सदस्य:Khush agyat
मेरे हमसफर की दास्तां
इक उदासी सी थी मुजमें कहीं बिसरी थी वो यादें कहीं गुमसुम से लफ्जो में हम .... कहीं
इक मुस्कराहट भी छीन गई थी हमसे.... उदासी के लफ्ज़ होठो पे थे मेरे ... इक आस जो दिखी कहीं हमें....
कूद पड़े थे हम उनमें कहीं ... भिखरी सी वो बाते कहीं ... फिर से समेटने को जी कह गया हमसे कहीं ...
में फरमा के उनसे कहीं दफा लफ्जों को पिरोने लगा उनमें कहीं ....
कुछ चाह की घड़ियों में उनके करीब ख़ुद को पाता हूं कहीं....
कौन सी फितरत उनकी न जाने हमसे कहीं... कहीं बार उनमें झाकने को मजबुर हमें वो करती है कहीं ....
बातों की डोरियो में यू कुछ कही.... इक राज जो बंया करना है...
बाते है घनी सिमटने की कोई चादर नहीं हममें कहीं....
रह के करीब उनके ख़ुद को में इक जंहा की दौलत को अपने नसीब में पाता हूं...
अभी हाल जो बाकी है उनमें कहीं
सजदे उनमें में पाता हूं कहीं....
कुछ अनकहे लफ्ज़ उनसे फरमाने है उनसे कहीं....
मेरे हमसफ़र की दास्ता
अमृत अज्ञात (खुश अज्ञात)
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सूखे पतो की सरसराहट ऋतु की दस्तक दे जाती हैं जैसे सावन की दस्तक रिझाती है बीते लम्हों को यू जंवा कर जाती हैं कुछ नए अपनों की बहार ले आती है जंवा कर जाती है मुझे यूं ही.... अपनों की सोंगान्ध दिलो में भर आती हैं लम्हों को पिरो के माला में यूं ख़ुद में डूब जाता हूं मैं.... दो लम्हों की दस्तक हमसफ़र में बुन आती हैं भूल गई वो गिलेसिकवे अजनबी से बुन आते हैं गहरी चादर तन आती है बुनी जो चादर फिर इक दस्तक दे जाती है लफ्जो में बंधने की डोर छीन आती है फिर वो बहार की चादर ओढ़ जाती है दे के दस्तक वो नई अपनों सी घुल जाते है बड़ी मुश्किल भरी राह में इक सुकून सा दे जाते हैं खुशियों की चादर इक नई सांझ संवार जाती हैं... गिला नहीं है मुझे उनसे बस हमें अपने सा सुकून दे जाते हैं नई ये बहार अपनों की कड़ी संवार जाती हैं सावन की दस्तक सा सुकून दे जाते हैं...
मेरे हमसफ़र की दास्ता अमृत अज्ञात
ख्वाइश है उन बुलंदियों तक....
इक कस्ती ए मुस्कुराहटों ज़रा चहल पहल तो करो
मेरे होठों पर जाने क्यों ताले हैं पड़े
मिटा दो सारी रंजिशें और शिकवों की कड़ी
कुछ और रंग बिखेरो ना जिंदगी मेरी
मुझे हर ओर से आंसुओं ने घेरा है
तमाम खुशियां मुझसे रूठ बैठी हैं
ऐसा लगता है तन्हाइयों का यहाँ डेरा है !!
खामोंशियां कर देती हैं बयां तो अलग बात है कुछ दर्द ऐसे होते हैं जो लफ्जों में उतारे नहीं जाते
तू खुद उलझ जाएगी…ऐ जिंदगी मुझे गम देने की चाहत मे मुझमे हौसला बहुत है…मुस्कुरा कर निकल जाऊँगा.... हमारी ..... डोरो की कस्तियो में इक राज हमारा..... ...... लिख दू तो....लफ्ज हो तुम सोच लू तो....ख्याल हो तुम मांग लू तो....मन्नत हो तुम चाह लू तो....मुहब्बत हो तुम ढूढ़ लू तो....नगीना हो तूम पा लू तो....जन्नत हो तुम ! गुनगुना लू तो....गजल हो तुम देख लू तो....तस्वीर हो तुम सजा लू तो....फूल हो तुम स्वास लू तो....धडकन हो तुम जान लू तो....रहस्य हो तुम कह लू तो....दास्ता हो तुम झुझ लू तो....मंजिल हो तुम आखरी स्वास ले लू .....ख्वावाईस हो तुम चुन लू तो....उम्मीद हो तुम तारीफ़ कर लू तो....अप्सरा हो तुम फेला लू तो.....खुशबू हो तुम महसूस कर लू तो....ऐहसांस हो तुम बिखेर लू तो....ख़ुशी हो तुम सिम्मेट लू तो....सपना हो तुम भुला लू तो....छुअन हो तुम हल कर लू तो....पहेली हो तुम समझ लू तो....इक राज हो तुम
खिला लू तो....इक कलि हो तुम
कर लू तो....दुआ हो तुम
जो भी कहु में ,लव्ज वो कम हे तेरे आगे ये संसार भी झुकता हे तेरे आगे । में तो बस जरिया बना ,इस हमसफर की दास्ता हकीकत की जिन्दगी में , एक आस हो तुम आखरी लव्जो की सजावट हे ख़ुशी.... फूलो से महक उठी वो हे खुशी.. घर आंगन की हर महक हे ख़ुशी.... ! mi$$ only fo₹ ख़ुशी.......
- ये बहारे ,ये वादियाँ, ये फिजाये,ये महफिल
ये गुनगुनाती तितलीया , भिनभिनाते भँवरे ये चारो और की खुशबु सिर्फ तुम से हे....... °°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°° आत्मकथा :-मेरे हमसफर की दास्ता अमृतलाल Amrit Lal Agyat
हम कही वो कही
गुम नाम वो कही
हंसी के ठहाको में
हम कहा
वो कहा
वो कहे या में कंहू
कॆ में कहा,कॆ वो कहा
कुछ कहे हम
कुछ वो कहे
थोड़ी सी दस्..
सी दास्ता
क्या कसूर था
हमका
दुनिया फिर भी हमसे जले
उन गुम नामो में भी
कुछ वो कहे
कुछ में कहु थोड़ी सी
फितरत की दास्ता
वो कहे कॆ
में कंहु.
हमे भी याद हे
कॆ उन्हें भी याद हे
वो आये ही थे कॆ
में भी कुछ बंया
कर गया
कुछ उन्हें भी लगा
कुछ हमे भी
वो हंसी में बरस गये
हम सांसो से कह
कह गये
कुछ
तो था
हमसे उनसे
उनसे हमसे
बीते पलो
में फिर भी कुछ
वो कह गये कुछ हम कह गये
आये ही वो
थे हम तो व्यस्त थे
यादो में
उनकी
वो खिड़की से झांके बहाने से
कुछ वो आँखों से कह गये
कुछ हम कह गये नजरो से
कुछ था हममे
और उनमे
बस हम सुनते गये वो सुनाते गये
मगर फिर..
भी कुछ वो कहे
कुछ हम कहे
ये दास्ता
कुछ कहना था शायद हमसे
कुछ हमे कहना था शायद
मगर फिर भी
बहुत कुछ गये हम,कुछ वो भी
बाकी थे सारे सजदे
उन्हें हमसे ,हमे उनसे
कुछ तकरार भी हुआ था
कुछ बर्तन भी खनके थे
कुछ बादल भी बरसे थे
कुछ उन्हें अफ़साना मिला कुछ गिला भी हुआ
मगर
कुछ उन्हें भी लगा
(f₹g₹£,√$)
ये जानकर
गर ना होते ये सितम
तो
ना वो कहते ना हम कहते
कुछ वो कहे,कुछ में कहु
मगर ये दास्ता
इस जमाने से.
...कुछ वो कहे कुछ में कहु
ये पल वो पल
तुम कब सुनोगे
जो हम कंही मिले
हम कब कहेगे
जब तुम कंही सुनोगे
ये पल वो पल
कुछ तुम कहो कुछ में कंहु...
उन्हें लगा हम फितरती हे
हमे लगा वो अनजान हे
हमे उनसे उन्हें हमसे
दास्ता हमारी एक थी
कुछ पल
वो कहे
कुछ पल में कंहु
कुछ कहना था हमे उनसे.
कुछ कहना था उन्हें हमसे
मगर
कहकर भी बहुत कुछ कहना था
न कहकर भी बहुत कुछ कह गये
कुछ वो कह गये,कुछ हम कह गये
फिर कब हम मिलेगे
फिर कब कहेगे
फिर वो कब कहेगे
फिर हम सुनेगे
कुछ वो कहे कुछ में कहु
फिर वही दास्ता
फिर इक दिन वो अपने बच्चो के साथ
फिर हम अपने बच्चो के साथ
फिर उनसे कुछ वो कहे कुछ में कंहु
कुछ वो पल कुछ ये पल
आखिर ये होना था
हमे उनसे उन्हें हमसे
कुछ हम कहे कुछ वो कहे
इस पल की दास्ता......
उस पल की दास्ता
इक इक राज वो कहे
इक इक राज हम कहे
कुछ वो बन्दगी के पल कहे
कुछ हम अपनी डायरी के पन्नो को सुनाये
कुछ वो अपने दिल की बाते
कहे
कभी वो कहे कभी हम कहे
वो पल ये पल
हम साथ हे
इस जन्म
उस जन्म
मेरे हमसफर की दास्ता (आत्मकथा) अमृतलाल अज्ञात
हो सकता है कि किसी से कुछ ना कह प इस जिंदगी ..... हां मगर किसी हैं जो कभी भी भूल नहीं सकते ...... इस जिंदगी ..... लोगों से उनसे शिकायत हो .... मगर मेरी हर खामोसी उन से है ..... यूं ही मिल जाते हैं रास्ते में कहीं फंला .... मगर अपना उनमें से एक हैं उनसे से मुझे इबादत है .... है उन पर नाज़ इतना ..... मेरा आंसारा उन्ही से ..... एक पल याद कर लू में उन्हें सारे खुशियां मेरी उने से है .... मेरी हर गलती पर भी नाज़ है उन्हें मैरी हर ख्वाहीश पे नाज़ है जन्मों की लकीरें उभर आई आई है जहां से ... मेरा दामन भी उन्ही से है ..... घुल जाती है सब खताए मिट्टी में .. जब उनका हाथ मेरे पीठ पर होता है .... कहे ये कहीं ये जंहा ... मेरी सारी खुशियां उन्ही से है .....
आत्मकथा ✍🏻 मेरे हमसफ़र की दास्ता अमृत अज्ञात