विकीर्णन (डायसपोरा)

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विकीर्णन या डायस्पोरा (diaspora) से आशय है -किसी भौगोलिक क्षेत्र के मूल वासियों का किसी अन्य बहुगोलिक क्षेत्र में प्रवास करना (विकीर्ण होना)। किन्तु डायसपोरा का विशेष अर्थ ऐतिहासिक अनैच्छिक प्रकृति के बड़े पैमाने वाले विकीर्ण, जैसे जुडा से यहूदियों का निष्कासन

भारतीय डायसपोरा[संपादित करें]

विश्व का सबसे बड़ा डायसपोरा भारतवंशियों का है। करीब तीन करोड़ की संख्या वाला यह डायसपोरा विश्व के 28 देशों में फैला हुआ है। भारतीय समाज की ही तरह यह डायसपोरा बहुधर्मी (हिंदू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई, बौद्ध, जैन और पारसी), बहुजातीय (भारत की लगभग सभी जातियाँ) और बहुभाषी है। अगर डायसपोरा की तीन प्रमुख श्रेणियाँ (उत्पीड़ित डायसपोरा, श्रमिक डायसपोरा और तिजारती डायसपोरा) मानी जाएँ तो भारतीय डायसपोरा तीनों श्रेणियों का निर्माण करता है। जिप्सी भारतवंशी माने जाते हैं और सारी दुनिया में उनके विरुद्ध उत्पीड़न के प्रमाण बड़े पैमाने पर उपलब्ध हैं। उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के कारण उन्नीसवीं सदी में बहुत बड़ी संख्या में भारतवासियों को अनुबंध की शर्तों में बँधे हुए बँधुआ श्रमिक के तौर पर ब्रिटिश उपनिवेशों के बागानों में काम करने के लिए भेजा गया था। इस डायसपोरा का एक हिस्सा ऐसा भी है जिसे तिजारती श्रेणी में रखा जाएगा। इसके तहत वे भारतवंशी आते हैं जो अपनी व्यापार और व्यवसायगत योग्यताओं के आधार पर विदेशों में बेहतर अवसरों की तलाश में गये थे। इनमें शारीरिक श्रम करने वाले श्रमिकों, कारीगरों, डॉक्टरों, इंजीनियरों और व्यापारियों को रखा जा सकता है।

भारतीय डायसपोरा न केवल सामाजिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है, बल्कि राजनीतिक दृष्टि से भी उसका महत्व विश्व के दूसरे डायसपोरा समाजों से अधिक है। उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन का इतिहास गवाह है कि दक्षिण अफ़्रीका के भारतीयों के बीच ही गाँधी ने अहिंसक आंदोलन और सत्याग्रह के सबसे पहले प्रयोग किये थे। श्रीलंका में हिंसक अलगाववादी आंदोलन चलाने वाला ईलम संगठन भारतवंशी तमिलों का ही है। उत्तरी अमेरिका के भारतीय भारत में चलने वाली वामपंथी (पीपुल्स एसोसिएशन ऑफ़ नॉर्थ अमेरिका के भारत के नक्सलवादी गुटों के साथ संबंध रहे हैं) और दक्षिणपंथी (अमेरिका, ब्रिटेन और कनाडा के प्रवासी भारतीय विश्व हिंदू परिषद् के हिंदुत्ववादी कार्यक्रम का समर्थन करते रहे हैं) वे दोनों तरह की राजनीति से जुड़े हुए हैं। प्रवासी भारतीय हिंदू धर्म के भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया और उसके माध्यम से उसमें आने वाले परिवर्तनों के भी ज़िम्मेदार माने जाते हैं।

भारत सरकार इस डायसपोरा समाज को दो तकनीकी श्रेणियों में रख कर परिभाषित करती है : अनिवासी भारतीय या प्रवासी भारतीय (एनआरआई) और भारतीय मूल का व्यक्ति (पीआईओ)। 'नॉन रेजीडेंड' का मतलब है प्रवासी भारतीय जो भारतवंशी तो है पर भारत के बाहर पैदा हुआ है और स्थाई रूप से बाहर ही रहता है और अपनी निवास के देश का नागरिक है। 'परसन ऑफ़ इण्डियन ऑरिजन' का मतलब है भारतीय मूल का वह व्यक्ति जो भारत का नागरिक नहीं है। कम से कम चार पीढ़ियों से विदेश में रहने वाले व्यक्ति को पीआईओ का दर्जा मिल सकता है। पीआईओ कार्ड रखने वाले पुरुष की पत्नी भी वह कार्ड रख सकती है, भले ही वह भारतीय मूल की न हो। पीआईओ कार्डधारकों पर वे पाबंदियाँ नहीं होतीं जो विदेशी नागरिकों पर लगायी जाती हैं। यानी उन्हें वीज़ा और काम करने के परमिट पर कोई रोक नहीं है। न ही उन पर किसी तरह के आर्थिक प्रतिबंध लगाये जाते हैं।

जनवरी, 2006 से भारत सरकार ने ‘ओवरसीज़ सिटीज़नशिप ऑफ़ इण्डिया’ (ओसीआई) की स्कीम शुरू की है जिसके तहत प्रवासियों को आज़ादी के बाद पहली बार एनआरआई और पीआईओ को सीमित किस्म की दोहरी नागरिकता देने का प्रावधान किया गया है। समझा जाता है कि धीरे-धीरे ओसीआई स्कीम पीआईओ स्कीम की जगह ले लेगी।

इतिहास को देखा जाए तो रोमानी लोगों या जिप्सियों की बड़ी संख्या के भारत से जा कर दूसरे देशों में बसने से भारतीय डायसपोरा की शुरुआत होती है। भाषाई और जेनेटिक प्रमाण बताते हैं कि जिप्सियों का उद्गम मध्य भारत में है। ग्यारहवीं सदी में वे यहीं से उत्तर-पश्चिम की तरफ़ बढ़े और ईसा से ढाई सौ साल पहले उन्होंने पंजाब के इलाके में कई सदियाँ बितायीं। 500 से 1000 ईस्वी के बीच कई लहरों में रोमानी लोगों ने दुनिया के पश्चिमी हिस्से की तरफ़ गमन किया। मध्य एशिया के डोम और भारत के बंजारे रोमानी समाज के बचे हुए प्रतिनिधि ही माने जाते हैं। चोल राजाओं और बौद्धों के सैनिक अभियानों के कारण भारतीय प्रभाव दक्षिण-पूर्वी एशिया तक पहुँचा और सुमात्रा, मलय द्वीप और बाली में भारतीय डायसपोरा का आधार बना। सोलहवीं सदी के मध्य में भारतीय व्यापारी मध्य एशिया और फ़्रांस के इलाकों में पहुँचे और उनका एक हिस्सा वहीं बस गया। अट्ठारहवीं सदी तक मास्को और सेंट पीटर्सबर्ग में भी भारतीय मौजूदगी दिखाई पड़ती है।  उन्नीसवीं सदी से ब्रिटिश राज की समाप्ति तक भारतीय श्रमिकों को करारबंद करके बँधुआ मज़दूरों के रूप में मॉरीशस, गुयाना, कैरीबियाई द्वीपों, फ़ीज़ी, सूरीनाम और पूर्वी अफ़्रीका के बाग़ानों में काम करने के लिए ले जाया जाने लगा। चूँकि ब्रिटिश संसद ने 1843 में दास प्रथा का उन्मूलन कर दिया था, इसलिए इन बागानों में श्रमिकों की कमी पड़ने लगी थी। भारतीय श्रमिकों ने इनकी जगह ली। अंग्रेज़ उपनिवेशवादी भारतीय श्रमिकों को श्रीलंका, बर्मा और ब्रिटिश मलाया के चाय बागानों में काम करने के लिए भी ले गये।

स्वतंत्रता के बाद अमेरिकी और युरोपीय अर्थव्यवस्थाओं द्वारा दिये गये अवसरों का लाभ उठाने के लिए डॉक्टरों और अन्य पेशों में प्रशिक्षित भारतवासी विदेश गये। सत्तर के दशक में मध्य-पूर्व के देशों में आये तेल बूम से पैदा हुए अवसरों का लाभ उठाने के लिए बड़ी संख्या में भारतवासी खाड़ी देशों में काम करने के लिए गये। नब्बे के दशक में आये सॉफ्टवेयर बूम के चलते अमेरिकी और पश्चिमी देशों की अर्थव्यवस्थाओं ने भी बहुत से प्रशिक्षित भारतीयों को अपनी ओर आकर्षित किया।

भारतवंशियों को अपनी रिहाइश के देशों में बसने के लिए काफ़ी संघर्ष करना पड़ा है। युगांडा में ईदी अमीन की सरकार द्वारा एशियाइयों के विरुद्ध चलाई गयी मुहिम के दौरान भारतीयों को सबसे ज़्यादा नुकसान उठाना पड़ा था। फ़ीज़ी में भारतवासी मूल निवासियों के राजनीतिक कोप का सामना कर चुके हैं। ब्रिटेन, कनाडा और अमेरिका में उन्हें गोरों की नस्ली घृणा का मुकाबला करना पड़ा है। ऑस्ट्रेलिया में 2009-10 के दौरान भारतीय छात्रों ने अमानवीय हिंसा के घाव झेले हैं।

कहा जाता है कि ऑस्ट्रेलिया में भारतीयों का आगमन उस ज़माने में हुआ था जब वहाँ ऊँटों के ज़रिये संचार व्यवस्था चलती थी। इन भारतीयों को 'अफ़ग़ान' कहा जाता था और वे मेलबर्न और अन्य ऑस्ट्रेलियायी केंद्रों के बीच सूत्र की भूमिका निभाते थे। आज ऑस्ट्रेलिया में करीब 2,60,000 भारतीय रहते हैं जिनमें ज़्यादातर हिंदू और सिक्ख हैं। कनाडा में भारतीयों का आगमन उन्नीसवीं सदी में शुरू हुआ। उन्हें गोरी चमड़ी के कनाडियनों के नस्ली हमलों का सामना करना पड़ा। 1919 तक कनाडा की सरकार इन्हें अपनी पत्नी और बच्चों को लाने की इजाज़त नहीं देती थी। इसके बाद भारतीयों पर कोटा सिस्टम थोपा गया जो 1967 तक जारी रहा। आज चीनियों के बाद भारतीय कनाडा में हर साल आने वाले विदेशियों में सबसे ज़्यादा हैं। कैरीबियन द्वीप समूहों में 1838 से 1917 के बीच पचास लाख से अधिक भारतीय करारबंद श्रमिकों के रूप में बाग़ानों में काम करने के लिए लाये गये। इनमें से ज़्यादातर पूर्वी उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बिहार के थे। आज जमैका और सेंट विंसेंट जैसे देशों में भारतीय-कैरेबियन मूल के लोग सबसे बड़े जातीय समूहों की रचना करते हैं। बहामा, बारबाडोस, बेलिज़, फ्रेंच गुआना, ग्रेनेडा, पनामा, सेंट लूसिया और हैती में भी उनकी आबादी है। इन भारतीयों ने तरह-तरह की कठिनाइयों का सामना करते हुए इन द्वीपों के विकास में उल्लेखनीय भूमिका का निर्वाह किया है। ब्रिटेन में रहने वाला प्रवासी भारतीय समुदाय मोटे तौर पर तीसरी पीढ़ी से गुज़र रहा है और संख्या के लिहाज़ से दूसरे नम्बर पर आता है। उनसे अधिक जनसंख्या केवल अमेरिका और कनाडा के भारतवंशियों की ही है। अप्रैल, 2001 की जनगणना के अनुसार वहाँ 4,051,0800 भारतीय रहते हैं जिनमें सत्तर प्रतिशत संख्या पंजाबियों की है। बाकी 30 प्रतिशत में अधिकांश बंगाली और गुजराती हैं। अधिकतर भारतीय लंदन, मिडलैण्ड, नॉर्थ वेस्ट और यार्कशायर में रहते हैं। इंग्लैण्ड में अंग्रेज़ी के बाद सबसे ज़्यादा बरती जाने वाली भाषा पंजाबी है। ब्रिटिश संस्कृति और खान-पान पर भारतीय प्रभाव भी दिखने लगा है।

उत्तरी अमेरिका में भारतीय समुदाय की रिहाइश अब सौ साल से ज़्यादा पुरानी हो चुकी है। शुरुआती प्रवासियों में ज़्यादातर सिक्ख थे। 1889 में पहला हिंदू परिवार अमेरिका पहुँचा तो वहाँ की सरकार ने उसके लिए मंदिर का निर्माण करवाया। इससे आकर्षित हो कर और हिंदुओं ने अमेरिका की राह पकड़ी। इसके बाद अमेरिका में कई मंदिर दिखने लगे। लेकिन, सरकार ने सिक्खों को अपने गुरुद्वारे बनाने की यह मान कर इजाज़त नहीं दी कि उनका सम्प्रदाय हिंदू धर्म से ही निकला है इसलिए अगर वे पूजा करना चाहें तो मंदिरों में कर सकते हैं। 1911 में कनाडा में पहला गुरुद्वारा बना। आज कनाडा में कई गुरुद्वारे हैं, पर अमेरिका में अब भी उनकी संख्या बहुत कम है। शुरू में एशियाई स्त्रियों को अमेरिका आने की अनुमति नहीं थी, इसलिए बहुत दक्षिण ऐशियाई पुरुषों ने मैक्सिकन औरतों से शादियाँ कीं। प्रवासियों को इस दौर में अमेरिकन नागरिकता नहीं दी गयी। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अमेरिकन आव्रजन नीति में परिवर्तन हुआ और लगभग आधी शताब्दी के बाद भारतवंशियों को अपने परिवार बुलाने और नागरिकता समेत वोट डालने के अधिकार मिले। इसके बाद परिस्थिति अनुकूल हो जाने के बाद पचास, साठ, सत्तर और अस्सी के दशक में विभिन्न चरणों में भारतीय छात्रों, डॉक्टरों, इंजीनियरों और अन्य हुनरमंद कर्मचारियों के रूप में अमेरिका गये और वहीं बस गये। शुरुआत में सिक्ख और पंजाबी अधिक थे, पर बाद के चरणों में गुजराती और दक्षिण भारतीय प्रवासी बने। नब्बे के दशक और नयी सदी के शुरुआती सालों में हुई सूचना क्रांति ने सबसे बड़ी संख्या में भारतीयों को अमेरिका की तरफ़ आकर्षित किया। आज अमेरिकी सार्वजनिक जीवन में भी भारतीयों की अच्छी-ख़ासी उपस्थिति है। न्यूयॉर्क में सबसे अधिक भारतीय रहते हैं और ऐसा कोई महानगरीय क्षेत्र नहीं है जिसमें भारतीय समुदाय मौजूद न हो।

सन्दर्भ[संपादित करें]

  • जी. ओंक (2007), ग्लोबल डायसपोरा : टै्रजेक्टरीज़ ऑफ़ माइग्रेशन ऐंड थियरी, एमस्टर्डम युनिवर्सिटी प्रेस, 2007
  • डायसपोरा : द नैशनल पोर्टल ऑफ़ गवर्नमेंट ऑफ़ इण्डिया, (एचटीटीपीः//इण्डिया.जीओवी.इन/ओवरसीज़/डायसपोरा/एनआर आई.पीएचपी)

इन्हें भी देखें[संपादित करें]