योग की सात भूमियाँ
योग की सात भूमियाँ या योगभूमिका योग की सात अवस्थाएँ हैं। इसका वर्णन योगवासिष्ठ में आया है जिसमें महर्षि वसिष्ठ, राम को उपदेश दे रहे हैं। सप्तभूमियाँ ये हैं- शुभेच्छा, विचारणा, तनुमानसी, सत्यापत्ति, असंसक्ति, पदार्थभावनी (या पदार्थभावना) तथा तुरीया है।
महोपनिषद में आया है-
- ज्ञानभूमिः शुभेच्छाख्या प्रथमा समुदाहृता।
- विचारणा द्वितीया तु तृतीया तनुमानसी ॥ -- ५-२४
- सत्त्वापत्तिश्चतुर्थी स्यात्ततोऽसंसक्तिनामिका।
- पदार्थभावना षष्ठी सप्तमी तुर्यगा स्मृता ॥ -- ५-२५
- अर्थ - पहली ज्ञान भूमिका को ‘शुभेच्छा' नाम दिया गया है। दूसरी ‘विचारणा', तीसरी ‘तनुमानसी', चौथी ‘सत्यापत्ति', पाँची ‘असंसक्ति', छठवीं ‘पदार्थभावना' तथा सातवीं ‘तुर्यगा' है। इन भूमिकाओं में पुनः शोकाकुल न होने देने वाली मुक्ति निहित है।
ज्ञानी़-योगी जन समझाने की सुविधा के लिए इस मार्ग में छह भूमियाँ स्वीकार करते हैं। एक ओर स्थूल-जगत और स्थूल-देहाभिमानी मानव-रूपी जीवात्मा है। दूसरी ओर नित्य जाग्रत परमात्मा है। यह दोनों छोर मार्ग की सीमा के बाहर हैं। स्थूल-देह में आत्मभाव (देहाभिमान) की निवृत्ति हुए बिना मार्ग में प्रवेश प्राप्त नहीं होता।
प्रथम भूमि | सूक्ष्म जगत |
द्वितीय भूमि | सूक्ष्म जगत |
तृतीय भूमि | सूक्ष्म जगत |
चतुर्थ भूमि | सूक्ष्म जगत और कारण जगत की सन्धि में |
पञ्चम भूमि | कारण जगत |
षष्ठ भूमि | कारण जगत |
सप्तम भूमि | आत्मा परमात्मा के साथ एक होकर विराजमान होता है |
प्रथम भूमि
[संपादित करें]प्रथम भूमि शुभेच्छा अवस्था है। यह बाहरी भूमिका है। यह साधन लक्षण मात्र है। यह भूमि मुमुक्षु के लिए है।
द्वितीय भूमि
[संपादित करें]द्वितीय भूमि विचारणा अवस्था है। यह भी बाहरी भूमिका है। यह भी साधन लक्षण मात्र है। यह भूमि मुमुक्षु के लिए है।
इस भूमि में सूक्ष्म जगत के अनुभव - दर्शन, स्पर्श आदि विषयों में नये संस्कार पैदा होते हैं।
तृतीय भूमि
[संपादित करें]तृतीय भूमि तनुमानसी अवस्था है। इस अवस्था में मन की क्षीणता होती है अर्थात् मन रहता है परन्तु वह भीतर डूबा रहता है। यह भूमि मुमुक्षु के लिए है।
इस भूमि में सूक्ष्म जगत के अन्तर्गत - लोक लोकान्तरों में भ्रमण किया जा सकता है। [2]
चतुर्थ भूमि
[संपादित करें]चतुर्थ भूमि सत्त्वापत्ति अवस्था है। इस अवस्था में जगत भूल जाता है, अपने आप को योगी भूल जाता है। यही समाधि का आरंभ है। इसी अवस्था के स्थायी और स्थिर होने पर साधक कृतार्थ हो जाता है। साधारणतः इस अवस्था तक साधक-अवस्था शेष हो जाती है।
इस भूमि में स्थित योगी को ब्रह्मवित् कहा जाता है। इस अवस्था से मुक्ति का लक्षण या अपरोक्ष ज्ञान का प्रकाश प्राप्त होता है।
यह सूक्ष्म और कारण जगत की सन्धिभूमि है अथवा कारण-जगत का प्रवेश-द्वार है। अतः सब शक्तियों का नियंत्रण यहीं से होता है। यहाँ भाव और वासना की तीव्रता अधिक रहती है, शक्ति के प्रयोग का प्रलोभन भी अधिक रहता है एवं अहंकार का प्रकोप भी बहुत उग्र रहता है। यह योगी की परीक्षा का स्थान है। इन सब अलौकिक शक्तियों का बिल्कुल व्यवहार न करने पर पञ्चम भूमि में पदार्पण करने में समर्थ होता है। शक्तियों का सदुपयोग करने पर अपने आप छठी भूमि में पहुंच जाता है। शक्ति के अनुचित प्रयोग से पतन की संभावना रहती है। [3]
कोई भगवान की ओर चला हुआ साधक यदि अत्यन्त संकट में पड़ जाय, तो इस भूमि का योगी उसे अपनी शक्ति के बल से संकट से उबार देते हैं। उत्कृष्ट रोग से छुटकारा, मरूभूमि में श्रान्त-क्लान्त को जल प्रदान, भयभीत मन की भीति का शमन, हताश के प्राणों में आशा का संचार - विविध प्रकारों से साधारणतः गुप्तरूप से इस परोपकार का व्रत अनुष्ठित होता है। बौद्ध सम्प्रदाय के बोधिसत्व यह कार्य करते हैं। पृथ्वी के सभी क्षेत्रों में इस प्रकार के सेवाधर्मी विद्यमान हैं।
पञ्चम भूमि
[संपादित करें]पञ्चम भूमि असंसक्ति अवस्था है। इस अवस्था में योगी समाधिस्थ हों या उससे उठे हों, वह ब्रह्मभाव से कभी विचलित नहीं होते या संसार के दृश्यों को देखकर विमुग्ध नहीं होते। यही पक्की योगारूढ़ावस्था है। इस अवस्था में रहकर सब काम किया भी जा सकता है और नहीं भी किया जा सकता है। साधारणतः महायोगीश्वर पुरूष तथा अवतारी पुरुष (अवतार) इसी अवस्था में रहते हैं और इसी अवस्था में रहकर समस्त जगत लीला का सम्पादन करते हैं।
इस भूमि में स्थित योगी की अविद्या के कार्य में आसक्ति नहीं होती, ये ही ब्रह्मविदवर कहलाते हैं।
षष्ठ भूमि
[संपादित करें]षष्ठ भूमि पदार्थाभावनी अवस्था है। इस अवस्था से योगी फिर नहीं उठते। उनके सामने तब सृष्ट-असृष्ट कुछ नहीं रहता। वहाँ कुछ करना या होना नहीं रहता। सुख-दुःख या जन्म-मरण का भ्रमज्ञान वहाँ स्फुटित नहीं हो सकता। यही द्वन्दातीत अवस्था या परम प्रज्ञा की अवस्था है।
इस अवस्था में भीतर-बाहर, स्थूल-सूक्ष्म कोई वस्तु नहीं रह जाती, किसी पदार्थ के विषय में कोई ज्ञान नहीं रहता, मैं-तुम रुप में कोई बोध भी नहीं होता। ऐसे योगी ब्रह्मविद विविधान कहलाते हैं।
सप्तम भूमि
[संपादित करें]सप्तम भूमि तुरीया अवस्था है। यही समाधि की अन्तिम अवस्था है। "केवलं ज्ञानमुर्ति" - यह साक्षात शिव-रूप या ब्रह्म-रुप है। षष्ठ भूमि का भेद करने पर समूचा मनोराज्य ध्वस्त हो जाता है - कल्पना राज्य दूर हट जाता है। माया और महामाया का खेल निवृत्त हो जाता है। [4]
यही अन्तिम अवस्था चरमप्रज्ञा या जीवन्मुक्त अवस्था है। यही ब्रह्मविद् वरीयान कहलाता है। [5]
इन्हें भी देखें
[संपादित करें]सन्दर्भ
[संपादित करें]- ↑ प्रो. लक्ष्मीनारायण, तिवारी (2016). कविराज प्रतिभा (द्वितीय संस्करण). वाराणसी: सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय. पपृ॰ १४१.
- ↑ प्रो. लक्ष्मीनारायण, तिवारी (2016). कविराज प्रतिभा (द्वितीय संस्करण). वाराणसी: सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय. पपृ॰ १४२.
- ↑ प्रो. लक्ष्मीनारायण, तिवारी (2016). कविराज प्रतिभा (द्वितीय संस्करण). वाराणसी: सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय. पपृ॰ १४४.
- ↑ प्रो. लक्ष्मीनारायण, तिवारी (2016). कविराज प्रतिभा (द्वितीय संस्करण). वाराणसी: सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय. पपृ॰ १४६.
- ↑ श्री भूपेद्रनाथ, सान्याल (2005). श्रीमद्भगवद्गीता (प्रथम संस्करण). भागलपुर बिहार: गुरूधाम प्रकाशन समिति. पपृ॰ भाग-१, २००.