चंपू
चम्पू श्रव्य काव्य का एक भेद है, अर्थात गद्य-पद्य के मिश्रित् काव्य को चम्पू कहते हैं। गद्य तथा पद्य मिश्रित काव्य को "चंपू" कहते हैं।
- गद्यपद्यमयं काव्यं चम्पूरित्यभिधीयते - (साहित्य दर्पण ६ / ३३६)
काव्य की इस विधा का उल्लेख साहित्यशास्त्र के प्राचीन आचार्यों- भामह, दण्डी, वामन आदि ने नहीं किया है। यों गद्य पद्यमय शैली का प्रयोग वैदिक साहित्य, बौद्ध जातक, जातकमाला आदि अति प्राचीन साहित्य में भी मिलता है। चम्पूकाव्य परंपरा का प्रारम्भ हमें अथर्व वेद से प्राप्त होता है। चम्पू नाम के प्रकृत काव्य की रचना दसवीं शती के पहले नहीं हुई। त्रिविक्रम भट्ट द्वारा रचित 'नलचम्पू', जो दसवीं सदी के प्रारम्भ की रचना है, चम्पू का प्रसिद्ध उदाहरण है। इसके अतिरिक्त सोमदेव सुरि द्वारा रचित यशःतिलक, भोजराज कृत चम्पू रामायण, कवि कर्णपूरि कृत आनन्दवृन्दावन, गोपाल चम्पू (जीव गोस्वामी), नीलकण्ठ चम्पू (नीलकण्ठ दीक्षित) और चम्पू भारत (अनन्त कवि) दसवीं से सत्रहवीं शती तक के उदाहरण हैं। यह काव्य रूप अधिक लोकप्रिय न हो सका और न ही काव्यशास्त्र में उसकी विशेष मान्यता हुई। हिन्दी में यशोधरा (मैथिलीशरण गुप्त) को चम्पू-काव्य कहा जाता है, क्योंकि उसमें गद्य-पद्य दोनों का प्रयोग हुआ है।
गद्य और पद्य के इस मिश्रण का उचित विभाजन यह प्रतीत होता है कि भावात्मक विषयों का वर्णन पद्य के द्वारा तथा वर्णनात्मक विषयों का विवरण गद्य के द्वारा प्रस्तुत किया जाय। परन्तु चंपूरचयिताओं ने इस मनोवैज्ञानिक वैशिष्ट्य पर विशेष ध्यान न देकर दोनों के संमिश्रण में अपनी स्वतंत्र इच्छा तथा वैयक्तिक अभिरुचि को ही महत्व दिया है।
परिचय
[संपादित करें]गद्य-पद्य का संमिश्रण संस्कृत साहित्य में प्राचीन है, परंतु काव्यशैली में निबद्ध, "चंपू" की संज्ञा का अधिकारी गद्य-पद्य का समंजस मिश्रण उतना प्राचीन नहीं माना जा सकता। गद्य-पद्य की मिश्रित रचना कृष्ण यजुर्वेदीय संहिताओं में उपलब्ध होती है। पालि जातकों में भी गद्य में कथानक तथा पद्य (गाथा) में मूल सूत्रात्मक संकेतों की उपलब्धि अवश्य होती है। परंतु काव्यतत्व से विरहित होने के कारण इन्हें हम "चंपू" का दृष्टांत किसी प्रकार नहीं मान सकते। हरिषेण रचित समुद्रगुप्त की प्रयागप्रशस्ति (समय 350 ई.) तथा बौद्ध कवि आयंशूर (चतुर्थ शती) प्रणीत जातकमाला चंपू के आदिम रूप माने जा सकते हैं, क्योंकि पहले में समुद्रगुप्त की दिग्विजय तथा दूसरे में 34 जातक विशुद्ध काव्यशैली का आश्रय लेकर अलंकृत गद्य पद्य में वर्णित हैं। प्रतीत होता है कि चंपू गद्यकाव्य का ही एक परिबृहित रूप है और इसीलिये गद्यकाव्य के सुवर्णयुग (सप्तम अष्टम शती) के अनंतर नवम शती के आसपास इस काव्यरूप का उदय हुआ।
चंपू काव्य का प्रथम निदर्शन त्रिविक्रम भट्ट का नलचंपू है जिसमें चंपू का वैशिष्ट्य स्फुटतया उद्भासित होता है। दक्षिण के राष्ट्रकूटवंशी राजा कृष्ण (द्वितीय) के पौत्र, राजा जगतुग और लक्ष्मी के पुत्र, इंद्रराज (तृतीय) के आश्रय में रहकर त्रिविक्रम ने इस रुचिर चंपू की रचना की थी। इंद्रराज का राज्याभिषेक वि॰सं॰ 972 (915 ई.) में हुआ था और उनके आश्रित होने से कवि का भी वही समय है दशम शती का पूर्वार्ध। इस चंपू के सात उच्छ्वासों में नल तथा दमयंती की विख्यात प्रणयकथा का बड़ा ही चमत्कारी वर्णन किया गया है। काव्य में सर्वत्र शुभग संभग श्लेष का प्रसाद लक्षित होता है।
जैन कवि सोमप्रभसूरि का "यशस्तिलक चंपू" दशम शती के मध्यकाल की कृति है (रचनाकाल 959 ई.)। ग्रंथकार राष्ट्रकूटनरेश कृष्ण के सामंत चालुक्य अरिकेश्री (तृतीय) के पुत्र का सभाकवि था। इस चंपू में जैन पुराणों में प्रख्यात राजा यशोधर का चरित्र विस्तार के साथ वर्णित है। चंपू के अंतिम तीन उच्छ्रवासों में जैनधर्म के सिद्धातों का विस्तृत विवरण प्रस्तुत कर कवि ने इन सिद्धांतों का पर्याप्त प्रचार प्रस्तार किया है। ग्रंथ में उस युग के नानाविध धार्मिक, आर्थिक तथा सामाजिक विषयों का विवरण सोमप्रभसूरि की व्यापक तथा बहुमुखी वंदुषी का परिचायक है।
राम तथा कृष्ण के चरित का अवलंबन कर अनेक प्रतिभाशाली कवियों ने अपनी प्रतिभा का रुचिर प्रदर्शन किया है। ऐसे चंपू काव्यों में भोजराज (11वीं शती) का रामायण चंपू, अनंतभट्ट का "भारत चंपू", शेष श्रीकृष्ण (16वीं शती) का "पारिजातहरण चंपू" काफी प्रसिद्ध हैं।
भोजराज ने रामायण चंपू की रचना किष्किंधा कांड तक ही की थी, जिसकी पूर्ति लक्ष्मण भट्ट ने "युद्धकांड" की तथा वेंकटराज ने "उत्तर कांड" की रचना कर की थी।
जैन कवियों के समान चैतन्य मतावलंबी वैष्णव कवियों न अपने सिद्धांतों के पसर के लिये इस ललित काव्यमाध्यम को बड़ी सफलता से अपनाया। भगवान श्रीकृष्ण की ललाम लीलाओं का प्रसंग ऐसा ही सुंदर अवसर है जब इन कवियों ने अपनी अलोकसामान्य प्रतिभा का प्रसाद अपने चंपू काव्यों के द्वारा भक्त पाठकों के सामने प्रस्तुत किया। कवि कर्णपूर (16वीं शती) का आनंदवृंदावन चंपू, तथा जीव गोस्वामी (17वीं शती) का गोपालचंपू सरस काव्य की दृष्टि से नितांत सफल काव्य हैं। इनमें से प्रथम काव्य कृष्ण की बाललीलाओं का विस्तृत तथा विशद वर्णन करता है, द्वितीय काव्य कृष्ण के समग्र चरित का मार्मिक विवरण है।
"वीरमित्रोदय" के प्रख्यात रचयिता मित्र मिश्र (17वीं शती का प्रथमार्ध) का "आनंदकंद चंपू" कृष्णपरक चंपुओं में एक रुचिर शृंखला जोड़ता है। दक्षिण भारत में भी चंपूकाव्यों की लोकप्रियता कम न थी। नीलकंठ दीक्षित का "नीलकंठविजय चंपू" समुद्रमंथन के विषय में है (रचनाकाल 1631 ई.)। तैलंग ब्राह्मणों के आत्रेय गोत्र में कृष्ण-यजुर्वेद के तैत्तरीय आपस्तम्ब के अध्येता मूलपुरुष श्रीव्येंकटेश अणम्मा की दूसरी पीढ़ी में उनके सुपुत्र शास्त्रार्थ-विशारद श्री समरपुंगव दीक्षित जिन का जन्म सन् 1574 ई. में हुआ था प्रख्यात अयप्पा दीक्षित जी की बहन के पुत्र (उनके भांजे) थे, जिन्होने पूरे भारत के खास तौर पर यहाँ के सभी धार्मिक-स्थलों और बड़े नगरों को अधिकांशतः पदयात्रा करते हुए अपनी आँखों से देखा था ! उन्होंने उत्तर तथा दक्षिण भारतीय मुख्यतम तीर्थों का तो अपनी चम्पू कविता में मनोहारी वर्णन किया ही, भारत के भूगोल के वैविध्य, वनस्पतियों और वृक्षों के प्रकारों तक पर उनकी सक्षम कलम चली ....यात्राप्रबंध उन का अत्यंत प्रसिद्ध और बहुउद्धृत चम्पू-काव्य अत्यंत प्रसिद्ध है!
श्री वैष्णव वेंकटाध्वरी (17वीं शती) के "विश्वगुणादर्श चंपू" की रचना अन्य चंपुओं से इस बात में विशिष्ट है कि इसमें भारत के नाना तीर्थो, धर्मो तथा शास्त्रज्ञों में दोषों तथा गुणों का उद्घाटन बड़ी मार्मिकता से एक साथ किया गया है। यह विशेष लोकप्रिय काव्य है। वाणीश्वर विद्यालंकार का "चित्रचंपू" बंगाल के एक विशिष्ट पंडित कवि की रचना है जिसमें भक्ति द्वारा भगवत्प्राप्ति का संकेत रूपकशैली में एक सरस आख्यान के माध्य से किया गया है (18वीं शती)।
इस प्रकार संस्कृत साहित्य में भावों के प्रकटन के निमित्त अनेक शताब्दियों तक लोकप्रिय माध्यम होने पर भी उत्तर भारतीय भाषासाहित्य में चंपू काव्य दृढमूल न हो सका। द्राविड़ी भाषा के साहित्य में सामन्यत:, केरली तथा आंध्र साहित्य में विशेषत:, चंपू काव्य आज भी लोकप्रिय है जिसके प्रण्यन की ओर कविजनों का ध्यान पूर्णत: आकृष्ट है।
बाहरी कड़ियाँ
[संपादित करें]सन्दर्भ
[संपादित करें]- हिन्दी साहित्यकोश, भाग-१, पृ० २४३, ज्ञानमण्डल लिमिटेड वाराणसी, तृतीय संस्करण, वसंत पंचमी १९८५)