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बिहारी लाल।

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रीतिकाल के रीतिग्रंथकार कवि हैं।

प्रारंभिक जीवन:[संपादित करें]

बिहारी लाल का जन्म मध्य प्रदेश मे हुआ था। उनका पुरा नाम बिहारी लाल चौबे था। उनका जन्म सन १५९५ मे हुआ था।

इन्होने सतसई कि रचना कि। जो सतसई ब्रजभाषा मे, लगभग सात सौ द्विचरण का एक संग्रह है, जो शायद चौबे जी के

सबसे मशहूर हिन्दी काम मे से एक है। श्री बिहारी लाल जी सतसई लिखने के लिए प्रसिध्द है। काव्य कला, कथा और सरल,

शैलियो से प्रतिष्ठित है। आज यह ''रीतिकाव्य काल'' या "रीति काल" की सबसे प्रसिध्द पुस्तक माना जाता है।

बिहारी ग्वालियर मे १५९५ मै पैदा हुआ था, और बुंदेलखंड जिला, जहा उनके पिता केशव राय रहते थे ओरचा मे अपना लडकपन

खर्च किया करते थे।

कार्य का महत्व:[संपादित करें]

अपने जीवन के प्रारंभिक दिनो मे, वह प्राचिन संस्कृत ग्रंथो का अध्ययन किया करते थे। ओरचा राज्य में,वह प्रसिध्द कवि केशव

के पुत्र होने के कारण कई बडे- बडे कवियो से मुलाकात की,जिससे उनका मन कविता रचना करने के प्रति आक्रशित हुआ।

उन्हे फारसी भाषा का भी अच्छा ज्ञान था। आगरा मे एक बार, उन्हे रहीम जी जैसे महान और प्रसिध्द कवि को मिलने का मोका

मिला। उस समय राजा जय सिंह का शासन (१६११-१६६७) था। राजा जय सिंह उस समय जयपुर के पास, एम्बर मे शासन किया

करता था। उन्हे भी बिहारी लाल जी को सुने का मोका मिला। इसी कारण चोबे जी को जयपुर भी आमंत्रित किया था और यहा था

कि वह उनकी सबसे बडी मेहनत सतसई की रचना की। अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद बिहारी भक्ति और वैरगय के मार्ग मे चल

पडे। अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद बिहारी , संसार छोड वृंदावन चले गये थे ,जँहा सन १६६३ मे उनकी मृत्यु हो गई थी।

बिहारी लाल जी का एक प्रमुक दोहा:

''सतसाईया के दोहरे जयुन नावक के तीर

देखन मन छोटे लागे घाव करे गंभीर ''

टिकाऍ:[संपादित करें]

'सतसई' पर अनेक कवियों और लेखकों ने टीकाएँ लिखीं। कुल ५४ टीकाएँ मुख्य रूप से प्राप्त हुई हैं। रत्नाकर जी की टीका एक प्रकार से

अंतिम टीका है, यह सर्वांग सुंदर है। सतसई के अनुवाद भी संस्कृतउर्दू (फारसी) आदि में हुए हैं और कतिपय कवियों ने सतसई के दोहों

को स्पष्ट करते हुए कुंडलिया आदि छंदों के द्वारा विशिष्टीकृत किया है। अन्य पूर्वापरवर्ती कवियों के साथ भावसाम्य भी प्रकट किया गया है।

कुछ टीकाएँ फारसी और संस्कृत में लिखी गईं हैं। टीकाकारों ने सतसई में दोहों के क्रम भी अपने अपने विचार से रखे हैं। साथ ही दोहों की

संख्या भी न्यूनाधिक दी है। यह नितांत निश्चित नहीं कि कुल कितने दोहे रचे गए थे। संभव है, जो सतसई में आए वे चुनकर आए कुल दोहे

७०० से कहीं अधिक रचे गए होंगे। सारे जीवन में बिहारी ने इतने ही दोहे रचे हों, यह सर्वथा मान्य नहीं ठहरता।

'सतसई' पर कतिपय आलोचकों ने अपनी आलोचनाएँ लिखी हैं। रीति काव्य से ही इसकी आलोचना चलती आ रही है।

प्रथम कवियों ने सतसई की मार्मिक विशेषता को सांकेतिक रूप से सूचित करते हुए दोहे और छंद लिखे। उर्दू के शायरों ने भी इसी प्रकार किया। यथा :

सतसइया के दोहरे, ज्यों नावक के तीर।

देखत मैं छोटे लगैं, घाव करैं गंभीर॥

बिहारी की बलागत और ब्रजभाषा की शीरीनी,

हमें तारीफ़ करने के लिए मजबूर करती है॥

सन्दर्भ:[संपादित करें]

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