बावड़ी

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विश्व धरोहर सूची में शामिल गुजरात के पाटण स्थित रानी की वाव
फतेहपुर, शेखावाटी की एक बावड़ी का दृश्य।
अग्रसेन की बावली, नई दिल्ली
चित्र:Abaneri.jpg
राजस्थान में दौसा जिले में स्थित आभानेरी की चाँद बावड़ी
बूंदी में स्थित सुप्रसिद्ध हाडीरानी की बावड़ी
बूंदी में स्थित सुप्रसिद्ध हाडीरानी की बावड़ी
प्रतापगढ़ (राजस्थान) के गाँव सालमगढ़ में एक क्षतविक्षत पुरानी बावडी : हे.शे.

मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा जिले में ग्राम बीजागोरा की बावड़ी या बावली उन सीढ़ीदार कुँओं , तालाबों या कुण्डो को कहते हैं जिन के जल तक सीढ़ियों के सहारे आसानी से पहुँचा जा सकता है। भारत में बावड़ियों के निर्माण और उपयोग का लम्बा इतिहास है। कन्नड़ में बावड़ियों को 'कल्याणी' या पुष्करणी, मराठी में 'बारव' तथा गुजराती में 'वाव' कहते हैं। संस्कृत के प्राचीन साहित्य में इसके कई नाम हैं, एक नाम है-वापी। इनका एक प्राचीन नाम 'दीर्घा' भी था- जो बाद में 'गैलरी' के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा। वापिका, कर्कन्धु, शकन्धु आदि भी इसी के संस्कृत नाम हैं।

जल प्रबन्धन की परम्परा प्राचीन काल से हैं। हड़प्पा नगर में खुदाई के दौरान जल संचयन प्रबन्धन व्यवस्था होने की जानकारी मिलती है। प्राचीन अभिलेखों में भी जल प्रबन्धन का पता चलता है। पूर्व मध्यकाल और मध्यकाल में भी जल सरंक्षण परम्परा विकसित थी। पौराणिक ग्रन्थों में तथा जैन बौद्ध साहित्य में नहरों, तालाबों, बाधों, कुओं बावडियों और झीलों का विवरण मिलता है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में जल प्रबन्धन का उल्लेख मिलता है। चन्द्रगुप्त मौर्य के जूनागढ़ अभिलेख में सुदर्शन झील और कुछ वापियों के निर्माण का विवरण प्राप्त है। इस तरह भारत में जल संसाधन की उपलब्धता एवं प्राप्ति की दृष्टि से काफी विषमताएँ मिलती हैं, अतः जल संसाधन की उपलब्धता के अनुसार ही जल संसाधन की प्रणालियाँ विकसित होती हैं। बावड़ियां हमारी प्राचीन जल संरक्षण प्रणाली का आधार रही हैं- प्राचीन काल, पूर्वमध्यकाल एवं मध्यकाल सभी में बावडि़यों के बनाये जाने की जानकारी मिलती है। दूर से देखने पर ये तलघर के रूप में बनी किसी बहुमंजिला हवेली जैसी दृष्टिगत होती हैं।

इतिहास[संपादित करें]

बावड़ियों को सर्वप्रथम हिन्दुओं द्वारा (जनोपयोगी शिल्पकला के रूप में) विकसित किया गया और उसके पश्चात मुस्लिम शासकों ने भी इसे अपनाया।[1] बावड़ी-निर्माण की परम्परा कम से कम छठी शताब्दी में गुजरात के दक्षिण-पश्चिमी भाग में आरम्भ हो चुकी थी। धीरे-धीरे ऐसे कई निर्माण-कार्य उत्तर की ओर विस्तार करते हुए राजस्थान में बढ़े। अपनी पुस्तक 'राजस्थान की रजत बूँदें' (प्रकाशक: गाँधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली) में अनुपम मिश्र ने राजस्थान की बावड़ियों के इतिहास, शिल्प-पक्ष और इनकी सामाजिक-उपयोगिता पर विस्तृत प्रकाश डाला है। बावड़ी-निर्माण का यह कार्य ११वीं से १६वीं शताब्दी में अपने पूर्ण चरम पर रहा।[1]

स्थापत्य कला[संपादित करें]

अपराजितापृच्छा, राजवल्लभ , शिल्प मंडन, समरांगण सूत्रधार , वास्तुसार और रूपमंडन जैसे अनेक कालजयी वास्तुग्रंथों में वापियों के निर्माण का महत्व, उसके तकनीकी नापजोख, निर्माण के प्रकार, उपयोग और वास्तु पर अनगिनत पृष्ठ लिखे गए हैं। [1]

बावड़ियाँ सुरक्षा के लिए ढकी हुई भी हो सकती हैं, खुली भी पर स्थापत्य और उपयोगिता की दृष्टि से दोनों ही तरह की बावड़ियाँ महत्वपूर्ण हैं। राजस्थान की चाँद बावड़ी और गुजरात में अडालज की बावड़ी इसके महत्वपूर्ण उदाहरणों में से हैं।

वास्तु[संपादित करें]

बावडियों के परिसर में तरह तरह की तिबारियां, अलग अलग आकर प्रकार के कमरे, संपर्क-दालान, दीर्घाएं, मंदिर आदि अनेक प्रकार के निर्माण किये जाते थे क्यों कि बावड़ी केवल जल के उपयोग की चीज़ नहीं सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन का लगभग केंद्र भी होती थी, यहाँ पूजा-अर्चना भी की जा सकती थी, ब्याह-शादी और गोठ-ज्योनार (आज जिसे पिकनिक कहते हैं) भी | दूर से आने वाले यात्री यहाँ बनी धर्मशालाओं में रुक सकते थे।

वास्तुशास्त्र के अनुसार बावड़ियां चतुष्टकोणीय, वर्तुल, गोल या दीर्घ प्रकारों की हो सकती हैं। इनके प्रवेश से मध्य भाग तक ईटों अथवा पत्थरों से पक्का और ठोस निर्माण होता है जिसके ठीक नीचे जल होता है जो प्रायः किसी भूगर्भीय निरंतर प्रवाहित जलस्रोत से जुड़ा होता है। आंगन से प्रथम तल तक सीढ़ियों, स्तंभों, छतरियों तथा मेहराबों आदि का निर्माण होता है। एक या अधिक मंजिल में निर्मित बावड़ियों में अनेकानेक दरवाजे, सीढ़ियाँ, दीवारें तथा आलिए आदि बने होते हैं जिनमें बेलबूटों, झरोखों, मेहराब एवं जल देवताओं का अंकन होता है। जल देवताओं में अधिकांशत कश्यप, मकर, भूदेवी, वराड़, गंगा, विष्णु और दशावतार आदि का चित्रण किया जाता है। पर इन पर उत्कीर्ण कई स्थानीय देवी देवता भी देखे जाते हैं।

ये भी कहते है सत्य है:- एक रात में तैयार हुई थी ये तीनो बावड़ी। :- भांडारेज की बावड़ी ( दौसा)राज. जी हाँ दौसा की चाँद बावड़ी की तरह ये बावड़ी भी कहते है कि एक रात में ही बनी थी। इतना ही नहीं ये भी कहते है कि चाँद बावड़ी , आलूदा की बावड़ी और भांडारेज की बावड़ी तीनो को ही एक रात में बनाया गया और ये तीनो सुरंग से एक-दूसरे से जुड़ी हैं।

कुछ दर्शनीय बावड़ियाँ[संपादित करें]

'चाँद बावड़ी' का निर्माण ९वीं शताब्दी में आभानेरी के संस्थापक राजा चंद्र ने कराया था। राजस्थान में यह दौसा जिले की बाँदीकुई तहसील के आभानेरी नामक ग्राम में स्थित है। बावड़ी १०० फीट गहरी है। इस बाव़डी के तीन तरफ सोपान और विश्राम घाट बने हुए हैं। इस बावड़ी की स्थापत्य कला अद्भुत है। यह भारत की सबसे बड़ी और गहरी बावड़ियों में से एक है। इसमें ३५०० सीढ़ियां हैं।[2] चाँद बावडी के ही समय बनी दूसरी बावड़ी है- भांडारेज की बावड़ी,[2] जो जयपुर-भरतपुर राजमार्ग पर ग्राम भांडारेज में स्थित है। यह दर्शनीय वापी भी बहुमंजिला है और [[एक रात में तैयार हुई थी ये तीनो बावड़ी। :- भांडारेज की बावड़ी ( दौसा)राज. जी हाँ दौसा की चाँद बावड़ी की तरह ये बावड़ी भी कहते है कि एक रात में ही बनी थी। इतना ही नहीं ये भी कहते है कि चाँद बावड़ी , आलूदा की बावड़ी और भांडारेज की बावड़ी तीनो को ही एक रात में बनाया गया और ये तीनो सुरंग से एक-दूसरे से जुड़ी हैं।पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग]][3][मृत कड़ियाँ] राजस्थान सरकार का संरक्षित स्मारक है।

टोंक जिले में टोडारायसिंह की 'रानी जी की बावडी' और बूंदी में 'हाडी रानी की बावडी' राजस्थान की विशालतर बावडियों में से हैं।

बून्‍दी शहर के मध्‍य में स्थित रानी जी की बावडी की गणना एशिया की सर्वश्रेष्‍ठ बावडियों में की जाती है। इस अनुपम बावडी का निर्माण राव राजा अनिरूद्व सिंह की रानी नाथावती ने करवाया था। कलात्‍मक बावडी में प्रवेश के लिए तीन द्वार है। बावडी के जल-तल तक पहुचने के लिए सौ से अधिक सीढियां उतरनी होती हैं। कलात्‍मक रानी जी की बावडी उत्‍तर मध्‍य युग की देन है। बावडी के जीर्णोद्वार और चारों ओर एक उद्यान विकसित होने से इसका महत्‍व बढ गया है। हाल ही में रानी जी की बावडी को एशिया की सर्वश्रेष्‍ठ बावडियो में शामिल किया गया है। इसमें झरोखों, मेहराबों जल-देवताओं का अंकन किया गया है। संरक्षित स्मारक के रूप में वर्तमान में रानी जी की बावडी संरक्षण का जिम्‍मा भारतीय पुरातत्‍व सर्वेक्षण विभाग के पास है।[4]

श्री कृष्ण के ब्रज में आज भी आधा दर्जन बड़ी बावड़ियाँ हैं। लखनऊ के बाड़ा इमामबाड़ा में 5 मंजिला बावड़ी है। शाही हमाम नाम से प्रसिद्ध इस बावड़ी की तीन मंजिलें आज भी पानी में डूबी रहती हैं। किस्सा तो यह भी है कि हजरत निजामुद्दीन औलिया दरगाह में एक ऐसी बावड़ी भी है जिसके पानी से दीये जल उठे थे। सात सौ साल पहले जब गयासुद्दीन तुगलक तुगलकाबाद के निर्माण में व्यस्त था तब श्रमिक हजरत निजामुद्दीन के लिए काम करते थे। तुगलक ने तब तेल की बिक्री रोक दी तो श्रमिकों ने तेल की जगह पानी से दीये जलाए और बावड़ी का निर्माण किया। अब लोग मानते हैं कि इस पानी से मर्ज दूर होते हैं। माना जाता है कि मंदसौर के पास भादवा माता की बावड़ी में नहाने से लकवा दूर हो जाता है।

सवाई माधोपुर की एक बावडी भी चर्मरोग ठीक करने में सहायक है क्योंकि इसके भूगर्भीय जल में कई उपयोगी औषधियां कुदरती तौर पर बताई गयी हैं। [5]

विश्व धरोहर[संपादित करें]

जून 2014 में गुजरात के पाटण में स्थित रानी की वाव को यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर सूची में शामिल कर लिया गया।[3] यूनेस्को ने इसे तकनीकी विकास का एक ऐसा उत्कृष्ट उदाहरण मानते हुए मान्यता प्रदान की है जिसमें जल-प्रबंधन की बेहतर व्यवस्था और भूमिगत जल का इस्तेमाल इस खूबी के साथ किया गया है कि व्यवस्था के साथ इसमें एक सौंदर्य भी झलकता है। रानी की वाव समस्त विश्व में ऐसी इकलौती बावली है जो विश्व धरोहर सूची में शामिल हुई है जो इस बात का सबूत है कि प्राचीन भारत में जल-प्रबंधन की व्यवस्था कितनी बेहतरीन थी।[3]

कुछ अन्य ऐतिहासिक सन्दर्भ[संपादित करें]

सुप्रसिद्ध इतिहासकार डॉ॰ गोपीनाथ शर्मा[4] ने एक बावडी शिलालेख के बारे में लिखा है- "Burda Inscription of Rupadevi of 1283 AD"| "यह शिलालेख बुद्धपद्र (बुरडा) गाँव की एक बावड़ी में लगा हुआ था, जहाँ से उसे जोधपुर के दरबार हाल में लाकर सुरक्षित किया गया है | यह संस्कृत पद्य का 19 पंक्तियों का लेख पत्थर पर उत्कीर्ण है| प्रारंभ में कृष्ण की स्तुति की गयी है।... 18 -19 वीं पंक्तियों में वि॰सं॰ 1340 सोमवार ज्येष्ठ कृष्ण सप्तमी को रूपादेवी द्वारा बनवाई गयी बावड़ी की प्रतिष्ठा का उल्लेख है|.. यह उल्लेखनीय है कि उस समय राजा की भांति सामंत परिवार की स्त्रियाँ भी जनहित संपादन के लिए बावड़ियाँ बनावती थीं और उस निर्माण को एक सामाजिक तथा धार्मिक महत्व दिया जाता था|"

जैन धर्म के एक विश्वकोश [6] में असाधारण रूप से विशाल वापियों का यह विवरण बड़ा रोचक है-

नन्दा नन्दवती पुनर्नन्दोत्तरा नन्दिषेणा अरजा विरजा गतशोका वीतशोका विजय वैजयन्ती जयन्ती च।। ९६९।। अवरा। अपराजिता च रम्या रमणीया सुप्रभा च चरमा पुनः सर्वतोभद्राः। एताः सर्वा रत्नतट्यो लक्षयोजनप्रमिताः पूर्वदिग्भागादितो ज्ञातव्याः।। ९७०।।

अनन्तरं तासां वापीनां स्वरूपमाह—सव्वे समचउरस्सा टंकुक्किण्णा सहस्समोगाढ़ा। वेदियचउवण्णजुदा जलयरउम्मुकजलपुण्णा।। ९७१।। सर्वाः समचतुरस्राः टज्रेत्कीर्णाः सहस्रमवगाधाः। वेदिकाचतुर्वर्णयुता जलचरोन्मुक्तजलपूर्णाः।। ९७१।।

सव्वे। ताः सर्वाः समचतुरस्राष्टज्रेत्कीर्णाः सहस्रयोजनावगाधाः वेदिकाभिश्चतुर्वनैश्च युक्ताः जलचरोन्मुक्तजलपूर्णाः स्युः।। ९७१।। अथ तद्वापीनां वनस्वरूपमाह—वावीणं पुव्वादिसु असोयसत्तच्छदं च चंपवणं। चूदवणं च कमेण य सगवावीदीहदलवासा।। ९७२।।

वापीनां पूर्वदिषु अशोकसप्तच्छदं च चम्पवनं। चूतवनं च क्रमेण च स्वकवापीदीर्घदलव्यासानि।। ९७२।।

गाथार्थ :— पूर्वादि चारों दिशाओं में क्रमशः नन्दा, नन्दवती, नन्दोत्तरा, नन्दिषेणा, अरजा, विरजा, गतशोका, वीतशोका, विजया, वैजयन्ती, जयन्ती, अपराजिता, रम्या, रमणीया, सुप्रभा और सर्वतोभद्रा रत्नमय तट से युक्त ये सर्व वापिकाएँ एक लाख योजन प्रमाण वाली हैं।। ९६९-९७०।।

विशेषार्थ :— नन्दीश्वर द्वीप की पूर्व दिशा में नन्दा, नन्दवती, नन्दोत्तरा और नन्दिषेणा ये चार वापिकाएँ हैं। दक्षिण दिशा में अरजा, विरजा, गतशोका और वीतशोका; पश्चिम दिशा में विजया, वैजयन्ती, जयन्ती और अपराजिता तथा उत्तर दिशा में रम्या, रमणीया, सुप्रभा और सर्वतोभद्रा ये चार वापिकाएँ हैं। इन सब वापिकाओं के तट रत्नमय हैं तथा ये १००००० योजन प्रमाण वाली हैं।

अब उन वापिकाओं का स्वरूप कहते हैं— गाथार्थ :— वे सर्व वापिकाएँ समचतुरस्र, टज्रेत्कीर्ण, एक हजार योजन अवगाह युक्त, चार-चार वनों से सहित, जलचर जीवों से रहित और जल से परिपूर्ण हैं।। ९७१।।

विशेषार्थ :— वे सर्व वापिकाएँ एक लाख योजन लम्बी और एक लाख योजन चौड़ी अर्थात् समचतुरस्र आकार वाली हैं। टज्रेत्कीर्ण अर्थात् ऊपर नीचे एक सदृश हैं। उनकी गहराई १००० योजन प्रमाण है, ये वेदिकाएँ चारों दिशाओं में एक-एक वन अर्थात् प्रत्येक चार-चार वनों से संयुक्त हैं। ये जलचर जीवों से रहित और जल से परिपूर्ण हैं। अब उन वापिकाओं के वनों का स्वरूप कहते हैं— गाथार्थ :— उन वापिकाओं की पूर्वादि दिशाओं में क्रमशः अपनी वापी की दीर्घता के सदृश लम्बे (१००००० यो०) और लम्बाई के अर्धप्रमाण चौड़े (५०००० यो०) अशोक, सप्तच्छद, चम्पक और आम्र के वन हैं।। ९७२।।

आस्था से अलग वैज्ञानिक दृष्टिकोण यह कि बावड़ी के प्रतिपुण्य और अमरता का भाव जगा कर जल संचय के लिए लोक मानस तैयार किया गया। लोक ने बावड़ी को किस्सों, कहावतों और गोदने में शामिल कर जनसंचार के माध्यम के रूप में अपना लिया।

कुछ प्रसिद्ध बावड़ियाँ[संपादित करें]

• बीजागोरा ग्राम में स्थित बावड़ी [7]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. डेविस, फिलिप (1989). The Penguin guide to the monuments of India. लंदन: विकिंग (Viking). आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 0-14-008425-8.
  2. "फोटो: चाँद बावड़ी स्टेपवेल, राजस्थान।". बीबीसी. 2010. मूल से 29 अप्रैल 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 27 जून 2013.
  3. "संग्रहीत प्रति". मूल से 8 अगस्त 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 24 जून 2014.
  4. शर्मा डॉ॰ गोपीनाथ शर्मा: राजस्थान के इतिहास के स्त्रोत, 1983, पृ. 115
  • Basham, A.L. 1967. 'The Wonder that Was India', Fontana, London, and Rupa & Co., Calcutta.
  • 'राजस्थान की रजत बूँदें' : अनुपम मिश्र : गाँधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली का प्रकाशन
  • 'आज भी खरे हैं तालाब': अनुपम मिश्र : उपर्युक्त
  • 'राजस्थान के कुएँ एवं बावड़ियाँ': वाई.डी. सिंह :राजस्थानी ग्रंथागार: जोधपुर
  • 'भारतीय बावड़ियाँ पारंपरिक जलस्रोतों का ऐतिहासिक, सामाजिक एवं शिल्पशास्त्रीय अध्ययन':[Subhadra Publishers and Distributors:2013 [ISBN 8189399640] [ISBN 9788189399641]
  • [8]
  • किशनगढ़ की जर्जर बावड़ियाँ [9]
  • ग्वालियर की बावड़ियाँ [10]
  • मारवाड़ क्षेत्र की बावड़ियाँ [11]
  • देवास की बदहाल बावड़ियाँ [12]
  • मध्यप्रदेश की बावड़ियाँ :[13]
  • राजसमन्द की बावड़ियाँ [14]
  • मंदसौर की बावड़ियां [15]
  • प्रतापगढ़ की बावड़ियाँ [16]
  • मध्यप्रदेश में बावडी संरक्षण [17]

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]