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पादप आकारिकी

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1. प्ररोह तन्त्र 2. मूल तन्त्र 3. बीजपत्राधर 4. अन्तिम कली 5. पर्ण स्तरिका 6. अन्तःगाँठ 7. कक्षीय कली 8. पर्ण वृन्त 9. तना 10. गाँठ 11. मूसला मूल 12. मूल रोम 13. मूलाग्र 14. मूल गोप

पादपाकारिकी में पादपों के शरिर के बाह्य आकार तथा संरचना का अध्ययन किया जाता है। यह पादप शारीरिकी से भिन्न मानी जाती है। पादपाकारिकी, पादपों को देखकर पहचानने में सहायक होती है। पादपाकारिकी में पौधे की रूपरेखा, संरचना इत्यादि के बारे में अध्ययन होता है। अन्तःआकारिकी को शारीरिकी या ऊतक विज्ञान कहते हैं। हैं।

अधिकांश द्विबीजपत्री पादपों के मूल में मूलांकुर के लम्बे होने से प्राथमिक मूल बनती हैं जो मृदा में उगती है। इसमें पार्श्विक मूल होती हैं जिन्हें द्वितीयक तथा तृतीयक मूल कहते है। प्राथमिक मूल तथा इसकी शाखाएँ मिलकर मूसला मूलतन्त्र बनाती हैं। इसका उदाहरण सर्सों का पौधा है। एकबीजपत्री पौधों में प्राथमिक मूल अल्पायु होती है और इसके स्थान पर अनेक मुल निकल जाती हैं। ये मूल तने के आधार से निकलती हैं। इन्हें रेशेदार मूलतन्त्र कहते हैं। इसका उदाहरण गेहूँ का पौधा है। कुछ पौधों जैसे घास तथा बरगद में मूल मूलांकुर की बजाय पौधे के अन्य भाग से निकलती हैं। उन्हें अपस्थानिक मूल कहते हैं। मूलतन्त्र का प्रमुख कार्य मृदा से जल तथा खनिज लवण का अवशोषण, पौधे को मृदा में जकड़ कर रखना, खाद्य पदार्थों का संचय तथा पादम नियमकों का संश्लेषण करना है। मूल का शीर्ष अंगुलित जैसे मूल गोप से ढका रहता है। यह कोमल शीर्ष की तब रक्षा करता है जब मूल मृदा में अपना रास्ता बना रही होती है। मूल गोप से कुछ मिलीमीटर ऊपर विभज्योतक क्रियाओं का क्षेत्र होता है। इस क्षेत्र की कोशिकाएँ बहुत छोटी पतली मिति वाली होती हैं तथा उनमें सघन जीवद्रव्य होता है। उनमें बार-बार विभाजन होता है। इस क्षेत्र में समीपस्थ स्थित कोशिकाएँ शीघ्रता से दैर्घ्य में बढ़ती हैं और मूल को लंबाई में बढ़ाता है। इस क्षेत्र को दीर्घीकरण क्षेत्र कहते हैं। दीर्घीकरण क्षेत्र को कोशिकाओं में वैविध्य तथा परिपक्वता आती है। इसलिए दीर्घीकरण के समीप स्थित क्षेत्र को परिपक्य क्षेत्र कहते हैं। इस क्षेत्र से बहुत पतली तथा कोमल धागे की तरह को सरचनाएँ निकलती हैं जिन्हें मूल रोम कहते हैं। ये मूल रोम मृदा से जल तथा खनिज लवणों का अवशोषण करते हैं।

तना या स्तम्भ, बीज के कोलियाप्टाइल भाग से जन्म पाता है और पृथ्वी के ऊपर सीधा बढ़ता है। तनों में गाँठ तथा पोरी होते हैं। पर्वसंधि पर से नई शाखाएँ पुष्पगुच्छ या पत्तियाँ निकलती हैं। इन संधियों पर तने के ऊपरी भाग पर कलिकाएँ भी होती हैं। पौधे के स्वरूप के हिसाब से तने हरे, मुलायम या कड़े तथा मोटे होते हैं। इनके कई प्रकार के परिवर्तित रूप भी होते हैं। कुछ पृथ्वी के नीचे बढ़ते हैं, जो भोजन इकट्ठा कर रखते हैं। प्रतिकूल समय में ये सुषुप्त रहते हैं तथा जनन का कार्य करते हैं, जैसे कंद (आलू) में, प्रकंद (अदरक, बंडा तथा सूरन) में, शल्ककंद (प्याज और लहसुन) में इत्यादि। इनके अतिरिक्त पृथ्वी की सतह पर चलनेवाली ऊपरी भूस्तारी और अंतःभूस्तारी होती हैं, जैसे दूब घास और पोदीना में। कुछ भाग कभी कभी काँटा बन जाते हैं। नागफनी और कोकोलोबा में स्तंभ चपटा और हरा हो जाता है, जो अपने शरीर में काफी मात्रा में जल रखता है।

पर्णसमूह तने या शाखा से निकलती हैं। ये हरे रंग की तथा चपटे किस्म की, कई आकार की होती है। इनके ऊपर तथा नीचे की सतह पर हजारों छिद्र होते हैं, जिन्हें रन्ध्र कहते हैं। इनसे होकर पत्ती से जल बाहर वायुमंडल में निकलता रहता है तथा बाहर से कार्बन डाइऑक्साइड अंदर घुसता है। इससे तथा जल से मिलकर पर्णहरित की उपस्थिति में प्रकाश की सहायता से पौधे का भोजननिर्माण होता है। कुछ पत्तियाँ अवृन्त होती हैं, जिनमें डंठल नहीं होता, जैसे मदार में तथा कुछ डंठल सहित सवृंत होती हैं। पत्ती के डंठल के पास कुछ पौधों में नुकीले, चौड़े या अन्य प्रकार के अंग होते हैं, जिन्हें अनुपर्ण कहते हैं, जैसे गुड़हल, कदम्ब, मटर इत्यादि में। विभिन्न रूपवाले अनुपर्ण को विभिन्न नाम दिए गए हैं। पत्तियों के भीतर कई प्रकार से नाड़ियाँ फैली होती हैं। इस को शिराविन्यास कहते हैं। द्विबीजपत्री में विन्यास जाल बनाता है और एकबीजपत्री के पत्तियों में विन्यास सीधा समान्तर निकलता है। पत्ती का वर्गीकरण उसके ऊपर के भाग की बनावट, या कटाव, पर भी होता है। अगर फलक का कटाव इतना गहरा हो कि मध्य शिरा सींक की तरह हो जाय और प्रत्येक कटा भाग पत्ती की तरह स्वयं लगने लगे, तो इस छोटे भाग को 'पर्णक' कहते हैं और पूरी पत्ती को संयुक्तपर्ण कहते हैं। संयुक्तपूर्ण पिच्छाकार, या हस्ताकार रूप के होते हैं, जैसे क्रमशः नीम या ताड़ में। पत्तियों का रूपान्तर भी बहुत से पौधों में पाया जाता है, जैसे नागफनी में काँटा जैसा, घटपर्णी में ढक्कनदार गिलास जैसा, और ब्लैडरवर्ट में छोटे गुब्बारे जैसा। कांटे से पौधे अपनी रक्षा चरनेवाले जानवरों से करते हैं तथा घटपर्णी और ब्लैडरवर्ट के रूपांतरित भाग में कीड़े मकोड़ों को बंदकर उन्हें ये पौधे पचा जाते हैं। एक ही पौधे में दो या अधिक प्रकार की पत्तियाँ अगर पाई जाएँ, तो इस क्रिया को हेटेरोफिली कहते हैं।

पुष्प पौधों में जनन के लिये होते हैं। पौधों में फूल अकेले या समूह में किसी स्थान पर जिस क्रम से निकलते हैं उसे पुष्पक्रम कहते हैं। जिस मोटे, चपटे स्थान से पुष्पदल निकलते हैं, उसे पुष्पासन कहते हैं। बाहरी हरे रंग की पंखुड़ी के दल को बाह्यदलपुंज कहते हैं। इसकी प्रत्येक पंखुड़ी को बाह्यदल कहते हैं। इस के ऊपर रंग बिरंगी पंखुड़ियों से दलचक्र बनता है। दलपुंज के अनेक रूप होते हैं, जैसे गुलाब, कैमोमिला, तुलसी, मटर इत्यादि में। पंखुड़ियाँ पुष्पासन पर जिस प्रकार लगी रहती हैं, उसे पुष्प दलविन्यास कहते हैं। पुमंग पुष्प का नर भाग है, जिसें पुंकेसर बनते हैं। पुंमग में तंतु होते हैं, जिनके ऊपर परागकोष होते हैं। इन कोणों में चारों कोने पर परागकण भरे रहते हैं। परागकण की रूपरेखा अनेक प्रकर की होती है। स्त्रीकेशर या अण्डप पुष्प के मध्यभाग में होता है। इसके तीन मुख्य भाग हैं : नीचे चौड़ा अंडाशय, उसके ऊपर पतली वर्तिका और सबसे ऊपर टोपी जैसा वर्तिकाग्र। वर्तिकाग्र पर पुंकेसर आकर चिपक जाता है, वर्तिका से नर युग्मक की परागनलिका बढ़ती हुई अंडाशय में पहुँच जाती है, जहाँ नर और स्त्री युग्मक मिल जाते हैं और धीरे धीरे भ्रूण बनता है। अंडाशय बढ़कर फल बनाता है तथा बीजाणु बीज बनाते हैं।

परागकण की परागकोष से वर्तिकाग्र तक पहुँचने की क्रिया को परागण कहते हैं। अगर पराग उसी फूल के वर्तिकाग्र पर पड़े तो इसे स्वपरागण कहते हैं और अगर अन्य पुष्प के वर्तिकाग्र पर पड़े तो इसे परपरागण कहेंगे। परपरागण अगर कीड़े-मकोड़े, तितलियों या मधुमक्षियों द्वारा हो, तो इसे कीटपरागण कहते हैं। अगर परपरागण वायु की गति के कारण से हो, तो उसे वायुपरागण कहते हैं, अगर जल द्वारा हो तो इसे जलपरागण और अगर जन्तु से हो, तो इसे प्राणिपरागण कहते हैं। गर्भाधान या निषेचन के उपरान्त फल और बीज बनते हैं, इसकी रीतियाँ एकबीजपत्री तथा द्विदलपत्री में अलग-अलग होती हैं। बीज जिस स्थान पर जुड़ा होता है उसे हाइलम कहते हैं। बीज एक चोल से ढँका रहता है। बीज के भीतर दाल के बीच में भ्रूण रहता है जो भ्रूणपोष से ढँका रहता है।

फल तीन प्रकार के होते हैं : एकल, पुंज और संग्रथित। एकल फल एक ही फूल के अंडाशय से विकसित होकर जनता है और यह कई प्रकार का होता है, जैसे (१) शिम्ब, उदाहरण मटर, (२) फॉलिकल, जैसे चंपा, (३) सिलिकुआ, जैसे सरसों, (४) संपुटी, जैसे मदार या कपास, (५) कैरियाप्सिस, जैसे धान या गेहूँ, (६) एकीन जैसे, क्लीमेटिस, (७) अष्ठिल फल, जैसे आय, (८) सरस फल, जैसे टमाटर इत्यादि। पुंज फल एक ही फूल से बनता है, लेकिन कई स्त्रीकेसर से मिलकर, जैसा कि शरीफा में। संग्रथित फल कई फूलों से बनता है, जैसे सोरोसिस (कटहल) या साइकोनस (अंजीर) में।

बीज तथा फल पकने पर झड़ जाते हैं और दूर दूर तक फैल जाते हैं। बहुत से फल हलके होने के कारण हवा द्वारा दूर तक उड़ जाते हैं। कुछ फलों के ऊपर नुकीले हिस्से जानवरों के बाल या चमड़े पर चिपककर इधर उधर बिखर जाते हैं। जल द्वारा भी यह कार्य बहुत से समुद्रतट के पौधों में होता है।

इन्हें भी देखे

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