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शब्दप्रमाण

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गौतम बुद्ध बोधि वृक्ष के नीचे अपने शिष्यों को ज्ञान देते हुए।

आप्त पुरुष द्वारा किए गए उपदेश को "शब्द" प्रमाण मानते हैं। ("आप्तोपदेशः शब्दः" ; न्यायसूत्र 1.1.7)। आप्त वह पुरुष है जिसने धर्म के और सब पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को भली भांति जान लिया है, जो सब जीवों पर दया करता है और सच्ची बात कहने की इच्छा रखता है।

न्यायमत में वेद ईश्वर द्वारा प्रणीत ग्रंथ है और ईश्वर सर्वज्ञ, हितोपदेष्टा तथा जगत् का कल्याण करनेवाला है। वह सत्य का परम आश्रय होने से कभी मिथ्या भाषण नहीं कर सकता और इसलिए ईश्वर सर्वश्रेष्ठ आप्त पुरुष है। ऐसे ईश्वर द्वारा मानवमात्र के मंगल के निमित निर्मित, परम सत्य का प्रतिपादक वेद आप्तप्रमाण या शब्दप्रमाण की सर्वोत्तम कोटि है। गौतम सूत्र (2.1.57) में वेद के प्रामाण्य को तीन दोषों से युक्त होने के कारण भ्रांत होने का पूर्वपक्ष प्रस्तुत किया गया है। वेद में नितांत मिथ्यापूर्ण बातें पाई जाती हैं, कई परस्पर विरुद्ध बातें दृष्टिगोचर होती हैं और कई स्थलों पर अनेक बातें व्यर्थ ही दुहराई गई हैं। गौतम ने इस पूर्वपक्ष का खंडन बड़े विस्तार के साथ अनेक सूत्रों में किया है (1.1.58-61)। वेद के पूर्वोक्त स्थलों के सच्चे अर्थ पर ध्यान देने से वेदवचनों का प्रामाण्य स्वत: उन्मीलित होता है। पुत्रेष्टि यज्ञ की निष्फलता इष्टि के यथार्थ विधान की न्यूनता तथा यागकर्ता की अयोग्यता के ही कारण है। "उदिते जुहोति" तथा "अनुदिते जुहोति" वाक्यों में भी कथमपि विरोध नहीं है। इनका यही तात्पर्य है कि यदि कोई इष्टिकर्ता सूर्योदय से पहले हवन करता है, तो उसे इस नियम का पालन जीवनभर करते रहना चाहिए। समय का नियमन ही इन वाक्यों का तात्पर्य है।

बुद्ध तथा जैन आगम को नैयायिक लोग वेद के समान प्रमाणकोटि में नहीं मानते। वाचस्पति मिश्र का कथन है कि ऋषभदेव तथा बुद्धदेव कारुणिक सदुपदेष्टा भले ही हों, परन्तु विश्व के रचयिता ईश्वर के समान न तो उनका ज्ञान ही विस्तृत है और उनकी शक्ति ही अपरिमित है। जयन्त भट्ट का मत इससे भिन्न है। वे इनको भी ईश्वर का अवतार मानते हैं। अतएव इनके वचन तथा उपदेश भी आगमकोटि में आते हैं। अंतर इतना ही है कि वेद का उपदेश समस्त मानवों के कल्याणार्थ है, परंतु बौद्ध और जैन आगम कम मनुष्यों के लाभार्थ हैं। इस प्रकार आप्तप्रमाण के विषय में एकवाक्यता प्रस्तुत की जा सकती है।

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