सकता है।[17][18]

जजों के रिक्त पद[संपादित करें]

जजों की स्वीकृत संख्या निर्धारित होने के बावजूद, भारत की अदालतों ने जजों की रिक्ति के कारण काफी समय से पूरी क्षमता में काम नहीं किया है। 2022 में भारत में जजों की असल संख्या प्रति दस लाख आबादी पर 14.4 की थी।[14] यह संख्या 2016 में 13.2 की थी और तब से इसमें बहुत मामूली बदलाव हुआ है।[19] इसकी तुलना में, जजों की संख्या यूरोप में प्रति दस लाख आबादी पर 210 है, और अमेरिका में 150 हैं।[14] गैर-न्यायिक कर्मचारियों के पद भी रिक्त हैं, कुछ राज्यों में 2018-19 में 25% तक रिक्तियां थी।[20]

न्यायालयों में रिक्तियां समय-समय पर सेवानिवृत्ति, इस्तीफे, निधन, या न्यायाधीशों की पदोन्नति के कारण उत्पन्न होती रहती हैं।[21] न्यायाधीशों की नियुक्ति एक लंबी प्रक्रिया है। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए उच्चतम न्यायालय के कॉलेजियम द्वारा सिफारिश की जाती है, जिसमें भारत के मुख्य न्यायाधीश और सर्वोच्च न्यायालय के चार शेष वरिष्ठतम न्यायाधीश शामिल होते हैं।[22][15] राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किए जाने से पहले नामों को केंद्र सरकार द्वारा अनुमोदित किया जाता है।[22]

उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए उच्च न्यायालय के कॉलेजियम द्वारा सिफारिश की जाती है जिसमें उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और उच्च न्यायालय के दो शेष वरिष्ठतम न्यायाधीश शामिल होते हैं।[23][24] राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किए जाने से पहले नामों को राज्य सरकार, राज्यपाल, भारत के मुख्य न्यायाधीश और केंद्र सरकार द्वारा अनुमोदित किया जाता है।[23]

केंद्र सरकार और राज्य सरकार न्यायाधीशों की नियुक्ति में भारत के मुख्य न्यायाधीश, उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और उनके कॉलेजियम के सुझावों का पालन करने के लिए बाध्य होते हैं।[23][15] हालांकि, समय से इस नियम का शायद ही कभी पालन किया जाता है और केंद्र सरकार नियुक्ति में अक्सर देरी करती है या नियुक्ति के लिए नाम वापस कर देती है। नियम के अनुसार, अगर कॉलेजियम नामों को दोहराता है तो केंद्र सरकार को 3-4 सप्ताह में नियुक्तियों को मंजूरी देनी होती है।[25][26]

उच्च न्यायपालिका में रिक्ति का एक प्रमुख कारण समन्वय और सहयोग की कमी है।[27] कुछ मामलों में केंद्र सरकार के पास अनुमोदन के लिए लंबित नामों के कारण न्यायाधीशों की नियुक्ति में 4 साल तक की देरी हुई है।[28]

किसी राज्य में जिला या निचली अदालत के न्यायाधीशों की नियुक्ति संबंधित उच्च न्यायालय, राज्यपाल और राज्य लोक सेवा आयोग द्वारा की जाती है।[13] जिला न्यायाधीशों और सिविल न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए परीक्षा आयोजित की जाती है। सिविल जजों की नियुक्ति के लिए राज्य लोक सेवा आयोग द्वारा परीक्षा का आयोजन केवल 10 राज्यों में किया जाता है; जबकि राज्य क्षेत्राधिकार में न्यायाधीश की नियुक्ति के लिए अन्य सभी परीक्षाएं स्वयं उच्च न्यायालय द्वारा आयोजित की जाती हैं। परीक्षा और नियुक्ति प्रक्रिया कुशल नहीं है। 2018 में, सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि निचली अदालतों में रिक्त पदों की संख्या और चल रही भर्ती में बेमेल था।[13] 2022 में, बिहार लोक सेवा आयोग को परीक्षा पूरी करने में ही 30 महीने लग गए।[29] केंद्र सरकार ने भर्ती प्रक्रिया को केंद्रीकृत करके निचली न्यायपालिका में रिक्तियों से निपटने के लिए एआईजेएस (अखिल भारतीय न्यायिक सेवा) की स्थापना का प्रस्ताव दिया है।[30]

निचली न्यायपालिका प्रतिभाशाली न्यायाधीशों को आकर्षित करने और बनाए रखने, और कैरियर की प्रगति में कमी से ग्रस्त है। कई न्यायाधीश निजी प्रैक्टिस में जाने के लिए या निजी कानूनी कंपनी में शामिल होने के लिए न्यायपालिका छोड़ रहे हैं, क्योंकि वह बहुत अधिक वेतन प्रदान करता है।[31] निचले न्यायपालिका के न्यायाधीशों को दिए जाने वाले कम वेतन के लिए कई राज्यों की आलोचना की गई है। न्यायिक वेतन आयोग की सिफारिशें और वेतन बढ़ाने के सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों को राज्यों द्वारा लागू नहीं किया गया है।[32] दिल्ली न्यायपालिका परीक्षा 2019 में, 66 प्रतिशत सीटें नहीं भरी जा सकीं क्योंकि उम्मीदवार कट ऑफ अंक भी प्राप्त करने में असमर्थ थे।[31] जम्मू और कश्मीर न्यायपालिका परीक्षा 2019 में, एक भी उम्मीदवार ने लगातार चौथी बार जिला न्यायाधीश की परीक्षा उत्तीर्ण नहीं की।[13] तमिलनाडु न्यायपालिका परीक्षा 2019 में, जिला न्यायाधीश परीक्षा के लिए उपस्थित होने वाले लगभग 3,500 वकीलों में से कोई भी पास नहीं हुआ।

फन्डिंग की कमी[संपादित करें]

सुप्रीम कोर्ट को छोड़कर, जो खर्चों के लिए केंद्र सरकार पर निर्भर है; हर राज्य के उच्च न्यायालय और जिला न्यायालयों के खर्चों को संबंधित राज्य सरकार वहन करती है। 2018 तक, न्यायपालिका पर सभी खर्च का 92% हिस्सा राज्यों द्वारा वहन किया गया था।[33] इसमें जजों, गैर-न्यायिक कर्मचारियों का वेतन और सभी संचालन के किए लागत शामिल हैं। 2019 में भारत ने अपने सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का 0.08% न्यायपालिका पर खर्च किया।[34] दिल्ली को छोड़कर (जिसका 1.9% है) सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने अपने वार्षिक बजट का 1% से भी कम न्यायपालिका पर आवंटित किया था।[34] न्यायपालिका की दक्षता सुनिश्चित करने के लिए न्यायपालिका पर राज्य के खर्च के लिए कोई दिशानिर्देश नहीं है।[34]

इसकी तुलना में संयुक्त राष्ट्र अमेरिका अपने वार्षिक बजट का 2% न्यायपालिका पर खर्च करता है।[35]

बुनियादी संरचना की कमी[संपादित करें]

जिला न्यायालय या निचली अदालतें बुनियादी संरचना की कमी से ग्रस्त हैं। 2022 में न्यायिक अधिकारियों के लिए केवल 20,143 कोर्ट हॉल और 17,800 आवासीय इकाइयाँ उपलब्ध थीं, जबकि निचली अदालत में 24,631 जजों की संख्या स्वीकृत है।[36] निचली अदालत के केवल 40% भवनों में शौचालय प्रयोग करने योग्य हैं जिनमें से कुछ में तो नियमित सफाई का कोई प्रावधान भी नहीं है। निचली अदालतें डिजिटल ढांचे, वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग रूम और जेलों और अधिकारियों से वीडियो कनेकटिविटी की कमी से भी पीड़ित हैं।[37] न्यायपालिका के लिए बुनियादी सुविधाओं का विकास राज्य सरकारों के जिम्मे है।[38] 2021 में मुख्य न्यायाधीश एन वी रमना ने बुनियादी ढांचे के विकास सहित न्यायपालिका के प्रशासनिक कार्य करने के लिए NJIAI (भारतीय राष्ट्रीय न्यायिक अवसंरचना प्राधिकरण) की स्थापना का प्रस्ताव रखा था।[36] इसकी तुलना में, अन्य देशों में भी न्यायपालिका के भीतर समान निकाय हैं| उदाहरण के लिए, अमेरिका में संयुक्त राष्ट्र न्यायालयों का प्रशासनिक कार्यालय (AOUSC) है ।[39]

कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग[संपादित करें]

कोर्ट केस सीआरपीसी और सीपीसी में वर्णित नियमों के अनुसार आगे बढ़ते हैं। सीआरपीसी और सीपीसी के कानून पुराने होने के कारण इनकी आलोचना की जाती है। कोर्ट की कार्यवाही में देरी करने के लिए कोर्ट को बार-बार स्थगित किया जाता है।[40] वकील असंबंधित मौखिक तर्कों के साथ बहस करते हैं और समय बर्बाद करने और कार्यवाही में देरी करने के लिए लंबी लिखित दलीलें प्रस्तुत करते हैं।[41]

इसके विपरीत, अक्टूबर 2022 में एक मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने दलीलों के लिए समय सीमा निर्धारित की और उसे दोहराने का मौका नहीं दिया, नतीजा हुआ केवल 8 दिनों में सुनवाई समाप्त कर दी और फैसला सुना दिया।[41]

सीआरपीसी का एक नियम आपराधिक मामलों को आगे बढ़ने की अनुमति नहीं देता है यदि कोई आरोपी या गवाह मौजूद नहीं है |[42] नवंबर 2022 में एनजेडीजी के अनुसार केवल इस नियम के कारण 60% से अधिक आपराधिक मामले कोर्ट में लंबित है।[2]

अधिकारियों के भ्रष्टाचार और उदासीनता कानूनी प्रक्रिया के दुरुपयोग को बढ़ावा देने और सहायता करने में मदद करती है।[43]

राज्यवार आंकड़े[संपादित करें]

कोर्टहॉल की कमी जजों की कुल स्वीकृत संख्या के प्रतिशत के रूप में की जाती है।[20] नेगेटिव प्रतिशत का अर्थ है कि कोर्टहॉल अधिक मात्रा में हैं। केस क्लीयरेंस दर (CCR) एक वर्ष में कुल निपटाए गए मामलों को उसी वर्ष दर्ज किए गए कुल नए मामलों के प्रतिशत के रूप में मापा जाता हैं।[20] 100 से कम CCR मतलब लंबित मामले की संख्या बढ़ जाएगी, 100 के बराबर CCR यानी लंबित मामले की संख्या वही रहेगी, 100 से ज्यादा CCR यानी लंबित मामलों की संख्या कम हो जाएगी। NA: उपलब्ध नहीं है। (स्रोत: भारत न्याय रिपोर्ट, 2020)[20].

राज्य / केंद्र शासित प्रदेश प्रति व्यक्ति बजट

न्यायपालिका पर (रु.) (2017-18)[20]

एक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश पर आबादी (दस लाख में) (2018-19)[20] एक निचली अदालत के न्यायाधीश पर आबादी (लाख में) (2018-19)[20] कोर्टहॉल की कमी (%) (2018-19)[20] केस क्लीयरेंस दर

उच्च न्यायालय (2018-19)[20]

केस क्लीयरेंस दर

निचली अदालत (2018-19)[20]

अण्डमान और निकोबार NA 2.60 1.03 NA 93 87
आन्ध्र प्रदेश 121 4.75 0.96 - 4.9 38 95
अरुणाचल प्रदेश 119 2.15 0.64 21.3 91 114
असम 80 2.15 0.99 13.7 91 95
बिहार 67 4.14 1.0 19.9 90 70
चण्डीगढ़ NA 1.15 0.39 - 3.3 87 95
छत्तीसगढ़ 82 1.89 0.74 - 3.2 94 101
दादरा और नगर हवेली NA 1.79 1.85 7.7 85 119
दमन और दीव NA 1.79 1.41 - 33.3 85 85
दिल्ली 544 0.55 0.37 32.3 89 92
गोवा 444 1.79 0.33 7.0 85 91
गुजरात 130 2.45 0.60 - 0.4 82 112
हरियाणा 230 1.15 0.59 15.6 87 87
हिमाचल प्रदेश 269 0.91 0.49 1.4 85 92
जम्मू और कश्मीर 145 1.42 0.59 33.4 74 102
झारखण्ड 100 2.03 0.82 11 105 102
कर्नाटक 126 2.14 0.60 15.8 82 95
केरल 228 0.98 0.75 4.9 89 99
लक्षद्वीप NA 0.98 0.25 0 89 105
मध्य प्रदेश 96 2.41 0.60 22.8 82 99
महाराष्ट्र 135 1.79 0.54 1.4 85 92
मणिपुर 180 0.95 0.78 30.9 148 113
मेघालय 140 1.43 0.83 45.4 93 110
मिज़ोरम 275 2.15 0.26 32.5 91 95
नागालैण्ड 223 2.15 0.80 10.4 91 120
ओडिशा 96 3.01 0.60 26.2 113 65
पुडुचेरी 126 1.26 1.28 - 11.5 108 97
पंजाब 203 1.15 0.55 15.2 87 97
राजस्थान 109 2.84 0.70 9.3 76 96
सिक्किम 496 0.24 0.35 - 8.7 78 111
तमिल नाडु 135 1.26 0.84 1.9 108 97
तेलंगाना 140 2.86 1.08 - 8.5 61 92
त्रिपुरा 304 1.33 0.49 32.3 98 170
उत्तर प्रदेश 81 2.26 1.13 28.8 91 86
उत्तराखण्ड 158 1.35 0.48 22.1 85 100
पश्चिम बंगाल 58 2.60 1.03 NA 93 87

References[संपादित करें]

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