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हिन्दू घोषी

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घोषी
धर्म हिन्दू
भाषा हिन्दी, खड़ीबोली, बृजभाषा
वासित राज्य उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, दिल्ली तथा निकटवर्ती इलाके

हिन्दू घोषी (या घोसी, हिन्दू जाति का एक समुदाय है, जो कि हिन्दू राजपूत समुदाय का पर्याप्त उपमान माना जाता है। हिन्दू गुर्जर जाति मे भी घोसी उपजाति पायी जाती है।[1]

दिल्ली व निकटतम इलाकों मे घोसी शब्द ऐतिहासिक रूप से हिन्दू व मुस्लिम समुदायों के दुग्ध-व्यवसायियों से संबन्धित है।[2] परंतु, मध्य भारत मे लगभग सभी घोसी हिन्दू होते हैं जो स्वयं को घोसी ठाकुर कहते हैं व राजपूत होने का दावा करते हैं।[3]

घोसी शब्द हिन्दू व मुस्लिम दोनों धर्म के लोग प्रयोग करते है अतः इससे पारिभाषिक भ्रम की स्थिति उत्पन्न होती है। इस संदर्भ मे इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा 1918 मे दायर कानूनी प्रकरण "50 Ind Cas 424" मे यह निर्णय पारित किया गया कि "हिन्दू समुदाय में घोसी शब्द का प्रयोग एक वास्तविक कृषक जाति के लिए किया जाता है, जो कि हिन्दू अहीर जाति का ही अंग है। [4]

हिन्दू घोसी समुदाय की सामाजिक परम्पराएँ हिन्दू राजपूतो के समान होती हैं[5]

उत्तर प्रदेश के कुछ पश्चिमी जिलों मे घोसी अहीरों को शेष अहीर समुदाय से जनसंख्या व प्रतिष्ठा मे बेहतर समझा जाता है, जिससे वर्तमान राजनैतिक दल इनकी तरफ आकर्षित रहते है। राजनेता प्रायः विभिन्न अहीर उप-समुदायों ( विशेष रूप से घोसी व कमरिया समुदायों) के मध्य दरार डालने के लिए योजनाए बनाते है व दरार की अपेक्षा रखते है।[6]

शब्द शास्त्र

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घोष शब्द का अर्थ "पुकारना "[7] पशु शाला ,[8][9] या साहित्यिक दृष्टि से "अभीरों (अहीरों) का उपनिवेश" होता है।.[10]

घोष अर्थात "कोलाहल करना", वेद-पुराणों के अनुसार, वैदिक काल में अहीरों की प्रथक बस्ती या अहीरों के गाँव को घोष कहा जाता था। आज भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश मे अहीरों के लिए घोषी शब्द का प्रयोग किया जाता है।[11]

गोपाल, दुग्ध-व्यवसायी, या घोष इत्यादि "आभीर" शब्द के शाब्दिक अर्थ है जिसको प्राकृत भाषा मे अहीर कहा जाता है।[12]

रोज़, इब्बट्सन, डेंजिल, मकलागन, एडवर्ड डगलस (सी.1911) की व्याख्या के अनुसार घोषी शब्द संयुक्त रूप से मुस्लिम व हिन्दू धर्मो के लोगों के लिए प्रयुक्त होता है। प्राचीन काल मे ग्वाला या गोपाल कहे जाने वाले हिन्दू अहीरों को कालांतर में मुस्लिम धर्म अपनाने के बाद मे घोसी कहा जाने लगा। परंतु व्यावहारिक रूप से किसी भी धर्म या जाति के ग्वाले को घोसी कहा जाता है। समान्यतः ये कहा जा सकता है कि कोई भी मुसलमान जो ग्वाला बन गया उसे घोसी कहा जाने लगा और कालांतर मे यह नाम किसी भी अहीर या ग्वाले के लिए प्रयुक्त होने लगा, इसीलिए, हिन्दू अहीरों व उनके मुस्लिम प्रतिद्वंदीयों दोनों को संयुक्त रूप से घोसी कहा जाता है।[5]

प्राचीन भारतीय इतिहास मे "आभीर घोष प्रद्योत राजवंश का उल्लेख मिलता है जिसे हैहय वंशी वेताल ताल्जंघ वितिहोत्र द्वारा स्थापित किया गया था।[13] भारतीय इतिहासकार जे॰एन॰एस॰ यादव ने घोष (घोसी) व आभीर (अहीर) शब्दों द्वारा परिभाषित लोगो के मध्य एक निश्चित संबंध की पुष्टि की है जो कि वह लोग हैं जो चरवाहा युग मे पशुपालक थे व कालांतर मे कृषक बन गए।[14]

ब्रिटिश-राज कालीन वृतांत

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यसोदा व नन्द जी के साथ श्रीक़ृष्ण (घोषियों के आत्मस्वीकृत पूर्वज)

ब्रिटिश राज प्रशासक एच॰ए॰ रोज़ ने अपनी 1911 मे लिखी पुस्तक "A Glossary of the Tribes and Castes of the Punjab and North-West Frontier Province" में बताया:

प्राचीन काल मे ग्वाला काही जाने वाली अहीर जाति के लोग जो धर्म परिवर्तन करके मुस्लिम बन गए, घोसी कहलाए परंतु यथार्थ में कोई भी गोपालक अहीर हो या गुर्जर, घोसी ही कहलाता है।[5]

रोज़, इब्बट्सन, डेंजिल, मकलागन, एडवर्ड डगलस (सी.1911) के अनुसार

"सही अर्थ में कोई भी मुस्लिम जो गोपालक बन गया, घोसी कहलाया तथा बाद मे घोसी शब्द किसी भी अहीर या ग्वाले के लिए प्रयुक्त किया जाने लगा, अतः हम मुस्लिम व हिन्दू दोनों समुदायों के अहीरों को संयुक्त रूप से घोसी कहते है।[5]
हिन्दू घोषियों की सामाजिक परम्पराएँ हिन्दू राजपूतों के समरूप होती है। शादियों मे गौड़ ब्राह्मण फेरों की रस्म सम्पन्न करवाते है। घोषियों मे पंच प्रथा व वंशानुगत चौधरी प्रथा का भी प्रचलन है, यदि किसी चौधरी का कोई वैध उत्तराधिकारी नही होता है तो उसके मरणोपरांत उसकी विधवा किसी दत्तक पुत्र को उसका वंशज घोषित करती है, दत्तक पुत्र न चुने जाने की स्थिति मे पंचों द्वारा योग्य उत्तराधिकारी का चयन होता है। [5]

किस प्रकार घोषी व अन्य उप-समुदाय ब्रज अहीरवाल क्षेत्र मे प्रतिष्ठित व धनी जमींदारों की नंदवंशी श्रेणी[15] व यदुवंशी लड़ाकों की श्रेणी मे समाहित हुये? इस तथ्य के गहन अध्ययन से ज्ञात होता है कि अहीर जाति का वर्तमान स्वरूप ब्रिटिश राज मे प्रतिपादित वंशवाद व मानव विज्ञान के सिद्धांतों से प्रभावित है व नस्ल आधारित जातीय स्वरूप है।[16] ब्रिटिश अधिकारियों व मानव वैज्ञानिकों ने उपनिवेशों,राजनैतिक शक्ति व वांशिक अवस्था के मध्य जटिल संबंध को खोजा व जमींदारी अधिकारों के मालिक अहीर, जाट व गुर्जर जाति के लोगों को उनके द्वारा हासिल किए गए सामाजिक व आर्थिक स्तर के आधार पर राजपूत श्रेणी मे वर्गीकृत किया। यद्यपि इस सब के विपरीत अहीरों ने अपनी क्षत्रिय क्षमताओं को सिद्ध करने हेतु रक्त व वंशवाद की परंपरा पर ही ज़ोर दिया।[17]

घोसी अहीर मुख्य रूप से मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश व बिहार राज्यों मे पाये जाते हैं। बिहार व उत्तर प्रदेश में ग्वाला, गोपाल, घोषी, मण्डल, ढडोड, धूरिया, गवली, कमरिया, अहीर अथवा आभीर सभी स्वयं को यादव कहते हैं।[18] उत्तर-पश्चिम प्रांत के मिर्जापुर जिले मे अहीरोरा परगना व प्राचीन अहिरवाड़ा इत्यादि के नाम अहीर जमींदारों के नाम पर रखे गए हैं। "आईने-अकबरी" में भी नगीना व सिरधाना जिलों के अहीर जमींदारों का जिक्र आता है।[19][20]

बृज अहीरवाल क्षेत्र मे घोषी, कमरिया, ग्वालवंशी व नंदवंशी अहीरों के बृहद उप-समुदाय पाये जाते है।[21]

समान्यतः, गोप, घोसी, ग्वाल, जादव, पोहियो, दौवा सम्मिलित रूप से आभीर वंशी अहीरों के समूह है, जिन्हें भगवान कृष्ण से संबन्धित होने के कारण सादर पहचान मिलती है तथा कुछ विद्वान इन्हे प्राचीन क्षत्रियों की एक शाखा बताते है।[22]

घोषियों के बारे में महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि उत्तर पश्चिमी इलाकों मे सभी घोषी मुस्लिम हैं परंतु मध्य भारत में अधिकांश घोषी हिन्दू हैं जो स्वयं को घोषी ठाकुर कहते हैं व राजपूत होने का दावा करते हैं, अन्य जतियों के लोग भी उन्हे प्रायः ठाकुर कहकर ही संबोधित करते हैं।[3] परंतु सागर व दमोह इलाकों में क्षत्रित्व की आकांक्षा इतनी प्रबल है कि यदि किसी से उसकी जाति पूछनी है तो व्यावहारिक प्रश्न इस तरह किया जाता है कि -"आप कौन से ठाकुर है?"[3]

"मैनपुरी सेट्टल्मेंट रिपोर्ट" के अनुसार- उत्तर प्रदेश के मैनपुरी इलाके मे अहीर एक प्रभुत्व-सम्पन्न जाति है, घोषियों सहित उनकी आबादी इलाके की कुल आबादी का 16.8 प्रतिशत बताई गयी है,[23] तथा यहाँ वर्तमान में भी घोषी वर्ग अहीरों के अन्य वर्गों से ज्यादा संख्या मे है।[6] मैनपुरी मे घोषियों का एक वर्ग (फाटक) स्वयं को मेवाड़ के राणा कटीरा का वंशज बताते हैं। मुस्लिम आक्रमणकारियों के कारण राणा कटीरा ने अपना राज्य छोड़ कर महावन के अहीर राजा दिग्पाल के यहाँ शरण ली थी।[24]

भारतीय जीवन वृतांत,ऐतिहासिक,धार्मिक,प्रशासनिक,जाति शास्त्रीय,व्यावसायिक व वैज्ञानिक मकदूनियाई(Encyclopaedia)-माही मेवात-सुबोध कपूर(2002) के अनुसार-

" बहुत पहले अहीर नामक लड़ाकू जाति ने मैनपुरी की जंगली घाटियों पर अधिकार जमा लिया, जहाँ वे तब से आजतक बहुसंख्यक व शक्तिशाली जाति हैं। कई श्रेष्ठ ठाकुर परिवार अनुवंन्शिक रूप से जागीरों के मालिक व प्रतापी समाज का हिस्सा रहे, जिनमे अहीर आबादी व प्रभाव में सबसे प्रमुख हैं।[25]

1981 की जनगणना मे घोषियों को एक अलग जाति के रूप मे गिना गया था क्योंकि घोषी अन्य अहीर उप-जतियों से विवाह संबंध नहीं करते हैं। हमीरपुर, झाँसी, बांदा, जालौन, कानपुर, फ़तेहपुर इत्यादि इलाकों में इनकी आबादी दर्ज कि गयी थी।[26]

वर्गीकरण

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उत्तर भारत मे घोषी अहीर अनेकों उप - कुलों या कुल-गोत्रों मे विभाजित हैं, जैसे कि- बाबरिया या बरबाइया, फाटक, जिवारिया या जरवारिया, फटकालू या फटकियाँ, कराइया, शोनदेले, राऊत, लहुगाया, अंगूरी, भृगुदे या भृगुदेव, गाइन्दुया या गुदुया, निगाना तथा धूमर या धुंर इत्यादि।[27][28][29]

मध्य भारत में घोषियों कि दो उप जातियाँ हैं- हवेलिया, जो कि मैदानी भाग मे पाये जाते है तथा बिरछेलिया जो कि जंगली क्षेत्रों मे पाये जाते हैं। दमोह मे घोषी मुख्यतः बैलगाड़ी चालक व कृषक हैं।[30][31]

राजनैतिक भूमिका

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यादवों मे घोसी अन्य यादवों से सम्पन्न वर्ग है जो कि यह दावा करता है कि उत्तर प्रदेश मे यादवों मे जागरूकता का आगाज घोसियों ने किया था। बीसवीं सदी मे घोषी नीताओं ने ही यादवों के सामाजिक उत्थान का बीड़ा उठाया जिससे यादव राजनैतिक स्तर पर उभरे। प्रथम यादव जागरण अधिवेशन, 1912 के प्रारम्भ मे घोषी यादव नेताओं द्वारा 'यादव महासभा' के तत्वाधान मे शिकोहाबाद के ब्रह्मवार-लाजपुर गाँव में कराया गया। इसी गाँव के चौधरी अमर सिंह ने अधिवेशन कि अध्यक्षता की तथा यह प्रस्ताव पारित किया कि अहीर (यादव) क्षत्रिय मूल से है। इसमे एक कमेटी भी गठित की गयी जिसने 1916 मे शिकोहाबाद मे "अहीर क्षत्रिय स्कूल" (कालांतर मे "अहीर क्षत्रिय कॉलेज") का निर्माण कराया। ये सभी यादव नेता घोषी ही थे।[32]

चौधरी चरण सिंह द्वारा 1970 मे कृषक जतियों के गठबंधन के बाद कॉंग्रेस के पास यादवों कि सांकेतिक उपस्थिति भी शेष नही रही व उनके उत्तराधिकारी मुलायम सिंह ने घोषी व कमरिया दोनों वर्गों के अहीरों को आकर्षित किया।[32]

"मुलायम सिंह व उनकी पार्टी के बड़े राजनेता यादवों की कमरिया उपजाति के हैं। इस उपजाति को मुलायम के सत्तारूढ होने का सबसे ज्यादा लाभ मिला। तथा अन्य उपजाति "घोषी" केन्द्रीय उत्तर प्रदेश की यादव समुदाय का दो तिहाई भाग होने के बावजूद भी किसी भी राजनैतिक लाभ से वंचित रह गयी जबकि घोषियों ने दिल से पार्टी को समर्थन दिया।”[32]

काँग्रेस के आशावादी नेता हमेशा यादवों मे फूट डालने की उम्मीद करते है, क्योंकि यादव आवश्यक रूप से मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी को ही वोट देते है। उनका लांछन ये है कि, मुलायम सिंह, एक कमरिया नेता है अतः वह घोषियों के हितों को अनदेखा करते है। एक काँग्रेस नेता के अनुसार -" हम प्रत्याशियों के चयन में घोषियों के प्रतिनिधित्व को तरजीह देते है, क्योंकि घोषी यादवों की जनसंख्या उत्तर प्रदेश में कमरिया यादवों से अधिक है।[6]

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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संदर्भ सूत्र

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  1. Joon, Ram Sarup (1968). "History of the Jats": 115. Cite journal requires |journal= (मदद)
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  3. The Tribes and Castes of the Central Provinces of India. Forgotten Books. पपृ॰ 33–. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-1-4400-4893-7. अभिगमन तिथि 4 October 2012.
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  5. Rose, H.A; Ibbetson, Denzil; Maclagan, Edward Douglas (c. 1911). A Glossary of the Tribes and Castes of the Punjab and North-West Frontier Province. पृ॰ 7. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788120605053.
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