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श्रीलंका की संस्कृति

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फसल पकने पर किया जाने वाला श्रीलंका का पारम्परिक नृत्य

ऐसा विश्वास किया जाता है कि राजकुमार विजय और उसके 700 अनुयायी ई. पू. 543 में श्रीलंका में जहाज से उतरे थे। ये लोग "सिंहल" कहलाते थे, क्योंकि पहले पहल "सिंहल" की उपाधि धारण करने वाले राजा सिंहबाहु से इनका निकट संबंध था। (सिंह को मारने के कारण यह राजा "सिंहल" कहलाया)। विजय ही श्रीलंका का पहला राजा था और उसने जिस राज्य की स्थापना की वह करीब 2358 वर्ष तक कायम रहा। बीच में एकाध बार चोल या पांड्य के राजा ने इस पर अधिकार कर लिया किंतु देर-सबेर सिंहलियों ने उन्हें देश से निकाल बाहर किया।

केंडी के पास चाय बागान

सिंहलियों को धान की खेती और सिंचाई, दोनों का ज्ञान था। उनका मुख्य भोजन चावल था, जिसका उत्पादन ही वहाँ के आर्थिक तथा सामाजिक ढाँचे का निश्चयकारी सिद्धान्त था। इसके सिवा कुछ अन्य अनाज तथा दालों की भी खेती की जाती थी। इन अनाजों से बना भोजन उनका मुख्य आहार था। राजाओं तथा धनाढ्यों का भोजन, उनकी आर्थिक स्थिति के अनुसार, अधिक मूल्य का और उत्तम किस्म का होता था। समय बीतने पर, विशेषकर यूरोपीयों के आने के बाद, भोजन के संबंध में भारी परिवर्तन हो गया। अलसी, सरसों तथा गरी इत्यादि से तेल निकाला जाने लगा तथा ईख, रुई, हल्दी, अदरक, काली मिर्च, मसाले तथा फलों के वृक्ष भी बड़ी संख्या में उगाए जाने लगे। खेती के साथ-साथ पशुपालन भी किया जाने लगा और पाँच दौग्ध पदार्थों का नियमित प्रयोग किया जाने लगा। तालाब बनाने में सिंहली दक्ष थे और उनके बनाए कितने ही तालाब आज भी विद्यमान हैं। वे नहरें भी बनाते थे और उन्होंने एक बड़े भूभाग पर सिंचाई की व्यवस्था कर रखी थी।

अपने पूर्वजों के दाय के रूप में सिंहली लोग अनेक भारतीय रीति-रिवाजों और संस्थाओं की स्मृति अपने साथ लेते आए होंगे और उनके सिवा समाज संबंधी भारतीय विचारधारा तथा वर्गों की ऊँच-नीच भावना भी उनके साथ चली आई होगी। कलिंग, मगध, बंगाल आदि के आर्यों से संपर्क रहने के कारण उन्हीं के समानांतर सिंहली संस्कृति के भी विकास का मार्ग प्रशस्त हो गया। इस संस्कृति का मूलाधार जातिभेद था जो समय बीतने पर अत्यन्त जटिल हो गया था। बौद्ध भिक्षुओं में जाति संबंधी नियमों तथा बंधनों का प्रचलन नहीं रह गया था। जातिभेद के आधार पर बौद्ध संघ का विभाजन अपेक्षाकृत हाल की घटना है। पिता ही परिवार का अधिपति और स्वामी होता था और माता के प्रति सर्वाधिकार सम्मान प्रदर्शित किया जाता था। महावंश में राजा अग्गबोधि अष्टम (801-812 ई.) की अनन्य मातृभक्ति का उल्लेख है। प्राचीन सिंहलियों में आज की ही तरह एक स्त्री-पुरुष विवाह की प्रथा थी। हाँ, राजाओं के अवश्य अनेक रानियाँ तथा रखेलियाँ होती थीं किंतु उनमें से केवल दो को ही राजमहिषी का पद प्राप्त होता था। नामकरण, अन्नप्राशन, कर्णवेध आदि संस्कार उस समय भी प्रचलित थे जैसे आज हैं। सिंहलियों में प्राय: बौद्ध भिक्षुओं तथा ऊँचे वर्ग के लोगों के मृत शरीरों को जलाने की प्रथा थी किन्तु अन्य मृतकों के शव जमीन में गाड़ दिए जाते थे।

१८८५ में एसला पेरहर उत्सव (सॆंकडगल पॆरहॅर मंगल्‍यय)

विशिष्ट समारोहों के समय कुछ नरेश कीमती पोशाक के अतिरिक्त 64 अलंकार धारण करते थे। रानियाँ तथा राजा की अन्य पत्नियाँ सोने के कीमती आभूषण पहनती थी जिनमें हीरा, मोती आदि जड़े होते थे। गरीब स्त्रियाँ काँच की चूड़ियाँ तथा अँगूठियाँ पहनती थीं। आधुनिक समय में बहुत से सिंहलियों ने यूरोपीय वेशभूषा ग्रहण कर ली है। वहाँ के राजाओं तथा प्रजा वर्गों को जलक्रीड़ा, नृत्य, गायन, शिकार आदि विविध खेलों तथा कलाओं में अच्छा, आनन्द आता था। युद्ध में संगीत का महत्व बना रहता था। पाँच तरह के वाद्य यंत्रों, ढोलों, भेरियों, शंखों, बीनों, बाँसुरियों आदि का उनमें प्राचीन काल से प्रचलन था। स्त्रियाँ एक तरह की ढोलक बजाती थीं जिसे "रबान" करते थे। सिंहलियों में कठपुतलियों का नाच और नाट्यों का अभिनय होता था जिनके लिए मंच बनाए जाते थे। इनमें से कुछ आज भी विद्यमान हैं। "असाढ़ी" पर्व के समय बहुत लंबा जुलूस निकलता था जिसमें बड़ी संख्या में हाथी भी सजाए जाते थे। आज भी ऐसा होता है। ग्रहों तता भूत-प्रेतों की बाधा दूर करने के लिए "बलि पूजा" तथा अन्य कृत्य किए जाते थे, जैसा इस समय भी होता है।

अभिनय मुद्रा का प्रदर्शन करतीं हुईं श्रीलंका के एक नृत्य-विद्यालय की दो बच्चियाँ

सिंहली कला भारतीय कला से विशेष रूप से प्रभावित थी। वहाँ चित्रकार, मिस्त्री, राज, बढ़ई, लोहार, कुंभकार, दरजी, जुलाहे, हाथीदाँत का काम करने वाले तथा अन्य कलाविद् होते थे। अभ्रक आदि की परतदार चट्टानों से लंबे, सुडौल टुकड़े तराश लेने की कला में प्राचीन सिंहली बड़े दक्ष होते थे। लौह प्रासाद के अवशेष जो 1600 प्रस्तर स्तम्भों पर बना था, इस तथ्य का उज्ज्वल प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। विजय और उसके अनुयायियों को पढ़ने और लिखने की कला का ज्ञान न था। महावंश में उस पत्र की चर्चा है जो विजय ने पांडु नरेश को भेजा था और उसकी भी जो उसने अपने (उसके?) भाई मुमित्त को प्रेषित किया था। ब्राह्मी लिपि में लिखे गए बहुत से शिलालेख सिंहल द्वीप में प्राप्त हुए थे जिनमें सबसे प्राचीन ई. पू. तीसरी शती के थे। इससे स्पष्ट है कि जनता की एक बड़ी संख्या उन्हें पढ़ और समझ सकती थी। शिष्य को गुरु के पास ले जाने की (उपनयन की) प्रथा भी उस समय प्रचलित थी। बारहवीं शती ई. पू. में देहातों में भ्रमणशील अध्यापक रहते थे जो बालकों को लिखना-पढ़ना सिखलाते थे। लड़कियों को शिक्षा वृद्ध जनों द्वारा दी जाती थी। राजकुमारों की शिक्षा में विशेष सावधानी बरती जाती थी, इस शिक्षा में खेलकूद की तथा शस्त्रास्त्रों की भी शिक्षा शामिल थी। आम तौर से ये विषय पढ़ाए जाते थे-सिंहली, पाली, संस्कृत, तमिल, तथा अन्य भाषाएँ, चिकित्सा विज्ञान, ज्योतिष, पशु-चिकित्सा इत्यादि। लिखने-पढ़ने की क्रिया का आरंभ "त्रिपिटक" की और सिंहली में प्राप्त उसकी टीकाओं की प्रतिलिपि करने से होता था। सिंहल के दो ऐतिहासिक ग्रंथों-दीपवंश तथा महावंश-का निर्माण चौथी तथा पाँचवीं शती ईसवी में हुआ था। बाद में त्रिपिटक की पालि टीकाओं तथा विविध विषयों की अन्य पुस्तकों को लिपिबद्ध किया गया। कुछ बहुमूल्य ग्रंथ अनधिकारिक शासक माघ द्वारा 13वीं शताब्दी में, कुछ नरेश राजसिंघे प्रथम द्वारा 16वीं शती में तथा अन्य कई डचों द्वारा 18वीं शती में नष्ट कर दिए गए।

महावंश के बहुसंख्यक चिकित्सालयों का उल्लेख होने से साबित होता है कि प्राचीन काल में सिंहल में उच्च संस्कृति विद्यमान थे। ईसा के पूर्व की चौथी शताब्दी में भी गर्भिणी स्त्रियों के लिए प्रसवशालाएँ तथा रोगियों की चिकित्सा के लिए अस्पताल मौजूद थे। राजा बुद्ध दास ने (4थी शती ई.) सिंहलवासियों के लिए प्रत्येक गाँव में चिकित्सा भवन स्थापित किए थे और उनमें चिकित्सकों की नियुक्ति की थी। वह स्वयं कुशल चिकित्सक था और उसने चिकित्सा-संबंधी एक पुस्तक भी लिखी थी। अपंगों तथा नेत्रहीनों के लिए उसने आश्रय स्थान बनवाए थे। पुरातन काल में तथा उसके बाद भी सिंहली चिकित्सा विज्ञान का भारतीय चिकित्सा विज्ञान से निकट संबंध रहा है।

सिंहली राजाओं के समय भारत की तरह वहाँ भी अनियंत्रित राजतंत्र प्रचलित था। राजा ही राज्य का सर्वोच्च सत्ताधिकारी था। आध्यात्मिक विषयों में वह बौद्ध भिक्षुओं से सलाह लिया करता था। राज परिवार से संबंधित मामलों पर विचार होते समय ब्राह्मणों को भी मत प्रकट करने का अवसर दिया जाता था। युद्ध के समय चतुरंगिणी सेना (हाथी, घोड़े, रथ तथा पदाति) का प्रयोग किया जाता था। लड़ाई में धनुष बाण, तलवार, भाला, गदा, त्रिशूल, बरछी, तोमर, गुलेल आदि अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग किया जाता था। कभी-कभी जासूसों से भी काम लिया जाता था। कराधान द्वारा जो आमदनी होती थी, उसी से राजा का निजी खर्च, दरबार का खर्च और शासन का खर्च चलता था। अपराधियों को अपराध की गुरुता के अनुसार दंड दिया जाता था।

भारत का प्रभाव

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वह मन्दिर जहाँ बुद्ध के दाँत के अवशेष संरक्षित हैं।

जो सिंहलवासी पहले-पहल श्रीलंका में आकर बसे थे, वे अपने पूर्व निवास उत्तर-पश्चिम भारत से हिंदू धर्म का लोकप्रिय प्रकार लेते आए थे। बाद में कलिंग तथा बंगाल से आने वाले ब्राह्मणों ने वहाँ वैष्णव तथा शैव धर्मों का प्रचार किया। बौद्ध धर्म का प्रचार तीसरी शदी में थेरा महेंद्र ने किया। राजा द्वारा राजधर्म के रूप में स्वीकृत हो जाने पर वह वहाँ का मुख्य धर्म बन गया। बुद्ध का भिक्षा पात्र तथा कुछ अन्य अवशेष उसी शताब्दी में भारत से लाए गए और कुछ स्तूपों का निर्माण किया गया। बुद्ध गया में स्थित महान बोधिवृक्ष की एक शाखा भी उसी वर्ष थेरी संघमित्त द्वारा लाई गई जो आज भी अच्छी दशा में है। कहते हैं, यह संसार का सबसे पुराना ऐतिहासिक वृक्ष है। बुद्ध का दाँत तथा बाल का अवशेष क्रमश: चौथी तथा पाँचवीं शताब्दी में सिंहल लाए गए। सिंहलियों में इनका बड़ा आदर और सम्मान है। बौद्ध धर्म ने, जो समूचे राष्ट्र में व्याप्त है, वहाँ वालों पर अथाह मानवतापूर्ण प्रभाव डाला है। पुर्तगालियों, डचों तथा अंग्रेजों के आगमन ने सिंहली रीति-रिवाजों, धर्म, शिक्षा तथा पोशाक में बहुत परिवर्तन कर दिया है।

इन्हें भी देखें

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पापड़म