कटिया

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कटिया फ़र्रूख़ाबाद जिले के अन्तर्गत है।

कतिया जाति वर्तमान में भारत में मूलतः मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, दिल्ली, उड़ीसा, तेलंगाना, गुजरात, दमन एंड दिव, राजस्थान, उत्तरप्रदेश में पायी जाती है। कतिया जाति आदिकाल से काठियावाड़ क्षत्रिय जाति से है जिसे काठियावाडी काठी, काठिया कहा जाता रहा हैं, जोकि समाज की आधुनिक परस्तिथियो के कारण और समाज की मांग को द्रष्टिगत रखते हुए भारत सरकार दवारा अनुसूचित जाति में रखा गया हैं, लेकिन इतिहास देखा जाय तो कतिया जाति भारत की मूलनिवासी जनजाति के अंतर्गत हैं और मध्यप्रदेश राज्य के आदिवासी समुदाय के भगत माने जाते हैं । कतिया जाति के लोग भगत के रूप में आदिवासीयों के यहाँ पर उनके कुलदेवता की पूजन,आर्चन भी कराते हैं। कतिया समाज का काम पूर्व में कताई धागा, कपास से सूत कातना उनका पारंपरिक काम- धंधा रहा है, लेकिन अब ऐसा नहीं करते हैं। अब इनका मुख्य कम किसानी / कृषि तथा मजदूरी, करना हैं । कतिया जाति को काठियावाड़ क्षत्रिय, काठी, काठिया, और इस जाति को चार गढ़वाल, मंडलीवाल, पठारिया और दुलुभा में विभाजित थी। गढ़वाल, पठारिया आदि जैसे काठों के वर्तमान गोत्र और पारिवारिक शीर्षक में यह बहुत स्पष्ट है, यह दर्शाता है कि काठी या काठिया बाद में कतिया में बदल गया हैं। मध्य प्रदेश के कुछ इलाकों में कतिया समाज के लोगों को रेहटा राजपूत कहा जाता है। कतिया जाति को उड़ीसा में कतिया, खतिया जाति से भी जानना जाता हैं। इतिहास प्रमाणिकता के तोर में कई बुधिजिवी इसे भागवान महादेव भोलेनाथ के अभिन्न अस्त्र कत्ती अर्थात तलवार से या तलवार चलने से जाति की उत्पत्ति को मानते हैं और कई बुधिजिवी इसे सूत कातने से कतिया जाति की उत्पत्ति मानते हैं, कई बुधिजिवी इसे काठी, काठिया के कारण कतिया जाति की उत्पत्ति मानते हैं।

इस प्रकार से इतिहासिक प्रमाणिकता दर्शाता हैं कि कतिया जाति की उत्पत्ति कत्ती, काठी, काठिया, और सूत कातने से कतिया जाति की उत्पत्ति को माना जाता हैं। कतिया जाति के गौत्रों से गढ़ावाल जाति, मेहरा जाति के गौत्रों की सामान्यता मिलती हैं इसलिए इन जाति को भी कतिया जाति का अंग माना जाता हैं लेकिन अभी इस जाति से रोटी- बेटी का रिश्ता नहीं किया जाता हैं ।  

कतिया जाति के व्यक्ति हिंदी बोलते हैं और देवनागरी में पढ़ते और लिखते हैं, अपनी कतियाई बोली भी बोलते हैं और इस बोली को लिखते भी हैं जोकि गुजरात के काठियावाड़ के क्षेत्र से मेल खाती हैं । यह शाकाहारी नहीं होते हैं, खेती किसानी कर अनाज उपार्जन के रूप में गेहूं/ चावल खाते हैं। अब इनका मुख्य कम किसानी/ कृषि तथा मजदूरी, रिक्शा खींचने का काम करते है और महिलाएं सामाजिक, धार्मिक, कृषि, खेती किसानी के मामलों में मदद करती हैं। हिंदू धर्म उनका मुख्य धर्म है और उनके द्वारा स्थानीय देवताओं की पूजा की जाती है। कतिया जाति के राष्ट्रिय स्तर पर देवता, देवों के देव महादेव भगवान भोलेनाथ तथा महान शिव भक्त संत शिरोमणि भूरा भगत जी की पूजा/ आर्चना की जाती हैं। महाशिवरात्रि महादेव भोलेनाथ का व्रत, पूजा-पाठ महाशिवरात्रि के दिन बढे धूमधाम से मानते हैं। “संत शिरोमणि भूराभागत” जी का प्राकट्य जन्म उत्सव वैसाख माह की शुक्ल पक्ष की नवमीं तिथि को मनाते हैं।  कतिया जाति में कुलदेवता के रूप में महादेव शिवशंकर, काला बाबा, नारायाण देव, दुल्हादेव, पांचो पंड्या छटे नारायाण (अर्थात महाभारत कालीन पांचो पंड्या छटे नारायाण से तात्य पर नारायाण सूर्यदेव पुत्र कर्ण) कुल देवी के रूप में माता हिंगलाज, काली, सिंघागवाह्नी, दुर्गा, गौरा, पर्वती आदि की पूजा, आर्चना, उपासना कर परिवार के लिए सुख-समव्रधि की मनोकामनाए मंगाते है। गुरु संत के रूप में देवों के देव महादेव के भक्त की पूजा, आर्चना करते हैं। कतिया समाज में आदिकाल से हिंगलाज देवी को पूजने के प्रमाण मिलते हैं। हिंगलाज देवी को पूजने वाले आज तक कई बुनकर और दर्जी का भी काम करते हैं। अम्बा भवानी या जगदम्बा को हिंगलाज देवी के बाद के अवतारों में से एक माना जाता है। यह डोडिया राजपूत की प्रथम कुलदेवी हिंगलाज माता पूजनीय है। चूँकि कतिया समाज भी क्षत्रिय समाज से हैं इसलिए यहाँ पर हिंगलाज माता का वर्णन किया गया हैं । समाज के लोग, पूर्वज पहले क्षत्रिय जनेऊ धारण करते थे। युद्ध-लड़ाई के दौरान काठी, काठिया क्षत्रिय वर्तमान के कतिया जाति के परास्त होने, आर्थिक / शारीरिक प्रबलता कमजोर होने के कारण, अपने आपको युद्ध से जान बचाने के लिये अपना क्षत्रिय जनेऊ को जरिया (बेरी) के पेड़ पर फेक दिया गया था। तब से जनेऊ धारण नहीं करते हैं। शादी- विवाह में मातृका पूजन के दिन पितृरों को बुला कर पूजन/ आर्चन कर क्षत्रिय जनेऊ जरिया (बेरी) के पेड़ पर डाला जाता हैं, पितृरों को गीत के दवारा निमंत्रण देकर आवाहन किया जाता है ।