रांगेय राघव
तिरूमल्लै नंबाकम वीर राघव आचार्य रांगेय राघव | |
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जन्म | १७ जनवरी, १९२३ आगरा, उत्तर प्रदेश, भारतagra |
मौत | १२ सितंबर, १९६२ |
पेशा | लेखक, उपन्यासकार, जीवनीलेखक |
भाषा | हिन्दी |
राष्ट्रीयता | भारतीय |
काल | आधुनिक काल |
विधा | कहानी, उपन्यास, आत्मकथाएं, रिपोर्ताज |
विषय | सामाजिक, समाजवादी |
उल्लेखनीय कामs | कब तक पुकारूँ |
रांगेय राघव (१७ जनवरी, १९२३ - १२ सितंबर, १९६२) हिंदी के उन विशिष्ट और बहुमुखी प्रतिभावाले रचनाकारों में से हैं जो बहुत ही कम उम्र लेकर इस संसार में आए, लेकिन जिन्होंने अल्पायु में ही एक साथ उपन्यासकार, कहानीकार, निबंधकार, आलोचक, नाटककार, कवि, इतिहासवेत्ता तथा रिपोर्ताज लेखक के रूप में स्वंय को प्रतिस्थापित कर दिया, साथ ही अपने रचनात्मक कौशल से हिंदी की महान सृजनशीलता के दर्शन करा दिए।[1]आगरा में जन्मे रांगेय राघव ने हिंदीतर भाषी होते हुए भी हिंदी साहित्य के विभिन्न धरातलों पर युगीन सत्य से उपजा महत्त्वपूर्ण साहित्य उपलब्ध कराया। ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि पर जीवनीपरक उपन्यासों का ढेर लगा दिया। कहानी के पारंपरिक ढाँचे में बदलाव लाते हुए नवीन कथा प्रयोगों द्वारा उसे मौलिक कलेवर में विस्तृत आयाम दिया। रिपोर्ताज लेखन, जीवनचरितात्मक उपन्यास और महायात्रा गाथा की परंपरा डाली। विशिष्ट कथाकार के रूप में उनकी सृजनात्मक संपन्नता प्रेमचंदोत्तर रचनाकारों के लिए बड़ी चुनौती बनी।[2]
जीवन परिचय
[संपादित करें]इनका मूल नाम तिरूमल्लै नंबाकम वीर राघव आचार्य था; लेकिन उन्होंने अपना साहित्यिक नाम ‘रांगेय राघव’ रखा। इनका जन्म १७ जनवरी, १९२३ श्री रंगाचार्य के घर हुआ था। इनकी माता श्रीमती कनकवल्ली और पत्नी श्रीमती सुलोचना थीं। इनका परिवार मूलरूप से तिरुपति, आंध्र प्रदेश का निवासी था।[1] ‘वैर’ गाँव के सहज, सादे ग्रामीण परिवेश में उनके रचनात्मक सहित्य ने अपना आकार गढ़ना शुरू किया। जब उनकी सृजन-शक्ति अपने प्रकाशन का मार्ग ढूँढ़ रही थी तब देश स्ततंत्रता के लिए संघर्षरत था। ऐसे वातावरण में उन्होंने अनुभव किया- अपनी मातृभाषा हिंदी से ही देशवासियों के मन में देश के प्रति निष्ठा और स्वतंत्रता का संकल्प जगाया जा सकता है। यों तो उनकी सृजन-यात्रा सर्वप्रथम चित्रकला में प्रस्फुटित हुई। सन् १९३६-३७ के आस-पास जब वह साहित्य की ओर उन्मुक हुई तो उसने सबसे पहले कविता के क्षेत्र में कदम रखा और इसे संयोग ही कहा जाएगा कि उनकी रचनात्मक अभिव्यक्ति का अंत भी मृत्यु पूर्व लिखी गई उनकी एक कविता से ही हुआ। उनका साहित्य सृजन भले ही कविता से शुरू हुआ हो, लेकिन उन्हें प्रतिष्ठा मिली एक गद्य लेखक के रूप में। सन् १९४६ में प्रकाशित ‘घरौंदा’ उपन्यास के जरिए वे प्रगतिशील कथाकार के रूप में चर्चित हुए। १९६२ में उन्हें कैंसर रोग से पीड़ित बताया गया था। उसी वर्ष १२ सितंबर को उन्होंने मुंबई (तत्कालीन बंबई) में देह त्यागी।[1]
रचनात्मक वैशिष्ट्य
[संपादित करें]उनका विपुल साहित्य उनकी अभूतपूर्व लेखन क्षमता को दर्शाता है। जिसके संदर्भ में कहा जाता रहा है कि ‘जितने समय में कोई पुस्तक पढ़ेगा उतने में वे लिख सकते थे। वस्तुतः उन्हें कृति की रूपरेखा बनाने में समय लगता था, लिखने में नहीं।‘ रांगेय राघव सामान्य जन के ऐसे रचनाकार हैं जो प्रगतिवाद का लेबल चिपकाकर सामान्य जन का दूर बैठे चित्रण नहीं करते, बल्कि उनमें बसकर करते हैं। समाज और इतिहास की यात्रा में वे स्वयं सामान्य जन बन जाते हैं। रागेय राघव ने वादों के चौखटे से बाहर रहकर सही मायने में प्रगितशील रवैया अपनाते हुए अपनी रचनाधर्मिता से समाज संपृक्ति का बोध कराया। समाज के अंतरंग भावों से अपने रिश्तों की पहचान करवाई। सन् १९४२ में वे मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित दिखे थे, मगर उन्हें वादग्रस्तता से चिढ़ थी। उनकी चिंतन प्रक्रिया गत्यात्मक थी। उन्होंने प्रगतिशीस लेखक संघ की सदस्यता ग्रहण करने से इनकार कर दिया, क्योंकि उन्हें उसकी शक्ति और सामर्थ्य पर भरोसा नहीं था। साहित्य में वे न किसी वाद से बँधे, न विधा से। उन्होंने अपने ऊपर मढ़े जा रहे मार्क्सवाद, प्रगतिवाद और यथार्थवाद का विरोध किया। उनका कहना सही था कि उन्होंने न तो प्रयोगवाद और प्रगतिवाद का आश्रय लिया और न प्रगतिवाद के चोले में अपने को यांत्रिक बनाया। उन्होंने केवल इतिहास को, जीवन को, मनुष्य की पीड़ा को और मनुष्य की उस चेतना को, जो अंधकार से जूझने की शक्ति रखती है, उसे ही सत्य माना।
रांगेय राघव ने जीवन की जटिलतर होती जा रही संरचना में खोए हुए मनुष्य की, मनुष्यत्व की पुनर्रचना का प्रयत्न किया, क्योंकि मनुष्यत्व के छीजने की व्यथा उन्हें बराबर सालती थी। उनकी रचनाएँ समाज को बदलने का दावा नहीं करतीं, लेकिन उनमें बदलाव की आकांक्षा जरूर हैं। इसलिए उनकी रचनाएँ अन्य रचनाकारों की तरह व्यंग्य या प्रहारों में खत्म नहीं होतीं, न ही दार्शनिक टिप्पणियों में समाप्त होती हैं, बल्कि वे मानवीय वस्तु के निर्माण की ओर उद्यत होती हैं और इस मानवीय वस्तु का निर्माण उनके यहाँ परिस्थिति और ऐतिहासिक चेतना के द्वंद से होता है। उन्होंने लोग-मंगल से जुड़कर युगीन सत्य को भेदकर मानवीयता को खोजने का प्रयत्न किया तथा मानवतावाद को अवरोधक बनी हर शक्ति को परास्त करने का भरसक प्रयत्न भी। कुछ प्रसिद्ध साहित्यिक कृतियों के उत्तर रांगेय राघव ने अपनी कृतियों के माध्यम से दिए। इसे हिंदी साहित्य में उनकी मौलिक देन के रूप में माना गया। ये मार्क्सवादी विचारों से प्रेरित उपन्यासकार थे।[1] भगवतीचरण वर्मा द्वारा रचित ‘टेढ़े-मेढ़े रास्ते’ के उत्तर में ‘सीधा-सादा रास्ता’, ‘आनंदमठ’ के उत्तर में उन्होंने ‘विषादमठ’ लिखा। प्रेमचंदोत्तर कथाकारों की कतार में अपने रचनात्मक वैशिष्ट्य, सृजन विविधता और विपुलता के कारण वे हमेशा स्मरणीय रहेंगे।
- उपन्यास
विषाद मठ, उबाल, राह न रुकी, बारी बरणा खोल दो, देवकी का बेटा, रत्ना की बात, भारती का सपूत, यशोधरा जीत गयी, घरौंदा, लोई का ताना, लखिमा की आँखें, मेरी भव बाधा हरो, कब तक पुकारूँ,पक्षी और आकाश, चीवर, राई और पर्वत, आख़िरी आवाज़, बन्दूक और बीन।
- कहानी संग्रह
संकलित कहानियाँ : (पंच परमेश्वर, अवसाद का छल, गूंगे, प्रवासी, घिसटता कम्बल, पेड़, नारी का विक्षोभ, काई, समुद्र के फेन, देवदासी, कठपुतले, तबेले का धुंधलका, जाति और पेशा, नई जिंदगी के लिए, ऊंट की करवट, बांबी और मंतर, गदल, कुत्ते की दुम और शैतान : नए टेक्नीक्स, जानवर-देवता, भय, अधूरी मूरत),
अंतर्मिलन की कहानियाँ : (दधीचि और पिप्पलाद, दुर्वासा, परशुराम, तनु, सारस्वत, देवल और जैगीषव्य, उपमन्यु, आरुणि (उद्दालक), उत्तंक, वेदव्यास, नचिकेता, मतंग, (एकत, द्वित और त्रित), ऋष्यश्रृंग, अगस्त्य, शुक्र, विश्वामित्र, शुकदेव, वक-दालभ्य, श्वेतकेतु, यवक्रीत, अष्टावक्र, और्व, कठ, दत्तात्रेय, गौतम-गौतमी, मार्कण्डेय, मुनि और शूद्र, धर्मारण्य, सुदर्शन, संन्यासी ब्राह्मण, शम्पाक, जैन तीर्थंकर, पुरुष तथा विश्व का निर्माण, मृत्यु की उत्पत्ति, गरुड़, अग्नि, तार्क्षी-पुत्र, लक्ष्मी, इंद्र, वृत्तासुर, त्रिपुरासुर, राजा की उत्पत्ति, चंद्रमा, पार्वती, शुंभ-निशुंभ, मधु-कैटभ, मार्तंड (सूर्य), दक्ष प्रजापति, स्वरोविष, शनैश्चर, सुंद और उपसुंद, नारद और पर्वत, कायव्य, सोम, केसरी, दशाश्वमेधिक तीर्थ, सुधा तीर्थ, अहल्या तीर्थ, जाबालि-गोवर्धन तीर्थ, गरुड़ तीर्थ, श्वेत तीर्थ, शुक्र तीर्थ, इंद्र तीर्थ, पौलस्त्य तीर्थ, अग्नि तीर्थ, ऋणमोचन तीर्थ, पुरुरवस् तीर्थ, वृद्धा-संगम तीर्थ, इलातीर्थ, नागतीर्थ, मातृतीर्थ, शेषतीर्थ), दस प्रतिनिधि कहानियाँ, गदल तथा अन्य कहानियाँ, प्राचीन यूनानी कहानियाँ, प्राचीन ब्राह्मण कहानियाँ, प्राचीन ट्यूटन कहानियाँ, प्राचीन प्रेम और नीति की कहानियाँ, संसार की प्राचीन कहानियाँ।
- यात्रा वृत्तान्त
महायात्रा गाथा (अँधेरा रास्ता के दो खंड), महायात्रा गाथा, (रैन और चंदा के दो खंड)।
- भारतीय भाषाओं में अनूदित कृतियाँ
जैसा तुम चाहो, हैमलेट, वेनिस का सौदागर, ऑथेलो, निष्फल प्रेम, परिवर्तन, तिल का ताड़, तूफान, मैकबेथ, जूलियस सीजर, बारहवीं रात।
रचनाएं
[संपादित करें]उपन्यास
[संपादित करें]- घरौदा
- विषाद मठ
- मुरदों का टीला
- सीधा साधा रास्ता
- हुजूर
- चीवर
- प्रतिदान
- अँधेरे के जुगनू
- काका
- उबाल
- पराया
- देवकी का बेटा
- यशोधरा जीत गई
- लोई का ताना
- रत्ना की बात
- भारती का सपूत
- आँधी की नावें
- अँधेरे की भूख
- बोलते खंडहर
- कब तक पुकारूँ
- पक्षी और आकाश
- बौने और घायल फूल
- लखिमा की आँखें
- राई और पर्वत
- बंदूक और बीन
- राह न रुकी
- जब आवेगी काली घटा
- धूनी का धुआँ
- छोटी सी बात
- पथ का पाप
- मेरी भव बाधा हरो
- धरती मेरा घर
- आग की प्यास
- कल्पना
- प्रोफेसर
- दायरे
- पतझर
- आखीरी आवाज़
कहानी संग्रह
[संपादित करें]- साम्राज्य का वैभव
- देवदासी
- समुद्र के फेन
- अधूरी मूरत
- जीवन के दाने
- अंगारे न बुझे
- ऐयाश मुरदे
- इन्सान पैदा हुआ
- पाँच गधे
- एक छोड़ एक
आलोचना
[संपादित करें]- भारतीय पुनर्जागरण की भूमिका
- भारतीय संत परंपरा और समाज
- संगम और संघर्ष
- प्राचीन भारतीय परंपरा और इतिहास
- प्रगतिशील साहित्य के मानदंड
- समीक्षा और आदर्श
- काव्य यथार्थ और प्रगति
- काव्य कला और शास्त्र
- महाकाव्य विवेचन
- तुलसी का कला शिल्प
- आधुनिक हिंदी कविता में प्रेम और शृंगार
- आधुनिक हिंदी कविता में विषय और शैली
- गोरखनाथ और उनका युग
रिपोर्ताज
[संपादित करें]काव्य
[संपादित करें]नाटक
[संपादित करें]पुरस्कार
[संपादित करें]- हिन्दुस्तान अकादमी पुरस्कार (1951),
- डालमिया पुरस्कार (1954),
- उत्तर प्रदेश सरकार पुरस्कार (1957 व 1959),
- राजस्थान साहित्य अकादमी पुरस्कार (1961) तथा
- मरणोपरांत (1966) महात्मा गांधी पुरस्कार से सम्मानित।
सन्दर्भ
[संपादित करें]- ↑ अ आ इ ई मिश्र, डॉ॰ देवेन्द्र (१७). "डॉ॰ रांगेय राघव: एक अद्वितीय उपन्यासकार" (एचटीएम). राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर. नामालूम प्राचल
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में तिथि प्राचल का मान जाँचें (मदद)[मृत कड़ियाँ] - ↑ शर्मा, कुमुद (जनवरी २००२). रांगेय राघव:कम उम्र के अनूठे कथाकार. नई दिल्ली: साहित्य अमृत. पृ॰ ३३.
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(मदद)
- रांगेय राघव की पुस्तकें पुस्तक डॉट ऑर्ग पर
बाहरी कड़ियाँ
[संपादित करें]- तमिल कुल के राघव थे अद्भुत हिंदी लेखक (प्रभासाक्षी)
- रांगेय राघव: तमिल मूल का था हिंदी का यह 'शेक्सपीयर'