शिकारी-फ़रमर



रिपब्लिक ऑफ कांगो में रहने वाली आदिम शिकारी-फ़रमर या शिकारी-संचयी जनजाति " बेंजले बायका" के लिए नेविगेशन एक महत्वपूर्ण गुण हैं ! ये भोजन के लिए पूरी तरह से जंगलो पर निर्भर करती हैं ,ये आदिवासी जंगल मे घूम घूम कर भोजन जुटाते हैं! इन लोगो मे दिशा ज्ञान बहुत जल्द 6 वर्ष की उम्र से ही विकसित हो जाता हैं । इस समुदाय में लैंगिक समानता हैं क्योंकि स्त्री और पुरुष दोनों को ही मछली पकड़ने ओर शिकार करने के लिए लंबी यात्रा करनी पड़ती है। इस आदि समाज के बच्चों में 6 वर्ष की उम्र में ही दिशा ज्ञान की क्षमता विकसित हो जाती हैं।इस आदिम जनजाति समूह की खास विशेषता यह है कि ये लोग मधुमखियों की तरह सूर्य का इस्तेमाल दिशा ज्ञान के लिए करते हैं। ।[2] यह कृषि या मवेशी पालन पर आधारित उन समाजों से बहुत भिन्न होते है जो पाले या उगाए गए पेड़-पौधों और जानवरों से अपना आहार प्राप्त करते हैं। इन्हें ५ से लेकर ८०% तक भोजन जंगल में खोजने (संग्रहण) से प्राप्त होता है। सारे मनुष्यों के पूर्वज अति-प्राचीन काल में शिकार-संचय का ही जीवन बसर करते थे। वर्तमान से १०,००० साल पहले तक सभी मानव शिकारी-संचयी समूहों में रहते थे। कृषि के आविष्कार के बाद विश्व में अधिकतर स्थानों पर लोग कृषि समाजों में रहने लगे और शिकार-संचय का जीवन छोड़ दिया। फिर भी, कुछ दूर-दराज़ के क्षेत्रों में शिकारी-संचयी मानव समाज मिलते हैं, जैसे की भारत के अंडमान द्वीपसमूह के उत्तर सेंटिनल द्वीप पर बसने वाली सेंटिनली उपजाति। शिकारी-फ़रमर और उन अन्य समाजों में, जो जानवरों को पालतू बनाते हैं, अंतर करने का कोई विशेष मापदंड नहीं हैं क्योंकि कई समकालीन समाज अपने लोगों के निर्वाह हेतु दोनो रणनीतियों का पालन करते हैं।
अन्य भाषाओँ में
[संपादित करें]"शिकारी-संचयी" को अंग्रेज़ी में "हंटर-गैदरर" (hunter gatherer) कहते हैं।
विशेषताएँ
[संपादित करें]शिकारी-संचयी गुटों को जगह-से-जगह खाना और शिकार खोजते हुए जाना पड़ता है, इसलिए अक्सर इनके कोई स्थाई ठिकाने नहीं होते। ऐसे समाजों के समूह छोटे हुआ करते हैं (लगभग १०-३० व्यक्तियों के) क्योंकि जंगली स्रोतों से एक मानव के योग्य खाना बटोरने के लिए बड़े क्षेत्रफल की ज़रुरत होती है। अगर खाने की भरमार हो तो अक्सर बहुत से दस्ते एकजुट भी हो सकते हैं और इन अनुकूल परिस्थितियों में १०० मनुष्यों से भी बड़े गुट बन सकते हैं। कुछ गिनती के क्षेत्र हैं, जैसे की उत्तर अमेरिका का प्रशांत महासागर के साथ लगा उत्तर-पश्चिमी तट, जहाँ आहार की इतनी भरमार है कि वहाँ पर बड़े शिकारी-संचयी समाज स्थाई रूप से गाँव बनाकर रह पाते थे।
क्योंकि ज़्यादातर शिकारी-संचयी लोग स्थान-से-स्थान भटकते हैं, इसलिए वे अपनी ऊर्जा पक्के निर्माण करने में व्यर्थ नहीं लगते। उनके आश्रय टहनियों के बने हुए या चट्टानों-ग़ुफ़ाओं में मिलते हैं। किसी-किसी स्थान पर ऐसे मानव-दस्ते पत्थरों कर अपने हज़ारों साल पहले के शिकारी-संचयी जीवन का चित्रण बनाकर छोड़ गए हैं। मध्य प्रदेश राज्य में स्थित भीमबेटका पाषाण आश्रय में बने कुछ चित्रों में लोगों को शहद इकठ्ठा करते हुए दिखाया गया है।[3]
इन्हें भी देखें
[संपादित करें]सन्दर्भ
[संपादित करें]- ↑ Nicolas Peterson (1998). "Demographic transition in a hunter-gatherer population: the Tiwi case, 1929-1996". Australian Aboriginal Studies. 1998. Australian Institute of Aboriginal and Torres Strait Islander Studies. Archived from the original on 1 जनवरी 2013. Retrieved 21 अप्रैल 2011.
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ignored (|author=
suggested) (help) - ↑ Alan J. Barnard. "Hunter-gatherers in history, archaeology, and anthropology". Berg, 2004. ISBN 9781859738252.
- ↑ V. N. Misra, Peter S. Bellwood, Indo-Pacific Prehistory Association. "Recent advances in Indo-Pacific prehistory: proceedings of the international symposium held at Poona, December 19-21, 1978". BRILL, 1985. ISBN 9789004075122.
... The hunter-gatherer way of life is well documented in the paintings ...
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