अनुभूति

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मूल अनुभूतियों का एक चित्रण (अंग्रेज़ी में)

अनुभूति (Feeling) किसी एहसास को कहते हैं। यह शारीरिक रूप से स्पर्श, दृष्टि, सुनने या गन्ध सूंघने से हो सकती है या फिर विचारों से पैदा होने वाली भावनाओं से उत्पन्न हो सकती है।[1] संस्कृत मैं 'अनुभूति', 'अनुभव' का समानार्थी है। इसका अभिप्राय है साक्षात, प्रत्यक्ष ज्ञान या निरीक्षण और प्रयोग से प्राप्त ज्ञान हिंदी में छायावाद काल नया सब नया अर्थ में प्रयुक्त होकर समीक्षात्मक प्रतिमान के रूप में स्थापित हुआ। छायावाद की वैयक्तिकता का सीधा संबंध अनुभूति से है। अनुभूति में जो सुख-दुखात्म बोध होता है वह तीखा और बहुत कुछ निजी होता है। भाव से यह भिन्न है। इस शब्द को शास्त्रीय गरिमा से मंडित करने का श्रेय आचार्य रामचंद्र शुक्ल को है।

छायावाद काल के आरंभ अर्थात् 1915 ई में ही शुक्ल जी ने नागरी प्रचारिणी पत्रिका में एक निबंध लिखा था- भाव या मनोविकार। इसमें उन्होंने अनुभूति को सहजात कहा है। यह जन्मना होती है। नाना विषयों के बोध का विधान होने पर ही उन से संबंध रखने वाली इच्छा की अनुरूपता के अनुसार अनुभूति के भिन्न-भिन्न योग संगठित होते हैं जो भाव या मनोविकार कहलाते हैं। अनुभूति मुलत: का सुखात्मा या दुखात्मक होती है।[2] अचार्य शुक्ल रति, उत्साह आदि को मन की सुखात्मक अनुभूति और क्रोध, भय, शोक आदि विकारों को मन की दुखात्मक अनुभूति के रूप में स्वीकार करते हैं।

जहां तक कविता का संबंध है इस क्षेत्र में अनुभूति शब्द का व्यापक प्रयोग किया जाता है भावानुभूति, रसानुभूति, लौकिक अनुभूति, अलौकिक अनुभूति, प्रत्यक्षानुभूति, समानानुभूति, रहस्यानुभूति, काव्यानुभूति आदि अनेक रूपों में इसका प्रयोग मिलता है। क्रोचे तो अनुभूति को शरीर के योगक्षेम से संबंधित भीतरी क्रिया मानते हैं इसलिए इसे सुखदायक-दुखदायक, उपयोगी-अनुपयोगी, लाभकारी-हानिकारी दो पशुओं को आवश्यक माना जाता है। "सौंदर्यानुभूति" का अभिप्राय स्पष्ट करते हुए शुक्ल जी कहते हैं कि जब किसी वस्तु के रूप रंग की भावना में डूबकर हम अपनी अंता सत्ता को भूलकर तादाकार हो जाते हैं तो इसी को "सौंदर्यानुभूति" कहते हैं। अंतःसत्ता की "तादाकार परिणीति" ही सौंदर्यानुभूति है।[3]

जयशंकर प्रसाद के लेख 'काव्यकला' में अनुभूति का अर्थ 'आत्मानुभूति' माना गया है जो चिन्मयी धारा से जुड़कर किंचित रहस्यमयी हो जाती है।[4] नंददुलारे वाजपेयी आत्मानुभूति को साहित्य का प्रयोजन मानते है।[5] इधर अनुभूति को प्रयोगवादियों ने वैयक्तिक कहकर अपनी वैयक्तिकता का ही परिचय दिया है क्योंकि व्यक्तिक विशेषण लगाने से अनुभूति का अर्थ विकृत हो जाता है।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. Hochschild, Arlie (1979). "Emotion Work, Feeling Rules, and Social Structure Archived 2016-10-06 at the वेबैक मशीन" (PDF). American Journal of Sociology.
  2. https://archive.org/download/in.ernet.dli.2015.539047/2015.539047.Chintamani-Bhag.pdf
  3. चिंतामणि भाग १,२; आचार्य रामचंद्र शुक्ल
  4. काव्य कला और अन्य निबंध, जयशंकर प्रसाद
  5. आधुनिक हिंदी साहित्य, नंददुलारे वाजपेयी