समुद्रगुप्त

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
समुद्रगुप्त
महाराजाधिराज
गुप्त साम्राज्य का प्रतीक, गरुड़ स्तंभ के साथ समुद्रगुप्त का सिक्का।
चौथे गुप्त सम्राट
शासनावधिल. 335/350-375
पूर्ववर्तीचन्द्रगुप्त प्रथम
उत्तरवर्तीचन्द्रगुप्त द्वितीय या रामगुप्त
जीवनसंगीदत्तादेवी[उद्धरण चाहिए]
संतानचन्द्रगुप्त द्वितीय, रामगुप्त
घरानागुप्त राजवंश
पिताचन्द्रगुप्त प्रथम
माताकुमारदेवी

समुद्रगुप्त (राज 335-375 ईस्वी) गुप्त राजवंश के दूसरे राजा और चन्द्रगुप्त प्रथम के उत्तराधिकारी थे एवं पाटलिपुत्र उनके साम्राज्य की राजधानी थी। उनका एक नाम अशोकादित्य था।[1][2][3][4][5][6] वे वैश्विक इतिहास में सबसे बड़े और सफल सेनानायक एवं सम्राट माने जाते हैं। समुद्रगुप्त, गुप्त राजवंश के चौथे शासक थे, और उनका शासनकाल भारत के लिये स्वर्णयुग की शुरूआत कही जाती है। समुद्रगुप्त को गुप्त राजवंश का महानतम राजा माना जाता है। वे एक उदार शासक, वीर योद्धा और कला के संरक्षक थे। उनका नाम जावा पाठ में तनत्रीकमन्दका के नाम से प्रकट है। उनका नाम समुद्र की चर्चा करते हुए अपने विजय अभियान द्वारा अधिग्रहीत शीर्ष होने के लिए लिया जाता है जिसका अर्थ है "महासागर"। समुद्रगुप्त के कई अग्रज भाई थे, फिर भी उनके पिता ने समुद्रगुप्त की प्रतिभा के देख कर उन्हें अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। इसलिए कुछ का मानना है कि चंद्रगुप्त की मृत्यु के बाद, उत्तराधिकारी के लिये संघर्ष हुआ जिसमें समुद्रगुप्त एक प्रबल दावेदार बन कर उभरे। कहा जाता है कि समुद्रगुप्त ने शासन पाने के लिये अपने प्रतिद्वंद्वी अग्रज राजकुमार काछा को हराया था। समुद्रगुप्त का नाम सम्राट अशोक के साथ जोड़ा जाता रहा है, हलांकि वे दोनो एक-दूसरे से बिल्कुल भिन्न थे। एक अपने विजय अभियान के लिये जाने जाते थे और दूसरे अपने धुन के लिये जाने जाते थे।

समुद्र्गुप्त भारत के महान शासक थे जिन्होंने अपने जीवन काल मे कभी भी पराजय का स्वाद नही चखा। वि.एस स्मिथ के द्वारा उन्हें भारत के नेपोलियन की संज्ञा दी गई थी।

परिचय[संपादित करें]

समुद्रगुप्त के पिता क्षत्रियवंशीय सम्राट चंद्रगुप्त प्रथम और माता लिच्छिवि कुमारी श्रीकुमरी देवी थी। चंद्रगुप्त ने अपने अनेक पुत्रों में से समुद्रगुप्त को अपना उत्तराधिकारी चुना और अपने जीवनकाल में ही समुद्रगुप्त को शासनभार सौंप दिया था। प्रजाजनों को इससे विशेष हर्ष हुआ था किंतु समुद्रगुप्त के अन्य भाई इससे रुष्ट हो गए थे और राज्य में ग्रहयुद्ध छिड़ गया। प्रतिद्वंद्वी में सबसे आगे राजकुमार काछा थे। काछा के नाम के कुछ सोने के सिक्के भी मिले है। गृहकलह को शांत करने में समुद्रगुप्त को एक वर्ष का समय लगा। इसके पश्चात्‌ उसने दिग्विजययात्रा की। इसका वर्णन प्रयाग में अशोक मौर्य के स्तंभ पर विशद रूप में खुदा हुआ है। पहले इसने आर्यावर्त के तीन राजाओं-अहिच्छव का राजा अच्युत, पद्मावती का भारशिववंशी राजा नागसेन और राज कोटकुलज-को विजित कर अपने अधीन किया और बड़े समारोह के साथ पुष्पपुर में प्रवेश किया। इसके बद उसने दक्षिण की यात्रा की और क्रम से कोशल, महाकांतर, भौराल पिष्टपुर का महेंद्रगिरि (मद्रास प्रांत का वर्तमान पीठापुराम्‌), कौट्टूर, ऐरंडपल्ल, कांची, अवमुक्त, वेंगी, पाल्लक, देवराष्ट्र और कोस्थलपुर (वर्तमान कुट्टलूरा), बारह राज्यों पर विजय प्राप्त की।

जिस समय समुद्रगुप्त दक्षिण विजययात्रा पर था। उस समय उत्तर के अनेक राजाओं ने अपने को स्वतंत्र घोषित कर विद्रोह कर दिया। लौटने पर समुद्रगुप्त ने उत्तर के जिन राजाओं का समूल उच्छेद कर दिया उनके नाम हैं : रुद्रदेव, मतिल, नागदत्त, चंद्रवर्मा, गणपति नाग, नागसेन, अच्युत नंदी और बलवर्मा। इनकी विजय के पश्चात्‌ समुद्रगुप्त ने पुन: पुष्पपुर (पाटलिपुत्र) में प्रवेश किया। इस बार इन सभी राजाओं के राज्यों को उसने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। आटविक राजाओं को इसने अपना परिचारक और अनुवर्ती बना लिया था। इसके पश्चात्‌ इसकी महती शक्ति के सम्मुख किसी ने सिर उठाने का साहस नहीं किया। सीमाप्रांत के सभी नृपतियों तथा यौधेय, मानलव आदि गणराज्यों ने भी स्वेच्छा से इसकी अधीनता स्वीकार कर ली। समहत (दक्षिणपूर्वी बंगाल), कामरूप, नेपाल, देवाक (आसाम का नागा प्रदेश) और कर्तृपुर (कुमायूँ और गढ़वाल के, पर्वतप्रदेश) इसकी अधीनता स्वीकार कर इसे कर देने लगे। मालव, अर्जुनायन, यीधेय, माद्रक, प्रार्जुन, सनकानीक, काक और खर्परिक नामक गणराज्यों ने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। दक्षिण और पश्चिम के अनेक राजाओं ने इसका आधिपत्य स्वीकार कर लिया था और वे बराबर उपहार भेजकर इसे संतुष्ट रखने की चेष्टा करते रहते थे, इनमें देवपुत्र शाहि शाहानुशाहि, शप, मुरुंड और सैहलक (सिंहल के राजा) प्रमुख है। ये नृपति आत्मनिवेदन, कन्योपायन, दान और गरुड़ध्वजांकित आज्ञापत्रों के ग्रहण द्वारा समुद्रगुप्त की कृपा चाहते रहते थे। समुद्रगुप्त का साम्राज्य पश्चिम में गांधार से लेकर पूर्व में आसाम तक तथा उत्तर में हिमालय के कीर्तिपुर जनपद से लेकर दक्षिण में सिंहल तक फैला हुआ था। प्रयाग की प्रशस्ति में समुद्रगुप्त के सांधिविग्रहिक महादंडनायक हरिपेण ने लिखा है, 'पृथ्वी भर में कोई उसका प्रतिरथ नहीं था। सारी धरित्री को उसने अपने बाहुबल से बाँध रखा था।'

इसने अनेक नष्टप्राय जनपदों का पुनरुद्धार भी किया था, जिससे इसकी कीर्ति सर्वत्र फैल गई थी। सारे भारतवर्ष में अबाध शासन स्थापित कर लेने के पश्चात्‌ इसने अनेक अश्वमेध यज्ञ किए और ब्राह्मणों दीनों, अनाथों को अपार दान दिया। शिलालेखों में इसे 'चिरोत्सन्न अश्वमेधाहर्त्ता' और 'अनेकाश्वमेधयाजी' कहा गया है। हरिषेण ने इसका चरित्रवर्णन करते हुए लिखा है-

'उसका मन सत्संगसुख का व्यसनी था। उसके जीवन में सरस्वती और लक्ष्मी का अविरोध था। वह वैदिक धर्म का अनुगामी था। उसके काव्य से कवियों के बुद्धिवैभव का विकास होता था। ऐसा कोई भी सद्गुण नहीं है जो उसमें न रहा हो। सैकड़ों देशों पर विजय प्राप्त करने की उसकी क्षमता अपूर्व थी। स्वभुजबल ही उसका सर्वोत्तम सखा था। परशु, बाण, शकु, आदि अस्त्रों के घाव उसके शरीर की शोभा बढ़ाते थे। उसकी नीति थी साधुता का उदय हो तथा असाधुता कर नाश हो। उसका हृदय इतना मृदुल था कि प्रणतिमात्र से पिघल जाता था। उसने लाखों गायों का दान किया था। अपनी कुशाग्र बुद्धि और संगीत कला के ज्ञान तथा प्रयोग से उसने ऐसें उत्कृष्ट काव्य का सर्जन किया था कि लोग 'कविराज' कहकर उसका सम्मान करते थे।'

समुद्रगुप्त के सात प्रकार के सिक्के मिल चुके हैं, जिनसे उसकी शूरता, शुद्धकुशलता तथा संगीतज्ञता का पूर्ण आभास मिलता है। इसने सिंहल के राजा मेघवर्ण को बोधगया में बौद्धविहार बनाने की अनुमति देकर अपनी महती उदारता का परिचय दिया था। यह भारतवर्ष का प्रथ आसेतुहिमाचल का सम्राट् था। इसकी अनेक रानियों में पट्टमहिषी दत्त देवी थी, जिनसे सम्राट् चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य ने जन्म दिया था।

प्रारंभिक जीवन[संपादित करें]

चंद्रगुप्त एक मगध राजा गुप्त वंश के प्रथम शासक थे जिन्होने एक लिछावी राजकुमारी, कुमारिदेवी से शादी कर ली थी जिन्की वजह से उन्हे गंगा नदी के तटीय जगहो पर एक पकड़ मिला जो उत्तर भारतीय वाणिज्य का मुख्य स्रोत माना गया था। उन्होंने लगभग दस वर्षों तक एक प्रशिक्षु के रूप में बेटे के साथ उत्तर-मध्य भारत में शासन किया और उन्की राजधानी पाटलिपुत्र, भारत का बिहार राज्य, जो आज कल पटना के नाम से जाना जाता है।

उनकी मृत्यु के बाद उनके बेटे, समुद्रगुप्त ने राज्य शासन करना शुरू कर दिया और उन्होने लगभग पूरे भारत पर विजय प्राप्त करने के बाद ही आराम किया। उनका शासनकाल, एक विशाल सैन्य अभियान के रूप में वर्णित किया जा सकता है। शासन शुरू करने के साथ उन्होने मध्य भारत में रोहिलखंड और पद्मावती के पड़ोसी राज्यों पर हमला किया। उन्होंने बंगाल और नेपाल के कुछ राज्यों के पर विजय प्राप्त की और असम राज्य को शुल्क देने के लिये विवश किया। उन्होंने कुछ आदिवासी राज्य मल्वास, यौधेयस, अर्जुनायस, अभीरस और मधुरस को अपने राज्य में विलय कर लिया। अफगानिस्तान, मध्य एशिया और पूर्वी ईरान के शासक, खुशानक और सकस भी साम्राज्य में शामिल कर लिये गए।

सूत्र[संपादित करें]

समुद्रगुप्त के इतिहास का सबसे मुख्य स्रोत, वर्तमान इलाहाबाद के निकट, कौसम्भि में चट्टानों शिलालेखों में से एक पर उत्कीर्ण एक शिलालेख है। इस शिलालेख में समुद्रगुप्त के विजय अभियानों का विवरण दिया गया है। इस शिलालेख पर लिखा है, "जिसका खूबसूरत शरीर, युद्ध के कुल्हाड़ियों, तीरों, भाले, बरछी, तलवारें, शूल के घावों की सुंदरता से भरा हुआ है।" यह शिलालेख भारत के राजनीतिक भूगोल की वजह से भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसमें विभिन्न राजाओं और लोगों का नाम अंकित है, जोकि चौथी शताब्दी के शुरूआत में भारत में मौजुद थे।

इनमें समुद्रगुप्त के विजय अभियान पर लिखा गया है जिसके लेखक हरिसेना है, जो समुद्रगुप्त के दरबार के एक महत्वपूर्ण कवि थे। समुद्रगुप्त जहाँ उत्तर भारत के एक महान शासक एवं दक्षिण में उनकी पहुँच को स्वयं दक्षिण के राजा भी बराबर नहीं कर पाते थे ।

समुद्रगुप्त की विजय[संपादित करें]

Gupta Empire 320 - 600 ad

समुद्रगुप्त के शासनकाल की शुरुआत उसकी तत्काल पड़ोसियों, अछ्युता, अहिछछात्र के शासक, और नागसेना की हार के द्वारा चिह्नित किया गया था। निम्नलिखित इस समुद्रगुप्त दक्षिण करने के लिए राज्यों के खिलाफ एक अभियान शुरू किया। यह दक्षिणी अभियान बंगाल की खाड़ी के साथ दक्षिण उसे ले लिया। उन्होंने कहा कि मध्य प्रदेश के वन इलाकों के माध्यम से पारित कर दिया ओडिशा तट को पार कर गया, गंजम, विशाखापट्नम, गोदावरी, कृष्णा और नेल्लोर जिलों के माध्यम से मार्च किया और जहाँ तक कांचीपुरम के रूप में हो गई। यहाँ हालांकि वह प्रत्यक्ष नियंत्रण बनाए रखने के लिए प्रयास नहीं किया। अपने दुश्मनों पर कब्जा करने के बाद वह सहायक नदी राजाओं के रूप में उन्हें बहाल। इस अधिनियम मौर्य साम्राज्य के लगभग तत्काल निधन प्राप्त करने से गुप्त साम्राज्य को रोका और एक राजनेता के रूप में अपनी क्षमताओं के लिए एक वसीयतनामा है। उसकी महत्वाकांक्षा "राजा चक्रवर्ती" या महानतम सम्राट और "एकराट" निर्विवाद शासक बनने से प्रेरित था। उत्तर में उन्होंने कहा कि सभी प्रदेशों की विजय और विलय जिसका मतलब था "दिग्विजय" की नीति को अपनाया। दक्षिण में, उनकी नीति विजय नहीं बल्कि विलय जिसका मतलब था "धर्म विजया" था। समुद्र गुप्ता अन्य दावेदारों पर उसके पिता ने सम्राट के रूप में चुना है और जाहिरा तौर पर शासन के अपने पहले साल में विद्रोहों को दबाने के लिए किया गया था। बंगाल की सीमाओं को शायद तब (वर्तमान उत्तर प्रदेश राज्य में) इलाहाबाद क्या है अब से पहुंचा जो किंगडम, पर उन्होंने दिल्ली अब क्या है के पास अपने उत्तरी आधार से विस्तार के युद्धों की एक श्रृंखला शुरू की। कांचीपुरम के दक्षिणी पल्लव राज्य में है, वह तो राजा विशुनुगोपा को हराया श्रद्धांजलि का भुगतान करने पर उनके सिंहासन के लिए उसे और अन्य को हराया दक्षिणी राजाओं बहाल। कई उत्तरी राजाओं हालांकि, उखाड़ा गया, और उनके प्रदेशों गुप्त साम्राज्य के लिए कहा। समुद्रगुप्त की शक्ति की ऊंचाई पर है, वह लगभग सभी गंगा (गंगा) नदी की घाटी के नियंत्रण में है और पूर्व में बंगाल, असम, नेपाल, पंजाब के पूर्वी भाग, और राजस्थान के विभिन्न जनजातियों के कुछ हिस्सों के शासकों से श्रद्धांजलि प्राप्त किया। उन्होंने कहा कि नो सम्राटों को उखाढ दिया और समुद्रगुप्त एक शानदार कमांडर था और एक महान विजेता अपने विजय अभियान की हरीसेना वर्णन से साबित हो गया है उसकी अभीयान.उन में से १२ अन्य लोगों के वशीभूत। उन्होंने समुद्रगुप्त बजाल्पुर और छोटा नागपुर के पास नौ उत्तर भारतीय राज्यों, मातहत १८ अटाविका राज्यों को उखढा और उसका बम बरसाना-तरह के अभियान में बारह दक्षिण भारतीय राजाओं, नौ सीमा जनजातियों, और सम्तता, देवक कृपा के पांच फ्रंटियर राज्यों का गौरव दीन का उल्लेख है कि नेपाल और कर्त्रिपुर्, करों का भुगतान आदेश का पालन और महान समुद्रगुप्त के लिए व्यक्ति में श्रद्धा का प्रदर्शन किया। विजय उसे भारत के प्रभु-सर्वोपरि बना दिया। वह था के रूप में फॉर्च्यून के बच्चे, वह किसी भी लड़ाई में हार कभी नहीं किया गया था। उनका इराण् शिलालेख भी लड़ाई में 'अजेय' अपने होने पर जोर दिया।

समुद्रगुप्त के अभियानों का विवरण (ये नीचे पहली संदर्भ में पाया जा सकता है) ब्योरा भी कई हैं। हालांकि यह है कि वह अपनी सेना के अलावा एक शक्तिशाली नौसेना के पास थी कि स्पष्ट है। सहायक नदी राज्यों के अलावा, साका और कुषाण राजाओं की तरह विदेशी राज्यों के कई अन्य शासकों समुद्रगुप्त का आधिपत्य स्वीकार कर लिया और उसे उनकी सेवाओं की पेशकश की। सबसे पहले वे पश्चिमी उत्तर प्रदेश और दिल्ली के शासकों को पराजित किया और उसके प्रत्यक्ष शासन के तहत उन्हें लाया। अगला, कामरुपा (असम), पश्चिम में पूरब और पंजाब में बंगाल की सीमा राज्यों, उसका आधिपत्य स्वीकार करने के लिए किए गए थे। वह भी अपने शासन के अधीन विंध्य क्षेत्र के जंगल जनजातियों लाया।


समुद्रगुप्त द्वारा जीते गए साम्राज्य[संपादित करें]

प्रारंभ में, समुद्रगुप् Archived 2022-12-09 at the Wayback Machineत ने उस समय मौजूदा गुप्त साम्राज्य की सीमा से सटे क्षेत्रों पर ध्यान आक्रमण किया उसने ऊपरी गंगा घाटी के शासक पर हमला किया और कई अन्य राजाओं के राज्य को नष्ट कर दिया, विशेष रूप से रुद्रदेव, मतिला, नागदत्त, चंद्रवर्मन, गणपतिनाग, नागसेन, अच्युत, नंदिन और बलवर्मन।

इनमें से कुछ शासकों और उनके द्वारा शासित राज्यों की पहचान अभी भी स्पष्ट नहीं है। हालाँकि, यह अनुमान लगाया गया है कि इनमें से अधिकांश राज्य वर्तमान उत्तर प्रदेश राज्य में स्थित हैं और साम्राज्य में शामिल किए गए थे।

समुद्रगुप्त सिर्फ हिंसक विनाश के लिए नहीं जाना था, मध्य भारत के वन राज्यों (अटविका राज्य) के राजा समुद्रगुप्त को प्रेम भाव से सम्राट को मानकर श्रद्धांजलि अर्पित कर उन्हें प्रणाम कर सेवक बन जाते थे।

राजा समताता (वर्तमान बंगाल राज्य), देवका और कामरूप (वर्तमान असम राज्य), नेपाला (वर्तमान नेपाल देश) और करत्रीपुरा (वर्तमान पंजाब और उत्तराखंड राज्यों के कुछ हिस्से) के क्षेत्रों पर शासन कर रहे थे उन्हें भी समुद्रगुप्त ने अपने साथ मिला लिया था।

अन्य कई राज्य जैसे मालव, अर्जुनायन, यौधेय, मद्रका, अभीर, प्रर्जुन, सनकनिक, काका और खरापरिक शामिल थे, इनमें राजस्थान और पंजाब के वर्तमान राज्यों के कुछ हिस्सों सहित उत्तर-पश्चिम भारत के कई क्षेत्र शामिल थे।

समुद्रगुप्त ने कई निर्दयी और क्रूर राजाओ द्वारा जबरदस्ती कब्जाए हुए राज्य और राजाओ को भी कैद से छुड़ाया और उनका राज्य वापस उन्हें ही सौम्य दिया। इनमें वर्तमान मध्य प्रदेश, ओडिशा, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के राज्यों और भारत के पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी तटों के राजा शामिल थे। जिनमे से कुछ के नाम इस प्रकार है।


समुद्रगुप्त साम्राज्य
राज्य राजा
कोसल के महेंद्र
महाकान्तरा व्याघ्रराजा
कौरला मन्तराजा
पिष्टपुरा महेंद्र
कोट्टुरा स्वामीदत्त
एरंडापल्ला दमन
कांची विष्णुगोप
अवमुक्ता नीलराज
वेंगी हस्तिवर्मन
पालक्का उग्रसेन
देवराष्ट्र कुबेर
कुस्थलपुर धनंजय

वैवाहिक गठबंधन[संपादित करें]

उनके शासनकाल की सबसे महत्वपूर्ण घटना वकटका राजा रुद्रसेन द्वितीय और पश्चिमी क्षत्रपों के रूप में शक राजवंश द्वारा सदियों से शासन किया गया था, जो काठियावाड़ के सौराष्ट्र की प्रायद्वीप के पराजय के साथ अपने वैवाहिक गठबंधन में बंधा था। वैवाहिक गठजोड़ गुप्तों की विदेश नीति में एक प्रमुख स्थान रखता है। गुप्तो ने लिछवियो से वैवाहिक गठबंधन कर बिहार में अपनी स्थिति को मजबूत किया था, समुद्रगुप्त ने पड़ोसी राज्यों से उपहार स्वीकार कर लिये थे। एक ही उद्देश्य के साथ, चन्द्रगुप्त द्वितीय नागा राजकुमारी कुबेर्नगा से शादी की और वकटका राजा से शादी में अपनी बेटी, प्रभावती, रुद्र शिवसेना द्वितीय दे दी है। यह एक रणनीतिक भौगोलिक स्थिति पर कब्जा कर लिया जो वकटका राजा के अधीनस्थ गठबंधन सुरक्षित रूप वकटका गठबंधन कूटनीति के मास्टर स्ट्रोक था। यह रुद्र शिवसेना जवान मारे गए और उसके बेटे की उम्र के लिए आया था, जब तक उसकी विधवा शासनकाल में उल्लेखनीय है। डेक्कन के अन्य राजवंशों भी गुप्ता शाही परिवार में शादी कर ली। गुप्त, इस प्रकार अपने डोमेन के दक्षिण में मैत्रीपूर्ण संबंधों सुनिश्चित की। यह भी चन्द्रगुप्ता द्वितीय दक्षिण-पश्चिम की ओर विस्तार के लिए कमरे की तलाश के लिए पसंद करते हैं समुद्रगुप्त के दक्षिणी रोमांच का नवीनीकरण नहीं किया है कि इसका मतलब है।

सिक्का[संपादित करें]

ज्यादा उसे और शिलालेख द्वारा जारी किए गए सिक्कों के माध्यम से समुद्रगुप्त के बारे में जाना जाता है। इन आठ विभिन्न प्रकार के थे और सभी शुद्ध सोने का बना दिया। अपने विजय अभियान उसे सोने और भी कुषाण के साथ अपने परिचित से सिक्का बनाने विशेषज्ञता लाया। निश्चित रूप से, समुद्रगुप्त गुप्ता मौद्रिक प्रणाली का पिता है। उन्होंने कहा कि सिक्कों की विभिन्न प्रकार शुरू कर दिया। वे मानक प्रकार, आर्चर प्रकार, बैटल एक्स प्रकार, प्रकार, टाइगर कातिलों का प्रकार, राजा और रानी के प्रकार और वीणा प्लेयर प्रकार के रूप में जाना जाता है। वे तकनीकी और मूर्तिकला चालाकी के लिए एक अच्छी गुणवत्ता का प्रदर्शन के सिक्कों की कम से कम तीन प्रकार -। आर्चर प्रकार, लड़ाई-कुल्हाड़ी और टाइगर प्रकार - मार्शल कवच में समुद्रगुप्त का प्रतिनिधित्व करते हैं। जैसे विशेषणों वीरता,घातक लड़ाई-कुल्हाड़ी,बाघ असर सिक्के, उसकी एक कुशल योद्धा जा रहा है साबित होते हैं। सिक्कों की समुद्रगुप्त के प्रकार वह प्रदर्शन किया बलिदान और उसके कई जीत और दर्शाता है।

वैदिक धर्म और परोपकार[संपादित करें]

समुद्रगुप्त धर्म के ऊपर से धारक था। क्योंकि धर्म के कारण के लिए अपनी सेवाओं की इलाहाबाद शिलालेख उसके लिए 'धर्म-बंधु' की योग्यता शीर्षक का उल्लेख है। लेकिन उन्होंने कहा कि अन्य धर्मों के प्रति असहिष्णु नहीं था। उनका बौद्ध विद्वान वसुबन्धु को संरक्षण और महेंद्र के अनुरोध की स्वीकृति, बोधगया में एक बौद्ध मठ का निर्माण करने के सीलोन के राजा कथन से वह अन्य धर्मों का सम्मान साबित होता है कि। उसे (परिवहन) मकर (मगरमच्छ) के साथ मिलकर लक्ष्मी और गंगा के आंकड़े असर अन्य सिक्कों के साथ एक साथ सिक्कों का उनका प्रकार ब्राह्मण धर्मों में अपने विश्वास में गवाही देने के। समुद्रगुप्त धर्म की सच्ची भावना आत्मसात किया था और उस कारण के लिए, वह इलाहाबाद शिलालेख में (करुणा से भरा हुआ) के रूप में वर्णित किया गया है। उन्होंने कहा, 'गायों के हजारों के कई सैकड़ों के दाता के रूप में' वर्णित किया गया है।

उत्तराधिकार[संपादित करें]

समुद्रगुप्त ५१ वर्षों तक शासन किया और ताज के सबसे योग्य के रूप में चयनित किया गया था, जो अपने बेटों में से एक द्वारा सफल हो गया था। इस शासक विक्रमादित्य का शीर्षक था, जो चन्द्रगुप्ता द्वितीय के रूप में जाना जाता है। समुद्रगुप्त ने साम्राज्य विस्तार के लिए दोहरी नीति अपनाई

1. प्रसरण बोद्वरण = यह नीति उतरी भारत के राज्यों को जीतने के लिए बनाई गई थी जिसके तहत उत्तरी भारत के राजाओं को पराजित कर उन्हें अपने अधीन करता था।

2. ग्रहण मोक्षनूग्रह = यह नीति दक्षिणी भारत के राज्यों को जीतने के लिए बनाई गई थी जिसके तहत दक्षिणी भारत के राजाओं को पराजित कर उसका राज्य उसे वापस लौटा दिया जाता था तथा बड़ी मात्रा में कर लिया जाता था।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. रामदेव, प्रो. आचार्य; विद्यालंकार, सत्यकेतु. भारतवर्ष का इतिहास ( तृतीय खण्ड : बौद्ध काल ) (Hindi में). 3. हरिद्वार: गुरूकुल विश्वविद्यालय. पृ॰ 41. अशोकादित्य – इस सम्राट् का वास्तविक नाम समुद्रगुप्त है । यह गुप्त वंश के संस्थापक चन्द्रगुप्त का पुत्र था । कलियुग राजवृत्तान्त के अनुसार इसने अपने पिता को मार कर राज्य प्राप्त किया । यह भारतवर्ष का एक परम प्रतापी सम्राट् हुआ है । इस के प्रताप को देख कर विन्सैण्ट ए. स्मिथ ने इसे ' भारतीय नैपोलियन ' की उपाधि दी है । इस का वर्णन हरिषेण द्वारा उत्कीर्ण शिलालेखों , कलियुग राजवृत्तान्त तथा पुराणों में प्राप्त होता है ।सीएस1 रखरखाव: नामालूम भाषा (link)
  2. "Journal of the Jain Vishva Bharati". Journal of the Jain Vishva Bharati (Hindi में). Jaina Viśva Bhāratī. 1991. कलियुग राजवृत्तान्त ' के अनुसार समुद्रगुप्त की एक उपाधि अशोकादित्य भी थी।सीएस1 रखरखाव: नामालूम भाषा (link)
  3. Goyala, Śrīrāma (1987). Samudragupta parākramāṅka (Hindi में). पपृ॰ 91–93.सीएस1 रखरखाव: नामालूम भाषा (link)
  4. विद्यालंकार, सत्यकेतु (1971). मौर्य साम्राज्य का इतिहास. Śri Sarasvatī Sadan. पपृ॰ 72–78. दूसरा अशोक गुप्त वंश में हुआ था , जो गुप्त वंश के संस्थापक चन्द्रगुप्त का पुत्र था । यह समुद्रगुप्त भी कहाता था , और कलियुगराजवृत्तान्त में इसे ' अशोकादित्य ' भी कहा गया है । सेण्ड्राप्टिस समुद्रगुप्त जिस सेण्ड्राप्टिस ने तक्षशिला में सिकन्दर के साथ भेंट की थी वह समुद्रगुप्त था , चन्द्रगुप्त नहीं । इसी समुद्रगुप्त ने म्लेच्छ ( ग्रीक आदि ) सेनाओं की सहायता से चन्द्रगुप्त की हत्या कर राजसिंहासन प्राप्त किया था । गुप्तवंशी समुद्रगुप्त ( अशोकादित्य ) का साम्राज्य अवश्य अत्यन्त विस्तृत था ।
  5. Sathe, Shriram (1987). Dates of the Buddha (English में). Bharatiya Itihasa Sankalana Samiti. पृ॰ 112. Samudragupta , like all the Guptas , had a title ending in Aditya ; he was Ashokaditya .सीएस1 रखरखाव: नामालूम भाषा (link)
  6. Saraswati, Prakashanand. The True History and the Religion of India (English में). पृ॰ 339. Samudragupt was called Samudragupt Ashokaditya.सीएस1 रखरखाव: नामालूम भाषा (link)