सदस्य वार्ता:Rahil1Khan1

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Latest comment: 3 वर्ष पहले by Rahil1Khan1 in topic नूह नारवी
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-- नया सदस्य सन्देश (वार्ता) 09:54, 11 मार्च 2020 (UTC)उत्तर दें

नूह नारवी[संपादित करें]

नूह साहब की पैदाइश नारा (इलाहाबाद के निकट एक छोटा सा शहर) के एक जागीरदारी मौलवी अब्दुल मज़ीद के यहां 18 सितंबर 1879 में हुई। मुश्किल से चार साल के भी नहीं हुए थे कि पिता का साया सर से उठ गया। उनका बचपन और उनकी शिक्षा मुसीबतों और उलझनों से घिरी रही। हालात जब अनुकूल हुए तो अपनी मेहनत और निरंतर अध्ययन से उन्होंने अपना मुकाम बनाया। उर्दू और फ़ारसी में ख़ासी महारत हासिल की। नूह नारवी साहब हज़रत दाग़ के शागिर्द थे और उन्हें अपने उस्ताद का सारा कलाम ज़बानी याद था। उन्हें 'गुलज़ारे दाग़', 'आफ़्ताबे दाग़', 'फ़रियादे दाग़', 'महताबे दाग़' और 'यादगारे दाग़' पूरे के पूरे ज़बानी याद थे। दाग़ ने उनकी यह विशेषता देखकर कहा था: ' कलामे इलाही (कुरान) को याद रखने वाले तो बहुत देखे, आज कलामे हाफ़िज भी देख लिया।' नूह साहब को सिर्फ दाग़ के ही नही उनके अलावा भी दूसरे कई उस्तादों के कलाम कंठस्थ थे। वो इसे शेर कहने के ज़रूरी भी समझते थे। बाद कि दिनों में वे ख़ुद भी जिसे शागिर्द बनाते थे उससे भी उस्तादों के कम सेकम पांच हजार अशआर याद करने का अभ्यास करवाते थे। पेश है नूह साहब के चुनिंदा कलाम-

कम्बख़्त कभी जी से गुज़रने नहीं देती जीने की तमन्ना मुझे मरने नहीं देती

अच्छे बुरे को वो अभी पहचानते नहीं कमसिन हैं भोले-भाले हैं कुछ जानते नहीं

बरसों रहे हैं आप हमारी निगाह में ये क्या कहा कि हम तुम्हें पहचानते नहीं Rahil1Khan1 (वार्ता) 07:30, 4 जुलाई 2020 (UTC)उत्तर दें