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"मलेरिया": अवतरणों में अंतर

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===मच्छरों के प्रजनन पर नियंत्रण===
===मच्छरों के प्रजनन पर नियंत्रण===
मच्छरों के प्रजनन स्थलों को नष्ट करके मलेरिया पर बहुत नियंत्रण पाया जा सकता है। खड़े पानी में मच्छर अपना प्रजनन करते हैं, ऐसे खड़े पानी की जगहों को ढक कर रखना, सुखा देना या बहा देना चाहिये या पानी की सतह पर तेल डाल देना चाहिये, जिससे मच्छरों के लारवा सांस न ले पाएं। मलेरिया उन्मूलन के जो प्रयास पूर्णतः सफल रहे हैं उनमें मच्छरों के उन्मूलन का प्रमुख स्थान था। कभी यह रोग संयुक्त राज्य अमेरिका तथा दक्षिण यूरोप मे आम हुआ करता था, किंतु बेहतर जल निकास द्वारा मच्छरों के प्रजनन स्थल दलदली क्षेत्रों को सुखा कर, मरीजों पर कड़ी निगरानी रख कर और उनका तुरंत उपचार करके इसे इन क्षेत्रों से मिटा दिया गया। वर्ष 2002 मे अमेरिका से सिर्फ 1059 मामले सामने आये जिनसे 8 लोग मरे।
मच्छरों के प्रजनन स्थलों को नष्ट करके मलेरिया पर बहुत नियंत्रण पाया जा सकता है। खड़े पानी में मच्छर अपना प्रजनन करते हैं, ऐसे खड़े पानी की जगहों को ढक कर रखना, सुखा देना या बहा देना चाहिये या पानी की सतह पर तेल डाल देना चाहिये, जिससे मच्छरों के लारवा सांस न ले पाएं। मलेरिया उन्मूलन के जो प्रयास पूर्णतः सफल रहे हैं उनमें मच्छरों के उन्मूलन का प्रमुख स्थान था। कभी यह रोग संयुक्त राज्य अमेरिका तथा दक्षिण यूरोप मे आम हुआ करता था, किंतु बेहतर जल निकास द्वारा मच्छरों के प्रजनन स्थल दलदली क्षेत्रों को सुखा कर, मरीजों पर कड़ी निगरानी रख कर और उनका तुरंत उपचार करके इसे इन क्षेत्रों से मिटा दिया गया। वर्ष 2002 में अमेरिका से सिर्फ 1059 मामले सामने आये जिनसे 8 लोग मरे।

इनके अतिरिक्त आनुवांशिक तकनीकों से परिवर्तित मच्छर बनाए जा रहे हैं जो मलेरिया परजीवी को पलने नहीं देंगे।<ref name="ito2002"> {{cite journal | author=Ito J, Ghosh A, Moreira LA, Wimmer EA, Jacobs-Lorena M | title=Transgenic anopheline mosquitoes impaired in transmission of a malaria parasite | journal=Nature | year=2002 | volume=417 | pages=387–8 | pmid=12024215 | doi = 10.1038/417452a <!--Retrieved from CrossRef by DOI bot-->}}</ref> ऐसे मच्छरों को खुला छोड़ देने पर धीरे-धीरे इनकी प्रतिरक्षा की जीन मच्छरों की सारी आबादी में फैल जाएगी।
=== प्रोपलेटिक दवाएँ ===
अनेक दवाओं का प्रयोग जो आमतौर पर उपचार मे होता है का प्रयोग निरोधक प्रभाव हेतु भी हो सकता है लैरियागो जिसे मलेरिया उपचार हेतु आप किसी भी दवा दुकान से पा सकते है को आप पहले ही ले ले तो आप रोग से किसी सीमा तक बच सकते है ,किंतु इनके दीर्घ काल प्रयोग से हानि होती है महामारी क्षेत्रों मे ये कम प्रभावी होती है,कई दवाएं मिलती ही नहीं है हाँ यदि आप किसी ज्वर ग्रस्त क्षेत्र मे अस्थाई रूप से जा रहे है तो इनका प्रयोग कर सकते है [[कुनैन]] को बहुत पहले से इस रूप मे प्रयोग किया जाता रहा है हाँ आजकल इसका प्रयोग उपचार हेतु ज्यादा होता है , बहुत पहले [[हैनीमेन]] ने [[होम्योपैथी]] का आविष्कार कुनैन के प्रभाव देख कर और समानप्रभाव का नियम समझ कर किया था <br />
आज काल mefloquine (Lariam), doxycycline, atovaquone, proguanil hydrochloride (Malarone). नामक औषधियाँ इस प्रयोग मे आ रही है ,दवा चुनने से पूर्व क्षेत्र मे सक्रिय परजीवी की दवा के प्रति प्रतिरोधक क्षमता का ज्ञान होना चाहिए, हर दवा के पश्च प्रभाव भिन्न भिन्न होते है<br />
ये प्रयोग करते ही प्रभाव डालना शुरू नहीं कर देती है कम से कम 1 -2 सप्ताह का समय लेते है<br />
तथा इन्हे कुछ समय तक लेना भी पडता है<br />


=== घरों मे दवा का छिडकाव ===
=== घरों मे दवा का छिडकाव ===
मलेरिया-प्रभावित क्षेत्रों में अकसर घरों की दीवारों पर कीटनाशक दवाओं का छिड़काव किया जाता है। अनेक प्रजातियों के मच्छर मनुष्य का खून चूसने के बाद दीवार पर बैठ कर इसे हजम करते हैं। ऐसे में अगर दीवारों पर कीटनाशकों का छिड़काव कर दिया जाए तो दीवार पर बैठते ही मच्छर मर जाएगा, किसी और मनुष्य को काटने के पहले ही।
[[डी.डी.टी.]] पहला आधुनिक कीटनाशक था जो मलेरिया के विरूद्ध प्रयोग किया गया था, किंतु बाद मे यनि 1950 के बाद इसे कृषि कीटनाशी रूप मे प्रयोग करने लगे थे ,1960 मे इसके हानिकारक प्रभाव नजर आने लगे 1970 के दशक मे अनेक देशों मे इसके प्रयोग पर रोक लगा दी गयी, किंतु इस काल तक अनेक क्षेत्रों मे मच्छर भी इसके प्रति प्रतिरोधी हो गये थे ,इस दवा के प्रयोग पे रोक लगाने को काफी विवादास्पद माना गया है ,वैसे इसे मलेरिया नियंत्रण हेतु कभी प्रतिबंधित नहीं किया गया ,किंतु आलोचक कहते है कि अनावश्यक रोक लगा कर लाखों लोगों के प्राण गंवा दिये गये है, फिर समस्या डी.डी.टी के कृषि क्षेत्र मे व्यापक प्रयोग से हुई थी ना कि इसका प्रयोग जन स्वास्थय क्षेत्र मे करने से<br />

डब्ल्यू.एच.ओ. ने मलेरिया प्रभावित क्षेत्रों मे इसके छिडकाव को मान्यता दी है, घरों की दीवारों पर इसका प्रयोग कर लेने के बाद जब मच्छर आते है तो वे दीवारों पे नहीं बैठ सकेगें, वैसे उन क्षेत्रों मे जहाँ मच्छर इसके प्रति रोधक क्षमता विकसित कर चुके है,वहाँ विकल्प रूप मे परमेथीन या डेल्टामेरेथीन के प्रयोग की सलाह दी जाती है, स्टाकहोम कंवेशन इसके सीमित प्रयोग की छूट देता है किंतु इसे खुले मे कृषि कार्य हेतु प्रयोग लाना प्रतिबंधित है<br />
[[डीडीटी]] पहला आधुनिक कीटनाशक था जो मलेरिया के विरूद्ध प्रयोग किया गया था, किंतु बाद में यानि 1950 के बाद इसे कृषि कीटनाशी रूप में प्रयोग करने लगे थे। खेतों में इसके भारी प्रयोग से अनेक क्षेत्रों में मच्छर इसके प्रति प्रतिरोधी हो गए। 1960 के दशक में इसके हानिकारक प्रभाव नजर आने लगे, और 1970 के दशक मे अनेक देशों मे इसके प्रयोग पर रोक लगा दी गयी। इस दवा के प्रयोग पर रोक लगाने को काफी विवादास्पद माना गया है। वैसे इसे मलेरिया नियंत्रण हेतु कभी प्रतिबंधित नहीं किया गया, किंतु आलोचक कहते है कि अनावश्यक लगी रोक से लाखों लोगों के प्राण गए हैं। फिर समस्या डीडीटी के कृषि क्षेत्र में व्यापक प्रयोग से हुई थी ना कि इसका प्रयोग जन स्वास्थय क्षेत्र में करने से।<ref name="pmid17111979">{{cite journal |author=Tia E, Akogbeto M, Koffi A, ''et al'' |title=[Pyrethroid and DDT resistance of Anopheles gambiae s.s. (Diptera: Culicidae) in five agricultural ecosystems from Côte-d'Ivoire] |language=French |journal=Bulletin de la Société de pathologie exotique (1990) |volume=99 |issue=4 |pages=278–82 |year=2006 |pmid=17111979 |doi=}}</ref>

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने मलेरिया प्रभावित क्षेत्रों में छिडकाव के लिए लगभग 12 दवाओं को मान्यता दी है। इनमें डीडीटी के अलावा परमैथ्रिन और डेल्टामैथ्रिन जैसी दवाएँ शामिल हैं, खासकर उन क्षेत्रों मे जहाँ मच्छर डीडीटी के प्रति रोधक क्षमता विकसित कर चुके है।<ref>[http://whqlibdoc.who.int/hq/2006/WHO_HTM_MAL_2006.1112_eng.pdf Indoor Residual Spraying: Use of Indoor Residual Spraying for Scaling Up Global Malaria Control and Elimination.] World Health Organization, 2006.</ref> स्टॉकहोम कन्वेंशन डीडीटी के स्वास्थ्य-संबंधी सीमित प्रयोग की छूट देता है किंतु इसें खुले मे कृषि कार्य हेतु प्रयोग लाना प्रतिबंधित है।<ref>[http://www.who.int/malaria/docs/10thingsonDDT.pdf 10 Things You Need to Know about DDT Use under The Stockholm Convention]</ref> However, because of its legacy, many developed countries discourage DDT use even in small quantities.<ref>[http://www.pops.int/ The Stockholm Convention on persistent organic pollutants]</ref>

हाल ही में एक [[फफूंद]] की खोज की गई है जो मच्छरों में एक जानलेवा बीमारी करती है, और जिसके दीवारों पर छिड़काव से मच्छरों से छुटकारा मिल सकता है। अभी तक मच्छरों में इस फफूंद के प्रति प्रतिरोध क्षमता नहीं देखी गई है।<ref name="bbcfungus">"[http://news.bbc.co.uk/1/hi/health/4074212.stm Fungus 'may help malaria fight']", ''BBC News'', [[2005-06-09]]</ref>

=== मच्छरदानियाँ व अन्य उपाय ===
मच्छरदानियाँ मच्छरों को लोगों से दूर रखने मे सफल रहती हैं तथा मलेरिया संक्रमण को काफी हद तक रोकती हैं। ''एनोफिलीज़'' मच्छर चूंकि रात को काटता है इसलिए बड़ी मच्छरदानी को चारपाई/बिस्तर पे लटका देने तथा इसके द्वारा बिस्तर को चारों तरफ से पूर्णतः घेर देने से सुरक्षा पूरी हो जाती है। मच्छरदानियाँ अपने आप में बहुत प्रभावी उपाय नहीं हैं किंतु यदि उन्हें रासायनिक रूप से उपचारित कर दें तो वे बहुत उपयोगी हो जाती हैं। इस रसायन के संपर्क मे आते ही मच्छर मर जाते है। उपचारित मच्छरदानियाँ अनोपचारित मच्छरदानियों से दोगुणी प्रभावी होती हैं और बिना मच्छरदानी के सोने के बजाय उनका प्रयोग करने से 70% ज्यादा सुरक्षा मिलती है।<ref name="hull2006">[http://www.wgbh.org:81/cgi-bin/nph-algs.cgi/000000A/http/www.wgbh.org/schedules/program-info?program_id=2682027&episode_id=2682029 Hull, Kevin. (2006) "Malaria: Fever Wars". PBS Documentary]</ref><ref>{{cite journal | title=Bacteraemia among severely malnourished children infected and uninfected with the human immunodeficiency virus-1 in Kampala, Uganda | author=Bachou H, Tylleskar T, Kaddu-Mulindwa DH, Tumwine JK. | journal=BMC Infect Dis | year=2006 | volume=6 | pages=160 | doi=10.1186/1471-2334-6-160 }}</ref> कीटनाशी उपचारित मच्छरदानी के वितरण को मलेरिया नियंत्रण का बेहद सस्ता तथा प्रभावी उपाय माना जाता है इस प्रकार की एक सामान्य मच्छर दानी का मूल्य 2.50 डालर से 3.50 डालर रहता है। प्रभावित इलाकों मे प्रायः संयुक्त राष्ट्र एंजेसी या कोई अन्य संस्था उनका वितरण करती है। अधिकतम सुरक्षा हेतु आवश्यक है कि हर छह महीनों में इन पर फिर से रसायन का लेप किया जाये, किंतु ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसा करना अकसर मुश्किल होता है। आजकल नवीन प्रौद्योगिकी से इस प्रकार की मच्छरदानी बन रही है जो पांच वर्ष तक कीटनाशी प्रभाव रखती है। इन मच्छरदानी के अन्दर सोने पर तो सुरक्षा मिलती ही है जो मच्छर इनके संपर्क मे आते है वे भी तुरंत मर जाते है जिससे आस-पास सोए अन्य लोगों को भी कुछ सुरक्षा मिल जाती है। हाल ही के प्रयोगों से पता लगा है कि बिस्तर पर बिछी और ओढ़ने वाली चादरों को दवाओं से उपचारित करने पर भी मच्छरदानी जितनी सुरक्षा मिल जाती है।<ref>{{cite journal | author = Rowland M, Durrani N, Hewitt S, Mohammed N, Bouma M, Carneiro I, Rozendaal J, Schapira A | title = Permethrin-treated chaddars and top-sheets: appropriate technology for protection against malaria in Afghanistan and other complex emergencies. | journal = Trans R Soc Trop Med Hyg | volume = 93 | issue = 5 | pages = 465–72 | year = 1999| pmid = 10696399 | doi = 10.1016/S0035-9203(99)90341-3}}</ref>


=== निरोधी दवाएँ ===
=== मच्छरदानियां व अन्य उपाय ===
अनेक दवाएँ आमतौर पर जिनका उपयोग उपचार में होता है उनका प्रयोग निरोधक प्रभाव हेतु भी किया जा सकता है। निरोधी प्रभाव के लिए दवाओं की मात्रा उपचार से कम ही होती है। किंतु इनके दीर्घ काल प्रयोग से हानि होती है, इसलिए महामारी क्षेत्रों में ये कम ही प्रयोग में लाई जाती हैं या मिलती ही नहीं हैं। हाँ यदि आप किसी ज्वर ग्रस्त क्षेत्र में अस्थाई रूप से जा रहे हैं तो इनका प्रयोग कर सकते हैं। [[कुनैन]] को बहुत पहले से इस कार्य के लिए प्रयोग किया जाता रहा है, हालांकि आजकल इसका प्रयोग उपचार हेतु ज्यादा होता है। 18वीं शताब्दी में [[सैमुएल हैनीमेन]] ने [[होम्योपैथी]] के सिद्धांत का आविष्कार कुनैन के प्रभाव को देख कर ही किया था। आज कल मेफ्लोक्वीन, डॉक्सीसाइक्लीन, एटोवाक्वोन और प्रोग्वानिल हाइड्रोक्लोराइड नामक औषधियाँ इस प्रयोग मे आ रही है। दवा चुनने से पूर्व क्षेत्र में सक्रिय परजीवी की दवा के प्रति प्रतिरोधक क्षमता का ज्ञान होना चाहिए। हर दवा के दुष्प्रभाव भिन्न भिन्न होते हैं। ये प्रयोग करते ही प्रभाव डालना शुरू नहीं कर देती है कम से कम 1 -2 सप्ताह का समय लेती हैं, तथा इन्हें मलेरिया-ग्रस्त क्षेत्र छोड़ देने कुछ समय बाद तक लेते रहना पड़ता है।
मच्छरदानी मच्छरों को लोगों से दूर रखने मे सफल रहती है तथा,मलेरिया संक्रमण को काफी हद तक रोकती है। वे अपने आप मे बहुत अच्छा उपाय नहीं है किंतु यदि उन्हे रासायनिक रूप से उपचारित कर दे तो वे बहुत उपयोगी हो जाती है, इस रसायन के संपर्क मे आते ही मच्छर मर जाते है, वे अनोपचारित मच्छरदानी से दोगुणी प्रभावी होती है ,बिना मच्छरदानी के सोने के बजाय उनका प्रयोग करने से 70%ज्यादा सुरक्षा मिलती है ,क्योंकि एनाफिलीज मच्छर रात को काटता है अतः यदि बडी मच्छरदानी को चारपाई/बिस्तर पे लटका देने तथा इसके द्वारा बिस्तर को चारो तरफ से पूर्णतः घेर देने से सुरक्षा पूरी हो जाती है. कीटनाशी लेपित मच्छरदानी के वितरण को मलेरिया नियंत्रण का बेहद सस्ता तथा प्रभावी उपाय माना जाता है इस प्रकार की एक सामान्य मच्छर दानी का मूल्य 2.50 डालर से3.50 डालर रहता है प्रभावित इलाकों मे प्राय संयुक्त राष्ट्र एंजेसी या कोई संस्था उनका वितरण करती है , अधिकतम सुरक्षा हेतु आवश्यक है कि हर छह महीनें मे इन पर फिर से रसायन का लेप किया जाये,किंतु ग्रामीण क्षेत्रों मे यह समस्या है ,वर्तमान मे नवीन प्रौधोगिकी से इस प्रकार की मच्छरदानी बन रही है जो पांच वर्ष तक कीटनाशी प्रभाव रखती है ,इन मच्छरदानी के अन्दर सोने पर तो सुरक्षा मिलती ही है जो मच्छर इनके संपर्क मे आते है वे भी तुरंत मर जाते है जिससे अन्य लोगों को भी कुछ सुरक्षा मिल जाती है ,किंतु आज भी अफ्रीका मे उनका प्रयोग आम नहीं हो सका है वहाँ 20 मे से 1 आदमी के पास यह होती है जो मच्छरदानियाँ दान मे जाती भी है उनका प्रयोग मछली पकडने के जाल मे होने लगता है तथा उनकी बिक्री होने लगती है


=== टीकाकरण ===
=== टीकाकरण ===
मलेरिया के विरूद्ध टीके विकसित किये जा रहे है यद्यपि अभी तक सफलता नहीं मिली है। पहली बार प्रयास 1967 में चूहे पे किया गया था जिसे जीवित किंतु विकिरण से उपचारित बीजाणुओं का टीका दिया गया। इसकी सफलता दर 60% थी।<ref name="Nussenzweig1967">{{cite journal |author=Nussenzweig R, Vanderberg J, Most H, Orton C |title=Protective immunity produced by the injection of x-irradiated sporozoites of plasmodium berghei |journal=Nature |volume=216 |issue=5111 |pages=160–2 |year=1967 | pmid = 6057225 | doi = 10.1038/216160a0 <!--Retrieved from CrossRef by DOI bot-->}}</ref> उसके बाद से ही मानवों पर ऐसे प्रयोग करने के प्रयास चल रहे हैं। वैज्ञानिकों ने यह निर्धारण करने में सफलता प्राप्त की कि यदि किसी मनुष्य को 1000 विकिरण-उपचारित संक्रमित मच्छर काट लें तो वह सदैव के लिए मलेरिया के प्रति प्रतिरक्षा विकसित कर लेगा।<ref name="Hoffman2002">{{cite journal |author=Hoffman SL, Goh LM, Luke TC, ''et al'' |title=Protection of humans against malaria by immunization with radiation-attenuated Plasmodium falciparum sporozoites |journal=J. Infect. Dis. |volume=185 |issue=8 |pages=1155–64 |year=2002 |pmid=11930326| doi = 10.1086/339409 <!--Retrieved from CrossRef by DOI bot-->}}</ref> इस धारणा पर वर्तमान में काम चल रहा है और अनेक प्रकार के टीके परीक्षण के भिन्न दौर में हैं। एक अन्य सोच इस दिशा में है कि शरीर का प्रतिरोधी तंत्र किसी प्रकार मलेरिया परजीवी के बीजाणु पर मौजूद सीएसपी (''सर्कमस्पोरोज़ॉइट प्रोटीन'', ''circumsporozoite protein'') के विरूद्ध एंटीबॉडी बनाने लगे।<ref>{{cite journal |author=Zavala F, Cochrane A, Nardin E, Nussenzweig R, Nussenzweig V |title=Circumsporozoite proteins of malaria parasites contain a single immunodominant region with two or more identical epitopes |journal=J Exp Med |volume=157 |issue=6 |pages=1947–57 |year=1983 | doi = 10.1084/jem.157.6.1947 <!--Retrieved from CrossRef by DOI bot--> |unused_data=|i pmid = 6189951}}</ref> इस सोच पर अब तक सबसे ज्यादा टीके बने तथा परीक्षित किये गये हैं। एसपीएफ66 (अंग्रेजी: ''SPf66'') पहला टीका था जिसका क्षेत्र परीक्षण हुआ, यह शुरू में सफल रहा किंतु बाद मे सफलता दर 30% से नीचे जाने से असफल मान लिया गया। आज आरटीएस,एसएएस02ए (अंग्रेजी: ''RTS,S/AS02A'') टीका परीक्षणों में सबसे आगे के स्तर पर है।<ref>{{cite journal |author=Heppner DG, Kester KE, Ockenhouse CF, ''et al'' |title=Towards an RTS,S-based, multi-stage, multi-antigen vaccine against falciparum malaria: progress at the Walter Reed Army Institute of Research |journal=Vaccine |volume=23 |issue=17-18 |pages=2243–50 |year=2005 |pmid=15755604 |doi=10.1016/j.vaccine.2005.01.142}}</ref> आशा की जाती है कि ''पी. फैल्सीपरम'' के जीनोम की पूरी कोडिंग मिल जाने से नयी दवाओं का तथा टीकों का विकास एवं परीक्षण करने में आसानी होगी।<ref>{{cite journal | author = Gardner M, Hall N, Fung E, ''et al'' | title = Genome sequence of the human malaria parasite Plasmodium falciparum. | journal = Nature | volume = 370 | issue = 6906 | pages = 1543 | year = 2002 | pmid = 12368864 | doi = 10.1038/nature01097 <!--Retrieved from CrossRef by DOI bot-->}}</ref>
मलेरिया के विरूद्ध टीके विकसित किये जा रहे है यधपि अभी तक सफलता नहीं मिली है पहली बार प्रयास 1967 मे चूहे पे किया गया था जिसे जीवित किंतु विकिरण से उपचारित स्पोरर्स का टीका दिया गया सफलता दर 60% थी किंतु यह प्रयोग मानव पे नहीं किया जा सका है केवल प्रयास चल रहे है
यह माना गया है कि यदि कोई मानव 1 हजार बार संक्रमित किंतु विकिरणित मच्छरों से कटवा दिया जाये तो वह सदैव के लिये पी.फैल्सीपरम के लिये प्रतिरोधी हो जायेगा , इस धारणा पे भी वर्तमान मे काम चल रहा है परीक्षण के भिन्न दौर चल रहे है
एक अन्य टीका इस सोच पे बनाया जा रहा है कि शरीर का प्रतिरोधी तंत्र किसी प्रकार सी.एस.प्रोटीन जो मलेरिया के स्पोर पे होता है के विरूद्ध प्रोटीन बनाने लगे .इस सोच पे सबसे ज्यादा टीके बने तथा परीक्षीत किये गये है .आशा की जाती है कि पी.फैल्सीपरम का जीनोम कोडिंग मिल जाने से नयी दवाओं का तथा टीकों का परीक्षण किया जा सकेगा
एस.पीएफएफ66 पहला टीका था जिसका फील्ड परीक्षण हुआ शुरू मे सफल किंतु बाद मे सफलता दर 30% से नीचे जाने से असफल मान लिया गया अन्य जितने भी टीके-वैक्सीन है वे भी प्रयोगशाला से बाहर बाजार मे नहीं आ सके है उनके बारे मे आप सर्च इंजन [[गूगल]] पर खोज कर पढ सकते है


=== अन्य उपाय ===
=== अन्य उपाय ===
मलेरिया-प्रभावित क्षेत्रों में मलेरिया के प्रति जागरूकता फैलाने से मलेरिया में 20 प्रतिशत तक की कमी देखी गई है। साथ ही मलेरिया का निदान और इलाज जल्द से जल्द करने से भी इसके प्रसार में कमी होती है। अन्य प्रयासों में शामिल है- मलेरिया संबंधी जानकारी इकट्ठी करके उसका बड़े पैमाने पर विश्लेषण करना और मलेरिया नियंत्रण के तरीके कितने प्रभावी हैं इसकी जांच करना। ऐसे एक विश्लेषण में पता लगा कि लक्षण-विहीन संक्रमण वाले लोगों का इलाज करना बहुत आवश्यक होता है, क्योंकि इनमें बहुत मात्रा में मलेरिया संचित रहता है।<ref>{{cite journal|author=Águas R, White LJ, Snow RW, Gomes MGM|title=Prospects for malaria eradication in sub-Saharan Africa|year=2008|journal=PLoS ONE|volume=3|issue=3|paper=e1767|doi=10.1371/journal.pone.0001767|pages=1543}}</ref>
आनुवंशिकी रूप से परिवर्तित मच्छरों को खुला छोडना, ये मच्छर शेष से मिल कर जनन करेंगे तथा ऐसी प्रजाति की रचना कर देंगे जो मलेरिया परजीवी को अपने मे पलने ही नहीं देंगी, मच्छरों को बधिया कर देना दूसरा उपाय है
प्रभावित क्षेत्र मे लोगों को जागरूक करने से भी रोग की रोक्थाम की जा सकती है ,मच्छरों के प्रजनन स्थलों को सुखा कर, वहां जल पर तेल डाल कर भी इस पर रोक लगायी जा सकती है


==सन्दर्भ==
==सन्दर्भ==

02:28, 23 जुलाई 2008 का अवतरण

मलेरिया
वर्गीकरण एवं बाह्य साधन
मानव रक्त में प्लास्मोडियम फैल्सीपैरम वलय-रूप तथा gametocytes.
आईसीडी-१० B50.
आईसीडी- 084
ओएमआईएम 248310
डिज़ीज़-डीबी 7728
मेडलाइन प्लस 000621
ईमेडिसिन med/1385  emerg/305 ped/1357
एम.ईएसएच C03.752.250.552

मलेरिया एक वाहक-जनित संक्रामक रोग है जो प्रोटोज़ोआ परजीवी द्वारा फैलता है। यह मुख्य रूप से अमेरिका, एशिया और अफ्रीका महाद्वीपों के उष्ण तथा उपोष्ण कटिबंधी क्षेत्रों में फैला हुआ है। प्रत्येक वर्ष यह 51.5 करोड़ लोगों को प्रभावित करता है तथा 10 से 30 लाख लोगों की मृत्यु का कारण बनता है जिनमें से अधिकतर उप-सहारा अफ्रीका के युवा बच्चे होते हैं।[1] मलेरिया को आमतौर पर गरीबी से जोड़ कर देखा जाता है किंतु यह खुद अपने आप में गरीबी का कारण है तथा आर्थिक विकास का प्रमुख अवरोधक है।

मलेरिया सबसे प्रचलित संक्रामक रोगों में से एक है तथा भंयकर जन स्वास्थ्य समस्या है। यह रोग प्लास्मोडियम गण के प्रोटोज़ोआ परजीवी के माध्यम से फैलता है। केवल चार प्रकार के प्लास्मोडियम (Plasmodium) परजीवी मनुष्य को प्रभावित करते है जिनमें से सर्वाधिक खतरनाक प्लास्मोडियम फैल्सीपैरम (Plasmodium falciparum) तथा प्लास्मोडियम विवैक्स (Plasmodium vivax) माने जाते हैं, साथ ही प्लास्मोडियम ओवेल (Plasmodium ovale) तथा प्लास्मोडियम मलेरिये (Plasmodium malariae) भी मानव को प्रभावित करते हैं। इस सारे समूह को 'मलेरिया परजीवी' कहते हैं।

मलेरिया के परजीवी का वाहक मादा एनोफ़िलेज़ (Anopheles) मच्छर है। इसके काटने पर मलेरिया के परजीवी लाल रक्त कोशिकाओं में प्रवेश कर के बहुगुणित होते हैं जिससे रक्तहीनता (एनीमिया) के लक्षण उभरते हैं (चक्कर आना, साँस फूलना, द्रुतनाड़ी इत्यादि) । इसके अलावा अविशिष्ट लक्षण जैसे कि बुखार, सर्दी, उबकाई, और जुखाम जैसी अनुभूति भी देखे जाते हैं। गंभीर मामलों में मरीज मूर्च्छा में जा सकता है और मृत्यु भी हो सकती है।

मलेरिया के फैलाव को रोकने के लिए कई उपाय किये जा सकते हैं। मच्छरदानी और कीड़े भगाने वाली दवाएं मच्छर काटने से बचाती हैं, तो कीटनाशक दवा के छिडकाव तथा स्थिर जल (जिस पर मच्छर अण्डे देते हैं) की निकासी से मच्छरों का नियंत्रण किया जाता सकता है। मलेरिया की रोकथाम के लिये यद्यपि टीके/वैक्सीन पर शोध जारी है, लेकिन अभी तक कोई उपलब्ध नहीं हो सका है। मलेरिया से बचने के लिए निरोधक दवाएं लम्बे समय तक लेनी पडती हैं और इतनी महंगी होती हैं कि मलेरिया प्रभावित लोगों की पहुँच से अक्सर बाहर होती है। मलेरिया प्रभावी इलाके के ज्यादातर वयस्क लोगों मे बार-बार मलेरिया होने की प्रवृत्ति होती है साथ ही उनमें इस के विरूद्ध आंशिक प्रतिरोधक क्षमता भी आ जाती है, किंतु यह प्रतिरोधक क्षमता उस समय कम हो जाती है जब वे ऐसे क्षेत्र मे चले जाते है जो मलेरिया से प्रभावित नहीं हो। यदि वे प्रभावित क्षेत्र मे वापस लौटते हैं तो उन्हे फिर से पूर्ण सावधानी बरतनी चाहिए। मलेरिया संक्रमण का इलाज कुनैन या आर्टिमीसिनिन जैसी मलेरियारोधी दवाओं से किया जाता है यद्यपि दवा प्रतिरोधकता के मामले तेजी से सामान्य होते जा रहे हैं।

इतिहास

चित्र:Alphonse Laveran.jpg
चार्ल्स लुई अल्फोंस लैवेरन

मलेरिया मानव को 50,000 वर्षों से प्रभावित कर रहा है शायद यह सदैव से मनुष्य जाति पर परजीवी रहा है।[2] इस परजीवी के निकटवर्ती रिश्तेदार हमारे निकटवर्ती रिश्तेदारों मे यानि चिम्पांज़ी मे रहते हैं।[3] जब से इतिहास लिखा जा रहा है तबसे मलेरिया के वर्णन मिलते हैं। सबसे पुराना वर्णन चीन से 2700 ईसा पूर्व का मिलता है।[4] मलेरिया शब्द की उत्पत्ति मध्यकालीन इटालियन भाषा के शब्दों माला एरिया से हुई है जिनका अर्थ है 'बुरी हवा'। इसे 'दलदली बुखार' (अंग्रेजी: marsh fever, मार्श फ़ीवर) या 'एग' (अंग्रेजी: ague) भी कहा जाता था क्योंकि यह दलदली क्षेत्रों में व्यापक रूप से फैलता था।

मलेरिया पर पहले पहल गंभीर वैज्ञानिक अध्ययन 1880 मे हुआ था जब एक फ़्रांसीसी सैन्य चिकित्सक चार्ल्स लुई अल्फोंस लैवेरन ने अल्जीरिया में काम करते हुए पहली बार लाल रक्त कोशिका के अन्दर परजीवी को देखा था। तब उसने यह प्रस्तावित किया कि मलेरिया रोग का कारण यह प्रोटोज़ोआ परजीवी है।[5] इस तथा अन्य खोजों हेतु उसे 1907 का चिकित्सा नोबेल पुरस्कार दिया गया।

इस प्रोटोज़ोआ का नाम प्लास्मोडियम इटालियन वैज्ञानिकों एत्तोरे मार्चियाफावा तथा आंजेलो सेली ने रखा था।[6] इसके एक वर्ष बाद क्युबाई चिकित्सक कार्लोस फिनले ने पीत ज्वर का इलाज करते हुए पहली बार यह दावा किया कि मच्छर रोग को एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य तक फैलाते हैं। किंतु इसे अकाट्य रूप प्रमाणित करने का कार्य ब्रिटेन के सर रोनाल्ड रॉस ने सिकन्दराबाद में काम करते हुए 1898 में किया था। इन्होंने मच्छरों की विशेष जातियों से पक्षियों को कटवा कर उन मच्छरों की लार ग्रंथियों से परजीवी अलग कर के दिखाया जिन्हे उन्होंने संक्रमित पक्षियों में पाला था।[7] इस कार्य हेतु उन्हे 1902 का चिकित्सा नोबेल मिला। बाद में भारतीय चिकित्सा सेवा से त्यागपत्र देकर रॉस ने नवस्थापित लिवरपूल स्कूल ऑफ़ ट्रॉपिकल मेडिसिन में कार्य किया तथा मिस्र, पनामा, यूनान तथा मारीशस जैसे कई देशों मे मलेरिया नियंत्रण कार्यों मे योगदान दिया।[8] फिनले तथा रॉस की खोजों की पुष्टि वाल्टर रीड की अध्यक्षता में एक चिकित्सकीय बोर्ड ने 1900 में की। इसकी सलाहों का पालन विलियम सी. गोर्गस ने पनामा नहर के निर्माण के समय किया, जिसके चलते हजारों मजदूरों की जान बच सकी. इन उपायों का प्रयोग भविष्य़ मे इस बीमारी के विरूद्ध किया गया।

सर रोनल्ड रॉस

मलेरिया के विरूद्ध पहला प्रभावी उपचार सिनकोना वृक्ष की छाल से किया गया था जिसमें कुनैन पाई जाती है। यह वृक्ष पेरु देश में एण्डीज़ पर्वतों की ढलानों पर उगता है। इस छाल का प्रयोग स्थानीय लोग लम्बे समय से मलेरिया के विरूद्ध करते रहे थे। जीसुइट पादरियों ने करीब 1640 इस्वी में यह इलाज यूरोप पहुँचा दिया, जहाँ यह बहुत लोकप्रिय हुआ।[9] परन्तु छाल से कुनैन को 1820 तक अलग नहीं किया जा सका। यह कार्य अंततः फ़्रांसीसी रसायनविदों पियेर जोसेफ पेलेतिये तथा जोसेफ बियाँनेमे कैवेंतु ने किया था, इन्होंने ही कुनैन को यह नाम दिया।[10]

बीसवीं सदी के प्रारंभ में, एन्टीबायोटिक दवाओं के अभाव में, उपदंश (सिफिलिस) के रोगियों को जान बूझ कर मलेरिया से संक्रमित किया जाता था। इसके बाद कुनैन देने से मलेरिया और उपदंश दोनों काबू में आ जाते थे। यद्यपि कुछ मरीजों की मृत्यु मलेरिया से हो जाती थी, उपदंश से होने वाली निश्चित मृत्यु से यह नितांत बेहतर माना जाता था।[11]

यधपि मलेरिया परजीवी के जीवन के रक्त चरण और मच्छर चरण का पता बहुत पहले लग गया था, किंतु यह 1980 मे जा कर पता लगा कि यह यकृत मे छिपे रूप से मौजूद रह सकता है।[12][13] इस खोज से यह गुत्थी सुलझी कि क्यों मलेरिया से उबरे मरीज वर्षों बाद अचानक रोग से ग्रस्त हो जाते हैं।

रोग का वितरण तथा प्रभाव

चित्र:Malariageodistribution.png
विश्व के वे क्षेत्र जहाँ मलेरिया महामारी बना हुआ है (नीले रंग में)।[14]

मलेरिया प्रतिवर्ष 40 से 90 करोड़ बुखार के मामलो का कारण बनता है, वहीं इससे 10 से 30 लाख मौतेँ हर साल होती हैं,[15][16] जिसका अर्थ है प्रति 30 सैकेण्ड में एक मौत। इनमें से ज्यादातर पाँच वर्ष से कम आयु वाले बच्चें होते हैं,[17] वहीं गर्भवती महिलाएँ भी इस रोग के प्रति संवेदनशील होती हैं। संक्रमण रोकने के प्रयास तथा इलाज करने के प्रयासों के होते हुए भी 1992 के बाद इसके मामलों में अभी तक कोई गिरावट नहीं आयी है।[18] यदि मलेरिया की वर्तमान प्रसार दर बनीं रही तो अगले 20 वर्षों मे मृत्यु दर दोगुणी हो सकती है।[15] मलेरिया के बारे में वास्तविक आकँडे अनुपल्ब्ध हैं क्योंकि ज्यादातर रोगी ग्रामीण इलाकों मे रहते हैं, ना तो वे चिकित्सालय जाते हैं और ना उनके मामलों का लेखा जोखा रखा जाता है।[15]

मलेरिया और एच.आई.वी. का एक साथ संक्रमण होने से मृत्यु की संभावना बढ़ जाती है। मलेरिया चूंकि एच.आई.वी. से अलग आयु-वर्ग में होता है, इसलिए यह मेल एच.आई.वी. - टी.बी. (क्षय रोग) के मेल से कम व्यापक और घातक होता है।[19] तथापि ये दोनो रोग एक दूसरे के प्रसार को फैलाने मे योगदान देते हैं- मलेरिया से वायरल भार बढ जाता है, वहीं एड्स संक्रमण से व्यक्ति की प्रतिरोधक क्षमता कमजोर हो जाने से वह रोग की चपेट मे आ जाता है।[20]

वर्तमान में मलेरिया भूमध्य रेखा के दोनों तरफ विस्तृत क्षेत्र में फैला हुआ है इन क्षेत्रों में अमेरिका, एशिया तथा ज्यादातर अफ्रीका आता है, लेकिन इनमें से सबसे ज्यादा मौते (लगभग 85 से 90 % तक) उप-सहारा अफ्रीका मे होती हैं।[21] मलेरिया का वितरण समझना थोडा जटिल है, मलेरिया प्रभावित तथा मलेरिया मुक्त क्षेत्र प्राय साथ साथ होते हैं।[22] सूखे क्षेत्रों में इसके प्रसार का वर्षा की मात्रा से गहरा संबंध है।[23] डेंगू बुखार के विपरीत यह शहरों की अपेक्षा गाँवों में ज्यादा फैलता है।[24] उदाहरणार्थ वियतनाम, लाओस और कम्बोडिया के नगर मलेरिया मुक्त हैं, जबकि इन देशों के गाँव इस से पीडित हैं।[25] अपवाद-स्वरूप अफ्रीका में नगर-ग्रामीण सभी क्षेत्र इस से ग्रस्त हैं, यद्यपि बड़े नगरों में खतरा कम रहता है।.[26] 1960 के दशक के बाद से कभी इसके विश्व वितरण को मापा नहीं गया है। हाल ही में ब्रिटेन की वेलकम ट्रस्ट ने मलेरिया एटलस परियोजना को इस कार्य हेतु वित्तीय सहायता दी है, जिससे मलेरिया के वर्तमान तथा भविष्य के वितरण का बेहतर ढँग से अध्ययन किया जा सकेगा।[27]

सामाजिक एवं आर्थिक प्रभाव

मलेरिया गरीबी से जुड़ा तो है ही, यह अपने आप में खुद गरीबी का कारण है तथा आर्थिक विकास में बाधक है। जिन क्षेत्रों में यह व्यापक रूप से फैलता है वहाँ यह अनेक प्रकार के नकारात्मक आर्थिक प्रभाव डालता है। प्रति व्यक्ति जी.डी.पी की तुलना यदि 1995 के आधार पर करें (खरीद क्षमता को समायोजित करके), तो मलेरिया मुक्त क्षेत्रों और मलेरिया प्रभावित क्षेत्रों में इसमें पाँच गुणा का अंतर नजर आता है (1,526 डालर बनाम 8,268 डालर)। जिन देशों मे मलेरिया फैलता है उनके जी.डी.पी मे 1965 से 1990 के मध्य केवल प्रतिवर्ष 0.4% की वृद्धि हुई वहीं मलेरिया से मुक्त देशों में यह 2.4% हुई।[28] यद्यपि साथ में होने भर से ही गरीबी और मलेरिया के बीच कारण का संबंध नहीं जोड़ा सकता है, बहुत से गरीब देशों में मलेरिया की रोकथाम करने के लिए पर्याप्त धन उपलब्ध नहीं हो पाता है। केवल अफ्रीका में ही प्रतिवर्ष 12 अरब अमेरिकन डालर का नुकसान मलेरिया के चलते होता है, इसमें स्वास्थ्य व्यय, कार्यदिवसों की हानि, शिक्षा की हानि, दिमागी मलेरिया के चलते मानसिक क्षमता की हानि तथा निवेश एवं पर्यटन की हानि शामिल हैं।[17] कुछ देशों मे यह कुल जन स्वास्थय बजट का 40% तक खा जाता है। इन देशों में अस्पतालों में भर्ती होने वाले मरीजों में से 30 से 50% और बाह्य-रोगी विभागों में देखे जाने वाले रोगियों में से 50% तक रोगी मलेरिया के होते हैं।[29]

रोग के लक्षण

मलेरिया के लक्षणों में शामिल हैं- ज्वर, कंपकंपी, जोड़ों में दर्द, उल्टी, रक्ताल्पता (रक्त विनाश से), मूत्र में हीमोग्लोबिन और दौरे। मलेरिया का सबसे आम लक्षण है अचानक तेज कंपकंपी के साथ शीत लगना, जिसके फौरन बाद ज्वर आता है। 4 से 6 घंटे के बाद ज्वर उतरता है और पसीना आता है। पी. फैल्सीपैरम के संक्रमण में यह पूरी प्रक्रिया हर 36 से 48 घंटे में होती है या लगातार ज्वर रह सकता है; पी. विवैक्स और पी. ओवेल से होने वाले मलेरिया में हर दो दिन में ज्वर आता है, तथा पी. मलेरिये से हर तीन दिन में।[30]

मलेरिया के गंभीर मामले लगभग हमेशा पी. फैल्सीपैरम से होते हैं। यह संक्रमण के 6 से 14 दिन बाद होता है।[31] तिल्ली और यकृत का आकार बढ़ना, तीव्र सिरदर्द और अधोमधुरक्तता (रक्त में ग्लूकोज़ की कमी) भी अन्य गंभीर लक्षण हैं। मूत्र में हीमोग्लोबिन का उत्सर्जन, और इससे गुर्दों की विफलता तक हो सकती है, जिसे कालापानी बुखार (अंग्रेजी: blackwater fever, ब्लैक वाटर फ़ीवर) कहते हैं। गंभीर मलेरिया से मूर्च्छा या मृत्यु भी हो सकती है, युवा बच्चे तथा गर्भवती महिलाओं मे ऐसा होने का खतरा बहुत ज्यादा होता है। अत्यंत गंभीर मामलों में मृत्यु कुछ घंटों तक में हो सकती है।[31] गंभीर मामलों में उचित इलाज होने पर भी मृत्यु दर 20% तक हो सकती है।[32] महामारी वाले क्षेत्र मे प्राय उपचार संतोषजनक नहीं हो पाता, अतः मृत्यु दर काफी ऊँची होती है, और मलेरिया के प्रत्येक 10 मरीजों में से 1 मृत्यु को प्राप्त होता है।[33]

मलेरिया युवा बच्चों के विकासशील मस्तिष्क को गंभीर क्षति पहुंचा सकता है। बच्चों में दिमागी मलेरिया होने की संभावना अधिक रहती है, और ऐसा होने पर दिमाग में रक्त की आपूर्ति कम हो सकती है, और अक्सर मस्तिष्क को सीधे भी हानि पहुँचाती है।[34] अत्यधिक क्षति होने पर हाथ-पांव अजीब तरह से मुड़-तुड़ जाते हैं।[35] दीर्घ काल में गंभीर मलेरिया से उबरे बच्चों में अकसर अल्प मानसिक विकास देखा जाता है।[36]

गर्भवती स्त्रियाँ मच्छरों के लिए बहुत आकर्षक होती हैं,[37] और मलेरिया से गर्भ की मृत्यु, निम्न जन्म भार और शिशु की मृत्यु तक हो सकते हैं।[38] मुख्यतया यह पी. फ़ैल्सीपैरम के संक्रमण से होता है, लेकिन पी. विवैक्स भी ऐसा कर सकता है।[39]

पी. विवैक्स तथा पी. ओवेल परजीवी वर्षों तक यकृत मे छुपे रह सकते हैं। अतः रक्त से रोग मिट जाने पर भी रोग से पूर्णतया मुक्ति मिल गई है ऐसा मान लेना गलत है। पी. विवैक्स मे संक्रमण के 30 साल बाद तक फिर से मलेरिया हो सकता है।[31] समशीतोष्ण क्षेत्रों में पी. विवैक्स के हर पाँच मे से एक मामला ठंड के मौसम में छुपा रह कर अगले साल अचानक उभरता है।[40]

कारक

मलेरिया परजीवी

मलेरिया प्लास्मोडियम गण के प्रोटोज़ोआ परजीवियों से फैलता है। इस गण के चार सदस्य मनुष्यों को संक्रमित करते हैं- प्लास्मोडियम फैल्सीपैरम, प्लास्मोडियम विवैक्स, प्लास्मोडियम ओवेल तथा प्लास्मोडियम मलेरिये। इनमें से सर्वाधिक खतरनाक पी. फैल्सीपैरम माना जाता है, यह मलेरिया के 80 प्रतिशत मामलों और 90 प्रतिशत मृत्युओं के लिए जिम्मेदार होता है। [41] यह परजीवी पक्षियों, रेँगने वाले जीवों, बन्दरों, चिम्पांज़ियों तथा चूहों को भी संक्रमित करता है।[42] कई अन्य प्रकार के प्लास्मोडियम से भी मनुष्य में संक्रमण ज्ञात हैं किंतु पी. नाउलेसी (P. knowlesi) के अलावा यह नगण्य हैं।[43] पक्षियों में पाए जाने वाले मलेरिया से मुर्गियाँ मर सकती हैं लेकिन इससे मुर्गी-पालकों को अधिक नुकसान होता नहीं पाया गया है।[44] हवाई द्वीप समूह में जब मनुष्य के साथ यह रोग पहुँचा तो वहाँ की कई पक्षी प्रजातियाँ इससे विनष्ट हो गयीं क्योंकि इसके विरूद्ध कोई प्राकृतिक प्रतिरोध क्षमता उनमें नहीं थी । .[45]

मलेरिया फैलाने वाली मादा एनोफ़िलीज़ मच्छर

मच्छर

मलेरिया परजीवी की प्राथमिक पोषक मादा एनोफ़िलीज़ मच्छर होती है, जोकि मलेरिया का संक्रमण फैलाने में भी मदद करती है। एनोफ़िलीज़ गण के मच्छर सारे संसार में फैले हुए हैं। केवल मादा मच्छर खून से पोषण लेती है, अतः यह ही वाहक होती है ना कि नर। मादा मच्छर एनोफ़िलीज़ रात को ही काटती है। शाम होते ही यह शिकार की तलाश मे निकल पडती है तथा तब तक घूमती है जब तक शिकार मिल नहीं जाता। यह खड़े पानी के अन्दर अंडे देती है। अंडों, और उनसे निकलने वाले लारवा दोनों को पानी की अत्यंत सख्त जरुरत होती है। इसके अतिरिक्त लारवा को सांस लेने के लिए पानी की सतह पर बार-बार आना पड़ता है। अंडे-लारवा-प्यूपा और फिर वयस्क होने में मच्छर लगभग 10-14 दिन का समय लेते हैं। वयस्क मच्छर पराग और शर्करा वाले अन्य भोज्य-पदार्थों पर पलते हैं, लेकिन मादा मच्छर को अंडे देने के लिए रक्त की आवश्यकता होती है।

प्लास्मोडियम परजीवी, मलेरिया फैलाने वाले मच्छर की मध्य-अंतड़ी की अन्दरूनी परत की कोशिका के कोशिकाद्रव्य का संक्रमण करते हुए, इलैक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी से चित्रित।

प्लास्मोडियम का जीवन चक्र

मलेरिया परजीवी का पहला शिकार तथा वाहक मादा एनोफ़िलीज़ मच्छर बनती है। युवा मच्छर संक्रमित मानव को काटने पर उसके रक्त से मलेरिया परजीवी को ग्रहण कर लेते हैं। रक्त में मौजूद परजीवी के जननाणु (अंग्रेजी:gametocytes, गैमीटोसाइट्स) मच्छर के पेट में नर और मादा के रूप में विकसित हो जाते हैं और फिर मिलकर अंडाणु (अंग्रेजी:oocytes, ऊसाइट्स) बना लेते हैं जो मच्छर की अंतड़ियों की दीवार में पलने लगते हैं। परिपक्व होने पर ये फूटते हैं, और इसमें से निकलने वाले बीजाणु (अंग्रेजी:sporozoites, स्पोरोज़ॉट्स) उस मच्छर की लार-ग्रंथियों में पहुँच जाते हैं। मच्छर फिर जब स्वस्थ मनुष्य को काटता है तो त्वचा में लार के साथ-साथ बीजाणु भी भेज देता है।[46] मानव शरीर में ये बीजाणु फिर पलकर जननाणु बनाते हैं (नीचे देखें), जो फिर आगे संक्रमण फैलाते हैं।

इसके अलावा मलेरिया संक्रमित रक्त को चढ़ाने से भी फैल सकता है, लेकिन ऐसा होना बहुत असाधारण है।[47]

मानव शरीर में रोग का विकास

मलेरिया परजीवी का मानव में विकास दो चरणों में होता है: यकृत में प्रथम चरण, और लाल रक्त कोशिकाओं में दूसरा चरण। जब एक संक्रमित मच्छर मानव को काटता है तो बीजाणु (अंग्रेजी: sporozoites, स्पोरोज़ॉइट्स) मानव रक्त में प्रवेश कर यकृत में पहुँचते हैं और शरीर में प्रवेश पाने के 30 मिनट के भीतर यकृत की कोशिकाओं को संक्रमित कर देते हैं। फिर ये यकृत में अलैंगिक जनन करने लगते हैं। यह चरण 6 से 15 दिन चलता है। इस जनन से हजारों अंशाणु (अंग्रेजी: merozoites, मीरोज़ॉइट्स) बनते हैं जो अपनी मेहमान कोशिकाओं को तोड़ कर रक्त में प्रवेश कर जातें हैं तथा लाल रक्त कोशिकाओं को संक्रमित करना शुरू कर देते हैं।[48] इससे रोग का दूसरा चरण शुरु होता है। पी. विवैक्स और पी. ओवेल के कुछ बीजाणु यकृत को ही संक्रमित करके रुक जाते हैं और सुप्ताणु (अंग्रेजी: hypnozoites, हिप्नोज़ॉइट्स) के रूप में निष्क्रिय हो जाते हैं। ये 6 से 12 मास तक निष्क्रिय रह कर फिर अचानक अंशाणुओं के रूप में प्रकट हो जाते हैं और रोग पैदा कर देते हैं।[49]

मलेरिया परभक्षी का मानव शरीर में जीवन चक्र। मच्छर एक गर्भवती स्त्री को संक्रमित करता है, पहले यकृत में, फिर रक्त धारा को। पहले बीजाणु रक्त धारा में प्रवेश कर यकृत पहुँचते हैं, एवं यकृत कोशिकाओं को संक्रमित, बहुगुणित होकर, कोशिकाओं को भंग करके वापस रक्त धारा में चले जते हैं। वहां लाल रक्त कोशिकाओं को संक्रमित कर वलय रूप में विकसित होते हैं। फिर और विकास कर के रक्त कोशिकाओं को भी भंग कर देते हैं। केवल वलय रूप ही रक्त धारा में दिखते हैं, अन्य सभी विकास के चरण रक्त वाहिकाओं की दीवारों से चिपके रहते हैं। कुछ अंशाणु जननाणुओं के रूप में विकसित हो जाते हैं, और फिर काटने पर मच्छर को संक्रमित कर देते हैं जहाँ मलेरिया परजीवी का जीवनचक्र पूरा होता है।

लाल रक्त कोशिका में प्रवेश करके ये परजीवी खुद को फिर से गुणित करते रहते हैं। ये वलय रूप में विकसित होकर फिर भोजाणु (अंग्रेजी: trophozoites, ट्रोफ़ोज़ॉइट्स) और फिर बहुनाभिकीय शाइज़ॉण्ट (अंग्रेजी: schizont) और फिर अनेकों अंशाणु बना देते हैं। समय समय पर ये अंशाणु पोषक कोशिकाओं को तोड़कर नयीं लाल रक्त कोशिकाओं को संक्रमित कर देते हैं। ऐसे कई चरण चलते हैं। मलेरिया में बुखार के दौरे आने का कारण होता है हजारों अंशाणुओं का एकसाथ नई लाल रक्त कोशिकाओं को प्रभावित करना।

मलेरिया परजीवी अपने जीवन का लगभग सभी समय यकृत की कोशिकाओं या लाल रक्त कोशिकाओं में छुपा रहकर बिताता है, इसलिए मानव शरीर के प्रतिरक्षा तंत्र से बचा रह जाता है। तिल्ली में नष्ट होने से बचने के लिए पी. फैल्सीपैरम एक अन्य चाल चलता है- यह लाल रक्त कोशिका की सतह पर एक चिपकाऊ प्रोटीन प्रदर्शित करा देता है जिससे संक्रमित रक्त कोशिकाएँ को छोटी रक्त वाहिकाओं में चिपक जाती हैं और तिल्ली तक पहुँच नहीं पाती हैं।[50] इस कारण रक्तधारा में केवल वलय रूप ही दिखते हैं, अन्य सभी विकास के चरणों में यह छोटी रक्त वाहिकाओं की सतहों में चिपका रहता है। इस चिपचिपाहट के चलते ही मलेरिया रक्तस्त्राव की समस्या करता है।

यद्यपि संक्रमित लाल रक्त कोशिका की सतह पर प्रदर्शित प्रोटीन पीएफईएमपी1 (Plasmodium falciparum erythrocyte membrane protein 1, प्लास्मोडियम फैल्सीपैरम इरिथ्रोसाइट मैम्ब्रेन प्रोटीन 1) शरीर के प्रतिरक्षा तंत्र का शिकार बन सकता है, ऐसा होता नहीं है क्योंकि इस प्रोटीन में विविधता बहुत ज्यादा होती है।[50] हर परजीवी के पास इसके 60 प्रकार होते है वहीं सभी के पास मिला कर असंख्य रूपों में ये इस प्रोटीन को प्रदर्शित कर सकते हैं। वे बार बार इस प्रोटीन को बदल कर शरीर के प्रतिरक्षा तंत्र से एक कदम आगे रहते हैं।

कुछ अंशाणु नर-मादा जननाणुओं में बदल जाते हैं और जब मच्छर काटता है तो रक्त के साथ उन्हें भी ले जाता है। यहाँ वे फिर से अपना जीवन चक्र पूरा करते हैं।

मलेरिया का मानव जीनोम पर प्रभाव

हाल के इतिहास में मानव जीनोम पर सबसे अधिक प्रभाव डालने वाला रोग मलेरिया ही रहा है। इसके मुख्य कारण है कि मलेरिया से बड़ी मात्रा में लोगों की मृत्यु होती है |

हंसिया-कोशिका रोग

हंसिया-कोशिका रोग की जीन का प्रसार
मलेरिया का प्रसार

मानव जीनोम पर मलेरिया के प्रभाव का विस्तृत अध्ययन किया गया है हंसिया-कोशिका रोग के संबंध में। इस रोग में हीमोग्लोबिन के बीटा-ग्लोबिन खंड को बनाने वाली जीन एच.बी.बी. मे उत्परिवर्तन हो जाता है। सामान्यतया बीटा ग्लोबिन प्रोटीन के छठे स्थान पर एक ग्लूटामेट अमीनो अम्ल होता है, जबकि हंसिया-कोशिका रोग में इसकी जगह वैलीन अम्ल आ जाता है। इस बदलाव से एक जलसह अमीनो अम्ल के स्थान पर जल-विरोधी अम्ल आ जाता है जिससे हीमोग्लोबिन के अणु परस्पर बंध जाने को प्रोत्साहित होते हैं। हीमोग्लोबिन अणुओं की लड़ियाँ बन जाने से विकृत लाल रक्त कोशिका हंसिया का आकार ग्रहण कर लेती हैं। इस तरह से विकृत हुई रक्त कोशिकाएँ रक्त से हटा ली जाती हैं और विनष्ट कर दी जाती हैं, मुख्यतया तिल्ली में।

मलेरिया परजीवी जब अपनी अंशाणु अवस्था में लाल रक्त कोशिका में रहता है तो अपने उपाचय से ये लाल रक्त कोशिका की आंतरिक रसायन संरचना बदल देता है। ये कोशिकाएं तब तक बची रहती है जब तक परजीवी बहुगुणित नहीं होते, किंतु यदि लाल रक्त कोशिका में हंसिया तथा सामान्य प्रकार का हीमोग्लोबिन मिले जुले रूप में होता है तो यह विकृत रूप ले लेती है तथा परजीवी का प्रजनन होने के पहले ही नष्ट कर दी जाती है। इस प्रकार जिन लोगों में हंसिया-कोशिका की केवल एक जीन होती है, उनमें सीमित मात्रा में हंसिया-कोशिका रोग के रहते वे हल्के एनीमिया से तो ग्रस्त रहते हैं किंतु उन्हें अधिक घातक रोग मलेरिया से बहुत बेहतर स्तर का प्रतिरोध मिल जाता है।

जिन लोगों में पूर्णतया विकसित हंसिया-कोशिका रोग होता है वे साधारणतया युवा अवस्था से पहले ही मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। जिन क्षेत्रों में मलेरिया महामारी रूप में फैलता है वहाँ लगभग 10% लोगों में हंसिया-कोशिका जीन पाई जाती है। इस प्रकार के हीमोग्लोबिन के चार उपप्रकार जनसंख्या में मिलने से लगता है कि मलेरिया से बचने हेतु 4 बार अलग-अलग समय में हीमोग्लोबिन में उत्परिवर्तन हुआ था। इसके अलावा एच.बी.बी. जीन के अन्य उत्परिवर्तित रूप भी हैं जो मलेरिया के प्रति प्रतिरोधक क्षमता देते हैं। इनके प्रभाव से एच.बी.ई. तथा एच.बी.सी. प्रकार का हीमोग्लोबिन पैदा होता है जो कि क्रमशः दक्षिण पूर्व एशिया तथा पश्चिमी अफ्रीका में मिलता है।

थैलैसीमिया

मलेरिया द्वारा जो अन्य उत्परिवर्तन मानव जीनोम में हुए हैं उनमें थैलैसीमिया नामक रक्त रोग भी प्रमुख है। सार्डीनिया तथा पापुआ न्यू गिनी में किये अध्ययन बताते हैं कि बीटा-थैलैसीमिया नामक जीन के वितरण का सीधा संबंध मलेरिया से पीड़ित होने की दर से होता है। लाइबेरिया में किया गया अध्ययन बताता है कि जिन बच्चों मे बीटा-थैलैसीमिया नामक जीन मौजूद था उनमे मलेरिया होने की संभावना 50% कम थी। इसी प्रकार एल्फा धनात्मक प्रकार के एल्फा-थैलैसीमिया मामलों में भी मलेरिया की दर कम पायी जाती है। संभवत ये सभी जीन मानव विकास के दौरान मलेरिया से प्रतिरोधक क्षमता देने के कारण चयनित हुई हैं।

डफ़ी एंटीजन

डफ़ी एंटीजन वे एंटीजन होते है जो लाल रक्त कोशिका तथा शरीर की अन्य कोशिकाओं पर कीमोकाइन ग्राहक के रूप में काम करते हैं। इनकी अभिव्यक्ति एफ.वाई. जीन के द्वारा होती है। पी. विवैक्स मलेरिया रक्त कोशिका में प्रवेश करने हेतु डफी एंटीजन का प्रयोग करता है। किंतु यदि यह मौजूद ही न हो तो पी. विवैक्स से पूर्ण सुरक्षा मिल जाती है। यह जीनप्रकार यूरोप, एशिया या अमेरिका की आबादियों मे बहुत कम नजर आता है, किंतु पश्चिमी तथा केन्द्रीय अफ्रीका की समस्त मूल निवासी आबादी में नजर आता है।[51] माना जाता है कि इसका कारण है इस क्षेत्र में कई हजार वर्षो से पी. विवैक्स बहुत ज्यादा फैला रहा है।

जी6पीडी

ग्लूकोज़ 6 फ़ॉस्फ़ेट डीहाइड्रोजनेज़ (अंग्रेजी: glucose-6-phosphate dehydrogenase, जी6पीडी) एक प्रकार का किण्वक (अंग्रेजी: enzyme, एंज़ाइम) है जो लाल रक्त कोशिका को आक्सीकारक दबाव से बचाता है। इस किण्वक के अभाव से भी गंभीर मलेरिया से सुरक्षा मिल जाती है।

एचएलए तथा इंटरल्यूकिन-4

एचएलए बी 53 की मौजूदगी से गंभीर मलेरिया की संभावना कम हो जाती है। यह एमएचसी श्रेणी 1 का अणु टी-कोशिकाओं को यकृत की संक्रमित कोशिकाओं और बीजाणुओं के एंटीजन दर्शाता है, जिससे टी-कोशिकाएँ इनके विनाश में सहायक होती हैं। क्रियाशील टी-कोशिकाएँ फिर इंटरल्यूकिन-4 का निर्माण करती हैं, जिसकी सहायता से बी-कोशिकाएँ प्रजनन करके और विविधता प्राप्त करके एंटीबॉडी पैदा करती हैं। बुर्किना फासो के फुलानी समुदाय में मलेरिया के मामले बहुत कम होते हैं, इनका अध्ययन करने पर पता चला कि पड़ोसी समुदायों की तुलना में उनमें कहीं ज्यादा आईएल4-524 जीन मौजूद है जिसका सीधा संबंध है रक्त में एंटीबॉडी की अधिक मात्रा से। यह मलेरिया एंटीजन के विरूद्ध काम करती है और इस के चलते मलेरिया के प्रति प्रतिरोध बढ़ जाता है।[52]

निदान

लक्षणों के आधार पर

अनेक मलेरिया-ग्रस्त क्षेत्रों में बुखार के हर मरीज को मलेरिया का आनुमानिक निदान दे दिया जाता है और कुनैन से इलाज शुरु कर दिया जाता है।[53] इसके साथ ही रक्त की पट्टिकाएँ भी बना ली जाती हैं, लेकिन इलाज शुरु करने के लिए इसके परिणामों की प्रतीक्षा नहीं की जाती। ऐसा कई ऐसे क्षेत्रों में भी किया जाता है जहाँ सामान्य प्रयोगशाला परीक्षणों की सुविधाए उपलब्ध नहीं हों। लेकिन मलावी में हुआ एक अध्ययन बताता है कि बुखार के साथ-साथ यदि गुदा का तापमान, नाखूनों में रक्तहीनता और तिल्ली के आकार को भी ध्यान में लिया जाए तो मलेरिया के अनावश्यक उपचार से बहुत बचा जा सकता है (निदान में 21 से 41 तक बढ़ोतरी)।).[54]

रक्त की सूक्ष्मदर्शी से जांच

पी. फैल्सीपैरम कल्चर (K1 strain) का एक रक्त धब्बा। कई रक्त कोषिकाओं में वलय चरण देखे जा सकते हैं। केन्द्र के निकट है एक शाइज़ॉण्ट एवं बाएं पर है भोजाणु

रक्त पट्टिकाओं का सूक्ष्मदर्शी से परीक्षण करना मलेरिया के निदान का सबसे सस्ता, अच्छा तथा भरोसेमंद तरीका माना जाता है। इस परीक्षण से चारों मलेरिया परजीवियों के विशिष्ट लक्षणों के द्वारा अलग-अलग निदान किया जा सकता है। रक्त पट्टिकाएँ दो तरह से बनाई जाती हैं - पतली और मोटी। पतली पट्टिकाओं में परजीवी की बनावट को बेहतर ढंग से सुरक्षित रखा जा सकता है, वहीं दूसरी ओर मोटी पट्टिकाओं से कम समय में रक्त की अधिक मात्रा की जाँच की जा सकती है और इससे कम मात्रा के संक्रमण का भी निदान किया जा सकता है। अनुभवी परीक्षक रक्त में 0.0000001 प्रतिशत तक के संक्रमण को पहचान सकते हैं। इन कारणों से मोटी और पतली दोनों पट्टियाँ बनाई जाती हैं। साथ ही एक से अधिक वलय चरणों की जाँच करना जरूरी होता है, क्योंकि चारों परजीवियों के वलय चरण बहुधा एक जैसे दिखते हैं।.[55]

क्षेत्र परीक्षण

मलेरिया के निदान के लिए अनेक एंटीजन-आधारित डिपस्टिक (अंग्रेजी: dipstick) परीक्षण या मलेरिया रैपिड एंटीजन टेस्ट (अंग्रेजी: Malaria Rapid Antigen Tests, मलेरिया त्वरित एंटीजन परीक्षण) भी उपलब्ध हैं। इन्हें रक्त की केवल एक बूंद की आवश्यकता होती है, और सिर्फ 15-20 मिनट में ही परिणाम सामने आ जाता है, प्रयोगशाला की आवश्यकता नहीं होती है। ये सूक्ष्मदर्शी जांच से थोडे कमतर माने जाते है। लेकिन जिन क्षेत्रों में सूक्ष्मदर्शी जांच की सुविधा उपलब्ध नहीं होती या परीक्षकों को मलेरिया के निदान का अनुभव नहीं होता वहाँ प्रभावित क्षेत्र में जा कर रक्त की एक बून्द से एण्टीजन परीक्षण कर लिया जाता है। सबसे पहले इन परीक्षणों का विकास पी. फैल्सीपैरम के किण्वक ग्लूटामेट डीहाइड्रोजनेज़ को एंटीजन के रूप में प्रयोग करके किया गया।[56] लेकिन जल्दी ही एक अन्य किण्वक लैक्टेट डीहाड्रोजनेज़ का प्रयोग करके ऑप्टिमल-आईटी (अंग्रेजी: Optimal-IT) नामक परीक्षण का विकास किया गया।[57] ये किण्वक रक्त में अधिक समय तक मौजूद नहीं रहते और परजीवी का खात्मा हो जाने पर ये भी रक्त से निकल जाते हैं, अतः इन परीक्षणों का उपयोग इलाज की सफलता या विफलता जानने के लिये भी किया जाता है। ऑप्टिमल-आईटी फैल्सीपैरम और गैर-फैल्सीपैरम मलेरिया में अन्तर भी कर सकता है। यह पी. फैल्सीपैरम का 0.01 प्रतिशत और गैर-फैल्सीपैरम मलेरिया परजीवियों का 0.1 प्रतिशत तक रक्त में निदान कर सकता है। इसके अतिरिक्त पी. फैल्सीपैरम विशिष्ट हिस्टिडीन-भरपूर प्रोटीनों (अंग्रेजी: P. falciparum specific histidine-rich proteins) पर आधारित पैराचैक-पीएफ (अंग्रेजी: Paracheck-Pf) रक्त में 0.002 प्रतिशत तक मलेरिया परजीवी का निदान कर सकता है, लेकिन यह फैल्सीपैरम और गैर-फैल्सीपैरम मलेरिया में अन्तर नहीं कर पाता है।

अन्य परीक्षण

इनके अतिरिक्त पॉलीमरेज़ कड़ी प्रतिक्रिया (अंग्रेजी: polymerase chain reaction, PCR) का प्रयोग करके और आणविक विधियों के प्रयोग से भी कुछ परीक्षण विकसित किये गए हैं, लेकिन ये अभी तक महंगे हैं, और केवल विशिष्ट प्रयोगशालाओं में ही उपलब्ध हैं। सस्ते, संवेदनशील तथा सरल परीक्षणों का विकास करने की अब भी आवश्यकता है, जिनका प्रयोग क्षेत्र में मलेरिया के निदान के लिए किया जा सके।[58]

गंभीर मलेरिया का निदान

गंभीर मलेरिया को अफ्रीका मे प्रायः पहचान लेने में गलती होती है, जिसके चलते अन्य प्राणघातक बीमारियों का इलाज भी नहीं हो पाता है। रक्त में परजीवी की मौजूदगी केवल गंभीर मलेरिया से ही नहीं, अन्य कई जानलेवा बीमारियों के चलते भी हो सकती है। हाल के अध्ययन बताते हैं कि मलेरिया-जनित मूर्च्छा और गैर-मलेरिया-जनित मूर्च्छा में अन्तर करने के लिए मलेरियल रेटिनोपैथी (आँख के रेटिना के आधार पर पहचान) किसी भी अन्य परीक्षण से बेहतर है।[59]

उपचार

पी. फैल्सीपैरम मलेरिया को आपातकालीन मामला माना जाता है तथा मरीज को पूर्णतया स्वस्थ होने तक चिकित्सकीय निगरानी मे रखना अनिवार्य माना जाता है। किंतु अन्य परजीवियों के संक्रमण वाले मरीजों का इलाज बहिरंग विभाग में भी किया जा सकता है। उचित इलाज होने पर मरीज सौ प्रतिशत सही हो जाने की आशा रख सकता है। बुखार जैसे लक्षणों का उपचार सामान्य दवाओं से किया जाता है, साथ ही मलेरिया-रोधी दवाएँ देना आवश्यक होता है। यद्यपि आज प्रभावी उपचार उपलब्ध है, मलेरिया पीड़ित क्षेत्रों में या तो मिलता नहीं हैं या इतना महंगा होता है कि आम मरीज की खरीद से बाहर होता है। 2002 में मेदसैं सां फ़्रांतिऐ (फ्रांसीसी: Médecins Sans Frontières) ने अनुमान लगाया था कि महामारी वाले क्षेत्र में एक मलेरिया पीड़ित का उपचार करने में प्रति खुराक 0.25 डालर से 2.40 डालर का खर्चा होता है।[60]

मलेरिया-रोधी दवाएँ

वर्तमान में अनेक परिवारों की दवायें मलेरिया उपचार में प्रयोग की जाती हैं, जिन्हें सामूहिक रूप से मलेरिया-रोधी दवाएँ (अंग्रेजी: antimalarials, एंटीमलेरियल्स) कहा जाता है। अनेक दवाएँ केवल प्रतिरोध या केवल उपचार के लिए इस्तेमाल होती हैं, जबकि अन्य कई दोनों तरह से प्रयोग में लाई जा सकती हैं। कुछ दवाएँ एक-दूसरे के प्रभाव को बढ़ाती हैं और इनका प्रयोग साथ में किया जाता है। दवा के चुनाव में सबसे प्रमुख कारक होता है उस क्षेत्र में मलेरिया परजीवी किन दवाओं के प्रति प्रतिरोध विकसित कर चुका है।

कुनैन जैसी औषधियाँ

कुनैन परिवार की क्लोरोक्वीन (अंग्रेजी: chloroquine) मलेरिया के लिये सबसे सस्ती तथा प्रभावी दवा मानी जाती रही है, और इसका प्रयोग वर्षों तक बहुत किया गया। किंतु हाल में परजीवी इसके प्रति प्रतिरोधी हो गये हैं, खासकर पी. फैल्सीपैरम। ऐसे परजीवी कुनैन तथा एमोडियाक्वीन (अंग्रेजी: amodiaquine) के प्रति भी प्रतिरोध विकसित कर लेते हैं।[61] जिन क्षेत्रों में परजीवी अब भी क्लोरोक्वीन के प्रति संवेदनशील हैं, वहाँ इसे ही सबसे पहले इस्तेमाल किया जाता है। अन्य दवाओं में प्रिमाक्वीन (अंग्रेजी: primaquine), हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन (अंग्रेजी: hydroxychloroquine), पैमाक्वीन (अंग्रेजी: pamaquine) और मेफ्लोक्वीन (अंग्रेजी: mefloquine) शामिल हैं। इनमें से कुनैन और प्रिमाक्वीन केवल उपचार में प्रयुक्त होती हैं (प्रिमाक्वीन केवल पी. विवैक्स और पी. ओवेल के विरुद्ध), जबकि क्लोरोक्वीन, हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन और मेफ्लोक्वीन को उपचार और निरोध दोनों के लिए प्रयोग में लाया जाता है।

आर्टिमीसिनिन जैसी औषधियाँ

आर्टिमीसिया एन्नुआ (अंग्रेजी:Artemisia annua) नामक पौधे में आर्टिमीसिनिन (अंग्रेजी: artemisinin) और इस जैसे अन्य यौगिक पाए जाते हैं। इस पौधे के अर्क से मलेरिया के उपचार में 90% सफलता मिलती है, किंतु इस यौगिक की आपूर्ति मांग के अनुसार नहीं है।[62] वर्ष 2001 से विश्व स्वास्थ्य संगठन ने आर्टिमीसिनिन-आधारित संयोजित उपचार (अंग्रेजी: artemesinin-based combination therapy, ACT) का प्रयोग करने की सलाह जारी की है, विशेषतया ऐसे क्षेत्रों में जहाँ पारम्परिक दवाओं के प्रति प्रतिरोध विकसित हो गया है।[63] आज यह उपचार अनेक अफ्रीकी मलेरिया प्रभावित क्षेत्रों में पहली पंक्ति की उपचार औषधि बन गया है। किंतु ये दवाएं पुराने उपचार से करीब 20 गुणा मंहगी पड़ती हैं जिसके चलते वे अनेक मरीजों की पहुँच से बाहर रहती हैं। ये औषधियाँ कैसे काम करती हैं यह अभी तक भी स्पष्ट नहीं हो सका है, हालांकि मलेरिया परजीवी इनके विरूद्ध भी प्रतिरोध क्षमता हासिल कर सकता है। इस परिवार में शामिल हैं आर्टिमीसिनिन, आर्टिमीथर(अंग्रेजी: artemether), आर्टिसुनेट (अंग्रेजी: artesunate), आर्टिमिनोल (अंग्रेजी: arteminol) और आर्टिईथर (अंग्रेजी: arteether)।

अन्य औषधियाँ

अन्य मलेरिया-रोधी औषधियों में शामिल हैं बाइग्वानाइड (अंग्रेजी: biguanide) समूह की प्रोग्वानिल (अंग्रेजी: proguanil) और साइक्लोग्वानिल (अंग्रेजी: cycloguanil), फोलेट-अवरोधी पाइरिमिथामाइन (अंग्रेजी: pyrimethamine), तथा हैलोफ़ैंट्रीन (अंग्रेजी: halofantrine) और ल्युमीफ़ैंट्रीन (अंग्रेजी: lumefantrine)। इनके अतिरिक्त एटोवाक्वोन (अंग्रेजी: atovaquone), डॉक्सीसाइक्लीन (अंग्रेजी: doxycycline) और सल्फ़ाडॉक्सीन (अंग्रेजी: sulphadoxine) जैसी दवाएँ अन्य बीमारियों के इलाज के साथ-साथ मलेरिया के इलाज में भी इस्तेमाल होती हैं।

औषधि संयोजन

ऊपर दी गई औषधियों में से बहुत सी ऐसी हैं जो किसी अन्य औषधि के प्रभाव को बढ़ाती हैं, और इसलिए इनका प्रयोग औषधि संयोजनों के रूप में ही किया जाता है। इनमें से प्रमुख हैं एटोवाक्वोन-प्रोग्वानिल (व्यापारिक नाम मैलरोन या Malarone, उपचार और निरोध दोनों के लिए), आर्टिमीथर-ल्युमीफ़ैंट्रीन (अन्य नाम को-आर्टिमीथर या co-artemether, केवल उपचार हेतु), आर्टिसुनेट-एमोडियाक्वीन (केवल उपचार हेतु), सल्फ़ाडॉक्सीन-पाइरिमिथामाइन (उपचार और निरोध दोनों के लिए) और आर्टिसुनेट-सल्फ़ाडॉक्सीन-पारिमिथामाइन (केवल उपचार हेतु)।

विकासशील औषधियाँ

आजकल नई दवाएँ विकसित करना आसान हो गया है, क्योंकि पी फैल्सीपैरम को प्रयोगशाला में कल्चर कर लिया गया है।[64] इससे नई दवाओं को परखना बहुत आसान हो गया है। बेटा-रोधी (अंग्रेजी: beta-blocker, बेटा-ब्लॉकर) प्रॉप्रैनोलोल (अंग्रेजी: propranolol) हाल में बहुत चर्चा में है। यह परजीवी को लाल रक्त कोशिका मे प्रवेश करने से रोक देती है तथा परजीवी के प्रजनन को भी रोक देती है। फरवरी 2002 मे फ्रांसीसी तथा दक्षिण अफ्रीकी वैज्ञानिकों के एक दल के अनुसंधान की रिपोर्ट साइंस पत्रिका में छपी थी। वे एक नयी दवा "जी25" की खोज का दावा कर रहे थे जो वानर रक्त में परजीवी को प्रजनित होने से रोक देती है।[65] 2005 में इसी दल ने एक नये तत्व "टीई3" की खोज प्रकाशित की जो जबानी लिया जा सकता है।[66] ये दवाएँ अभी तक बाजार में नहीं आयी हैं। इनके अतिरिक्त नयी दवाएं विकास के विभिन्न चरणों में हैं, जो मलेरिया परजीवी में मौजूद क्लोरोप्लास्ट के विरुद्ध काम करेंगी।[67]

नकली दवाएँ

अनेक प्रभावित देशों मे बडे पैमाने पर नकली दवाओं का कारोबार होता है, जो अनेक मृत्युओं का कारण बनता है।[68] आजकल कम्पनियाँ नई तकनीकों का प्रयोग करके इस समस्या से निपटने का प्रयास कर रही हैं।

रोकथाम तथा नियंत्रण

मलेरिया का रोगवाहक एनोफ़िलीज़ एल्बिमैनस मच्छर, एक मानवी बांह पर काटते हुए। मलेरिया की रोकथाम के लिये मच्छरों का नियंत्रण अत्यधिक प्रभावशाली उपाय है।

मलेरिया का प्रसार इन कारकों पर निर्भर करता है- मानव जनसंख्या का घनत्व, मच्छरों की जनसंख्या का घनत्व, मच्छरों से मनुष्यों तक प्रसार और मनुष्यों से मच्छरों तक प्रसार। इन कारकों में से किसी एक को भी बहुत कम कर दिया जाए तो उस क्षेत्र से मलेरिया को मिटाया जा सकता है। इसीलिये मलेरिया प्रभावित क्षेत्रों मे रोग का प्रसार रोकने हेतु दवाओं के साथ-साथ मच्छरों का उन्मूलन या उनसे काटने से बचने के उपाय किये जाते हैं। अनेक अनुसंधान कर्ता दावा करते हैं कि मलेरिया के उपचार की तुलना मे उस से बचाव का व्यय दीर्घ काल मे कम रहेगा, हालांकि विश्व के कुछ सर्वाधिक निर्धन देशों में इसका तात्कालिक व्यय उठाने की क्षमता भी नहीं है। आर्थिक सलाहकार जैफ़री सैक्स के अनुसार प्रतिवर्ष 3 अरब अमेरिकी डालर की सहायता देकर मलेरिया का प्रसार रोका जा सकता है। साथ ही यह तर्क दिया जाता है कि सहस्राब्दी विकास लक्ष्य (अंग्रेजी: Millennium Development Goal, मिलेनियम डेवलपमेंट गोल) पूरा करने हेतु धन को एड्स उपचार से हटा कर मलेरिया रोकथाम में लगाया जाए तो अफ्रीकी देशों को अधिक लाभ होगा।

1956-1960 के दशक मे विश्व स्तर पर मलेरिया उन्मूलन के व्यापक प्रयास किये गये (वैसे ही जैसे चेचक उन्मूलन हेतु किये गये थे)। किंतु उनमे सफलता नहीं मिल सकी और मलेरिया आज भी अफ्रीका मे उसी स्तर पर मौजूद है। जबकि ब्राजील, इरीट्रिया, भारत और वियतनाम जैसे कुछ विकासशील देश है जिन्होंने इस रोग पर काफी हद तक काबू पा लिया है। इसके पीछे निम्न कारण माने गये हैं- प्रभावी उपकरणों का प्रयोग, सरकार का बेहतर नेतृत्व, सामुदायिक भागीदारी, विकेन्द्रीकृत क्रियान्वयन, कुशल तकनीकी-प्रबंधक कामगार मिलना, भागीदार संस्थाओं द्वारा सही तकनीकी सहयोग देना तथा पर्याप्त कोष मिलना।[69]

मच्छरों के प्रजनन पर नियंत्रण

मच्छरों के प्रजनन स्थलों को नष्ट करके मलेरिया पर बहुत नियंत्रण पाया जा सकता है। खड़े पानी में मच्छर अपना प्रजनन करते हैं, ऐसे खड़े पानी की जगहों को ढक कर रखना, सुखा देना या बहा देना चाहिये या पानी की सतह पर तेल डाल देना चाहिये, जिससे मच्छरों के लारवा सांस न ले पाएं। मलेरिया उन्मूलन के जो प्रयास पूर्णतः सफल रहे हैं उनमें मच्छरों के उन्मूलन का प्रमुख स्थान था। कभी यह रोग संयुक्त राज्य अमेरिका तथा दक्षिण यूरोप मे आम हुआ करता था, किंतु बेहतर जल निकास द्वारा मच्छरों के प्रजनन स्थल दलदली क्षेत्रों को सुखा कर, मरीजों पर कड़ी निगरानी रख कर और उनका तुरंत उपचार करके इसे इन क्षेत्रों से मिटा दिया गया। वर्ष 2002 में अमेरिका से सिर्फ 1059 मामले सामने आये जिनसे 8 लोग मरे।

इनके अतिरिक्त आनुवांशिक तकनीकों से परिवर्तित मच्छर बनाए जा रहे हैं जो मलेरिया परजीवी को पलने नहीं देंगे।[70] ऐसे मच्छरों को खुला छोड़ देने पर धीरे-धीरे इनकी प्रतिरक्षा की जीन मच्छरों की सारी आबादी में फैल जाएगी।

घरों मे दवा का छिडकाव

मलेरिया-प्रभावित क्षेत्रों में अकसर घरों की दीवारों पर कीटनाशक दवाओं का छिड़काव किया जाता है। अनेक प्रजातियों के मच्छर मनुष्य का खून चूसने के बाद दीवार पर बैठ कर इसे हजम करते हैं। ऐसे में अगर दीवारों पर कीटनाशकों का छिड़काव कर दिया जाए तो दीवार पर बैठते ही मच्छर मर जाएगा, किसी और मनुष्य को काटने के पहले ही।

डीडीटी पहला आधुनिक कीटनाशक था जो मलेरिया के विरूद्ध प्रयोग किया गया था, किंतु बाद में यानि 1950 के बाद इसे कृषि कीटनाशी रूप में प्रयोग करने लगे थे। खेतों में इसके भारी प्रयोग से अनेक क्षेत्रों में मच्छर इसके प्रति प्रतिरोधी हो गए। 1960 के दशक में इसके हानिकारक प्रभाव नजर आने लगे, और 1970 के दशक मे अनेक देशों मे इसके प्रयोग पर रोक लगा दी गयी। इस दवा के प्रयोग पर रोक लगाने को काफी विवादास्पद माना गया है। वैसे इसे मलेरिया नियंत्रण हेतु कभी प्रतिबंधित नहीं किया गया, किंतु आलोचक कहते है कि अनावश्यक लगी रोक से लाखों लोगों के प्राण गए हैं। फिर समस्या डीडीटी के कृषि क्षेत्र में व्यापक प्रयोग से हुई थी ना कि इसका प्रयोग जन स्वास्थय क्षेत्र में करने से।[71]

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने मलेरिया प्रभावित क्षेत्रों में छिडकाव के लिए लगभग 12 दवाओं को मान्यता दी है। इनमें डीडीटी के अलावा परमैथ्रिन और डेल्टामैथ्रिन जैसी दवाएँ शामिल हैं, खासकर उन क्षेत्रों मे जहाँ मच्छर डीडीटी के प्रति रोधक क्षमता विकसित कर चुके है।[72] स्टॉकहोम कन्वेंशन डीडीटी के स्वास्थ्य-संबंधी सीमित प्रयोग की छूट देता है किंतु इसें खुले मे कृषि कार्य हेतु प्रयोग लाना प्रतिबंधित है।[73] However, because of its legacy, many developed countries discourage DDT use even in small quantities.[74]

हाल ही में एक फफूंद की खोज की गई है जो मच्छरों में एक जानलेवा बीमारी करती है, और जिसके दीवारों पर छिड़काव से मच्छरों से छुटकारा मिल सकता है। अभी तक मच्छरों में इस फफूंद के प्रति प्रतिरोध क्षमता नहीं देखी गई है।[75]

मच्छरदानियाँ व अन्य उपाय

मच्छरदानियाँ मच्छरों को लोगों से दूर रखने मे सफल रहती हैं तथा मलेरिया संक्रमण को काफी हद तक रोकती हैं। एनोफिलीज़ मच्छर चूंकि रात को काटता है इसलिए बड़ी मच्छरदानी को चारपाई/बिस्तर पे लटका देने तथा इसके द्वारा बिस्तर को चारों तरफ से पूर्णतः घेर देने से सुरक्षा पूरी हो जाती है। मच्छरदानियाँ अपने आप में बहुत प्रभावी उपाय नहीं हैं किंतु यदि उन्हें रासायनिक रूप से उपचारित कर दें तो वे बहुत उपयोगी हो जाती हैं। इस रसायन के संपर्क मे आते ही मच्छर मर जाते है। उपचारित मच्छरदानियाँ अनोपचारित मच्छरदानियों से दोगुणी प्रभावी होती हैं और बिना मच्छरदानी के सोने के बजाय उनका प्रयोग करने से 70% ज्यादा सुरक्षा मिलती है।[76][77] कीटनाशी उपचारित मच्छरदानी के वितरण को मलेरिया नियंत्रण का बेहद सस्ता तथा प्रभावी उपाय माना जाता है इस प्रकार की एक सामान्य मच्छर दानी का मूल्य 2.50 डालर से 3.50 डालर रहता है। प्रभावित इलाकों मे प्रायः संयुक्त राष्ट्र एंजेसी या कोई अन्य संस्था उनका वितरण करती है। अधिकतम सुरक्षा हेतु आवश्यक है कि हर छह महीनों में इन पर फिर से रसायन का लेप किया जाये, किंतु ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसा करना अकसर मुश्किल होता है। आजकल नवीन प्रौद्योगिकी से इस प्रकार की मच्छरदानी बन रही है जो पांच वर्ष तक कीटनाशी प्रभाव रखती है। इन मच्छरदानी के अन्दर सोने पर तो सुरक्षा मिलती ही है जो मच्छर इनके संपर्क मे आते है वे भी तुरंत मर जाते है जिससे आस-पास सोए अन्य लोगों को भी कुछ सुरक्षा मिल जाती है। हाल ही के प्रयोगों से पता लगा है कि बिस्तर पर बिछी और ओढ़ने वाली चादरों को दवाओं से उपचारित करने पर भी मच्छरदानी जितनी सुरक्षा मिल जाती है।[78]

निरोधी दवाएँ

अनेक दवाएँ आमतौर पर जिनका उपयोग उपचार में होता है उनका प्रयोग निरोधक प्रभाव हेतु भी किया जा सकता है। निरोधी प्रभाव के लिए दवाओं की मात्रा उपचार से कम ही होती है। किंतु इनके दीर्घ काल प्रयोग से हानि होती है, इसलिए महामारी क्षेत्रों में ये कम ही प्रयोग में लाई जाती हैं या मिलती ही नहीं हैं। हाँ यदि आप किसी ज्वर ग्रस्त क्षेत्र में अस्थाई रूप से जा रहे हैं तो इनका प्रयोग कर सकते हैं। कुनैन को बहुत पहले से इस कार्य के लिए प्रयोग किया जाता रहा है, हालांकि आजकल इसका प्रयोग उपचार हेतु ज्यादा होता है। 18वीं शताब्दी में सैमुएल हैनीमेन ने होम्योपैथी के सिद्धांत का आविष्कार कुनैन के प्रभाव को देख कर ही किया था। आज कल मेफ्लोक्वीन, डॉक्सीसाइक्लीन, एटोवाक्वोन और प्रोग्वानिल हाइड्रोक्लोराइड नामक औषधियाँ इस प्रयोग मे आ रही है। दवा चुनने से पूर्व क्षेत्र में सक्रिय परजीवी की दवा के प्रति प्रतिरोधक क्षमता का ज्ञान होना चाहिए। हर दवा के दुष्प्रभाव भिन्न भिन्न होते हैं। ये प्रयोग करते ही प्रभाव डालना शुरू नहीं कर देती है कम से कम 1 -2 सप्ताह का समय लेती हैं, तथा इन्हें मलेरिया-ग्रस्त क्षेत्र छोड़ देने कुछ समय बाद तक लेते रहना पड़ता है।

टीकाकरण

मलेरिया के विरूद्ध टीके विकसित किये जा रहे है यद्यपि अभी तक सफलता नहीं मिली है। पहली बार प्रयास 1967 में चूहे पे किया गया था जिसे जीवित किंतु विकिरण से उपचारित बीजाणुओं का टीका दिया गया। इसकी सफलता दर 60% थी।[79] उसके बाद से ही मानवों पर ऐसे प्रयोग करने के प्रयास चल रहे हैं। वैज्ञानिकों ने यह निर्धारण करने में सफलता प्राप्त की कि यदि किसी मनुष्य को 1000 विकिरण-उपचारित संक्रमित मच्छर काट लें तो वह सदैव के लिए मलेरिया के प्रति प्रतिरक्षा विकसित कर लेगा।[80] इस धारणा पर वर्तमान में काम चल रहा है और अनेक प्रकार के टीके परीक्षण के भिन्न दौर में हैं। एक अन्य सोच इस दिशा में है कि शरीर का प्रतिरोधी तंत्र किसी प्रकार मलेरिया परजीवी के बीजाणु पर मौजूद सीएसपी (सर्कमस्पोरोज़ॉइट प्रोटीन, circumsporozoite protein) के विरूद्ध एंटीबॉडी बनाने लगे।[81] इस सोच पर अब तक सबसे ज्यादा टीके बने तथा परीक्षित किये गये हैं। एसपीएफ66 (अंग्रेजी: SPf66) पहला टीका था जिसका क्षेत्र परीक्षण हुआ, यह शुरू में सफल रहा किंतु बाद मे सफलता दर 30% से नीचे जाने से असफल मान लिया गया। आज आरटीएस,एसएएस02ए (अंग्रेजी: RTS,S/AS02A) टीका परीक्षणों में सबसे आगे के स्तर पर है।[82] आशा की जाती है कि पी. फैल्सीपरम के जीनोम की पूरी कोडिंग मिल जाने से नयी दवाओं का तथा टीकों का विकास एवं परीक्षण करने में आसानी होगी।[83]

अन्य उपाय

मलेरिया-प्रभावित क्षेत्रों में मलेरिया के प्रति जागरूकता फैलाने से मलेरिया में 20 प्रतिशत तक की कमी देखी गई है। साथ ही मलेरिया का निदान और इलाज जल्द से जल्द करने से भी इसके प्रसार में कमी होती है। अन्य प्रयासों में शामिल है- मलेरिया संबंधी जानकारी इकट्ठी करके उसका बड़े पैमाने पर विश्लेषण करना और मलेरिया नियंत्रण के तरीके कितने प्रभावी हैं इसकी जांच करना। ऐसे एक विश्लेषण में पता लगा कि लक्षण-विहीन संक्रमण वाले लोगों का इलाज करना बहुत आवश्यक होता है, क्योंकि इनमें बहुत मात्रा में मलेरिया संचित रहता है।[84]

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