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देव (कवि)

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(देव(रीतिग्रंथकार कवि) से अनुप्रेषित)

Hindi के ब्रजभाषा काव्य के अंतर्गत देव को महाकवि का गौरव प्राप्त है। उनका पूरा नाम देवदत्त था। उनका आविर्भाव हिन्दी के रीतिकाल में हुआ था। यद्यपि ये प्रतिभा में बिहारी, .....भूषण, मतिराम आदि समकालीन कवियों से कम नहीं वरन् कुछ बढ़कर ही सिद्ध होते हैं, फिर भी इनका किसी एक विशिष्ट राजदरबार से संबंध न होने के कारण इनकी वैसी ख्याति और प्रसिद्धि नहीं हुई। हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार, "मतिराम और जसवंत सिंह के बाद यदि कोई सचमुच ही शक्तिशाली कवि और अलंकारिक कवि हुआ तो वह देव कवि थे"। छल नामक संचारी भाव इन की ही देन है। देव को अत्यधिक प्रसिद्ध करनेवाले लेखकों में मिश्रबंधु हैं जिनके विचार से देव का स्थान हिंदी साहित्य में तुलसी के बाद आता है। देव और बिहारी में कौन अधिक श्रेष्ठ है इसको लेकर एक विवाद भी चला था। इसी संबंध में 'देव और बिहारी' नामक पुस्तक पंडित कृष्णबिहारी मिश्र ने लिखी और 'बिहारी और देव' की रचना लाला भगवानदीन ने की। इन दोनों में देव और बिहारी की काव्यप्रतिभा को स्पष्ट करने का प्रयत्न है।

यद्यपि हिंदी साहित्य के अंतर्गत 'देव' नाम के छह-सात कवि मिलते हैं, तथापि प्रसिद्ध कवि देव को छोड़कर अन्य 'देव' नामधारी कवियों की कोई विशेष ख्याति नहीं हुई। देव का जन्म मैनपुरी के कुसमरा कस्बे में 1673 में हुआ था , (उस समय कुसमरा इटावा जिला के अंतर्गत आता था)।

जीवन परिचय

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प्रसिद्ध देव कवि का जन्म सं. 1673 में हुआ था। ये द्यौसरिया (देवसरिया) कान्यकुब्ज द्विवेदी ब्राह्मण थे। इनका निवासस्थान इटावा था, जैसा 'भावविलास' की निम्नलिखित पंक्ति से स्पष्ट होता है-

द्यौसरिया कवि देव का नगर इटावो बास।

'भावविलास' के ही सक्ष्य पर इनके जन्म संवत् की भी पुष्टि होती है जिसकी रचना इन्होंने संवत् १७४६ में की। वह दोहा इस प्रकार है-

सुभ सत्रह से छियालिस, चढ़त सोरहीं वर्ष।
कढ़ी देव मुख देवता भावविलास सहर्ष॥

देव ने कई आश्रयदाताओं के यहाँ रहकर अपनी रचनाएँ कीं। इनकी रचना 'अष्टयाम' औरंगजेब के पुत्र आजमशाह के संकेत पर हुई थी और उसने उन्हें पुरस्कृत भी किया था। संभवत: 'भावविलास' भी आजमशाह के आश्रय में लिखा गया हो। देव के दूसरे आश्रयदाता दादरीपति राजा सीताराम के भतीजे भवानीदत्त वैश्य थे। ये चरखी दादरी (रेवाड़ी) के निवासी थे। इनके लिए इन्होंने 'भवानीविलास' नामक ग्रंथ लिखा। देव के तीसरे आश्रयदाता कुशलसिंह थे। ये फफूँद के रहनेवाले थे और देव ने इनके लिए 'कुशलविलास' नामक ग्रंथ की रचना की। देव के वास्तविक गुण-ग्राहक और आश्रयदाता राजा भोगीलाल हुए जिनके लिए इन्होंने 'रसविलास' नामक ग्रंथ की रचना की। इनके संबंध में देव ने अपने रसविलास में लिखा है-

भोगीलाल भूप लख पाखर लिवैया जिन
लाखन खरचि रुचि आषर खरीदे हैं।

देव की कृति 'प्रेमचंद्रिका' डयोंड़िया खेड़े के राव मर्दनसिंह के पुत्र उद्योतसिंह को समर्पित है। 'सुजानविनोद' की रचना दिल्ली के रईस पातीराम के पुत्र सुजानमणि के लिए हुई। इनकी अंतिम रचना 'सुखसागर तरंग' पिहानी के राजा अली अकबर खाँ के आश्रय में लिखी गई।

कृतियाँ

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देव की बहुसंख्यक रचनाओं का उल्लेख किया जाता है। कुछ लोग इनके ग्रंथों की संख्या ७२ और कुछ लोग ५२ कहते हैं। परंतु इनके प्रामाणिक ग्रंथ, जो प्राप्त होते हैं, १८ हैं। अन्य नौ ग्रंथ भी इनके नाम से उल्लिखित हैं और इस प्रकार कुल २७ ग्रंथ इनके नाम से मिलते हैं। निर्विवाद रूप से जिन १८ ग्रंथों को देवकृत स्वीकार किया जा सकता है वे इस प्रकार हैं-

(१) भावविलास (२) अष्टयाम (३) भवानीविलास (४) रसविलास (५) प्रेमचंद्रिका (६) राग रत्नाकर (७) सुजानविनोद (८) जगद्दर्शन पचीसी (९) आत्मदर्शन पचीसी
(१०) तत्वदर्शन पचीसी (११) प्रेम पचीसी (इन चारों पचीसियों का नाम देवशतक भी है।) (१२) शब्दरसायन (१३) सुखसागर तरंग (इतने ग्रंथ प्रकाशित हैं)

हस्तलिखित ग्रंथ हैं -

(१४) प्रेमतरंग (१५) कुसलविलास (१६) जातिविलास (१७) देवचरित्र (१८) देवमायाप्रपंच।

देवकृत एक संस्कृत ग्रंथ भी 'शृंगांर विलासिनी' नाम से भरतपुर से प्रकाशित हुआ था। इसका विषय भी श्रृगांर और नायिकाभेद है और हिंदी छंदों की रचना इस ग्रंथ में संस्कृत भाषा में की गई है। यद्यपि इसकी रचना शुद्ध संस्कृत में है, फिर भी देव की वास्तविक प्रतिभा के दर्शन इसमें नहीं होते।

देव के इन बहुसंख्यक ग्रंथों से यह निष्कर्ष निकालना कि सभी ग्रंथ एक दूसरे से भिन्न हैं, भ्रमात्मक है। इनके एक ग्रंथ के अनेक छंद दूसरे ग्रंथों में मिलते हैं और प्राय: इन्होंने अपने किसी पूर्ववर्ती ग्रंथ को आश्रयदाता का नाम बदलकर दूसरा नाम दे दिया है। देव का अधिकांश वर्ण्य विषय प्रेम और शृंगार है, परंतु प्रेम और शृंगार के सबंध में उनकी धारणा अत्यंत उच्च है और उनकी भावना उदात्त और उज्वल रूप में प्रकट हुई है। देव का काव्यशास्त्रीय विवेचन भी, जो इनके ग्रंथों में लक्षण अंशों में प्राप्त होता है, अपनी मौलिक विशेषता रखता है। परंतु देव की अधिक प्रसिद्धि उनके लक्षणों में न होकर उदाहरणों में समाहित है।

देव के सवैया और घनाक्षरी दोनों ही अपनी छाप रखते हैं और देव की सुंदर रचनाओं को किसी दूसरे कवि की रचनाओं से मिलाकर छिपा रखना संभव न होगा। देव की रचनाओं में जितना व्यापक अनुभव मिलता है उतनी ही गहरी भावुकता भी प्राप्त होती है। किसी भी भाव का देव जैसा सजीव और मर्मस्पर्शी वर्णन असाधारण वस्तु है। देव की कल्पना केवल ऊहात्मक विशेषता ही नहीं रखती, वरन् वह अनुभूति के रस से सिंचित होकर सरसता संपन्न होती है। इसी प्रकार देव की शब्दावली भी अपनी है। देव की शब्दावली में संगीतमय प्रवाहयुक्त शब्दचयन, छंद को सहज स्मरणीय बना देता है और रूप, सौंदर्य, वस्तु, चरित्र के चित्रण में देव को अप्रतिम सफलता प्राप्त हुई है। देव अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण हिंदी साहित्य में अत्यंत उत्कृष्ट स्थान के अधिकारी हुए हैं, यद्यपि समसामयिक राज्य सम्मान इन्हें वैसा प्राप्त नहीं हुआ था जैसा इन्हें मिलना चाहिए था।

सन्दर्भ ग्रन्थ

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  • मिश्रबंधु : देवसुधा;
  • कृष्ण बिहारी मिश्र : देव और बिहारी;
  • लाला भगवान दीन कृत 'बिहारी और देव'
  • डा. नगेंद्र : रीतिकाव्य की भूमिका तथा देव और उनकी कविता।

बाहरी कड़ियाँ

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