मल्लिकार्जुन मंदिर

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मल्लिकार्जुन मंदिर भगवान शिव के मल्लिकार्जुन ज्योर्तिलिंग का मंदिर है। इस ज्योर्तिलिंग का नाम भगवान शंकर और माता पार्वती के नाम पर पड़ा है। अर्थात् मल्लिका (पार्वती) और अर्जुन (शिव)।

कथा[संपादित करें]

शिवमहापुराण और लिङ्ग पुराण के अनुसार इस ज्योर्तिलिंग की कथा कुछ इस प्रकार है कि - एक बार भगवान विष्णु के अवतार नारद मुनि भगवान शंकर और माता पार्वती के दर्शन हेतु कैलाश पर्वत पर जा पहुंचे। भगवान शिव और माता पार्वती के दर्शन करने के पश्चात् नारद मुनि कैलाश से बैकुण्ठ जाने लगे और मार्ग में उनकी मुलाकात भगवान शिव और माता पार्वती के दोनों पुत्र कार्तिकेय और गणेश से हो गई। उन्होंने अपनी झोली में से एक फल निकाला और दोनों में से किसी एक को खाने के लिए कहा। दोनों में इस बात पर विवाद हो गया। माता पार्वती और भगवान शिव ने कहा कि "तुम दोनों में से जो भी इस पृथ्वी की सात बार परिक्रमा करके आएगा वही इस फल को खाएगा"। कार्तिकेय ने अपने माता पिता का ये आदेश सुना और वे अपने वाहन मोर पर चढ़कर वहां से चले गए। गणेश ने सोचा कि "मैं अपने वाहन मूषक पर कैसे सात बार समस्त सृष्टि की परिक्रमा करके भैय्या से पहले आऊं"। उन्होंने शास्त्रों की बात का स्मरण हुआ। उन्होंने एक शास्त्र में पढ़ा था कि माता पिता में ही समस्त तीर्थ और समस्त संसार निहित होता है। इसलिए उन्होंने सात बार भगवान शंकर और माता पार्वती की सात बार परिक्रमा कर दी और वह फल खा लिया। कुछ वर्षों बाद जब कार्तिकेय लौटकर आए तो उन्हें पता चला कि वह फल गणेश ने खा लिया है। उन्होंने अपने माता पिता से पूछा तो माता पिता ने उत्तर दिया कि "गणेश ने अपनी बुद्धि का प्रयोग कर वह फल खा लिया है"। उसने हमें ही समस्त तीर्थ और समस्त संसार मानकर हमारी सात बार परिक्रमा कर दी है"। तब कार्तिकेय ने ये बात स्वीकार कर ली और वहां से रूष्ट होकर दक्षिण की ओर चले गए। अपने पुत्र के जाने के बाद माता पार्वती बहुत दुःखी हो गई और पुत्र वियोग में दुःखी होकर माता पार्वती ने दक्षिण जाने की हठ की। भगवान शिव भी ये बात मान गए। दोनों ही अपने पुत्र कार्तिकेय से मिलने दक्षिण की ओर गए। जब कार्तिकेय को अपने माता पिता के दक्षिण आने का समाचार मिला तो वे वहां से तीस कोस दूर चले गए। माता पार्वती ने भगवान शंकर से उसी स्थान पर शिवलिंग के रूप में विराजमान रहने का आग्रह किया। भगवान शिव ने ये बात मानकर वहीं शिवलिंग के रूप में रहना उचित समझा।