"कृषि का इतिहास": अवतरणों में अंतर

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भारत में ऋग्वैदिक काल से ही कृषि पारिवारिक उद्योग रहा है और बहुत कुछ आज भी उसका रूप है। लोगों को कृषि संबंधी जो अनुभव होते रहें हैं उन्हें वे अपने बच्चों को बताते रहे हैं और उनके अनुभव लोगों में प्रचलित होते रहे। उन अनुभवों ने कालांतर में लोकोक्तियों और कहावतों का रूप धारण कर लिया जो विविध भाषाभाषियों के बीच किसी न किसी कृषि पंडित के नाम प्रचलित है और किसानों जिह्वा पर बने हुए हैं। हिंदी भाषाभाषियों के बीच ये [[घाघ]] और [[भड्डरी]] के नाम से प्रसिद्ध है। उनके ये अनुभव आघुनिक वैज्ञानिक अनुसंधानों के परिप्रेक्ष्य मे खरे उतरे हैं ।
भारत में ऋग्वैदिक काल से ही कृषि पारिवारिक उद्योग रहा है और बहुत कुछ आज भी उसका रूप है। लोगों को कृषि संबंधी जो अनुभव होते रहें हैं उन्हें वे अपने बच्चों को बताते रहे हैं और उनके अनुभव लोगों में प्रचलित होते रहे। उन अनुभवों ने कालांतर में लोकोक्तियों और कहावतों का रूप धारण कर लिया जो विविध भाषाभाषियों के बीच किसी न किसी कृषि पंडित के नाम प्रचलित है और किसानों जिह्वा पर बने हुए हैं। हिंदी भाषाभाषियों के बीच ये [[घाघ]] और [[भड्डरी]] के नाम से प्रसिद्ध है। उनके ये अनुभव आघुनिक वैज्ञानिक अनुसंधानों के परिप्रेक्ष्य मे खरे उतरे हैं ।

==इन्हें भी देखें==
*[[पराशर (कृषि पराशर के रचयिता)|पराशर मुनि]] - जो 'कृषिसंग्रह', '[[कृषि पराशर]]' एवं 'पराशर तंत्र' आदि ग्रंथों के रचयिता थे।


==बाहरी कड़ियाँ==
==बाहरी कड़ियाँ==
*[http://www.hindusthangaurav.com/krishi.asp भारत में कृषि विज्ञान की उज्जवल परम्परा] (भारत गौरव)
* [http://acl.arts.usyd.edu.au/projects/earth/ Early Agricultural Remnants and Technical Heritage] is a multidisciplinary project investigating the development of non-industrial agricultural techniques, with a focus on Europe.
* [http://acl.arts.usyd.edu.au/projects/earth/ Early Agricultural Remnants and Technical Heritage] is a multidisciplinary project investigating the development of non-industrial agricultural techniques, with a focus on Europe.
* [http://www.nal.usda.gov/afsic/pubs/tracing/tracing.shtml ''Tracing the Evolution of Organic/Sustainable Agriculture''] A Selected and Annotated Bibliography. Alternative Farming Systems Information Center, [[National Agricultural Library]].
* [http://www.nal.usda.gov/afsic/pubs/tracing/tracing.shtml ''Tracing the Evolution of Organic/Sustainable Agriculture''] A Selected and Annotated Bibliography. Alternative Farming Systems Information Center, [[National Agricultural Library]].

04:25, 2 दिसम्बर 2011 का अवतरण

कृषि का विकास कम से कम १०,००० वर्ष पूर्व हो चुका था। तब से अब तक बहुत से महत्वपूर्ण परिवर्तन हो चुके हैं।

कृषि भूमि को खोदकर अथवा जोतकर और बीज बोकर व्यवस्थित रूप से अनाज उत्पन्न करने की प्रक्रिया को कृषि अथवा खेती कहते हैं। मनुष्य ने पहले-पहल कब, कहाँ और कैसे खेती करना आरंभ किया, इसका उत्तर सहज नहीं है। सभी देशों के इतिहास में खेती के विषय में कुछ न कुछ कहा गया है। कुछ भूमि अब भी ऐसी है जहाँ पर खेती नहीं होती। यथा - अफ्रीका और अरब के रेगिस्तान, तिब्बत एवं मंगोलिया के ऊँचे पठार तथा मध्य आस्ट्रेलिया। कांगो के बौने और अंदमान के बनवासी खेती नहीं करते।

परिचय

आदिम अवस्था में मनुष्य जंगली जानवरों का शिकार कर अपनी उदरपूर्ति करता था। पश्चात्‌ उसने कंद-मूल, फल और स्वत: उगे अन्न का प्रयोग आरंभ किया; और इसी अवस्था में किसी समय खेती द्वारा अन्न उत्पादन करने का आविष्कार उन्होंने किया होगा। फ्रांस में जो आदिमकालिक गुफाएँ प्रकाश में आई है उनके उत्खनन और अध्ययन से ज्ञात होता है कि पूर्वपाषाण युग मे ही मनुष्य खेती से परिचित हो गया था। बैलों को हल में लगाकर जोतने का प्रमाण मिश्र की पुरातन सभ्यता से मिलता है। अमरीका मे केवल खुरपी और मिट्टी खोदनेवाली लकड़ी का पता चलता है।

भारत में पाषाण युग में कृषि का विकास कितना और किस प्रकार हुआ था इसकी संप्रति कोई जानकारी नहीं है। किंतु सिंधुनदी के काँठे के पुरावशेषों के उत्खनन के इस बात के प्रचुर प्रमाण मिले है कि आज से पाँच हजार वर्ष पूर्व कृषि अत्युन्नत अवस्था में थी और लोग राजस्व अनाज के रूप में चुकाते थे, ऐसा अनुमान पुरातत्वविद् मुहैंजोदडो में मिले बडे बडे कोठरों के आधार पर करते हैं। वहाँ से उत्खनन में मिले गेहूँ और जौ के नमूनों से उस प्रदेश में उन दिनों इनके बोए जाने का प्रमाण मिलता है। वहाँ से मिले गेहुँ के दाने ट्रिटिकम कंपैक्टम (Triticum Compactum) अथवा ट्रिटिकम स्फीरौकोकम (Triticum sphaerococcum) जाति के हैं। इन दोनो ही जाति के गेहूँ की खेती आज भी पंजाब में होती है। यहाँ से मिला जौ हाडियम बलगेयर (Hordeum Vulgare) जाति का है। उसी जाति के जौ मिश्र के पिरामिडो में भी मिलते है। कपास जिसके लिए सिंध की आज भी ख्याति है उन दिनों भी प्रचुर मात्रा में पैदा होता था।

भारत के निवासी आर्य कृषिकार्य से पूर्णतया परिचित थे, यह वैदिक साहित्य से स्पष्ट परिलक्षित होता है। ऋगवेद और अर्थर्ववेद में कृषि संबंधी अनेक ऋचाएँ है जिनमे कृषि संबंधी उपकरणों का उल्लेख तथा कृषि विधा का परिचय है। ऋग्वेद में क्षेत्रपति, सीता और शुनासीर को लक्ष्यकर रची गई एक ऋचा (४।५७।--८) है जिससे वैदिक आर्यों के कृषिविषयक ज्ञान का बोध होता है

                   शुनं वाहा: शुनं नर: शुनं कृषतु लाङ्‌गलम्‌।
                   शनुं वरत्रा बध्यंतां शुनमष्ट्रामुदिङ्‌गय।।
                   शुनासीराविमां वाचं जुषेथां यद् दिवि चक्रयु: पय:।
                   तेने मामुप सिंचतं।
                   अर्वाची सभुगे भव सीते वंदामहे त्वा।
                   यथा न: सुभगाससि यथा न: सुफलाससि।।
                   इन्द्र: सीतां नि गृह्‌ णातु तां पूषानु यच्छत।
                   सा न: पयस्वती दुहामुत्तरामुत्तरां समाम्‌।।
                   शुनं न: फाला वि कृषन्तु भूमिं।।
                   शुनं कीनाशा अभि यन्तु वाहै:।।
                   शुनं पर्जन्यो मधुना पयोभि:।
                   शुनासीरा शुनमस्मासु धत्तम्‌

एक अन्य ऋचा से प्रकट होता है कि उस समय जौ हल से जोताई करके उपजाया जाता था-

                   एवं वृकेणश्विना वपन्तेषं
                   दुहंता मनुषाय दस्त्रा।
                   अभिदस्युं वकुरेणा धमन्तोरू
                   ज्योतिश्चक्रथुरार्याय।।

अथर्वेद से ज्ञात होता है कि जौ, धान, दाल और तिल तत्कालीन मुख्य शस्य थे-

                   व्राहीमतं यव मत्त मथो
                   माषमथों विलम्‌।
                   एष वां भागो निहितो रन्नधेयाय
                   दन्तौ माहिसिष्टं पितरं मातरंच ।।

अथर्ववेद में खाद का भी संकेत मिलता है जिससे प्रकट है कि अधिक अन्न पैदा करने के लिए लोग खाद का भी उपयोग करते थे-

                   संजग्माना अबिभ्युषीरस्मिन्‌
                   गोष्ठं करिषिणी।
                   बिभ्रंती सोभ्यं।
                   मध्वनमीवा उपेतन ।।

गृह्य एवं श्रौत सूत्रों में कृषि से संबंधित धार्मिक कृत्यों का विस्तार के साथ उल्लेख हुआ है। उसमें वर्षा के निमित्त विधिविधान की तो चर्चा है ही, इस बात का भी उल्लेख है कि चूहों और पक्षियों से खेत में लगे अन्न की रक्षा कैसे की जाए। पाणिनि की अष्टाध्यायी में कृषि संबंधी अनेक शब्दों की चर्चा है जिससे तत्कालीन कृषि व्यवस्था की जानकारी प्राप्त होती है।

भारत में ऋग्वैदिक काल से ही कृषि पारिवारिक उद्योग रहा है और बहुत कुछ आज भी उसका रूप है। लोगों को कृषि संबंधी जो अनुभव होते रहें हैं उन्हें वे अपने बच्चों को बताते रहे हैं और उनके अनुभव लोगों में प्रचलित होते रहे। उन अनुभवों ने कालांतर में लोकोक्तियों और कहावतों का रूप धारण कर लिया जो विविध भाषाभाषियों के बीच किसी न किसी कृषि पंडित के नाम प्रचलित है और किसानों जिह्वा पर बने हुए हैं। हिंदी भाषाभाषियों के बीच ये घाघ और भड्डरी के नाम से प्रसिद्ध है। उनके ये अनुभव आघुनिक वैज्ञानिक अनुसंधानों के परिप्रेक्ष्य मे खरे उतरे हैं ।

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ

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