"मलेरिया": अवतरणों में अंतर

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
छो Bot: uk:Малярія is a featured article
पंक्ति 49: पंक्ति 49:


== रोग के लक्षण ==
== रोग के लक्षण ==
मलेरिया के लक्षणों में शामिल हैं- [[ज्वर]], [[कंपकंपी]], जोड़ों में दर्द, [[उल्टी]], [[रक्ताल्पता]] (रक्त विनाश से), मूत्र में [[हीमोग्लोबिन]] और [[दौरे]]। मलेरिया का सबसे आम लक्षण है अचानक तेज कंपकंपी के साथ शीत लगना, जिसके फौरन बाद ज्वर आता है। 4 से 6 घंटे के बाद ज्वर उतरता है और पसीना आता है। ''पी. फैल्सीपैरम'' के संक्रमण में यह पूरी प्रक्रिया हर 36 से 48 घंटे में होती है या लगातार ज्वर रह सकता है; ''पी. विवैक्स'' और ''पी. ओवेल'' से होने वाले मलेरिया में हर दो दिन में ज्वर आता है, तथा ''पी. मलेरिये'' से हर तीन दिन में।<ref name=RBMarmenia>[http://www.malaria.am/eng/pathogenesis.php Malaria life cycle & pathogenesis]. Malaria in Armenia. Accessed October 31, 2006.</ref>

मलेरिया के लक्षणों मे ज्वर,कंपकंपी,जोडों मे दर्द,उल्टी,रक्ताल्पता,हीमोग्लोबोइन की कमी शामिल है,त्वचा पे जलन भी हो सकती है<br /> यदि कारक पी.फैल्सीपेरम है तो, मलेरिया का सर्वाधिक सामान्य लक्षण है अचानक शीत लगना जिसके फौरन बाद ज्वर आता है इसके बाद पसीना आता है यह सब 4 से 6 घंटे चलता है . पी. फैल्सीपैरम मे यह हर 36 से 48 घंटे मे होता है या लगातार ज्वर रह सकता है तथा पी. विवाक्स पी. ओवेल मे हर दो दिन मे ज्वर जरूर आता है तथा पी. मलेरिया मे यह तीन दिन मे आता है.<br /> मलेरिया युवा बच्चों के दिमाग को गंभीर क्षति पहुंचाता है , यह दिमाग मे रक्त आपूर्ति कम कर सकता है ये सभी मस्तिष्कीय हानियां तब होती है जब मलेरिया दिमाग मे प्रवेश कर जाता है और यह बच्चों मे बहुत ज्यादा होने का खतरा रहता है ।<br />
मलेरिया के गंभीर मामले लगभग हमेशा ''पी. फैल्सीपैरम'' से होते हैं। यह संक्रमण के 6 से 14 दिन बाद होता है।<ref name=Trampuz>{{cite journal | author = Trampuz A, Jereb M, Muzlovic I, Prabhu R | title = Clinical review: Severe malaria. | url=http://www.pubmedcentral.nih.gov/articlerender.fcgi?tool=pubmed&pubmedid=12930555 | journal = Crit Care | volume = 7 | issue = 4 | pages = 315-23 | year = 2003 | id = PMID 12930555 | doi = 10.1186/cc2183 <!--Retrieved from CrossRef by DOI bot-->}}</ref> [[तिल्ली]] और [[यकृत]] का आकार बढ़ना, तीव्र [[सिरदर्द]] और [[अधोमधुरक्तता]] (रक्त में [[ग्लूकोज़]] की कमी) भी अन्य गंभीर लक्षण हैं। मूत्र में हीमोग्लोबिन का उत्सर्जन, और इससे गुर्दों की विफलता तक हो सकती है, जिसे [[कालापानी बुखार]] (अंग्रेजी: ''blackwater fever'', ''ब्लैक वाटर फ़ीवर'') कहते हैं। गंभीर मलेरिया से [[मूर्च्छा]] या मृत्यु भी हो सकती है, युवा बच्चे तथा गर्भवती महिलाओं मे ऐसा होने का खतरा बहुत ज्यादा होता है। अत्यंत गंभीर मामलों में मृत्यु कुछ घंटों तक में हो सकती है।<ref name=Trampuz/> गंभीर मामलों में उचित इलाज होने पर भी मृत्यु दर 20% तक हो सकती है।<ref>{{cite journal | author = Kain K, Harrington M, Tennyson S, Keystone J | title = Imported malaria: prospective analysis of problems in diagnosis and management. | journal = Clin Infect Dis | volume = 27 | issue = 1 | pages = 142-9 | year = 1998 | id = PMID 9675468 | doi = 10.1086/514616 <!--Retrieved from CrossRef by DOI bot-->}}</ref> महामारी वाले क्षेत्र मे प्राय उपचार संतोषजनक नहीं हो पाता, अतः मृत्यु दर काफी ऊँची होती है, और मलेरिया के प्रत्येक 10 मरीजों में से 1 मृत्यु को प्राप्त होता है।<ref>{{cite journal | author = Mockenhaupt F, Ehrhardt S, Burkhardt J, Bosomtwe S, Laryea S, Anemana S, Otchwemah R, Cramer J, Dietz E, Gellert S, Bienzle U | title = Manifestation and outcome of severe malaria in children in northern Ghana. | journal = Am J Trop Med Hyg | volume = 71 | issue = 2 | pages = 167-72 | year = 2004 | id = PMID 15306705}}</ref>
मलेरिया के गंभीर मामले हमेशा पी.फैल्सीपेरम से होते है यह संक्रमण के 6 से 14 दिन बाद होता है ,गंभीर मलेरिया से कोमा या मृत्यु भी हो सकती है खासकर युवा बच्चे तथा गर्भवती महिलाओं मे इसका खतरा बहुत ज्यादा होता है . तिल्ली, यकृत का आकार बढना , गुर्दे का काम करना बन्द करना,रक्त मे चीनी तथा हीमोग्लोबीन की मात्रा कम हो जाना हो सकता है गुर्दे के काम करने बन्द होने से [[ब्लैक वाटर बुखार]] हो सकता है जिसमे हीमोग्लोबीन मूत्र के रास्ते बाहर जाना शुरू कर देता है ।<br />

गंभीर मलेरिया से मृत्यु कुछ देर या घंटों मे हो जाती है , गंभीर मामलों मे मृत्यु दर 20% होती है चाहे कितना भी इलाज दिया जाये. महामारी वाले क्षेत्र मे प्राय उपचार संतोषजनक नहीं होता अतः मृत्यु दर काफी ऊँची होती है प्रत्येक 10 मे से 1 , दीर्घ काल मे उन बच्चों का अल्प मानसिक विकास देखा जाता है जो कभी गंभीर रूप से मलेरिया की चपेट मे आये थे ।<br />
मलेरिया युवा बच्चों के विकासशील [[मस्तिष्क]] को गंभीर क्षति पहुंचा सकता है। बच्चों में [[दिमागी मलेरिया]] होने की संभावना अधिक रहती है, और ऐसा होने पर दिमाग में रक्त की आपूर्ति कम हो सकती है, और अक्सर मस्तिष्क को सीधे भी हानि पहुँचाती है।<ref>Boivin, M.J., "[http://www.ncbi.nlm.nih.gov/entrez/query.fcgi?cmd=Retrieve&db=PubMed&list_uids=12394524&dopt=Citation Effects of early cerebral malaria on cognitive ability in Senegalese children]," ''Journal of Developmental and Behavioral Pediatrics'' 23, no. 5 (October 2002): 353&ndash;64. Holding, P.A. and Snow, R.W., "[http://www.ncbi.nlm.nih.gov/entrez/query.fcgi?cmd=Retrieve&db=PubMed&list_uids=11425179&dopt=Citation Impact of Plasmodium falciparum malaria on performance and learning: review of the evidence]," ''American Journal of Tropical Medicine and Hygiene'' 64, suppl. nos. 1&ndash;2 (January&ndash;February 2001): 68&ndash;75.</ref> अत्यधिक क्षति होने पर हाथ-पांव अजीब तरह से मुड़-तुड़ जाते हैं।<ref name="Idro ">{{cite journal | last =Idro | first =R | authorlink = | coauthors =Otieno G, White S, Kahindi A, Fegan G, Ogutu B, Mithwani S, Maitland K, Neville BG, Newton CR | title = Decorticate, decerebrate and opisthotonic posturing and seizures in Kenyan children with cerebral malaria| journal =Malaria Journal | volume =4 | issue =57 | pages = | publisher = | date = | url =http://www.pubmedcentral.nih.gov/articlerender.fcgi?tool=pubmed&pubmedid=16336645 | doi = | id =PMID 16336645 | accessdate =2007-01-21 | pages = 57 | doi = 10.1186/1475-2875-4-57 <!--Retrieved from URL by DOI bot-->}} </ref> दीर्घ काल में गंभीर मलेरिया से उबरे बच्चों में अकसर अल्प मानसिक विकास देखा जाता है।<ref name="carter2005">{{cite journal | author=Carter JA, Ross AJ, Neville BG, Obiero E, Katana K, Mung'ala-Odera V, Lees JA, Newton CR | title=Developmental impairments following severe falciparum malaria in children | journal=Trop Med Int Health | year=2005 | volume=10 | pages=3-10 | id=PMID 15655008 | doi = 10.1111/j.1365-3156.2004.01345.x <!--Retrieved from CrossRef by DOI bot-->}}</ref>
पी. विवाक्स, तथा पी.ओवेल वाला मलेरिया का परजीवी वर्षों तक यकृत मे छुपा रह सकता है अतः यह मान लेना कि परजीवी रक्त मे नहीं रहा है अतः रोग भी ठीक हो गया है गलत है ,1 मामले मे पी. विवाक्स मे संक्रमण के 30 साल बाद फिर से मलेरिया हो गया था . पी.विवाक्स के पाँच मे से 1 मामला इसी तरह अचानक उभरता है ।<br />


''पी. विवैक्स'', तथा ''पी. ओवेल'' परजीवी वर्षों तक यकृत मे छुपे रह सकते हैं। अतः रक्त से रोग मिट जाने पर भी रोग से पूर्णतया मुक्ति मिल गई है ऐसा मान लेना गलत है। ''पी. विवैक्स'' मे संक्रमण के 30 साल बाद तक फिर से मलेरिया हो सकता है।<ref name=Trampuz/> [[समशीतोष्ण]] क्षेत्रों में ''पी. विवैक्स'' के हर पाँच मे से एक मामला ठंड के मौसम में छुपा रह कर अगले साल अचानक उभरता है।<ref>{{cite journal | author = Adak T, Sharma V, Orlov V | title = Studies on the Plasmodium vivax relapse pattern in Delhi, India. | journal = Am J Trop Med Hyg | volume = 59 | issue = 1 | pages = 175-9 | year = 1998 | id = PMID 9684649}}</ref>
{{-}}


== कारण ==
== कारण ==

01:54, 5 जून 2008 का अवतरण

मलेरिया
वर्गीकरण एवं बाह्य साधन
मानव रक्त में प्लास्मोडियम फैल्सीपैरम वलय-रूप तथा gametocytes.
आईसीडी-१० B50.
आईसीडी- 084
ओएमआईएम 248310
डिज़ीज़-डीबी 7728
मेडलाइन प्लस 000621
ईमेडिसिन med/1385  emerg/305 ped/1357
एम.ईएसएच C03.752.250.552

मलेरिया एक वाहक-जनित संक्रामक रोग है जो प्रोटोज़ोआ परजीवी द्वारा फैलता है। यह मुख्य रूप से अमेरिका, एशिया और अफ्रीका महाद्वीपों के उष्ण तथा उपोष्ण कटिबंधी क्षेत्रों में फैला हुआ है। प्रत्येक वर्ष यह 51.5 करोड़ लोगों को प्रभावित करता है तथा 10 से 30 लाख लोगों की मृत्यु का कारण बनता है जिनमें से अधिकतर उप-सहारा अफ्रीका के युवा बच्चे होते हैं।[1] मलेरिया को आमतौर पर गरीबी से जोड़ कर देखा जाता है किंतु यह खुद अपने आप में गरीबी का कारण है तथा आर्थिक विकास का प्रमुख अवरोधक है।

मलेरिया सबसे प्रचलित संक्रामक रोगों में से एक है तथा भंयकर जन स्वास्थ्य समस्या है। यह रोग प्लास्मोडियम गण के प्रोटोज़ोआ परजीवी के माध्यम से फैलता है। केवल चार प्रकार के प्लास्मोडियम परजीवी मनुष्य को प्रभावित करते है जिनमें से सर्वाधिक खतरनाक प्लास्मोडियम फैल्सीपैरम तथा प्लास्मोडियम विवैक्स माने जाते ह। किंतु प्लास्मोडियम ओवेल तथा प्लास्मोडियम मलेरिये भी मानव को प्रभावित करते हैं। इस सारे समूह को 'मलेरिया परजीवी' कहते हैं।

मलेरिया के परजीवी का वाहक मादा एनोफ़िलेज़ मच्छर है। इसके काटने पर मलेरिया के परजीवी लाल रक्त कोशिकाओं में प्रवेश कर के बहुगुणित होते हैं जिससे रक्तहीनता (एनीमिया) के लक्षण उभरते हैं (चक्कर आना, साँस फूलना, द्रुतनाड़ी इत्यादि) । इसके अलावा अविशिष्ट लक्षण जैसे कि बुखार, सर्दी, उबकाई, और जुखाम जैसी अनुभूति भी देखे जाते हैं। गंभीर मामलों में मरीज मूर्च्छा में जा सकता है और मृत्यु भी हो सकती है।

मलेरिया के फैलाव को रोकने के लिए कई उपाय किये जा सकते हैं। मच्छरदानी और कीड़े भगाने वाली दवाएं मच्छर काटने से बचाती हैं, तो कीटनाशक दवा के छिडकाव तथा स्थिर जल (जिस पर मच्छर अण्डे देते हैं) की निकासी से मच्छरों का नियंत्रण किया जाता सकता है। मलेरिया की रोकथाम के लिये यद्यपि टीके/वैक्सीन पर शोध जारी है, लेकिन अभी तक कोई उपलब्ध नहीं हो सका है। मलेरिया से बचने के लिए निरोधक दवाएं लम्बे समय तक लेनी पडती हैं और इतनी महंगी होती हैं कि मलेरिया प्रभावित लोगों की पहुँच से अक्सर बाहर होती है। मलेरिया प्रभावी इलाके के ज्यादातर वयस्क लोगों मे बार-बार मलेरिया होने की प्रवृत्ति होती है साथ ही उनमें इस के विरूद्ध आंशिक प्रतिरोधक क्षमता भी आ जाती है, किंतु यह प्रतिरोधक क्षमता उस समय कम हो जाती है जब वे ऐसे क्षेत्र मे चले जाते है जो मलेरिया से प्रभावित नहीं हो। यदि वे प्रभावित क्षेत्र मे वापस लौटते हैं तो उन्हे फिर से पूर्ण सावधानी बरतनी चाहिए। मलेरिया संक्रमण का इलाज कुनैन या आर्टिमीसिनिन जैसी मलेरियारोधी दवाओं से किया जाता है यद्यपि दवा प्रतिरोधकता के मामले तेजी से सामान्य होते जा रहे हैं।

इतिहास

चित्र:Alphonse Laveran.jpg
चार्ल्स लुई अल्फोंस लैवेरन

मलेरिया मानव को 50,000 वर्षों से प्रभावित कर रहा है शायद यह सदैव से मनुष्य जाति पर परजीवी रहा है।[2] इस परजीवी के निकटवर्ती रिश्तेदार हमारे निकटवर्ती रिश्तेदारों मे यानि चिम्पांज़ी मे रहते हैं।[3] जब से इतिहास लिखा जा रहा है तबसे मलेरिया के वर्णन मिलते हैं। सबसे पुराना वर्णन चीन से 2700 ईसा पूर्व का मिलता है।[4] मलेरिया शब्द की उत्पत्ति मध्यकालीन इटालियन भाषा के शब्दों माला एरिया से हुई है जिनका अर्थ है 'बुरी हवा'। इसे 'दलदली बुखार' (अंग्रेजी: marsh fever, मार्श फ़ीवर) या 'एग' (अंग्रेजी: ague) भी कहा जाता था क्योंकि यह दलदली क्षेत्रों में व्यापक रूप से फैलता था।

मलेरिया पर पहले पहल गंभीर वैज्ञानिक अध्ययन 1880 मे हुआ था जब एक फ़्रांसीसी सैन्य चिकित्सक चार्ल्स लुई अल्फोंस लैवेरन ने अल्जीरिया में काम करते हुए पहली बार लाल रक्त कोशिका के अन्दर परजीवी को देखा था। तब उसने यह प्रस्तावित किया कि मलेरिया रोग का कारण यह प्रोटोज़ोआ परजीवी है।[5] इस तथा अन्य खोजों हेतु उसे 1907 का चिकित्सा नोबेल पुरस्कार दिया गया।

इस प्रोटोज़ोआ का नाम प्लास्मोडियम इटालियन वैज्ञानिकों एत्तोरे मार्चियाफावा तथा आंजेलो सेली ने रखा था।[6] इसके एक वर्ष बाद क्युबाई चिकित्सक कार्लोस फिनले ने पीत ज्वर का इलाज करते हुए पहली बार यह दावा किया कि मच्छर रोग को एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य तक फैलाते हैं। किंतु इसे अकाट्य रूप प्रमाणित करने का कार्य ब्रिटेन के सर रोनाल्ड रॉस ने सिकन्दराबाद में काम करते हुए 1898 में किया था। इन्होंने मच्छरों की विशेष जातियों से पक्षियों को कटवा कर उन मच्छरों की लार ग्रंथियों से परजीवी अलग कर के दिखाया जिन्हे उन्होंने संक्रमित पक्षियों में पाला था।[7] इस कार्य हेतु उन्हे 1902 का चिकित्सा नोबेल मिला। बाद में भारतीय चिकित्सा सेवा से त्यागपत्र देकर रॉस ने नवस्थापित लिवरपूल स्कूल ऑफ़ ट्रॉपिकल मेडिसिन में कार्य किया तथा मिस्र, पनामा, यूनान तथा मारीशस जैसे कई देशों मे मलेरिया नियंत्रण कार्यों मे योगदान दिया।[8] फिनले तथा रॉस की खोजों की पुष्टि वाल्टर रीड की अध्यक्षता में एक चिकित्सकीय बोर्ड ने 1900 में की। इसकी सलाहों का पालन विलियम सी. गोर्गस ने पनामा नहर के निर्माण के समय किया, जिसके चलते हजारों मजदूरों की जान बच सकी. इन उपायों का प्रयोग भविष्य़ मे इस बीमारी के विरूद्ध किया गया।

सर रोनल्ड रॉस

मलेरिया के विरूद्ध पहला प्रभावी उपचार सिनकोना वृक्ष की छाल से किया गया था जिसमें कुनैन पाई जाती है। यह वृक्ष पेरु देश में एण्डीज़ पर्वतों की ढलानों पर उगता है। इस छाल का प्रयोग स्थानीय लोग लम्बे समय से मलेरिया के विरूद्ध करते रहे थे। जीसुइट पादरियों ने करीब 1640 इस्वी में यह इलाज यूरोप पहुँचा दिया, जहाँ यह बहुत लोकप्रिय हुआ।[9] परन्तु छाल से कुनैन को 1820 तक अलग नहीं किया जा सका। यह कार्य अंततः फ़्रांसीसी रसायनविदों पियेर जोसेफ पेलेतिये तथा जोसेफ बियाँनेमे कैवेंतु ने किया था, इन्होंने ही कुनैन को यह नाम दिया।[10]

बीसवीं सदी के प्रारंभ में, एन्टीबायोटिक दवाओं के अभाव में, उपदंश (सिफिलिस) के रोगियों को जान बूझ कर मलेरिया से संक्रमित किया जाता था। इसके बाद कुनैन देने से मलेरिया और उपदंश दोनों काबू में आ जाते थे। यद्यपि कुछ मरीजों की मृत्यु मलेरिया से हो जाती थी, उपदंश से होने वाली निश्चित मृत्यु से यह नितांत बेहतर माना जाता था।[11]

यधपि मलेरिया परजीवी के जीवन के रक्त चरण और मच्छर चरण का पता बहुत पहले लग गया था, किंतु यह 1980 मे जा कर पता लगा कि यह यकृत मे छिपे रूप से मौजूद रह सकता है।[12][13] इस खोज से यह गुत्थी सुलझी कि क्यों मलेरिया से उबरे मरीज वर्षों बाद अचानक रोग से ग्रस्त हो जाते हैं।

रोग का वितरण तथा प्रभाव

चित्र:Malariageodistribution.png
विश्व के वे क्षेत्र जहाँ मलेरिया महामारी बना हुआ है (नीले रंग में)।[14]

मलेरिया प्रतिवर्ष 40 से 90 करोड़ बुखार के मामलो का कारण बनता है, वहीं इससे 10 से 30 लाख मौतेँ हर साल होती हैं,[15][16] जिसका अर्थ है प्रति 30 सैकेण्ड में एक मौत। इनमें से ज्यादातर पाँच वर्ष से कम आयु वाले बच्चें होते हैं,[17] वहीं गर्भवती महिलाएँ भी इस रोग के प्रति संवेदनशील होती हैं। संक्रमण रोकने के प्रयास तथा इलाज करने के प्रयासों के होते हुए भी 1992 के बाद इसके मामलों में अभी तक कोई गिरावट नहीं आयी है।[18] यदि मलेरिया की वर्तमान प्रसार दर बनीं रही तो अगले 20 वर्षों मे मृत्यु दर दोगुणी हो सकती है।[15] मलेरिया के बारे में वास्तविक आकँडे अनुपल्ब्ध हैं क्योंकि ज्यादातर रोगी ग्रामीण इलाकों मे रहते हैं, ना तो वे चिकित्सालय जाते हैं और ना उनके मामलों का लेखा जोखा रखा जाता है।[15]

मलेरिया और एच.आई.वी. का एक साथ संक्रमण होने से मृत्यु की संभावना बढ़ जाती है। मलेरिया चूंकि एच.आई.वी. से अलग आयु-वर्ग में होता है, इसलिए यह मेल एच.आई.वी. - टी.बी. (क्षय रोग) के मेल से कम व्यापक और घातक होता है।[19] तथापि ये दोनो रोग एक दूसरे के प्रसार को फैलाने मे योगदान देते हैं- मलेरिया से वायरल भार बढ जाता है, वहीं एड्स संक्रमण से व्यक्ति की प्रतिरोधक क्षमता कमजोर हो जाने से वह रोग की चपेट मे आ जाता है।[20]

वर्तमान में मलेरिया भूमध्य रेखा के दोनों तरफ विस्तृत क्षेत्र में फैला हुआ है इन क्षेत्रों में अमेरिका, एशिया तथा ज्यादातर अफ्रीका आता है, लेकिन इनमें से सबसे ज्यादा मौते (लगभग 85 से 90 % तक) उप-सहारा अफ्रीका मे होती हैं।[21] मलेरिया का वितरण समझना थोडा जटिल है, मलेरिया प्रभावित तथा मलेरिया मुक्त क्षेत्र प्राय साथ साथ होते हैं।[22] सूखे क्षेत्रों में इसके प्रसार का वर्षा की मात्रा से गहरा संबंध है।[23] डेंगू बुखार के विपरीत यह शहरों की अपेक्षा गाँवों में ज्यादा फैलता है।[24] उदाहरणार्थ वियतनाम, लाओस और कम्बोडिया के नगर मलेरिया मुक्त हैं, जबकि इन देशों के गाँव इस से पीडित हैं।[25] अपवाद-स्वरूप अफ्रीका में नगर-ग्रामीण सभी क्षेत्र इस से ग्रस्त हैं, यद्यपि बड़े नगरों में खतरा कम रहता है।.[26] 1960 के दशक के बाद से कभी इसके विश्व वितरण को मापा नहीं गया है। हाल ही में ब्रिटेन की वेलकम ट्रस्ट ने मलेरिया एटलस परियोजना को इस कार्य हेतु वित्तीय सहायता दी है, जिससे मलेरिया के वर्तमान तथा भविष्य के वितरण का बेहतर ढँग से अध्ययन किया जा सकेगा।[27]

सामाजिक एवं आर्थिक प्रभाव

मलेरिया गरीबी से जुड़ा तो है ही, यह अपने आप में खुद गरीबी का कारण है तथा आर्थिक विकास में बाधक है। जिन क्षेत्रों में यह व्यापक रूप से फैलता है वहाँ यह अनेक प्रकार के नकारात्मक आर्थिक प्रभाव डालता है। प्रति व्यक्ति जी.डी.पी की तुलना यदि 1995 के आधार पर करें (खरीद क्षमता को समायोजित करके), तो मलेरिया मुक्त क्षेत्रों और मलेरिया प्रभावित क्षेत्रों में इसमें पाँच गुणा का अंतर नजर आता है (1,526 डालर बनाम 8,268 डालर)। जिन देशों मे मलेरिया फैलता है उनके जी.डी.पी मे 1965 से 1990 के मध्य केवल प्रतिवर्ष 0.4% की वृद्धि हुई वहीं मलेरिया से मुक्त देशों में यह 2.4% हुई।[28] यद्यपि साथ में होने भर से ही गरीबी और मलेरिया के बीच कारण का संबंध नहीं जोड़ा सकता है, बहुत से गरीब देशों में मलेरिया की रोकथाम करने के लिए पर्याप्त धन उपलब्ध नहीं हो पाता है। केवल अफ्रीका में ही प्रतिवर्ष 12 अरब अमेरिकन डालर का नुकसान मलेरिया के चलते होता है, इसमें स्वास्थ्य व्यय, कार्यदिवसों की हानि, शिक्षा की हानि, दिमागी मलेरिया के चलते मानसिक क्षमता की हानि तथा निवेश एवं पर्यटन की हानि शामिल हैं।[17] कुछ देशों मे यह कुल जन स्वास्थय बजट का 40% तक खा जाता है। इन देशों में अस्पतालों में भर्ती होने वाले मरीजों में से 30 से 50% और बाह्य-रोगी विभागों में देखे जाने वाले रोगियों में से 50% तक रोगी मलेरिया के होते हैं।[29]

रोग के लक्षण

मलेरिया के लक्षणों में शामिल हैं- ज्वर, कंपकंपी, जोड़ों में दर्द, उल्टी, रक्ताल्पता (रक्त विनाश से), मूत्र में हीमोग्लोबिन और दौरे। मलेरिया का सबसे आम लक्षण है अचानक तेज कंपकंपी के साथ शीत लगना, जिसके फौरन बाद ज्वर आता है। 4 से 6 घंटे के बाद ज्वर उतरता है और पसीना आता है। पी. फैल्सीपैरम के संक्रमण में यह पूरी प्रक्रिया हर 36 से 48 घंटे में होती है या लगातार ज्वर रह सकता है; पी. विवैक्स और पी. ओवेल से होने वाले मलेरिया में हर दो दिन में ज्वर आता है, तथा पी. मलेरिये से हर तीन दिन में।[30]

मलेरिया के गंभीर मामले लगभग हमेशा पी. फैल्सीपैरम से होते हैं। यह संक्रमण के 6 से 14 दिन बाद होता है।[31] तिल्ली और यकृत का आकार बढ़ना, तीव्र सिरदर्द और अधोमधुरक्तता (रक्त में ग्लूकोज़ की कमी) भी अन्य गंभीर लक्षण हैं। मूत्र में हीमोग्लोबिन का उत्सर्जन, और इससे गुर्दों की विफलता तक हो सकती है, जिसे कालापानी बुखार (अंग्रेजी: blackwater fever, ब्लैक वाटर फ़ीवर) कहते हैं। गंभीर मलेरिया से मूर्च्छा या मृत्यु भी हो सकती है, युवा बच्चे तथा गर्भवती महिलाओं मे ऐसा होने का खतरा बहुत ज्यादा होता है। अत्यंत गंभीर मामलों में मृत्यु कुछ घंटों तक में हो सकती है।[31] गंभीर मामलों में उचित इलाज होने पर भी मृत्यु दर 20% तक हो सकती है।[32] महामारी वाले क्षेत्र मे प्राय उपचार संतोषजनक नहीं हो पाता, अतः मृत्यु दर काफी ऊँची होती है, और मलेरिया के प्रत्येक 10 मरीजों में से 1 मृत्यु को प्राप्त होता है।[33]

मलेरिया युवा बच्चों के विकासशील मस्तिष्क को गंभीर क्षति पहुंचा सकता है। बच्चों में दिमागी मलेरिया होने की संभावना अधिक रहती है, और ऐसा होने पर दिमाग में रक्त की आपूर्ति कम हो सकती है, और अक्सर मस्तिष्क को सीधे भी हानि पहुँचाती है।[34] अत्यधिक क्षति होने पर हाथ-पांव अजीब तरह से मुड़-तुड़ जाते हैं।[35] दीर्घ काल में गंभीर मलेरिया से उबरे बच्चों में अकसर अल्प मानसिक विकास देखा जाता है।[36]

पी. विवैक्स, तथा पी. ओवेल परजीवी वर्षों तक यकृत मे छुपे रह सकते हैं। अतः रक्त से रोग मिट जाने पर भी रोग से पूर्णतया मुक्ति मिल गई है ऐसा मान लेना गलत है। पी. विवैक्स मे संक्रमण के 30 साल बाद तक फिर से मलेरिया हो सकता है।[31] समशीतोष्ण क्षेत्रों में पी. विवैक्स के हर पाँच मे से एक मामला ठंड के मौसम में छुपा रह कर अगले साल अचानक उभरता है।[37]

कारण

एक प्लाज़मोडियम परभक्षी, मलेरिया के मच्छर के मिड्गट एपीथैलियल कोषिका के साइटोप्लाज्म का संक्रमण करता है, इलैक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी में दर्शित।

मलेरिया प्रोटोजोआ परजीवी जो कि प्लासमोडियम परिवार के होते है से फैलता है यह एक सर्वाधिक सामान्य संक्रामक रोग है तथा भंयकर जन स्वास्थय समस्या है , यह रोग प्रोटोजोआ परजीवी जो कि प्लासमोडियम गण के है से फैलती है . केवल चार प्रकार के प्लासमोडिय़म परजीवी मनुष्य़ को प्रभावित करते है जिनमे से सर्वाधिक खतरनाक पी. फैल्सीपैरम तथा पी. विवाक्स माने जाते है , यह परजीवी पक्षी,रेँगने वाले जीवों, बन्दरों,चिम्पाजी तथा चूहों को भी संक्रमित करता है ,कई अन्य प्रकार के प्रोटोजोआ से भी मनुष्य़ मे संक्रमण ज्ञात है किंतु यह नगण्य है , मलेरिया से मुर्गीयाँ मर सकती है लेकिन इसे ज्यादा खतरनाक बीमारी नहीं माना जाता है ,यधपि हवाई द्वीप समूह के कई पक्षी प्रजातिय़ाँ इस से मर गयी क्योंकि वहाँ यह रोग मानव ले कर गया था इसके विरूद्ध कोई प्राकृतिक प्रतिरोध क्षमता उनमें नहीं थी ।

मलेरिया परजीवी

मलेरिया परभक्षी का मानव शरीर में जीवन चक्र। एक मच्छर एक गर्भवती स्त्री को संक्रमित करता है, पहले यकृत में, फिर रक्त धारा को। पहले स्पोर्स रक्त धारा में प्रवेश कर यकृत पहुँचते हैं, एवं यकृत कोशिकाओं को संक्रमित, बहुगुणित होकर, कोशिकाओं को भंग करके वापस रक्त्-धारा में चले जते हैं। वहां लाल रक्त कोशिकाओं को संक्रमित कर वलय रूप में विकसित होते हैं। विर और विकास कर के रक्त कोशिकाओं को भी भंग कर देते हैं। फिर केवल वलय रूप ही वाहिकाओं में चलते हैं, और रक्त कोशिकाएं वाहिका की दीवारों से चिपकी रह जातीं हैं। इससे संक्रमित लाल रक्त कोशिका प्लीहा (तिल्ली) में जाकर नष्ट होने से रह जाती हैं।


वाहक तथा प्लासमोडियम का जीवन चक्र

परजीवी का पहला शिकार तथा वाहक मादा एनोफिलीज मच्छर बनती है ,युवा मच्छर सबसे पहले मलेरिया के परजीवी को संक्रमित मानव से ग्रहण कर लेते है ,अब उनकी लार ग्रंथियों मे परजीवी के अण्डें या बीज /स्पोर रह जाते है , मच्छर मे संक्रमण के बाद ये अण्डें नर/मादा लिंग ग्रहण कर लेते है तथा मच्छर के पेट मे जनन करते है जब ये फिर से परिपक्व हो जाते है तो नये स्पोर/अण्डे मच्छर की लार ग्रंथी मे भेज देते है इनसे अब एक नया मानव संक्रमित हो जाता है , मच्छर जब खून चूसता है तो त्वचा से लार के साथ साथ स्पोर भी भेज देता है इस प्रकार संक्रमण का एक चक्र पूरा हो जाता है क्योंकि केवल मादा मच्छर खून पे पलती है अतः वे ही वाहक होती है ना कि नर ,ये मादा मच्छर रात को काटती है शाम होते ही वे शिकार की तलाश मे निकल पडती है तथा तब तक घूमती है जब तक शिकार मिल नहीं जाता , इसके अलावा मलेरिया रक्त को चढाने से भी फैलता है

पैथोजेनेसिस

मलेरिया का मानव मे विकास मे दो प्रकार से होता है : निष्क्रिय या प्रथम चरण सक्रिय चरण या दूसरा चरण . जब एक संक्रमित मच्छर मानव को काटता है तो स्पोरस मानव रक्त मे प्रवेश कर यकृत मे चले जाते है , शरीर मे प्रवेश पाने के 30 मिनट के भीतर वे यकृत कोशिका को संक्रमित कर देते है , अलैंगिक जनन करने लगते है यह चरण 6 से 15 दिन चलता है ,इसके बाद ये हजारों मेरोजोईट कोशिकाओं का निर्माण कर देते है ये अपनी मेहमान कोशिकाओं को तोड कर रक्त मे प्रवेश कर जाती है तथा लाल रक्त कोशिकाओं को संक्रमित करना शुरू कर देती है यह सक्रिय चरण की शुरूआत होती है , यह परजीवी यकृत मे इसलिये छिपा रह जाता है क्योंकि यह उसकी कोशिकाओं के बीच छुप जाता है

लाल रक्त कोशिका के अन्दर जाकर ये परजीवी खुद को फिर से गुणित करते रहते है , समय समय पर ये धावा बोल नयीं लाल रक्त कोशिकाओं को प्रभावित करती है ऐसे कई चरण चलते है यही कारण है कि मलेरिया मे रह रह कर बुखार के दौरे आते है जब कभी मेरोजोईट कोशिका नयी लाल रक्त कोशिका को प्रभावित करती है बुखार आजाता है
किंतु अनेक बार पी.विवाक्स या पी.ओवेल यकृत को ही संक्रमित करते है जो की 6 से 12 मास तक निष्क्रिय रह जाती है इसके बाद वे अचांक मेरोजोईट कोशिका पैदा कर रोग प्रांरभ कर देते है
, परजीवी शरीर के प्रतिरक्षा तंत्र से इस लिये बच जाते है क्योंकि मानव शरीर के भीतर ज्यादातर समय ये यकृत या लाल रक्त कोशिकाओं के मध्य रहते है इस प्रकार वे प्रतिरक्षा तंत्र की नजर से ओझल रह जाते है ,क्योंकि भ्रमणशील संक्रमित रक्त कोशिकाओं को तिल्ली मे नष्ट कर दियाजाता है इस लिये परजीवी [फैल्सीपरम प्रकार के] एक अन्य चाल चलता है वह चिपकने वाला प्रोटीन छोड कर संक्रमित रक्त कोशिका को छोटी रक्त वाहिका से चिपका देता है ,इस चिपचिपाहट के चलते मलेरिया रक्तस्त्राव की समस्या शुरू कर देता है, सबसे महीन रक्त वाहिकाओं का मार्ग इस सीमा तक बन्द हो जाता है कि मलेरिया प्लेसेंटा या दिमाग मे प्रवेश कर जात है जब रक्त-मस्तिष्क अवरोध टूट जाता है इस से कोमा की स्थिति आ जाती है
यधपि लाल रक्त कोशिका पे लगा चिपकने वाला प्रोटीन पीएफईएमपी1 शरीर के रक्षा तंत्र का शिकर बन सकता है ऐसा होता नहीं है क्योंकि उनमे विविधता बहुत ज्यादा होती है एक परजीवी के पास इसके 60 प्रकार होते है वहीं सभी के पास मिला कर असंख्य वे बार बार इस प्रोटीन को बदल कर शरीर के प्रतिरक्षा तंत्र से बच जाते है
कुछ मेरोजोइट कोशिकाएँ नर-मादा जिमटोसाईटस मे बदल जाती है जब मच्छर काटता है तो रक्त के साथ उन्हें भी ले जायेगा, यहाँ वे फिर से अपना जीवन चक्र पूरा करते है मच्छर सबसे पहले मलेरिया के परजीवी को संक्रमित मानव से ग्रहण कर लेते है ,अब उनकी लार ग्रंथियों मे परजीवी के अण्डें या बीज /स्पोर रह जाते है , मच्छर मे संक्रमण के बाद ये अण्डें नर/मादा लिंग ग्रहण कर लेते है तथा मच्छर के पेट मे जनन करते है जब ये फिर से परिपक्व हो जाते है तो नये स्पोर/अण्डे मच्छर की लार ग्रंथी मे भेज देते है इनसे अब एक नया मानव संक्रमित हो जाता है . गर्भवती महिलाएं जो मलेरिया से संक्रमित होती है वे मृत जन्म ,उच्च नवजात मृत्यु दर , तथा कम वजन वाले बच्चे को जन्म देती है

मलेरिया का मानव जीनोम पर उत्परिवर्तनकारी प्रभाव

मलेरिया ने हाल के इतिहास मे मानव जीनोम पे सर्वाधिक उत्परिवर्तन कारी दबाव डाला है ,क्योकिं मलेरिया से बडी मात्रा मे लोगों की मृत्यु होती है |

सिकल सेल रोग

सबसे ज्यादा प्रभाव जो मलेरिया परजीवी ने मानव जीनोम पर डाला है तथा जिसका अध्ययन किया भी गया है वह है सिकल सेल रोग जो कि एक रक्त संबधित रोग है ,इस रोग मे एक जीन एच.बी.बी. मे उत्परिवर्तन हो जाता है इस जीन मे बीटा ग्लोबिन प्रकार का हीमोग्लोबिन होता है, सामान्यत बीटा ग्लोबिन के छठे स्थान पर पर एक ग्लूटेमट होता है जबकि सिकल सेल रोग मे वेलाईन आ जाता है, इस बदलाव से एक जलसह एमीनो अम्ल के स्थान पर जलभीत्ति वाला अम्ल् आ जाता है जिससे हीमोग्लोबिन के अणु परस्पर बन्ध जाने को प्रोत्साहित होते है हीमोग्लोबिन का पोलीमेराईजेशन हो जाने से विकृत लाल रक्त कणिका सिकल का आकार ग्रहण कर लेती है ,इस प्रकार की विकृत रक्त कोशिकाए रक्त से हटा ली जाती है तथा तिल्ली मे भेज कर नष्ट कर दी जाती है ।

सिकल कोषिका बीमारी के लक्षण का प्रसार
मलेरिया का प्रसार


मलेरिया परजीवी जब अपने मेरोजोइट अवस्था मे होता है तो लाल रक्त कोशिका मे रहता है ,अपने उपाचय से ये लाल रक्त कोशिका की आंतरिक रसायन संरचना बदल देते है , ये कोशिकाएं तब तक बची रहती है जब तक परजीवी बहुगुणित नहीं होते किंतु यदि लाल रक्त कोशिका मे सिकल तथा सामान्य प्रकार का हीमोग्लोबिन मिले जुले रूप मे होता है तो यह विकृत रूप ले लेती है तथा परजीवी की पुत्री कोशिका बनने से पहले ही नष्ट कर दी जाती है , इस प्रकार जिन लोगों मे सीमित मात्रा वाला सिकल सेल रोग रहता है वे हल्के एनीमिया से तो ग्रस्त रहते है किंतु उन्हे मलेरिया जो ज्यादा घातक रोग है से बहुत बेहतर स्तर का प्रतिरोध मिल जाता है ।
जिन लोगों मे पूर्ण विकसित सिकल सेल रोग होता है वे युवा अवस्था से पहले ही मर जाते है । जिन क्षेत्रों मे मलेरिया महामारी रूप मे फैलता है वहाँ 10% लोगों मे सिकल सेल जीन पाया जाता है,इस प्रकार के हीमोग्लोबिन के चार उपप्रकार मिलने से लगता है कि मलेरिया से बचने हेतु 4 बार अलग अलग समय मे उत्परिवर्तन हुआ था ,इसके अलावा एच.बी.बी. जीन के अन्य उत्परिवर्तित रूप भी है जो मलेरिया के प्रति प्रतिरोधक क्षमता देते है इनके प्रभाव से एच.बी.ई. तथा एच.बी.सी. प्रकार का हीमोग्लोबिन पैदा होता है जो कि क्रमशः दक्षिण पूर्व एशिया तथा पश्चिमी अफ्रीका मे मिलते है ।


थैलिसीमिया

मलेरिया द्वारा जो अन्य उतपरिवर्तन मानव जीनोम मे किये गये है उनमें थैलीसीमिया नामक रक्त रोग भी रिकार्ड मे रखा गया है . सारर्डीनिया तथा पापूआ न्यूगिनी मे किये अध्ययन बताते है कि बीटा थैलिसीमिसिस नामक जीन की वितरण बांरबरता का सीधा संबंध किसी आबादी के मलेरिया से पीडित होने की दर से रहता है ,लाइबेरिया मे किया गया अध्ययन बताता है कि जिन बच्चों मे बीटा थैलिसीमिसिस नामक जीन मौजूद था उनमे मलेरिया होने की संभावना 50% कम थी ,, इसी प्रकार एल्फा धनात्मक प्रकार के एल्फा थैलीसीमिया मामलों मे भी मलेरिया की दर कम पायी जाती है ,संभवत ये सभी जीन मानव विकास के दौरान विकसित हुए है


डफी एंटीजन

डफी एंटीजन वे एंटीजन होते है जो लाल रक्त कोशिका तथा शरीर की अन्य कोशिकाओं पर चेमोकाइन ग्राहक के रूप मे काम करते है , इनकी अभिव्यक्ति एफ.वाई जीन के द्वारा होती है, पी.विवाक्स मलेरिया रक्त कोशिका मे प्रवेश करने हेतु डफी एंटीजन का प्रयोग करता है किंतु यदि यह मौजूद ही ना हो तो पी.विवाक्स से पूर्ण सुरक्षा मिल जाती है , यह जीनप्रकार यूरोप,एशिया या अमेरिका की आबादी मे बहुत कम नजर आता है किंतु पश्चिमी तथा केन्द्रीय अफ्रीका की समस्त मूल निवासी आबादी मे नजर आता है क्योंकि इस क्षेत्र मे कई हजार वर्षो से पी.विवाक्स बहुत ज्यादा फैल रहा है


जी6पीडी

यह एक प्रकार का एंजाईम है जो लाल रक्त कोशिका को आक्सीकारक दबाव से बचाता है ,
किंतु यदि इस मे परिवर्तन आ जाता है तो गंभीर मलेरिया से सुरक्षा मिल जाती है

एचएलए तथा इंटरल्यूकिन -4

एचएलए बी 53 का संबंध गंभीर मलेरिया के कम खतरे से है .इस एमएचसी श्रेणी 1 अणु से यकृत अवस्था तथा टी-कोशिका से जुडे एण्टीजन जो स्पोरस के प्रतिरोधी होते है का प्रतिनिधित्व होता है इण्टरल्यूकिन 4 का निर्माण टी-कोशिका करती है इससे बी.कोशिका एण्टीबोडी पैदा करती है मे विविधता आ जाती है बुर्किनाफासो के फुलानी समुदाय जिसमे मलेरिया के मामले बहुत कम होते है का अध्ययन करने पे पता चला कि पडोसी समुदायों कि तुलना मे उनमे ज्यादा आईएल4-524 टी मौजूद है जिसका संबंध बढी हुई एण्टीबोडी से है जो मलेरिया एण्टीज़न के विरूद्ध काम करते है इस के चलते मलेरिया के प्रति प्रतिरोध बढ जाता है

पहचान

P. फैल्सीपैरम कल्चर (K1 strain) का एक रक्त धब्बा। कई रक्त कोषिकाओं में वलय स्टेज होतीं हैं। केन्द्र के निकट है एक schizont एवं बाएं पर है ट्रोफोजॉ़एट

गंभीर मलेरिया को अफ्रीका मे प्राय पहचान लेने मे ही गलती होती है,जिसके चलते अन्य प्राणघातक बीमारियों का इलाज भी नहीं हो पाता है,हाल के अध्ययन बताते है कि मलेरियल रेटीनोपैथी[आँख के रेटीना के आधार पर पहचान ] किसी भी अन्य परीक्षण से ज्यादा बेहतर ढंग से मलेरिया जनित कोमा को गैरमलेरिया जनित कोमा से अलग पहचान सकते है

लक्षणों के आधार पर

कुछ इलाके इतने पिछडे हुए है कि वहाँ सामान्य प्रयोगशाला परीक्षण की सुविधाए भी उपलब्ध नहीं है वहाँ केवल सामान्य लक्षणों के आधार पर मलेरिया की पहचान की जाती है,मलावी का एक अध्ययन बताता है कि परंपरागत तरीकों के बजाय यदि वैज्ञानिक पहचान उपाय प्रयोग किये जाते है तो मलेरिया का अनावश्यक उपचार जो कि अन्यथा होता है करने से बचा जाता है


रक्त की माईक्रोस्कोपिक जांच

रक्त पटिटकाओं का माईक्रोस्कोप से परीक्षण करना सबसे सस्ता,वरीयता प्राप्त तथा भरोसेमंद पहचान तरीका माना जाता है
,क्योंकि चारों मे प्रत्येक परजीवी के अपने विशिष्ट लक्षण होते है ,प्राय रक्त दो पट्टिकाओं पर ले लिया जाता है जो कांच की होती
है ,इससे परजीवी को बेहतर ढंग से सुरक्षित रखा जा सकता है व उसकी बेहतरीन पहचान हो जाती है । यदि पतली रक्त परत प्रयोग की जाये तो अलग लाभ है और मोटी रक्त परत प्रयोग की जाये तो पतली से परजीवी की जाति पहचान आसान है वहीं मोटी से संक्रमण की सामान्य पहचान सरल हो जाती है इसके चलते दोनो प्रकार के नमूने लिये जाते है ।


मोटी रक्त परत से एक अनुभवी परीक्षक परजीवी की अत्यंत निचले स्तर पे पहचान कर लेता है । लगभग् 0.0000001% तक किंतु परजीवी का प्रकार निर्धारित करना समस्यापूर्ण रहता है

क्षेत्र मे जाकर परीक्षण

जिन क्षेत्रों मे सूक्ष्मदर्शी की जांच सुविधा नहीं होती या प्रयोगशाला का स्टाफ अनुभवी नही होता वहाँ प्रभावित क्षेत्र मे जा कर रक्त की एक बून्द ले कर एक एण्टीजन परीक्षण कर लिया जाता है इम्यूनोक्रोमोटोग्राफिक टेस्ट [तीन अन्य नाम भी है मलेरिया रेपिड जांच परीक्षण ,एण्टीजन कैप्चर एसे या डिपस्टिक ] मे किसी प्रकार की प्रयोगशाला की जरूरत नहीं रहती है ये पूरा होने मे सिर्फ 15-20 मिनट का समय लेते है किंतु ये सूक्ष्म दर्शी जांच से थोडे कमतर माने जाते है ये मलेरिया परजीवी द्वारा जनित एण्टीजनों का प्रयोग उसकी मौजूदगी जानने हेतु कर लेते है [एंजाइम एण्टीजन के नाम तकनीकी जटिलता बढ ना जाये इस लिये हटा लिये गये है] इसके अलावा पोलिमरर्स कडी प्रतिक्रिया जाँच भी प्रयोग होती है किंतु यह बहुत मंहगी तथा विशेष प्रयोगशाला की मांग करती है


आण्विक विधिय़ाँ

आण्विक विधि का प्रयोग भी प्रारंभ हो चुका है किंतु उनका व्यापक प्रयोग शुरू नहीं हुआ है ।

प्रयोग शाला परीक्षण

ओपटिमल आईटी परीक्षण जो कि पोलिमर्स कडी प्रतिक्रिया का प्रयोग करती है बहुत अच्छी विधि है किंतु मंहगी तथा जटिल है अतः प्रयोग मे कम आ रही है

उपचार

पी.फैल्सीपेरम मलेरिया को आपातकालीन केस माना जाता है तथा मरीज को इलाज होने तक चिक्त्सीय निगरानी मे रखना अनिवार्य
माना जाता है किंतु अन्य परजीवी के संक्रमण के मरीज को बहिरंग विभाग के मरीज के रूप मे मान कर इलाज किया जाता है मलेरिया के उपचार मे एण्टीमलेरिया औषधि के प्रयोग के साथ साथ सहयोगी उपचार भी दिया जाता है । पूर्ण इलाज मिलने पर मरीज 100% सही हो जाने की आशा रख सकता है

मलेरिया रोधी दवाएँ

एण्टीमलेरियल औषधि वर्तमान मे अनेक परिवारो की दवाये मलेरिया उपचार मे प्रयोग आ रही है क्लोरोकवीन सबसे सस्ती तथा प्रभावी दवा मानी जाती रही है किंतु हाल मे परजीवी इसके प्रति प्रतिरोधी हो गये है खासकर पी.फैल्सीपेरम ,इसके अलावा वे कुनैन तथा एमाडिक्वाइन के प्रति भी प्रतिरोधी हो गये है अनेक अन्य तत्व है जिनका प्रयोग प्रतिरोधी दवा या उपचार हेतु होता है ,कुछ का प्रयोग दोनो हेतु होता है उनका प्रयोग प्रभावित क्षेत्र मे परजीवी की दवा प्रतिरोधक क्षमता को देख कर किया जाता है बीटा ब्लोकर प्रोपरनोलोल हाल मे सबसे ज्यादा चर्चा मे है यह परजीवी को लाल रक्त कोशिका मे प्रवेश से रोक देती है तथा परजीवी के प्रजनन को भी रोक देती है अन्य उपलब्ध दवाओं की सूची [नाम मूल अंग्रेजी मे रहने दिये गये है क्योंकि वे भारत मे भी हिन्दी नामों से नहीं जानी जाती है ] Artemether-lumefantrine (उपचार हेतु • )
• Artesunate-amodiaquine (उपचार हेतु)
• Artesunate-mefloquine (उपचार हेतु)
• Artesunate-Sulfadoxine/pyrimethamine (उपचार हेतु)
Atovaquone-proguanil, trade name Malarone (दोनो • )
• Quinine (उपचार हेतु)
• Chloroquine (दोनो)
• Cotrifazid (दोनो)
• Doxycycline (दोनो)
• Mefloquine, (दोनो))
• Primaquine (उपचार हेतु केवल पी.विवाक्स,पी.ओवेल)
• Proguanil (निरोधक दवा)
• Sulfadoxine-pyrimethamine (दोनो))
• Hydroxychloroquine, (दोनो)
दवाओं का विकास इसलिये संभव हो सका क्योंकि पी.फैल्सीपेरम को सफलता पूर्वक प्रयोगशाला मे उगाया जा सका [कल्चर किया जा सका]
आर्टीमिसिया एमूमा नामक पौधे मे आर्टीमिसिनिन नामक यौगिक पाया जाता है 90% सफलता रखता है किंतु इस यौगिक की आपूर्ति मांग के अनुसार नहीं है . वर्ष 2001 से विश्व स्वास्थय संगठन ने भी इस दवा के आधार वाली मिली जुली थैरेपी का प्रयोग करने की सलाह जारी कर दी है ,यह दवा मलेरिया प्रभावित क्षेत्रों मे यह आज पहली पंक्ति की उपचार औषधि बन गयी है ,अधिकतर अफ्रीकी देश भी इसे स्वीकार कर चुके है किंतु ये दवाएं बहुत मंहगी भी पडती है पुराने उपचार से 20 गुणा मंहगी पडती है जिसके चलते वे पहुँच से बाहर रहती है , यह दवा कैसेकाम करती है यह अभी तक भी स्पष्ट नहीं हो सका है मलेरिया परजीवी इसके विरूद्ध भी प्रतिरोध क्षमता हासिल कर लेता है.
फरवरी 2002 मे फ्रेंच तथा दक्षिण अफ्रीकी अनुसंधानकर्ताओं के एक दल के अनुसंधान की रिपोर्ट सांइस पत्रिका मे छपी थी वे एक नयी दवा जी 25 की खोज का दावा कर रहे थे जो मलेरिया को रोक सकती थी, यह परजीवी को रक्त कोशिका मे प्रजनित होने से रोक देती है ,2005 मे इसी दल ने एक नये तत्व टीई 3 की बात कही जो मुख से लिया जा सकता है किंतु ये दवाएँ अभी बाजार मे नहीं आयी है ,नयी दवाएं जो क्लोरोप्लासट का प्रयोग मलेरिया उपचार मे करेंगे अभी विकास के विभिन्न चरणों मे है यधपि आज प्रभावी एण्टी मलेरिया औषधियाँ है किंतु जहाँ मलेरिया सबसे ज्यादा फैलता है वहाँ वे मिलती नहीं है या इतनी महंगी है कि खरीद से बाहर होती है , 2002 मे एक मलेरिया पीडित का उपचार महामारी वाले क्षेत्र मे करने पर 0.25 डालर से 2.40 डालर का खर्चा प्रति खुराक करने का अनुमानित था

नकली दवाएँ

अनेक प्रभावित देशों मे बडे पैमाने पर नकली दवाओं का कारोबार होता है आज भी कम्पनियाँ इस समस्या से निपटने का प्रयास कर रही है ।

रोकथाम तथा रोग नियंत्रण

एनोफ्लीज़ एल्बिमैनस् मच्छर्, एक मानवी बांह पर काटते हुए। यह मक्ष मलेरिया का रोगवाहक है, तथा मलेरिया की रोकथाम के लिये मक्षों पर नियंत्रण अत्यधिक प्रभावशाली उपाय है।

मलेरिया प्रभावित क्षेत्रों मे रोग का प्रसार रोकने हेतु रोधक दवाएं, मच्छरों का उन्मूलन या उनसे काटने से बचने के उपाय किये जाते है ,अभी कोई टीका इसके विरूद्ध नहीं बन सका है यधपि अनुसंधान चल रहा है ,अनेक अनुसंधान कर्ता दावा करते है कि मलेरिया के उपचार की तुलना मे उस से बचाव का व्यय दीर्घ काल मे कम रहेगा ,किंतु विश्व के कुछ सर्वाधिक निर्धन देशों मे इसका तात्कालिक व्यय उठाने की क्षमता भी नहीं है ,आर्थिक सलाहकार जैफरी सेश के अनुसार प्रतिवर्ष 3 अरब अमेरिकी डालर की सहायता देकर मलेरिया का प्रसार रोका जा सकता है ,यह तर्क दिया जाता है ये मिलिनेनयिम डेवलपमेंट गोल लक्ष्य पूरा करने हेतु धन को एडस उपचार से हटा कर मलेरिया रोकथाम मे लगाना होगा जबकि इतने ही धन से अफ्रीकी देशों को एडस कार्यक्रम मे ज्यादा लाभ मिलता रहेगा मलेरिया उन्मूलन के प्रयास अनेक इलाकों मे पूर्णत सफल रहे है कभी यह रोग संयुक्त राज्य अमेरिका तथा दक्षिण यूरोप मे आम था ,किंतु दलदली क्षेत्र जो मच्छर प्रजनन स्थल थे को सुखा कर बेहतर जल निकास द्वारा ,कडी निगरानी रख कर तथा मरीजों का तुरंत उपचार करके इसे इन क्षेत्रों से समाप्त कर दिया गया ,वर्ष 2002 मे अमेरिका से सिर्फ 1059 मामले सामने आये जिनसे 8 लोग मरे. मलेरिया को उत्तरी संयुक्त राज्य से तो बीसवी सदी के प्रारंभ मे ही मिटा दिया गया था तथा 1951 तक डी.डी.टी का प्रयोग कर दक्षिण से भी मिटा दिया गया. , 1956-1960 के दशक मे विश्व स्तर पर मलेरिया उन्मूलन के व्यापक प्रयास किये गये [वैसे ही जैसे चेचक उन्मूलन हेतु किये गये थे] किंतु उनमे सफलता नहीं मिल सकी ,ये आज भी अफ्रीका मे उसी स्तर पे मौजूद है . ब्राजील,इरीट्रिया,भारत ,वियतनाम कुछ देश है जिन्होंने इस रोग पर काफी हद तक काबू पा लिया है . इसके पीछे निम्न कारण माने गये है ये है इन देशों की दशा, प्रभावी उपकरणों का प्रयोग,सरकार का बेहतर नेतृत्व ,सामुदायिक भागीदारी, विकेन्द्रीकृत क्रियानवयन , कुशल तकनीकी-प्रबंधक कामगार मिलना ,भागीदार संस्थाओं द्वारा सही तकनीकी सहयोग देना तथा पर्याप्त कोष मिलना


प्रोपलेटिक दवाएँ

अनेक दवाओं का प्रयोग जो आमतौर पर उपचार मे होता है का प्रयोग निरोधक प्रभाव हेतु भी हो सकता है लैरियागो जिसे मलेरिया उपचार हेतु आप किसी भी दवा दुकान से पा सकते है को आप पहले ही ले ले तो आप रोग से किसी सीमा तक बच सकते है ,किंतु इनके दीर्घ काल प्रयोग से हानि होती है महामारी क्षेत्रों मे ये कम प्रभावी होती है,कई दवाएं मिलती ही नहीं है हाँ यदि आप किसी ज्वर ग्रस्त क्षेत्र मे अस्थाई रूप से जा रहे है तो इनका प्रयोग कर सकते है कुनैन को बहुत पहले से इस रूप मे प्रयोग किया जाता रहा है हाँ आजकल इसका प्रयोग उपचार हेतु ज्यादा होता है , बहुत पहले हैनीमेन ने होम्योपैथी का आविष्कार कुनैन के प्रभाव देख कर और समानप्रभाव का नियम समझ कर किया था
आज काल mefloquine (Lariam), doxycycline, atovaquone, proguanil hydrochloride (Malarone). नामक औषधियाँ इस प्रयोग मे आ रही है ,दवा चुनने से पूर्व क्षेत्र मे सक्रिय परजीवी की दवा के प्रति प्रतिरोधक क्षमता का ज्ञान होना चाहिए, हर दवा के पश्च प्रभाव भिन्न भिन्न होते है
ये प्रयोग करते ही प्रभाव डालना शुरू नहीं कर देती है कम से कम 1 -2 सप्ताह का समय लेते है
तथा इन्हे कुछ समय तक लेना भी पडता है

घरों मे दवा का छिडकाव

डी.डी.टी. पहला आधुनिक कीटनाशक था जो मलेरिया के विरूद्ध प्रयोग किया गया था, किंतु बाद मे यनि 1950 के बाद इसे कृषि कीटनाशी रूप मे प्रयोग करने लगे थे ,1960 मे इसके हानिकारक प्रभाव नजर आने लगे 1970 के दशक मे अनेक देशों मे इसके प्रयोग पर रोक लगा दी गयी, किंतु इस काल तक अनेक क्षेत्रों मे मच्छर भी इसके प्रति प्रतिरोधी हो गये थे ,इस दवा के प्रयोग पे रोक लगाने को काफी विवादास्पद माना गया है ,वैसे इसे मलेरिया नियंत्रण हेतु कभी प्रतिबंधित नहीं किया गया ,किंतु आलोचक कहते है कि अनावश्यक रोक लगा कर लाखों लोगों के प्राण गंवा दिये गये है, फिर समस्या डी.डी.टी के कृषि क्षेत्र मे व्यापक प्रयोग से हुई थी ना कि इसका प्रयोग जन स्वास्थय क्षेत्र मे करने से
डब्ल्यू.एच.ओ. ने मलेरिया प्रभावित क्षेत्रों मे इसके छिडकाव को मान्यता दी है, घरों की दीवारों पर इसका प्रयोग कर लेने के बाद जब मच्छर आते है तो वे दीवारों पे नहीं बैठ सकेगें, वैसे उन क्षेत्रों मे जहाँ मच्छर इसके प्रति रोधक क्षमता विकसित कर चुके है,वहाँ विकल्प रूप मे परमेथीन या डेल्टामेरेथीन के प्रयोग की सलाह दी जाती है, स्टाकहोम कंवेशन इसके सीमित प्रयोग की छूट देता है किंतु इसे खुले मे कृषि कार्य हेतु प्रयोग लाना प्रतिबंधित है

मच्छरदानियां व अन्य उपाय

मच्छरदानी मच्छरों को लोगों से दूर रखने मे सफल रहती है तथा,मलेरिया संक्रमण को काफी हद तक रोकती है। वे अपने आप मे बहुत अच्छा उपाय नहीं है किंतु यदि उन्हे रासायनिक रूप से उपचारित कर दे तो वे बहुत उपयोगी हो जाती है, इस रसायन के संपर्क मे आते ही मच्छर मर जाते है, वे अनोपचारित मच्छरदानी से दोगुणी प्रभावी होती है ,बिना मच्छरदानी के सोने के बजाय उनका प्रयोग करने से 70%ज्यादा सुरक्षा मिलती है ,क्योंकि एनाफिलीज मच्छर रात को काटता है अतः यदि बडी मच्छरदानी को चारपाई/बिस्तर पे लटका देने तथा इसके द्वारा बिस्तर को चारो तरफ से पूर्णतः घेर देने से सुरक्षा पूरी हो जाती है. कीटनाशी लेपित मच्छरदानी के वितरण को मलेरिया नियंत्रण का बेहद सस्ता तथा प्रभावी उपाय माना जाता है इस प्रकार की एक सामान्य मच्छर दानी का मूल्य 2.50 डालर से3.50 डालर रहता है प्रभावित इलाकों मे प्राय संयुक्त राष्ट्र एंजेसी या कोई संस्था उनका वितरण करती है , अधिकतम सुरक्षा हेतु आवश्यक है कि हर छह महीनें मे इन पर फिर से रसायन का लेप किया जाये,किंतु ग्रामीण क्षेत्रों मे यह समस्या है ,वर्तमान मे नवीन प्रौधोगिकी से इस प्रकार की मच्छरदानी बन रही है जो पांच वर्ष तक कीटनाशी प्रभाव रखती है ,इन मच्छरदानी के अन्दर सोने पर तो सुरक्षा मिलती ही है जो मच्छर इनके संपर्क मे आते है वे भी तुरंत मर जाते है जिससे अन्य लोगों को भी कुछ सुरक्षा मिल जाती है ,किंतु आज भी अफ्रीका मे उनका प्रयोग आम नहीं हो सका है वहाँ 20 मे से 1 आदमी के पास यह होती है जो मच्छरदानियाँ दान मे जाती भी है उनका प्रयोग मछली पकडने के जाल मे होने लगता है तथा उनकी बिक्री होने लगती है

टीकाकरण

मलेरिया के विरूद्ध टीके विकसित किये जा रहे है यधपि अभी तक सफलता नहीं मिली है पहली बार प्रयास 1967 मे चूहे पे किया गया था जिसे जीवित किंतु विकिरण से उपचारित स्पोरर्स का टीका दिया गया सफलता दर 60% थी किंतु यह प्रयोग मानव पे नहीं किया जा सका है केवल प्रयास चल रहे है यह माना गया है कि यदि कोई मानव 1 हजार बार संक्रमित किंतु विकिरणित मच्छरों से कटवा दिया जाये तो वह सदैव के लिये पी.फैल्सीपरम के लिये प्रतिरोधी हो जायेगा , इस धारणा पे भी वर्तमान मे काम चल रहा है परीक्षण के भिन्न दौर चल रहे है एक अन्य टीका इस सोच पे बनाया जा रहा है कि शरीर का प्रतिरोधी तंत्र किसी प्रकार सी.एस.प्रोटीन जो मलेरिया के स्पोर पे होता है के विरूद्ध प्रोटीन बनाने लगे .इस सोच पे सबसे ज्यादा टीके बने तथा परीक्षीत किये गये है .आशा की जाती है कि पी.फैल्सीपरम का जीनोम कोडिंग मिल जाने से नयी दवाओं का तथा टीकों का परीक्षण किया जा सकेगा एस.पीएफएफ66 पहला टीका था जिसका फील्ड परीक्षण हुआ शुरू मे सफल किंतु बाद मे सफलता दर 30% से नीचे जाने से असफल मान लिया गया अन्य जितने भी टीके-वैक्सीन है वे भी प्रयोगशाला से बाहर बाजार मे नहीं आ सके है उनके बारे मे आप सर्च इंजन गूगल पर खोज कर पढ सकते है

अन्य उपाय

आनुवंशिकी रूप से परिवर्तित मच्छरों को खुला छोडना, ये मच्छर शेष से मिल कर जनन करेंगे तथा ऐसी प्रजाति की रचना कर देंगे जो मलेरिया परजीवी को अपने मे पलने ही नहीं देंगी, मच्छरों को बधिया कर देना दूसरा उपाय है प्रभावित क्षेत्र मे लोगों को जागरूक करने से भी रोग की रोक्थाम की जा सकती है ,मच्छरों के प्रजनन स्थलों को सुखा कर, वहां जल पर तेल डाल कर भी इस पर रोक लगायी जा सकती है

सन्दर्भ

  1. Snow RW, Guerra CA, Noor AM, Myint HY, Hay SI (2005). "The global distribution of clinical episodes of Plasmodium falciparum malaria". Nature. 434 (7030): 214–7. PMID 15759000. डीओआइ:10.1038/nature03342.सीएस1 रखरखाव: एक से अधिक नाम: authors list (link)
  2. Joy D, Feng X, Mu J; एवं अन्य (2003). "Early origin and recent expansion of Plasmodium falciparum". Science. 300 (5617): 318–21. PMID 12690197. डीओआइ:10.1126/science.1081449. Explicit use of et al. in: |author= (मदद)सीएस1 रखरखाव: एक से अधिक नाम: authors list (link)
  3. Escalante A, Freeland D, Collins W, Lal A (1998). "The evolution of primate malaria parasites based on the gene encoding cytochrome b from the linear mitochondrial genome". Proc Natl Acad Sci U S A. 95 (14): 8124–9. PMID 9653151. डीओआइ:10.1073/pnas.95.14.8124.सीएस1 रखरखाव: एक से अधिक नाम: authors list (link)
  4. Cox F (2002). "History of human parasitology". Clin Microbiol Rev. 15 (4): 595–612. PMID 12364371. डीओआइ:10.1128/CMR.15.4.595-612.2002.
  5. "Biography of Alphonse Laveran". The Nobel Foundation. अभिगमन तिथि 2007-06-15. ] Nobel foundation. Accessed 25 Oct 2006
  6. "Ettore Marchiafava". अभिगमन तिथि 2007-06-15.
  7. "Biography of Ronald Ross". The Nobel Foundation. अभिगमन तिथि 2007-06-15.
  8. "Ross and the Discovery that Mosquitoes Transmit Malaria Parasites". CDC Malaria website. अभिगमन तिथि 2007-06-15.
  9. Kaufman T, Rúveda E (2005). "The quest for quinine: those who won the battles and those who won the war". Angew Chem Int Ed Engl. 44 (6): 854–85. PMID 15669029. डीओआइ:10.1002/anie.200400663.
  10. Kyle R, Shampe M (1974). "Discoverers of quinine". JAMA. 229 (4): e320. PMID 4600403. डीओआइ:10.1001/jama.229.4.462.
  11. Raju T (2006). "Hot brains: manipulating body heat to save the brain". Pediatrics. 117 (2): e320-1. PMID 16452338. डीओआइ:10.1542/peds.2005-1934.
  12. Krotoski W, Collins W, Bray R; एवं अन्य (1982). "Demonstration of hypnozoites in sporozoite-transmitted Plasmodium vivax infection". Am J Trop Med Hyg. 31 (6): 1291–3. PMID 6816080. Explicit use of et al. in: |author= (मदद)सीएस1 रखरखाव: एक से अधिक नाम: authors list (link)
  13. Meis J, Verhave J, Jap P, Sinden R, Meuwissen J (1983). "Malaria parasites--discovery of the early liver form". Nature. 302 (5907): 424–6. PMID 6339945. डीओआइ:10.1038/302424a0.सीएस1 रखरखाव: एक से अधिक नाम: authors list (link)
  14. "Malaria: Geographic Distribution". CDC Malaria website. अभिगमन तिथि 2007-06-15.
  15. Breman J (2001). "The ears of the hippopotamus: manifestations, determinants, and estimates of the malaria burden". Am J Trop Med Hyg. 64 (1-2 Suppl): 1–11. PMID 11425172.
  16. USAID’s Malaria Programs
  17. Greenwood BM, Bojang K, Whitty CJ, Targett GA (2005). "Malaria". Lancet. 365: 1487–1498. PMID 15850634. डीओआइ:10.1016/S0140-6736(05)66420-3.सीएस1 रखरखाव: एक से अधिक नाम: authors list (link)
  18. Hay S, Guerra C, Tatem A, Noor A, Snow R (2004). "The global distribution and population at risk of malaria: past, present, and future". Lancet Infect Dis. 4 (6): 327–36. PMID 15172341. डीओआइ:10.1016/S1473-3099(04)01043-6.सीएस1 रखरखाव: एक से अधिक नाम: authors list (link)
  19. Korenromp E, Williams B, de Vlas S, Gouws E, Gilks C, Ghys P, Nahlen B (2005). "Malaria attributable to the HIV-1 epidemic, sub-Saharan Africa". Emerg Infect Dis. 11 (9): 1410–9. PMID 16229771.सीएस1 रखरखाव: एक से अधिक नाम: authors list (link)
  20. Abu-Raddad L, Patnaik P, Kublin J (2006). "Dual infection with HIV and malaria fuels the spread of both diseases in sub-Saharan Africa". Science. 314 (5805): 1603–6. PMID 17158329. डीओआइ:10.1126/science.1132338.सीएस1 रखरखाव: एक से अधिक नाम: authors list (link)
  21. Layne SP. "Principles of Infectious Disease Epidemiology /" (PDF). EPI 220. UCLA Department of Epidemiology. अभिगमन तिथि 2007-06-15.
  22. Greenwood B, Mutabingwa T (2002). "Malaria in 2002". Nature. 415: 670–2. PMID 11832954. डीओआइ:10.1038/415670a.
  23. Grover-Kopec E, Kawano M, Klaver R, Blumenthal B, Ceccato P, Connor S (2005). "An online operational rainfall-monitoring resource for epidemic malaria early warning systems in Africa". Malar J. 4: 6. PMID 15663795. डीओआइ:10.1186/1475-2875-4-6.सीएस1 रखरखाव: एक से अधिक नाम: authors list (link)
  24. Van Benthem B, Vanwambeke S, Khantikul N, Burghoorn-Maas C, Panart K, Oskam L, Lambin E, Somboon P (2005). "Spatial patterns of and risk factors for seropositivity for dengue infection". Am J Trop Med Hyg. 72 (2): 201–8. PMID 15741558.सीएस1 रखरखाव: एक से अधिक नाम: authors list (link)
  25. Trung H, Van Bortel W, Sochantha T, Keokenchanh K, Quang N, Cong L, Coosemans M (2004). "Malaria transmission and major malaria vectors in different geographical areas of Southeast Asia". Trop Med Int Health. 9 (2): e473. PMID 15040560. डीओआइ:10.1046/j.1365-3156.2003.01179.x.सीएस1 रखरखाव: एक से अधिक नाम: authors list (link)
  26. Keiser J, Utzinger J, Caldas de Castro M, Smith T, Tanner M, Singer B (2004). "Urbanization in sub-saharan Africa and implication for malaria control". Am J Trop Med Hyg. 71 (2 Suppl): 118–27. PMID 15331827.सीएस1 रखरखाव: एक से अधिक नाम: authors list (link)
  27. Hay SI, Snow RW (2006). "The Malaria Atlas Project: Developing Global Maps of Malaria Risk". PLoS Medicine. 3 (12): e473. डीओआइ:10.1371/journal.pmed.0030473.
  28. Sachs J, Malaney P (2002). "The economic and social burden of malaria". Nature. 415: 680–5. PMID 11832956. डीओआइ:10.1038/415680a.
  29. Roll Back Malaria. "Economic costs of malaria". WHO. अभिगमन तिथि 2006-09-21.
  30. Malaria life cycle & pathogenesis. Malaria in Armenia. Accessed October 31, 2006.
  31. Trampuz A, Jereb M, Muzlovic I, Prabhu R (2003). "Clinical review: Severe malaria". Crit Care. 7 (4): 315–23. डीओआइ:10.1186/cc2183. PMID 12930555.सीएस1 रखरखाव: एक से अधिक नाम: authors list (link)
  32. Kain K, Harrington M, Tennyson S, Keystone J (1998). "Imported malaria: prospective analysis of problems in diagnosis and management". Clin Infect Dis. 27 (1): 142–9. डीओआइ:10.1086/514616. PMID 9675468.सीएस1 रखरखाव: एक से अधिक नाम: authors list (link)
  33. Mockenhaupt F, Ehrhardt S, Burkhardt J, Bosomtwe S, Laryea S, Anemana S, Otchwemah R, Cramer J, Dietz E, Gellert S, Bienzle U (2004). "Manifestation and outcome of severe malaria in children in northern Ghana". Am J Trop Med Hyg. 71 (2): 167–72. PMID 15306705.सीएस1 रखरखाव: एक से अधिक नाम: authors list (link)
  34. Boivin, M.J., "Effects of early cerebral malaria on cognitive ability in Senegalese children," Journal of Developmental and Behavioral Pediatrics 23, no. 5 (October 2002): 353–64. Holding, P.A. and Snow, R.W., "Impact of Plasmodium falciparum malaria on performance and learning: review of the evidence," American Journal of Tropical Medicine and Hygiene 64, suppl. nos. 1–2 (January–February 2001): 68–75.
  35. Idro, R. "Decorticate, decerebrate and opisthotonic posturing and seizures in Kenyan children with cerebral malaria". Malaria Journal. 4 (57): 57. डीओआइ:10.1186/1475-2875-4-57. PMID 16336645. अभिगमन तिथि 2007-01-21. नामालूम प्राचल |coauthors= की उपेक्षा की गयी (|author= सुझावित है) (मदद)
  36. Carter JA, Ross AJ, Neville BG, Obiero E, Katana K, Mung'ala-Odera V, Lees JA, Newton CR (2005). "Developmental impairments following severe falciparum malaria in children". Trop Med Int Health. 10: 3–10. डीओआइ:10.1111/j.1365-3156.2004.01345.x. PMID 15655008.सीएस1 रखरखाव: एक से अधिक नाम: authors list (link)
  37. Adak T, Sharma V, Orlov V (1998). "Studies on the Plasmodium vivax relapse pattern in Delhi, India". Am J Trop Med Hyg. 59 (1): 175–9. PMID 9684649.सीएस1 रखरखाव: एक से अधिक नाम: authors list (link)

बाहरी कडि़याँ