राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान
राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान (Rajasthan Oriental Research Institute / RORI ) राजस्थान सरकार के कला एवं संस्कृति विभाग के अधीन कार्यरत एक संस्थान है जो राजस्थानी संस्कृति एवं विरासत को संरक्षित रखने एवं उसकी उन्नति करने के उद्देश्य से स्थापित किया है। इसकी स्थापना १९५४ में मुनि जिनविजय के मार्गदर्शन में की गयी थी। मुनि जिनविजय रॉयल एशियाटिक सोसायटी के सदस्य थे। भारत के राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने १९५५ में इसकी आधारशिला रखी। १४ सितम्बर १९५८ को तत्कालीन मुख्यमंत्री मोहनलाल सुखाड़िया द्वारा इसका उद्घाटन हुआ। इसका मुख्यालय जोधपुर में है। इसके अधीन छः शाखा कार्यालय अलवर, भरतपुर, उदयपुर, कोटा, बीकानेर एवं जयपुर में स्थापित हैं।
पालि, प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत और अन्य भाषाओँ में लिखे गए विभिन्न अप्रकाशित पांडुलिपियों और प्राचीन ग्रंथों की खोज और उनके प्रकाशन के लिए उत्तरदायी राजस्थान शासन द्वारा जोधपुर में सन १९५० में संस्थापित [1] एक पंजीकृत स्वायत्तशासी समिति (सांस्कृतिक संस्थान) है जिसके संस्थापक निदेशक पद्मश्री मुनि जिनविजय थे।[2]
उद्देश्य
[संपादित करें]यहाँ पर विभिन्न दुर्लभ पांडुलिपियों की देख-रेख का कार्य किया जाता है। प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथों, लेखों, चित्रों को संरक्षण करने के लिए यहाँ 'संरक्षण प्रयोगशाला' (कन्जर्वेशन लेबोरेट्री) उपलब्ध है। फटे-पुराने पत्रों, पांडुलिपियों का उपचार करके उन्हें संरक्षण किया जाता है।
इस संस्थान के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं-
- इसका प्रमुख उद्देश्य हस्तलिखित ग्रंथों का सर्वेक्षण, संरक्षण, अप्रकाशित ग्रन्थों एवं अनुपलब्ध प्रकाशनों का सम्पादन एवं प्रकाशन एवं शोधार्थियों को अध्ययन की सुविधा उपलब्ध कराना है।
- संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, राजस्थानी और अन्य भाषाओं में पांडुलिपियों (विशेष रूप से उन पांडुलिपियों, जिन्हें राष्ट्र की सांस्कृतिक विरासत का प्रतिनिधित्व माना जाता है), का विस्तृत सर्वेक्षण करना।
- आधुनिक वैज्ञानिक विधियों का उपयोग करके पांडुलिपियों का संग्रह और संरक्षण करना।
- अज्ञात और महत्वपूर्ण पाण्डुलिपियों को विद्वानों, प्रख्यात शिक्षाविदों तथा संस्थान के भारतविद्या (इंडोलॉजी) के विभिन्न विषयों में विशेषज्ञता-प्राप्त विशेषज्ञों की सहायता से संपादित करना एवं प्रकाशित करना।
• संस्थान में संदर्भ पुस्तकालय स्थापित करना और संस्कृत तथा भारतीय व अन्य विदेशी भाषाओं में प्रकाशित सन्दर्भ महत्त्व की मुद्रित पुस्तकों को क्रय व दान के माध्यम से प्राप्त करके इसे समृद्ध करना।
• विद्वानों को पांडुलिपियों, पुस्तकों और पत्रिकाओं के रूप में स्रोत-सामग्री प्रदान करना, उनके अध्ययन एवं भावी शोधों में उनकी सहायता करना।
• राज्य के लोक साहित्य और भक्ति साहित्य जो लोगों में मौखिक परंपराओं के रूप में संरक्षित है तथा जो क्षेत्र के आम लोगों के जीवन व समाज को दर्शाते हैं, इनको एकत्र करना और प्रकाशित करना । मौखिक परम्पराओं को संरक्षित करने वाले ये लोग अधिकतर ग्रामीण क्षेत्रों में रहने के बावजूद भारतीय ज्ञान की शताब्दियों-लंबी अवधारणाओं के मूल्यों के संरक्षण के लिए अपने जीवन को समर्पित कर रहे हैं।
संरक्षित पाण्डुलिपियाँ
[संपादित करें]इस संस्थान के सम्पूर्ण विभाग में दान एवं क्रय से प्राप्त पाण्डुलिपियों की संख्या एक लाख चौबीस हजार है जो १२वीं शताब्दी से लेकर २०वीं शताब्दी तक की हैं और २५ विषयों में विभक्त हैं। इसके साथ ही संस्थान ने २१९ महत्वपूर्ण ग्रन्थों का सम्पादन कर प्रकाशित कराया है।
यहाँ संरक्षित कुछ पांडुलिपियाँ इस लिंक पर देखी जा सकती हैं-
कला वीथिका (आर्ट गैलरी)
[संपादित करें]राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान के जोधपुर मुख्यालय में एक बड़ा हॉल भी आर्ट गैलरी के रूप में विद्यमान है। इस हाल में अमूल्य साहित्यिक धरोहरों व चित्रों को प्रदर्शित किया जाता है। इसमें सदियों पुरानी शैली से संबंधित अमूल्य लघु चित्र यथा - पाल, पश्चिमी भारतीय, राजपूत, जम्मू-कश्मीर, दक्षिण भारतीय और क्षेत्रीय शैलियों के चित्र; अप्रकाशित और दुर्लभ पांडुलिपियाँ, सुलेख के उत्कृष्ट नमूने, विभिन्न प्रकार की पांडुलिपियाँ यथा - स्क्रॉल पुस्तक (असामान्य लंबाई की कागज या कपड़े की जिसे स्क्रॉल किया जा सकता है), गंडिका (चौड़ाई और मोटाई में बराबर एक आयताकार पांडुलिपि), संपुट फलक (लकड़ी के रंगीन पैनल के साथ पांडुलिपि जिसके दोनों पक्षों को चित्रित किया गया है), चित्र-बंधन काव्य (विभिन्न आकृतियों में चित्रित अलंकारिक रूप में काव्यात्मक बाउंड) आदि, तथा 'द्विपथ', 'त्रिपथ' और 'पंच पथ' के रूप में ग्रंथों और टीकाओं को लिखने की शैली जिसकी ओर आम लोगों की दृष्टि व ध्यान वर्षों तक नहीं गया, संग्रहित है।
यहाँ विश्वव्यापी नमूने के बीच, अब आगंतुकों को ये वस्तुएँ भी देखने को मिलतीं हैं- पाल स्कूल की आर्य महाविद्या, मेवाड़ शैली की आर्य रामायण और गीत गोविन्द, जम्मू कश्मीर शैली की भगवत गीता, तंजावुर शैली की दक्षिण भारतीय गीता, पश्चिमी भारतीय शैली की कल्प सूत्र (विक्रम संवत 1485), शारदा, बंगला, गुरुमुखी और फ़ारसी के चित्रण के साथ नागरी लिपि का सदी-वार विकास, जैन शैली की जन्मपत्रियां या कुंडलियां, पृथ्वीराज रासो का ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण संक्षिप्त पाठ जिसकी सत्तर के दशक की शुरुआत में धर्नोज (गुजरात) में नकल की गई थी ; और अन्त में वे रहस्यमय चित्र जो आम तौर पर तांत्रिक पूजा में प्रयोग किए जाते थे व जिन्हें लोगों की इच्छाओं को पूरा करने के लिए माना जाता था (आकाश पुरुष, अधै द्विप, त्रिपुर सुंदरी महायंत्र आदि आध्यात्मिक, धार्मिक तपस्या, ज्योतिष संबंधी संकेत और भौगोलिक तथ्य से युक्त)।
इनके अलावा यहाँ वृहद संग्रहालय, लघुचित्र वीथिका, और संरक्षण केन्द्र भी हैं जिसमें संरक्षण प्रयोगशाला तथ मैक्रोफिल्म एवं डिजिटाइजेशन इकाई सम्मिलित हैं।
सन्दर्भ
[संपादित करें]- ↑ "संग्रहीत प्रति". मूल से 11 सितंबर 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 1 जुलाई 2014.
- ↑ "संग्रहीत प्रति". मूल से 11 सितंबर 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 1 जुलाई 2014.