सदस्य वार्ता:Khush agyat
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-- [[बाते बड़ी थी आ.... मेरी रूह आपसे है मेरी हर साम आपसे हे मेरी झुकी नजर आपका फक्र है मुझ पर मेरी तारीफों का हर राज आपसे हे । में क्या कहु ये दुनिया मेरी आपसे हे आपके कद्र की सान मुझसे हे सदा सलामत रखे खुदा आपको मेरे हर अल्फाज की कवाली आपके चरणों की दीवानी हे । खुली निगाहों में हर पहरा मेरी हर नजर आपके दीदार की रूआनी हे । चलती फिरती ये बस्ती आपके उसूलो की दीवानी हे । ये हर नई सुबह शाम आपके होसल्ले की रखवाली हे
चिरंजीव रहे हम ये आपका फरमान
खुदा की हर आस मेरी हर ताक बस आप तक हे । युही खुशियों में रखे ये खुदा मेरे कुटुम्ब को आखरी आस हे ये खुदा तुमसे ये मेरी रूह मेरे मम्मी -पापा की दीवानी हें ।
अमृत अज्ञात
किसी की शरारत में अपने मतलब को... जिसने सराहा उन्हें ही शरारती से उलझन सी लगी... चाह के न जाने आ....
क्यू यूहीं मुंह फेर लिया उसने....
अजनबी अपने हाल पे अडिग था ये चाल उन्हें नगवार लगी... यूहीं पल बदलने की चाह ना करना किसी का हाल जाने बिन अपने पद के ओहदे के खातिर अजनबी पे फतवे का फरमान न तंजना .... _________________________________________ मेरे हमसफ़र की दास्ता खुश अज्ञात Date-२१/३/२०१८//२२/३/२०१८
सदस्य सन्देश|नया सदस्य सन्देश]] (वार्ता) 18:50, 11 मार्च 2018 (UTC)
इक उदासी...[संपादित करें]
इक उदासी सी थी मुजमें कहीं बिसरी थी वो यादें कहीं गुमसुम से लफ्जो में हम .... कहीं
इक मुस्कराहट भी छीन गई थी हमसे.... उदासी के लफ्ज़ होठो पे थे मेरे ... इक आस जो दिखी कहीं हमें....
कूद पड़े थे हम उनमें कहीं ... भिखरी सी वो बाते कहीं ... फिर से समेटने को जी कह गया हमसे कहीं ...
में फरमा के उनसे कहीं दफा लफ्जों को पिरोने लगा उनमें कहीं ....
कुछ चाह की घड़ियों में उनके करीब ख़ुद को पाता हूं कहीं....
कौन सी फितरत उनकी न जाने हमसे कहीं... कहीं बार उनमें झाकने को मजबुर हमें वो करती है कहीं ....
बातों की डोरियो में यू कुछ कही.... इक राज जो बंया करना है...
बाते है घनी सिमटने की कोई चादर नहीं हममें कहीं....
रह के करीब उनके ख़ुद को में इक जंहा की दौलत को अपने नसीब में पाता हूं...
अभी हाल जो बाकी है उनमें कहीं
सजदे उनमें में पाता हूं कहीं....
कुछ अनकहे लफ्ज़ उनसे फरमाने है उनसे कहीं....
मेरे हमसफ़र की दास्ता
अमृत अज्ञात (खुश अज्ञात)
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अमृत अज्ञात 20:33, 20 मार्च 2018 (UTC)