सुरेन्द्र चौधरी

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सुरेन्द्र चौधरी (1933-2001) हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में मुख्यतः कथालोचक के रूप में मान्य हैं। हिन्दी कहानी के शीर्ष आलोचकों में उनका स्थान प्रायः निर्विवाद रहा है।

सुरेन्द्र चौधरी
चित्र:Surendra-choudhary.jpg
सुरेन्द्र चौधरी
जन्म13 जून, 1933
गया,
(बिहार)
मौत9 मई, 2001
पेशाहिन्दी साहित्य
भाषाहिन्दी
राष्ट्रीयताभारतीय
कालआधुनिक
विधाआलोचना
उल्लेखनीय कामsहिन्दी कहानी : प्रक्रिया और पाठ

जीवन-परिचय[संपादित करें]

सुरेन्द्र चौधरी का जन्म 13 जून, 1933 ई॰ को गया (बिहार) में हुआ था। वे आरंभ से ही बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति थे। फुटबॉल, बैडमिंटन एवं टेनिस खेलने में निपुण थे। निपुण वे शतरंज और ताश खेलने में भी थे, परंतु बहुत अधिक समय लेने वाला खेल होने के कारण उनमें उनकी स्वाभाविक रुचि नहीं थी। अध्ययन एवं सृजन उन्हें उत्तराधिकार में प्राप्त हुआ था। उनके पितामह एवं पिता भी विद्वान् होने के साथ-साथ कवि-लेखक भी थे। आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी, परंतु सारस्वत परंपरा लगातार बनी रही।[1]

सुरेन्द्र चौधरी की आरंभिक शिक्षा गया में हुई। गया कॉलेज से हिंदी विषय से उन्होंने बी॰ए॰ (ऑनर्स) किया और पटना विश्वविद्यालय से हिन्दी विषय में ही एम॰ए॰ किया। एम॰ए॰ में अध्ययन के क्रम में ही वे नलिन विलोचन शर्मा जी के संपर्क में आये। नलिन जी घोषित रूप से मार्क्सवाद-विरोधी आलोचक थे। फिर भी, मार्क्सवादी रुझान वाले सुरेंद्र चौधरी को उन्होंने नये मार्क्सवादी आलोचकों का विस्तृत साहित्य पढ़ने को दिया। नलिन जी के माध्यम से इन्हें उसी समय लुकाच, हाउजर, काडवेल, वाल्टर बेंजामिन आदि का प्रायः अनुपलब्ध साहित्य भी पढ़ने को मिल गया था।[2] सुरेंद्र चौधरी नलिन जी के ही निर्देशन में 'प्रेमचन्दोत्तर हिन्दी उपन्यासों में सामाजिक सन्दर्भ' विषय पर पीएच॰डी॰ के लिए काम कर रहे थे, परंतु बीच में ही नलिन जी का निधन हो जाने के कारण उन्होंने शोध का कार्य छोड़ दिया। किन्हीं और का निर्देशन इन्हें उपयुक्त नहीं प्रतीत होता था। यह सन् 1961 की बात थी। इसके 8 वर्ष बाद उन्होंने मगध विश्वविद्यालय से 'अस्तित्ववाद और समकालीन हिंदी साहित्य' विषय पर पी-एच॰डी॰ की उपाधि प्राप्त की।[3]

गया कॉलेज, गया के स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग में आचार्य एवं अध्यक्ष रहे।

जून, 1959 से उन्होंने विधिवत लेखन-कार्य आरंभ किया था और इसके बाद निरंतर सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय रहते हुए कथा-आलोचना को नया आयाम देते रहे। 9 मई 2001 ई॰ को उनका निधन हो गया।[4]

रचनात्मक परिचय[संपादित करें]

सुरेन्द्र चौधरी की पहली प्रकाशित रचना एक आलोचनात्मक निबंध थी, जो बाबू गुलाबराय द्वारा संपादित 'साहित्य संदेश' में 1951 में प्रकाशित हुआ था। आरंभ में उन्होंने अनेक कविताएँ तथा एक कहानी भी लिखी थी;[3] परंतु मुख्य रूप से उन्होंने अपने कार्यक्षेत्र रूप में 'हिन्दी आलोचना' को ही चुना और इसके लिए उन्होंने बाकायदा पूरी तैयारी की।

आलोचक की तैयारी[संपादित करें]

1950 के बाद जो पीढ़ी हिन्दी साहित्य में आयी, उसमें सुरेन्द्र चौधरी बेहद पढ़ाकू थे। उन्होंने प्राचीन भारतीय वाङ्मय का सांगोपांग अध्ययन किया था। आगम-निगम, साहित्य, दर्शन, ज्योतिष आदि सबका और अंग्रेजी के माध्यम से उपलब्ध प्रायः विदेशी साहित्य के क्लासिक्स का और करेंट लिटरेचर के बहुलांश का भी उत्तम अध्ययन-मनन उन्होंने किया था। देवनागरी में उपलब्ध उर्दू साहित्य, फारसी साहित्य और अरबी साहित्य को भी उन्होंने पढ़ा था और देश-विदेश के लोक साहित्य का भी उन्हें अच्छा ज्ञान-परिज्ञान था। पूर्वी सौन्दर्यशास्त्र विशेषतः भारतीय साहित्य एवं सौन्दर्यशास्त्र तथा पश्चिमी सौन्दर्यशास्त्र ख़ासकर मार्क्सवादी साहित्य एवं सौन्दर्यशास्त्र के तुलनात्मक विवेचन में वे सक्षम थे। मार्क्सवादी साहित्य के तो वे पंडित ही थे। इतिहास, पुरातत्व, साहित्य, भाषा, संस्कृति-सभ्यता का अध्ययन उनके स्वभाव में था। समाजशास्त्र में भी उनकी खासी पैठ थी।[3]

कहानी-समीक्षा में योगदान[संपादित करें]

हिन्दी कहानी-समीक्षा को वास्तविक अर्थों में संतुलित आलोचना का स्वरूप प्रदान करने में सुरेन्द्र चौधरी, देवीशंकर अवस्थी एवं डाॅ॰ नामवर सिंह का ऐतिहासिक योगदान है। इससे कुछ और बाद तक के समय को समेटते हुए मधुरेश जी का मानना है कि इनमें सबसे अधिक क्षमतावान आलोचक सुरेन्द्र चौधरी थे।[5] आलोचना के सही अर्थ में हिन्दी कहानी-आलोचना की पहली पुस्तक सुरेन्द्र चौधरी की ही थी - 'हिन्दी कहानी : प्रक्रिया और पाठ'। सितम्बर 1963 में भारती भवन, पटना से इसका प्रथम संस्करण प्रकाशित हुआ था। शम्भु गुप्त मानते हैं कि निस्सन्देह जब यह पुस्तक लिखी गयी थी और छपकर सामने आयी थी तब यह अद्वितीय थी। तब हिन्दी में कहानी-आलोचना के क्षेत्र में लगभग शून्य जैसी स्थिति थी।[6] इस पुस्तक के रूप में सुरेन्द्र चौधरी ने शून्य से शिखर की यात्रा तय कर डाली। शम्भु गुप्त के शब्दों में :

"निश्चय ही हिन्दी-कहानी-आलोचना की परम्परा में यह पहली पुस्तक है जिसमें एक रचनाविधा के रूप में कहानी का स्वतन्त्र/संप्रभु-आलोचना-शास्त्र निर्मित किए जाने की प्रामाणिक कोशिश की गई है।.. यह विवेचन आज भी उपयोगी लगता है, बल्कि कई दृष्टियों से अद्वितीय भी।"[7]

कहानी की रचना-प्रक्रिया स्पष्ट करते हुए उन्होंने रचनात्मक यथार्थ की पकड़ तथा संयोजन, कथ्य एवं शिल्प की अन्योन्याश्रयिता तथा सापेक्ष जीवन-विवेक की सर्जनात्मक अभिव्यक्ति के रूप में कहानी के संघटनों का जो संतुलित स्वरूप दिखलाया वह आज भी मानदण्ड है। कहानी की प्रक्रिया एवं पाठ को अलग-अलग खण्डों में नियोजित-विवेचित करने को ऐतिहासिक सीमा के रूप में भी देखा गया है और वैचारिक प्रतिबद्धता से गुरेज को इसका कारण माना गया है,[8] लेकिन उन खण्डों को अलग-अलग पढ़ते हुए भी कोई सजग पाठक सहज रूप से स्वतः लक्षित कर सकता है कि न तो उनकी 'प्रक्रिया' पाठ से विरहित है और न ही उनका 'पाठ' प्रक्रिया से भिन्न। दोनों में दोनों अनुस्यूत हैं। फिर भी 'पाठ' की अलग से आवश्यकता कहानी की पूरी आन्तरिक अन्विति एवं स्थापत्य का समेकित स्वरूप दिखलाने के लिए है, जिससे यह समग्रता में स्पष्ट हो पाता है कि किस तरह और क्यों कोई कहानी एक 'सफल (या असफल भी) कहानी' है। सुधीश पचौरी के अनुसार :

"..यह कथा समीक्षा की असल चुनौती को स्वीकारता है। वह रचना से सीधे टकराता है और एक समीक्षा मार्ग बनाता है। जिसे आज हम किसी हद तक संरचनावादी समीक्षा के रूप में जानते हैं।"[9]

इसी के अभाव में तो आरम्भ से बाद तक की हिन्दी कहानी-समीक्षा एक अनथक भटकाव के गिरफ्त में है जिसके तहत कभी तो केवल किसी विचार के कारण किसी कहानी की प्रशंसा/निन्दा कर दी जाती है[10] तो कभी आधुनिकता के नाम पर दृश्य-विधान का ही मोह घेर लेता है। समग्र रूप में कहानी को देखने के अभाव में ही कई आलोचकों को सूचनात्मक उपदेश की वाचालता भी घेर लेती है जिसे वे खुद की बहुज्ञता मानकर गर्वान्वित महसूस करते हैं। सुरेन्द्र चौधरी की आलोचना इन सारे खतरों से बहुत पहले आगाह कर चुकी है। रचना की सापेक्ष स्वतंत्रता स्वीकार करते हुए, समग्रता में उसका मूल्यांकन करते हुए भी वे संरचनावादी या रूपवादी न होकर प्रखर मार्क्सवादी ही थे। प्रणय कृष्ण स्पष्ट शब्दों में कहते हैं :

"वे अपने समय में पूरी साहित्य-प्रक्रिया को बदलते यथार्थ और ऐतिहासिक प्रक्रिया से उसकी संगति-असंगति की खोज करने वाले, साहित्य की समाज में हस्तक्षेपकारी भूमिका को प्रखर करने में लगातार लगे रहने वाले मार्क्सवादी थे।"[11]

फणीश्वरनाथ रेणु पर अपने ढंग के विशिष्ट विनिबंध तथा युवा समीक्षक उदयशंकर के सम्पादन में हाल में यथासंभव प्राप्त पूर्वप्रकाशित आलेखों के पुस्तक रूप में तीन खंडों में प्रकाशन से समकालीन कहानी के विभिन्न आयामों के विवेचन के साथ-साथ मुक्तिबोध, अमरकान्त एवं भीष्म साहनी के साथ उदय प्रकाश एवं उनके बाद की पीढ़ी तक पर गंभीर विवेचन के अतिरिक्त समकालीन साहित्य के विभिन्न वैचारिक मुद्दों, हिन्दी नवजागरण के सन्दर्भ में प्रेमचन्द एवं जयशंकर प्रसाद पर विचार के अतिरिक्त आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी एवं डॉ॰ रामविलास शर्मा के सन्दर्भ में भी सुरेन्द्र चौधरी के विचार उपलब्ध हो गये हैं। वे दलबन्दी तथा उखाड़-पछाड़ की राजनीति के रूप में जरूर प्रतिबद्ध नहीं थे[12] लेकिन जीवन-विवेक के साथ साहित्य-विवेक के प्रति वे कितने प्रतिबद्ध थे यह उनका हर आलेख तो बताता ही है , इसी के कारण डॉ॰ रामविलास शर्मा के प्रति गहरे सम्मान के बावजूद वे यशपाल एवं रेणु के प्रसंग में उनसे बिल्कुल भिन्न रुख अपना पाये हैं, पूरी दृढ़ता के साथ। और इसके लिए उन्हें किसी 'पाॅलिमिक्स ' की जरूरत नहीं पड़ी। उन्होंने प्रेमचन्द की कहानियों की प्रशंसा की तो अज्ञेय की कहानियों की भी; और ऐसा उन्होंने वैचारिक प्रतिबद्धता के अभाव में नहीं बल्कि रचना के स्वायत्त आधार पर की,[13] जो स्वतंत्र होने के साथ सापेक्ष भी होती है।[14] शंभु गुप्त निजी आग्रह के कारण उनके द्वारा अज्ञेय की कहानियों की प्रशंसा के मूल में एक कारण पाठक-वर्ग की उपेक्षा को मान लेते हैं।[8] वस्तुतः प्रेमचन्द को जितने और जैसे पाठक मिले वैसे तो हिन्दी में दूसरे किसी कथाकार को नसीब नहीं हुए, पर अज्ञेय की कहानियों को पाठक नहीं मिले या रचना-प्रक्रिया में 'पाठक' समीक्षक क्या, खुद रचनाकार के भी ध्यान में नहीं है, ऐसा कैसे कहा जा सकता है ? हाँ पाठक ही कसौटी नहीं है और ऐसा हो भी नहीं सकता है। सुधीश पचौरी के अनुसार :

"विचारों से मार्क्सवादी होते हुए भी, इस अर्थ में वे अन्य तमाम अपने समकालीन 'मार्क्सवादियों' से भिन्न और स्वतंत्र हैं। वे कला की दुनिया में कला के भीतर ही समग्र चीजें देखते टटोलते हैं,.. यह विकट संयम है एक समीक्षक का क्योंकि उसके लिए कला कर्म ही समग्र कर्म है, उसी में विचारधारा और अनुभव समा जाते हैं। वह इस मायने में देवीशंकर की तरह रचना को एक साथ समग्रता में समझने की कोशिश करने वाले समीक्षक हैं।.. दरअसल, वे कहानी लिखने वालों के समीक्षक हैं और इसी अर्थ में कथा समीक्षा के एक महत्त्वपूर्ण उदाहरण हैं। उनकी समीक्षा देखकर समीक्षा करना सीखा जा सकता है।"[15]

सुरेन्द्र चौधरी को समझने तथा उनके मूल्यांकन के सन्दर्भ में भी डाॅ॰ मैनेजर पाण्डेय का कथन ध्यातव्य है :

"सुरेन्द्र चौधरी ऐसे आलोचक हैं जिनकी आलोचना में गम्भीर साहित्य-विवेक है और उसका जीवन-विवेक तथा जगत-विवेक से गहरा सम्बन्ध है। उनकी चाहे 'नयी कहानी' और बाद की कहानियों की आलोचना हो, 'गोदान' का विश्लेषण हो, 'मैला आँचल' का विवेचन हो या 'मुक्ति-प्रसंग' का मूल्यांकन हो, इन सबके सावधान पाठकों को सुरेन्द्र चौधरी के साहित्य-विवेक, जीवन-विवेक और जगत-विवेक का साक्षात्कार अवश्य होगा।"[16]

एक और जगह डाॅ॰ मैनेजर पाण्डेय सुरेन्द्र चौधरी को हिन्दी कहानी की आलोचना को पूर्णता प्रदान करनेवाला मानते हुए आगे कहते हैं :

"वैसे तो सुरेन्द्र चौधरी कहानी के आलोचक के रूप में प्रसिद्ध हैं लेकिन वे हिन्दी उपन्यास के भी एक समर्थ आलोचक हैं। एक तो उन्होंने रेणु के सभी उपन्यासों की समालोचना की है और दूसरे प्रेमचन्द के गोदान की भी ऐसी आलोचना लिखी है जैसी न उनसे पहले किसी ने लिखी थी और न बाद में किसी ने लिखी।"[17]

प्रकाशित कृतियाँ[संपादित करें]

  1. हिन्दी कहानी : प्रक्रिया और पाठ (प्रथम संस्करण-1963, संवर्धित संस्करण-1995, राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली)
  2. फणीश्वरनाथ रेणु (विनिबंध) -1987 (साहित्य अकादेमी, नयी दिल्ली)
  3. इतिहास : संयोग और सार्थकता -2009 (संकलन-संपादन- उदयशंकर; अंतिका प्रकाशन, ग़ाज़ियाबाद)
  4. हिन्दी कहानी : रचना और परिस्थिति -2009 (संकलन-संपादन- उदयशंकर; अंतिका प्रकाशन, ग़ाज़ियाबाद)
  5. साधारण की प्रतिज्ञा : अंधेरे से साक्षात्कार -2009 (संकलन-संपादन- उदयशंकर; अंतिका प्रकाशन, ग़ाज़ियाबाद)
विशेष-

'बया' (हिन्दी त्रैमासिक, सं॰-गौरीनाथ) का सुरेन्द्र चौधरी पर केन्द्रित विशेषांक (अप्रैल-जून, 2011)।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. रामनरेश पाठक, 'बया (पत्रिका)' (अप्रैल-जून' 2011), सं॰-गौरीनाथ, अंतिका प्रकाशन, ग़ाज़ियाबाद, पृष्ठ-12.
  2. सुरेन्द्र चौधरी, इतिहास : संयोग और सार्थकता, अंतिका प्रकाशन, ग़ाज़ियाबाद, पेपरबैक संस्करण-2009, पृष्ठ-22.
  3. रामनरेश पाठक, 'बया (पत्रिका)' पूर्ववत्, पृ॰-13.
  4. सुरेन्द्र चौधरी, इतिहास : संयोग और सार्थकता, पूर्ववत्, पृष्ठ-II.
  5. मधुरेश से साक्षात्कार, 'दोआबा' (जून,2007), सं॰-जाबिर हुसैन, पृ॰-207.
  6. आलोचना के सौ बरस, भाग-1, सं॰- अरविन्द त्रिपाठी, शिल्पायन, शाहदरा,दिल्ली, संस्करण-2012, पृ॰-238.
  7. आलोचना के सौ बरस, भाग-1, पूर्ववत्, पृ॰-238-239.
  8. आलोचना के सौ बरस, भाग-1, पूर्ववत्, पृ॰-250.
  9. सुधीश पचौरी, उत्तर-यथार्थवाद, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, संस्करण-2004, पृष्ठ-18.
  10. आलोचना के सौ बरस, भाग-1, पूर्ववत्, पृ॰-245.
  11. प्रणय कृष्ण, बया (पत्रिका), अप्रैल-जून 2011 (सुरेंद्र चौधरी पर केन्द्रित), संपादक- गौरीनाथ, अंतिका प्रकाशन, गाजियाबाद, पृष्ठ-81.
  12. इस संदर्भ में रविभूषण जी का उत्तम विवेचन द्रष्टव्य है। बया (पत्रिका), अप्रैल-जून 2011 (सुरेंद्र चौधरी पर केन्द्रित), संपादक- गौरीनाथ, अंतिका प्रकाशन, गाजियाबाद, पृष्ठ-59.
  13. हिन्दी कहानी : रचना और परिस्थिति, सुरेन्द्र चौधरी, सं॰ उदयशंकर, अंतिका प्रकाशन, गाजियाबाद, पेपरबैक संस्करण-2009, पृष्ठ-X-XI (भूमिका)।
  14. आस्था और सौंदर्य, डॉ॰ रामविलास शर्मा, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, संस्करण-2009, पृष्ठ-35.
  15. सुधीश पचौरी, उत्तर-यथार्थवाद, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, संस्करण-2004, पृष्ठ-17-18.
  16. आलोचना में सहमति और असहमति, डाॅ॰ मैनेजर पाण्डेय, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, संस्करण-2013, पृ॰-180.
  17. आलोचना में सहमति और असहमति, पूर्ववत्, पृ॰-183.

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