सिद्धसेन

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सिद्धसेन दिवाकर पाँचवी शताब्दी के प्रसिद्ध जैन आचार्य थे। वे दिवाकर (सूर्य) की भांति जैन धर्म को प्रकाशित करने वाले थे, इसलिये उन्हें 'दिवाकर' कहा गया। कहा जाता है कि उन्होने अनेक ग्रन्थों की रचना की किन्तु वर्तमान समय में उनमें से अधिकांश उपलब्ध नहीं हैं। 'सन्मतितर्क' उनकी तर्कशास्त्र की सर्वश्रेष्ठ रचना है और वर्तमान समय में भी बहुत पढ़ी जाती है। उन्होने 'कल्याणमन्दिरस्तोत्रम्' नामक ग्रन्थ की भी रचना की।

यद्यपि आचार्य सिद्धसेन के जीवन के सम्बन्ध विशेष कुछ ज्ञात नहीं है, फिर भी, सामान्यतः यह स्वीकार कर लिया गया है कि जन्म से वे ब्राह्मण थे। वे संस्कृत, प्राकृत, तर्कशास्त्र, तत्त्वविद्या, व्याकरण, ज्योतिष तथा विभिन्न भारतीय दार्शनिक सम्प्रदायों के प्रकाण्ड विद्वान् थे। प्रौढ़ावस्था में उनका झुकाव व प्रवृत्ति जैनधर्म की ओर उन्मुख हो गई जो कि उनके गहन तार्किक विश्लेषण एवं अन्तर्दृष्टि का परिणाम थी। अपनी रचनाओं में प्रतिपादित जैन सिद्धान्तों के कारण उन्होंने शुद्ध तर्कशास्त्र के क्षेत्र में एक उत्कृष्ट स्थान बना लिया था ।

डॉ० आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये के अनुसार सिद्धसेन उस यापनीय संघ के एक साधु थे जो कि दिगम्बर जैनों में एक उप-सम्प्रदाय था। उन्होंने दक्षिण भारत की ओर स्थानान्तरण किया था और पैठन में उनकी मृत्यु हुई थीं। तथ्यों से यह भलीभांति प्रमाणित हो जाता है कि वे दिगम्बर परम्परा के अनुयायी थे। दिगम्बर आगमिक साहित्य में सिद्धसेन का नाम उनकी कृति 'सन्मतिसूत्र' के साथ निर्दिष्ट है। इसके साथ ही, सेनगण की पट्टावली में भी उनके नाम का उल्लेख मिलता है। यही नहीं, श्वेताम्बर आचार्यों ने उनके युगपद्वाद का खण्डन किया है।

जैन साहित्य में विशुद्ध तर्कविद्या विषय पर प्राकृत भाषा में ज्ञात रचनाओं में सर्वप्रथम 'सम्मइसुत्तं' या 'सन्मतिसूत्र' अनुपम दार्शनिक रचना के कारण आचार्य सिद्धसेन का नाम प्रसिद्ध रहा है। प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश के परवर्ती अनेक विश्रुत जैन विद्वानों ने उनके नाम का सादर उल्लेख किया है। यथार्थ में वे दर्शनप्रभावक आचार्य के रूप में विश्रुत रहे हैं। यद्यपि उनकी इस रचना का निर्देश 'सन्मतितर्कप्रकरण' नाम से भी किया जाता रहा है, किन्तु इसका वास्तविक नाम 'सम्मइसुत्तं' है। 'सम्मइ' या 'सन्मति' शब्द दिगम्बरों में प्रचलित रहा है जो तीर्थंकर महावीर के पाँच नामों में से एक है। इस नाम से भगवान् महाबीर का उल्लेख श्वेताम्बर आगम-साहित्य में नहीं मिलता ।

'सन्मतिसूत्र' 167 आर्या छन्दों में प्राकृत भाषा में निबद्ध अनेकान्तवाद सिद्धान्त का प्रतिपादक ग्रन्थ है। अनेकान्तवाद का सिद्धान्त नयों पर आधारित है। अतएव ग्रन्थ-रचना में अनेकान्तवाद के साथ नयों का भी विवेचन किया गया है। सम्पूर्ण रचना तीन भागों में विभक्त है, जिन्हें काण्ड कहा गया है। रचना में मूल तत्त्वों की सुन्दर व्याख्या है, जैसे कि लोक में उपलब्ध तत्त्वार्थ स्वयं तीन प्रकार के लक्षण वाले हैं उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य; और यही यथार्थता का सत्य स्वरूप है । यथार्थता का स्वरूप नय और निक्षेप इन दो मूल तत्त्वों के द्वारा स्वीकृत किया जाता है और इनसे ही अनेकान्तवाद सिद्धान्त का निर्माण होता है। जैनधर्म आज तक और आगे भी 'अनेकान्तवाद' के रूप में निर्दिष्ट होता रहेगा, क्योंकि अनेकान्तवाद इसका प्राण है। 'अनेकान्तवाद' शब्द का प्रयोग उस सत्य के लिए किया जाता है जो अनन्त गुण युक्त है और प्रत्येक तत्त्वार्थ में निहित है तथा जिसका परीक्षण विभिन्न दृष्टिकोणों से किया जाता है। इस ग्रन्थ में इस अनेकान्त-विधि का विस्तृत तथा विशद विवेचन किया गया है। ग्रन्थ के प्रथम काण्ड में मुख्य रूप से नय और सप्तभंगी का, द्वितीय काण्ड में दर्शन और ज्ञान का तथा तृतीय काण्ड में पर्याय-गुण से अभिन्न वस्तु-तत्व का प्रतिपादन किया गया है। निःसन्देह यह एक ऐसी रचना है जिसका प्रभाव सम्पूर्ण जैन साहित्य पर लक्षित होता है।

अनेक रचनाओं (लगभग एक दर्जन) में से चार कृतियों को कुछ विद्वान् आचार्य सिद्धसेन द्वारा रचित मानते हैं। 'सन्मतिसूत्र' के सम्बन्ध में किसी प्रकार का विवाद नहीं है, किन्तु तीन अन्य रचनाएँ अब तक विवादग्रस्त हैं- ये तीनों एक ही सिद्धसेन की रचनाएँ है या नहीं ? श्वेताम्बर इन तीनों रचनाओं को भी सिद्धसेन प्रणीत मानते हैं – कल्याणमन्दिरस्तोत्र, न्यायावतार और द्वात्रिंशिकाएँ। इसमें कोई सन्देह नहीं हो सकता कि 'कल्याणमन्दिरस्तोत्र' के रचयिता आचार्य कुमुदचन्द्र हैं, जैसा कि अन्तिम पद्य में प्राप्त उनके नाम से प्रमाणित होता है। पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार की आलोचना ठीक है- ऐसी स्थिति में 'पार्श्वनाथद्वात्रिंशिका' के रूप में जो 'कल्याणमन्दिरस्तोत्र' रचा गया, वह 32 पद्यों का कोई दूसरा ही होना चाहिए ; न कि वर्तमान 'कल्याणमन्दिरस्तोत्र', जिसकी रचना 44 पद्यों में हुई है और इससे कोई कुमुदचन्द्र भी भिन्न होने चाहिए। इसके सिवाय, वर्तमान 'कल्याणमन्दिरस्तोत्र' में 'प्राग्भारसम्भृतनभांसि रजांसि रोषात्' इत्यादि तीन पद्य ऐसे हैं जो पार्श्वनाथ को दैत्यकृत उपसर्ग से युक्त प्रकट करते हैं जो दिगम्बर मान्यता के अनुकूल और श्वेताम्बर मान्यता के प्रतिकूल हैं; क्योंकि श्वेताम्बरीय 'आचारांगनिर्युक्ति' में वर्द्धमान को छोड़कर शेष तेईस तीर्थकरों के तपःकर्म को निरुपसर्ग वर्णित किया है। अतः 'कल्याणमन्दिरस्तोत्र' के रचयिता सिद्धसेन न हो कर निश्चय हो कुमुदचन्द्र नाम के भिन्न आचार्य हैं।

यह बताने के लिए केवल एक ही प्रमाण दिया जाता है कि 'न्यायावतार' के रचयिता आचार्य सिद्धसेन थे। पं० सुखलाल के शब्दों में 'प्रभावकचरित' के विवरण के अनुसार इसकी भी रचना 32 द्वात्रिंशिकाओं में से एक थी, जैसा कि ऊपर उल्लेख किया जा चुका है। पुरानी रचना में इसका उल्लेख किया गया है कि 32 द्वात्रिंशिकाएँ हैं, किन्तु यह बताने के लिए कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है कि 'न्यायावतार' उनमें से एक था। इसलिए यह निश्चित नहीं है कि यह वही सिद्धसेन हैं जिन्होंने 'सन्मतिसूत्र' की रचना की थी। इसके अतिरिक्त प्रबन्धों में कई अन्तर्विरोध हैं, जिनके कारण उन पर विश्वास नहीं किया जा सकता। यद्यपि यह कथन सत्य है कि न्यायावतार पर आचार्य समन्तभद्र की रचनाओं का अत्यन्त प्रभाव है, किन्तु यह भी सत्य है कि ग्रन्थ की रचना 'सन्मतिसूत्र' की रचना से कई शताब्दियों के पश्चात् हुई। यह भी निश्चित है कि 'न्यायावतार' पर केवल समन्तभद्र का ही नहीं, किन्तु आचार्य पात्रकेसरी तथा धर्मकीर्ति जैसे विद्वानों का भी अन्यून प्रभाव रहा है। डॉ. हर्मन जेकोबी के विचारों का निर्देश करते हुए पं० जुगलकिशोर मुख्तार ने ठीक ही कहा है कि न्यायावतार' में प्रतिपादित प्रत्यक्ष तथा अनुमानादिक के लक्षण बौद्ध आचार्य धर्मकीर्ति के 'न्यायबिन्दु' में निर्दिष्ट लक्षणों के निरसन हेतु रचे गए। आचार्य धर्मकीर्ति का समय सन् 625-50 ई० है। सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र ने 'न्यायबिन्दु' और 'न्यायावतार' में वस्तु-साम्य तथा शब्द-साम्य का निर्देश करते हुए स्पष्ट रूप से बताया है कि 'न्यायावतार' परवर्ती रचना है। उनके ही शब्दों में अतः धर्मकीर्ति के 'न्यायबिन्दु' के साथ के साम्य तथा प्रमाण के लक्षण में आगत 'बाधवर्जित' पद से तथा अन्य भी कुछ संकेतों से 'न्यायावतार' धर्मकीर्ति और कुमारिल के पश्चात् रचा गया प्रतीत होता है और इसलिये यह उन सिद्धसेन की कृति नहीं हो सकता, जो पूज्यपाद देवनन्दि के पूर्ववर्ती हैं। इन प्रमाणों से निश्चित हो जाता है कि 'न्यायावतार' के लेखक ने बौद्ध साहित्य को सम्मुख रख कर ऐसी परिभाषाओं तथा लक्षणों का निर्माण किया और उनमें इस प्रकार की शब्दावली का प्रयोग किया, जिनसे बौद्धों का भलीभांति खण्डन हो सके और अपनी मान्तया की स्थापना हो । अतएव यह भी निश्चित है कि 'न्यायावतार' के कर्ता आचार्य पात्रकेसरी, धर्मकीर्ति और कुमारिल भट्ट के पश्चात् उत्पन्न हुए थे। इतना ही नहीं, 'न्यायावतार' में प्रयुक्त बौद्धों की पारिभाषिक शब्दावली से भी यही प्रमाणित होता है कि 'न्यायावतार' की रचना 'न्यायबिन्दु' से लगभग एक शताब्दी पश्चात् हुई थी।

यद्यपि द्वात्रिंशिकाओं के कुछ पद्यों में सिद्धसेन नाम का उल्लेख किया गया है, किन्तु यह कहना कठिन है कि यह वही सिद्धसेन हैं जिन्होंने 'सम्मतिसूत्र' की रचना की थी। पं० मुख्तारजी ने ठीक ही विचार किया है कि इक्कीसवीं द्वात्रिंशिका के अन्त में और पाँचवीं द्वात्रिंशिका के अतिरिक्त किसी भी द्वात्रिंशिका में सिद्धसेन के नाम का उल्लेख नहीं मिलता है। यह सम्भव है कि में दोनों द्वात्रिंशिकाएँ अपने स्वरूप में एक न होने से किसी अन्य नामधारी सिद्धसेन की रचना हों या सिद्धसेनों की कृति हों। क्योंकि यह निश्चित है कि द्वात्रिंशिकाओं में एकरूपता नहीं है। फिर द्वात्रिंशिका का अर्थ 'बत्तीसी' है। इसलिए प्रत्येक द्वात्रिंशिका में ३२ पद्य ही होने चाहिए थे किन्तु किसी द्वात्रिंशिका में पद्य अधिक है, तो किसी में कम। दसवीं द्वात्रिंशिका में दो पद्य अधिक हैं और इक्कीसवीं में एक अधिक है, किन्तु आठवीं में छह, ग्यारहवीं में चार और पन्द्रहवीं में एक पद्य कम है। यह घट-बढ़ मुद्रित ही नहीं, हस्तलिखित प्रतियों में भी पाई जाती है। अतः इसकी प्रामाणिकता के विषय में सन्देह है। डॉ० ए० एन० उपाध्ये ने यह समीक्षण किया है कि प्रथम पाँच द्वात्रिंशिकाएँ आचार्य समन्तभद्र के 'स्वयम्भूस्तोत्र' से न केवल विचारों में वरन् अभिव्यक्ति में भी समानता रखती हैं। बत्तीस द्वात्रिंशिकाओं में से वर्तमान में केवल इक्कीस द्वात्रिंशिकाएँ ही उपलब्ध हैं। पं० सुखलालजी भी यह मानते हैं कि इन सभी रचनाओं में क्या विषय-वस्तु और क्या भाषा, सब में भिन्नता है। केवल 'सन्मतिसूत्र' को प्रथम गाथा में 'सिद्ध' शब्द से आचार्य सिद्धसेन का संकेत किया गया है, किन्तु उक्त दो द्वात्रिंशिकाओं को छोड़कर अन्यत्र कहीं भी सिद्धसेन नाम का उल्लेख नहीं हुआ है। इसके अतिरिक्त श्वेताम्बर विद्वान् अभयदेवसूरि ने श्री सिद्धसेन के केवल 'सन्मतिसूत्र' का उल्लेख किया है। 'प्रभावकचरित' में यह वर्णन किया गया है कि मूल में द्वात्रिंशिकाएँ तीस थीं। उनमें 'न्यायावतार' और 'वीरस्तुति' को सम्मिलित करने पर बत्तीस संख्या हो गई। वस्तुतः इस प्रकार की किंवदन्तियों पर प्रत्यय नहीं किया जा सकता और न इनके आधार पर कोई निर्णय लिया जा सकता है। हाँ, इतना अवश्य है कि जो द्वात्रिंशिकाएँ 'सन्मतिसूत्र' के विचारों से सादृश्य प्रकट करती हैं, उनको आचार्य सिद्धसेन कृत मानने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए । यह उल्लेखनीय है कि जिस युगपद्वाद का प्रतिपादन 'सन्मतिसूत्र' में किया गया है, उसी भाव-साम्य को प्रकट करने वाली भी द्वात्रिंशिकाएँ हैं । अतएव यह नहीं कहा जा सकता कि सभी द्वात्रिंशिकाएँ अप्रामाणिक है।

'इक्कबीसठाणा' की हस्तलिखित प्रति में सिद्धसेन का नाम है, जैसा कि अन्तिम पद्य से प्रकट होता है। दूसरी रचना 'सहस्रनाम भी हस्तलिखित है, जिसके लेखक का नाम अन्त में सिद्धसेन दिवाकर लिखा हुआ मिलता है। इन दोनों रचनाओं की हस्तलिखित प्रति दिगम्बर जैन लूणकरण पाण्ड्या के मन्दिर, जयपुर में विद्यमान है। यह कहना कठिन है कि ये दोनों रचनाएँ एक ही सिद्धसेन की हैं। निश्चयात्मक रूप से इनके सम्बन्ध में कुछ कहने के पूर्व अभी अनुसन्धान करना अवशिष्ट है। इसी प्रकार की अन्य रचनाएँ भी सिद्धसेन के नाम से उपलब्ध होती हैं जो निश्चित ही अलग-अलग सिद्धसेन नामधारी व्यक्तियों की भिन्न-भिन्न काल की कृतियाँ हैं।

ऐसा लगता है कि सिद्धसेन नाम के कम-से-कम चार विद्वान् हो चुके हैं। प्रथम सिद्धसेन 'सन्मतिसूत्र' तथा कतिपय द्वात्रिंशिकाओं के कर्ता हैं। दूसरे टीकाकार विद्वान् सिद्धसेनगणि हैं जो 'भाष्यानुसारिणी' और 'तत्त्वार्थाधिगमसूत्र' टीका के लेखक हैं। तीसरे 'न्यायावतार' के कर्ता सिद्धसेन दिवाकर हैं, जिनका जीवनकाल छठी शती का उत्तरार्द्ध या सातवीं शताब्दी है। चौथे साधारण सिद्धसेन हैं, जिन्होंने विक्रम संवत 1123 में अपभ्रंश भाषा में 'विलासवईकहा' की रचना की थी ।[1]

सन्दर्भ सूची[संपादित करें]

  • Balcerowicz, Piotr; Mejor, Marek, संपा॰ (2004) [2002], Essays in Indian Philosophy, Religion and Literature (First Indian संस्करण), Delhi: Motilal Banarsidass, मूल से 2 अक्तूबर 2016 को पुरालेखित, अभिगमन तिथि 28 सितंबर 2016

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]