सदस्य वार्ता:Devraj singh kumbawat

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-- नया सदस्य सन्देश (वार्ता) 08:07, 28 जनवरी 2020 (UTC)[उत्तर दें]

Shri Garwaji Maharaj/ संत श्री गरवाजी महाराज[संपादित करें]

संत श्री गरवाजी महाराज:-


           भाटियों के गढ़ जैसाण की स्थापना लौद्रवा महारावल" दुसाजजी" के बेटे रावल "जैसल" ने विक्रमी संवत् 1212 में श्रावण शुक्ल द्वादशी को मूल नक्षत्र में की थी ।
             महारावल जैसल की पीढी़ में भीडकमल महारावल सपूत हुए और इनके वंशज भीडकमल भाटी खाँप से जाने जाते है।
         भीडकमलजी के वंश में बोरावटजी,श्रीपालजी,जोजाजी , डिंडाजी ,बजाजी , कँवरपालजी एवं गाडणजी हुए।
         इन गाडणजी के 5 पुत्र हुए:-

अहीदेजी, खिखोजी बहूगोजी,तेजसीजी एवं सबसे छोटे गरवाजी ।

               संत गरवाजी का जन्म जैसलमेर में विक्रम संवत् 1285 को इसी भाटी रियासत में गाडणजी भाटी के घर में हुआ और गरवाजी का विवाह विक्रम संवत् 1310 वैशाख शुक्ल तृतीया को 25 वर्ष की उम्र में हुआ और इन्होनें एक पुत्र को जन्म दिया ।
          पितृ कर्ज से मुक्त होकर इन्होनें संन्यास लिया , इनके गुरू के नाम शरणदासजी था जिनकी गुफा जैसलमेर के उत्तरी क्षैत्र में थी। 
       ये सदुपदेश देते थे और इनके दर्शन के लिए दूर-दूर से लोग , साधु -महात्मा और महारावल मूलराज सिंह भाटी समेत बहुत से राजपूत लोग आया करते थे।
        जब गरवाजी ने अपने गुरू शरणदासजी से पूर्ण योग की शिक्षा प्राप्त कर ली तो शरणदासजी ने गरवाजी को जैसलमेर राजमहल से भीक्षा लेने भेजा ।
       गरवाजी महल गए, सभी स्वबंधुओं से मौह त्यागकर, भीक्षा ग्रहण कर पुन: शरणदासजी के पास पहुँच गए।
          गरवाजी के पूर्ण योगी होने पर शरणदासजी ने गरवाजी से समाधि तैयार करवायी और अपनी झोली,चिमटा और सुमिरना गरवाजी को दिया और आदेश दिया कि अब मुझे समाधि दे दो और आप जैसलमेर जाकर समाज कल्याण के लिए उपदेश दो।
     सरणदासजी के समाधि लेने के बाद, गरवाजी ने साधु-महात्माओं को बुलाकर सत्संग करवायी, सभी को न्यौता देकर भोजन करवाया और उसके बाद जैसलमेर शहर पधारे।
          जैसलमेर पधारने पर सभी नगरवासियों ने गरवाजी का सत्कार किया और उनको रहने के लिए कुटिया बनाकर दी और उनकी सब आवश्यकताओं का ध्यान रखा ।
       गरवाजी रोज रात देर तक सत्संग करते, दूर दूर से क्षत्रिय-क्षत्राणियाँ और नगरवासी सत्संग सुनने आते और हजारों लोग गरवाजी के परमभक्त बन गए।।
         समाज कल्याण करते हुए , समाज को कुरितियों और नशा मुक्ति की शिक्षा देते।


               समाज को सुधारने की प्रक्रिया में राजपूत समाज में विक्रम संवत् 1316 को विधवा विवाह को मान्यता देने वाले क्षत्रियों का अलग समुदाय बनाया जिसे "कुंबावत राजपूत" नाम से जाना गया और इस प्रकार राजपूतों में पुनर्विवाह को मान्यता देने वाले क्षत्रियों का एक अलग समुदाय बना ।
           राजमहल छोडकर वन में रहने वाले महान योगी (तपस्वी) योगीराज श्री गरवाजी , जैसलमेर के पास वन में एक कुटि में रहते थे।
         आज भी लौद्रवा में गरवाजी की समाधि पर एक मंदिर बना हुआ है , एक बडा हॉल है, उसके पास गरवाजी की कुटि की नींव मौजूद है व गरवाजी का धूणा भी विद्यमान है , लौद्रवा के निवासी बताते हैं कि धूणे में आज भी कोयले है।
     प्रतिवर्ष गरवाजी के समाधि स्थल पर मेला लगता है और हजारों श्रृद्धालु गरवाजी की समाधि के दर्शन करने आते है।
           एक साल भयंकर अकाल पडा तब गरवापंथ के राजपूत लोग मालवा की तरफ प्रस्थान करने लगे , तब रास्ते में संत गरवाजी के दर्शन करने पहुँचे, तो गरवाजी ने अपने शिष्यों को वहीं रोक लिया, रोज सत्संग करते और इस प्रकार अकाल का समय बीत गया , बसंत का समय आया तब संत गरवाजी ने सत्संग की , सभी को भोजन करवाया और गरवापंथ के शिष्यों को समाधि खोदने का आदेश दिया ।
          जब समाधि खोदकर तैयार कर दी गई तब गरवाजी ने  गरवापंथ के राजपूतों में 9 नियम बनाकर विक्रम संवत् 1332 को आषाढ कृष्ण नवमीं को ने लौद्रवा में समाधि ली ।
        गरवाजी के समाधि लेने के पश्चात् बोरावट भाटियों ने गरवाजी के समाधि स्थल की देखरेख की ।


    संत गरवाजी द्वारा गरवापंथ के राजपूतों में चलाए गए 9 नियम:-

(1) यज्ञोपवित धारण करना / गले में विष्षु धर्म की जनेऊ रखना। (2) केवल गरवापंथ में शामिल राजपूती गौत्रों में ही शाक संबंध करना। (3) नाता प्रथा स्वीकार करना । (4) कन्या की शादी का पैसा ना लेना। (5) अलग अलग रंग की पगडी़ ना बाँधकर केवल एक ही रंग की पगडी़ बाँधना जो कि शांति एवं वीरता की प्रतीक है। (6) रास्ते चलते भोजन नहीं करना। (7) बैल को सुदा नहीं कराना। (8) रजस्वला स्त्री के हाथ का खाना नहीं खाना एवं (9) घर आए ब्राम्हण एवं राव को यथाशक्ति दान देना मतलब खाली हाथ न जाने देना।


            संत गरवाजी द्वारा क्षत्रिय समाज में किए गए इस महान कार्य के लिए एक कहावत प्रचलित है जो इस प्रकार है:- 
    " गरवा गढ़ जैसाण रा, कन्या उबारऩ काज।

कुल क्षत्रिय कारणे , संत हुया सरताज।।"

      इस संपूर्ण इतिहास की पुष्टि रावों द्वारा हस्तलिखित पोथियों एवं पिंघल ग्रंथों के आधार पर होती है । Devraj singh kumbawat (वार्ता) 13:40, 28 जनवरी 2020 (UTC)[उत्तर दें]

KUMAWAT RAJPUT कुमावत राजपूत[संपादित करें]

कुमावत राजपूत    /KUMAWAT RAJPUT:-

        कुमावत राजपूत ,गरवापंथ के राजपूतों का एक समुदाय है जो मुख्यत: राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, दिल्ली, महाराष्ट्र , पंजाब , गुजरात एवं हरियाणा में पाया जाता है ।


भाटियों के गढ जैसलमेर की स्थापना"लौद्रवा महारावल " दुसाजजी के बेटे रावल" जैसल "ने विक्रम संवत् 1212 में श्रावण शुक्ल द्वादशी को मूल नक्षत्र में  की थी ।


       महारावल जैसल की पीढी में भीडकमल महारावल सपूत हुए और इनके वंशज भीडकमल भाटी खाँप से जाने जाते है ।.


     भीडकमलजी के वंश में  बोरावटजी, श्रीपालजी , जोजाजी,डिंडाजी ,बजाजी ,कँवरपाल जी एवं गाडणजी हुए , इन गाडणजी के 5 पुत्र हुए -


  अहीदेजी , खिखोजी , बहूगोजी , तेजसीजी एवं सबसे छोटे गरवाजी ।


    गरवाजी का जन्म विक्रम संवत् 1285 में  हुआ था , जैसलमेर के उत्तरी क्षैत्र में तपस्वी शरणदासजी की गुपा थी ।


     गरवाजी  भक्ति भाव , दयालु , सत्संगी एवं वैरागी प्रवृति के थे अत: गरवाजी ने युवावस्था में ही संन्यास ग्रहण कर लिया था और इन्होनें गुरू शरणदासजी से शिक्षा ली और सत्संग प्रवृति से जुड गए , सत्संग और उपदेशों से लोग प्रभावित होने लगे और गरवाजी के उपदेश सुनने के लिए जैसाण नरेश महारावल "मूलराज सिंह जी भाटी "समेत दूर दूर से भक्त आने लगे और अनेक राजपूत गरवाजी के परमभक्त बन गए ।


      इन्ही दिनों जैसलमेर पर दिल्ली के सुलतान अलाउद्दीन खिलजी ने कई हमले किए थे , सुलतान अलाउद्दीन खिलजी द्वारा अत्याचार की इस आँधी में जैसलमेर के हालात जर्जर हो चुके थे ।


     जैसलमेर के असंख्य राजपूत , अपनी आन बान शान के लिए युद्धों में बलिदान देते  , हजारों राजपूत वीरांगनाओं ने अग्नि स्नान कर जौहर कर कर लिए थे और असंख्य राजपूत कन्याएँ बाल विधवा हो गई थी ।


               एक दिन लौद्रवा में संत गरवाजी का सत्संग चल रहा था , हजारों लोग बैठे थे , एक तरफ क्षत्रिय और दूसरी तरफ क्षत्राणियाँ बैठी थी औऱ इनके साथ छोटी-छोटी बाल विधवाएँ बैठी थी , संत गरवाजी, राजपूत समाज की इन बाल विधवाओं को देखकर मन ही मन बहुत विचलित हुए और उनकी आँखें इन राजकुमारियों की यह दशा देखकर वेदना एवं विडंबना से भर आई और सत्संग में बैठे सभी लोग आश्चर्यचकित हो गये कि महात्मा दु:खी क्यों है ?


        थोडी देर सभा में सन्नाटा छा गया और आखिरकार संत गरवाजी अपने आसन से खडे होकर सभा में आवाज लगाई कि जो राजपूत मेरे वचनों से सहमत है और मेरे वचन निभाने में सक्षम हो वो मेरे सामने हाजिर हो !

  संत गरवाजी महाराज की यह आवाज सुनकर सभी राजपूत , एक -दूसरे का मुँह देखने लगे कि ये महात्मा क्या कह रहे है?चारों ओर चुप्पी छा गई और अंत में संत गरवाजी ने गर्जना की कि है कोई क्षत्रिय जो मेरे वचन पालने में सक्षम है ? या फिर धरती वीरों से खाली हो गई है !


             संत गरवाजी का आवाह्न सुनकर 6 राजपूत जातियों के 12 राजपूत उसी क्षण खडे हुए और संत गरवाजी के सामने जाकर बोले कि महाराज ! आपके वचन के लिए हमारे सिर हाजिर है , आखिरकार हम क्षत्रिय है और आप क्षत्रियों से संस्कारों से परिचित है कि " प्राण जाए , पर वचन ना जाए"।


      संत गरवाजी का वचन था कि जो कन्याएँ, युद्धवीरों की प्रेरणताएँ, बाल विधवाएँ हो गई और जिनके पति युद्धों में वीरगति को प्राप्त हो गए और जिन्होनें कभी ससुराल नहीं देखा और पति का संग नहीं किया , सिर्फ हथलैवा के पाप से उन कन्याओं का जन्म नऱक हो रहा है , मैं चाहता हूँ कि इन नाबालिग कन्याओं का घर बसे और राजपूतों में पुनर्विवाह चालू किया जाए !!


      राजपूतों में पुनर्विवाह की बात को सुनकर बहुत से राजपूत, सभा से चले गए लेकिन वो 6 राजपूत जातियों के 12 राजपूत अपने वचनों पर अडिग रहे । ये 6 राजपूत जातियाँ भाटी , राठौड़, चौहान , गौहिल , पंवार और परिहार थी ।

      संत गरवाजी द्वारा राजपूतों में चलाई गई विधवा विवाह प्रथा की यह मुहिम पूरे क्षैत्र में फैल गई और बहुत से राजपूत गरवाजी की इस मुहिम का हिस्सा बन गए और ऱाजपूतों में 2 विचारधाराएँ हो गई

- एक तो वो राजपूत जो विधवा विवाह के विरूद्ध थे और दूसरे वो जो गरवाजी के वचन में आकर विधवा विवाह से सहमत हो गये ।

    उपर्युक्त 6 राजपूत जातियों (भाटी , राठौड, चौहान , परिहार , पँवार और गौहिल के अलावा धीरे -धीरे इनमें और भी  बहुत सी राजपूत जातियाँ एवं शाखाएँ यथा सिसोदिया , तँवर , कच्छावा , गहरवार , चँदैल , गौड़ , सौलंकी इत्यादि  सम्मिलित हो गई और यह एक पंथ बन गया ।


       संत गरवाजी द्वारा चलाए गए इस पंथ का अब नामकरण भी तो करना था । संत गरवाजी ने एक भाटी राजपूत कन्या "बावत" कँवरी को तालाब से पानी लेकर आते हुए देखा और उन्हें इस पंथ का नाम सूझ गया , उन्होनें कन्या के सिर पर रखा पानी का घडा़ जिसे कि संस्कृत में "कुंभ" कहते है और कन्या का नाम "बावत" था , इन दोनों को जोडकर कुंभ+ बावत= "कुंबावत क्षत्रिय "या कुंबावत राजपूत नाम दिया जो जो आगे चलकर बोलती भाषा में बदलकर " कुमावत क्षत्रिय" हो गया ।


       संत गरवाजी द्वारा चलाए गए इन क्षत्रियों का यह समुदाय , जब राजस्थान में भयंकर अकाल पडे तो राजस्थान को छोडकर मध्यप्रदेश , पंजाब , गुजरात , हरियाणा , उत्तरप्रदेश और दिल्ली चले गए।


                         गरवापंथ में शामिल शुरूआती 12 राजपूतों के नाम से जैसलमेर में " तलाईयाँ" खुदवाई गई जो कि " बालाणी तलाईयों" के नाम से विख्यात है।


          इन 12 राजपूतों के नाम से 12 खाँपें बन गई जैसे-

       बोरावट भाटी , लिम्मा भाटी , पौड भाटी, मंगलराव भाटी, भुटिया भाटी , दुगट पँवार , रसियड़ पँवार , टाक चौहान, मेरथा परिहार, कालौड राठौड़, कीता राठौड़ और सुड्डा गौहिल इत्यादि।


     गरवापंथ के इन राज कुमारों में अनेक शूरवीर , सिरकटी झूँझार हुए एवं सतियाँ महासतियाँ हुई।


  भाटी राजपूतों में कुँवर सिंह जी ,  घडसीजी, बिरसाजी, देदाजी ,दामाजी ,कालोजी , चानणजी , पालाजी इत्यादि सिर कटी झूँझार हुए ।


      राठौड़ राजपूतों में,कालौड जी राठौड़, जालपजी राठौड़ सिर कटी झूँझार हुए ।


              इनके अलावा मेरथा जी परिहार, दूदाजी  ,पंबाजी पौड, शेरूजी तँवर , लिखमाजी चौहान , रणजित सिंह जी गौहिल एवं अनेक शूरवीर हुए ।


                           जैसलमेर के महान शूरवीर घडसीजी भाटी का खानदान इन्हीं राजपूतों में है और जैसलमेर की सूरजपोल में इनकी प्रतिमा है ।महान यौद्धा घडसीजी झूँझार के लिए एक कहावत प्रचलित है जो इस प्रकार है


" सुख भोगियो सूरजपोल में, बल भायां री जोड।

किरोड़ रंग कवियां तना, रंग के पावा पौड।

शीश कटिया , धड लडिया , अलाउद्दीन फौजा पाछी जाय।।

जंडाजी घर जनमिया , वे मंगलराव भाटियाँ कुल मांय।

   इसी प्रकार पुनखेडे गाँव के ठाकुर भैरोसिंह भाटी के बेटे कुँवर सिंह जी भाटी , सिरोही की मुसलमानी सेना से बहादुरी से लडे और फिर सिर कटने के बाद भी सैंकडों मुसलमानों को मौत के घाट उतार कर झूँझार हुए , इन वीर झूँझार की साथ इनकी कुँवरानियाँ एवं माता जी सती हुई , यह घटना विक्रम संवत् 1438 की माघ शुक्ल नवमी की है , भाटी कुँवर सिंह के स्मारक पर माघ शुक्ल नवमी को मेला लगता है और अनेक श्रृद्धालु दर्शन के लिए आते है ।

 गरवापंथ के राजपूतों में दारू- -माँसाहार का प्रचलन नहीं था और ये शुद्ध , सात्विक प्रवृति के थे ।


                    सम्राट पृथ्वीराज चौहान की हार के बाद राजपूतों में बिखराव आ गया और ये राजपूत देश के कोने-कोने में विस्थापित हो गए ।

इन राजकुमार राजपूतो/ राजकुमार क्षत्रियों के 26 गाँव उत्तरप्रदेश के बदायू,प्रतापगढ, गौरखपुर , आगरा , दिल्ली , मथुरा , भरतपुर के आसपास निवास करते है ।


       श्री गरवापंथी राजपूतों के इस समुदाय को देश में अलग अलग नामों से पहचाना जाता है जैसे - राजस्थान में कुमावत क्षत्रिय , मप्र में मारू कुमावत क्षत्रिय , दिल्ली में राजकुमार क्षत्रिय तथा पंजाब , हरियाणा, गुजरात में मारू राजपूत नाम से जाना जाता है । कहीं कहीं इन राजपूतों को कुमार राजपूतों के नाम से भी जाना जाता है ।


 संत गरवाजी द्वारा राजपूत समाज के कल्याण किए गए श्रैष्ठ कार्य के  लिए एक  कहावत प्रचलित है जो इस प्रकार है-


" गरवा गढ़ जैसाण रा, कन्या उबारऩ काज।

कुल क्षत्रिय दु:ख कारणे, संत हुया सरताज।


    पंजाब में इन गरवापंथ के मारू राजपूतों के फाज्जलिका जिले की अबोहर तहसील के आसपास ठिकाने रहे है और ये पैरो में सोने के कडे पहना करते थे , हाथों में स्वर्ण लाठी इनकी मुख्य पहचान रही है और इन्हें " सोना नरेश " उपाधि से अलंकृत किया जाता था । Devraj singh kumbawat (वार्ता) 09:25, 29 जनवरी 2020 (UTC)[उत्तर दें]

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मारू राजपूत इतिहास[संपादित करें]

श्री गरवा पंथ एवं मारू राजपूत समाज

जैसलमेर के भाटी रियासत में गाडन जी भाटी हुए थे इन के 5 पुत्र थे अहिदे जी तेजसी जी खिखो जी बहूगो जी और गरवा जी यह भीड़कमल भाटी थे गरवा जी ने युवावस्था में ही संन्यास ले लिया था आपका धुना जैसलमेर के नजदीक गांव लोद्रवा में था इस दौरान जैसलमेर पर अलाउद्दीन खिलजी ने कई हमले किए थे सुल्तान अलाउद्दीन द्वारा भयानक अत्याचारों के कारण जैसलमेर के हालत जर्जर हो चुके थे हजारों राजपूत वीरांगनाओं ने अग्नि स्नान कर जौहर कर लिया था हजारो राजपूत वीर लड़ते लड़ते वीर गति को प्राप्त हो गए थे! असंख्य राजपूत कन्याए बाल विधवा हो गई थी इस संकट की घड़ी संत गरवा जी ने अपने धुने पर हो रहे सत्संग में राजपूत क्षत्रियों को वचन में बांधकर बाल विधवा विवाह का उपदेश दे दिया संत गरवा जी द्वारा राजपूतों में चलाई गई विधवा विवाह प्रथा की यह मुहिम पुरे क्षेत्र में फैल गई और बहुत से राजपूत गरवाजी की इस मुहिम का हिस्सा बन गए और राजपूतों में दो विचारधाराएं बन गई एक तो वह जो राजपूत विधवा विवाह प्रथा के खिलाफ थे और दूसरे जो गरवा जी के वचन में आकर विधवा विवाह प्रथा से सहमत हो गए इसमेसर्वप्रथम 6 राजपूत जातियों के 12 लोग सम्मिलित हुए थे यह 6 राजपूत जातियां भाटी राठौड़ चौहान गोहिल पवार परिहार थी इनके बाद धीरे-धीरे इन में और भी बहुत से राजपूतों की शाखाएं सम्मिलित हो गई और यह एक पंथ बन गया संत गरवाजी द्वारा चलाऐ गई इस पंथ का नामकरण भी संत गरवा जी ने एक भाटी राजपूत कन्या बावत कवर जो तालाब से पानी लेकर आ रही थी उसके नाम पर रखा लड़की के सर पर पानी का घड़ा था जिसे संस्कृत में कुंभ और लड़की का नाम बावत को जोड़कर कुंभ+ बावत (कुंबावत क्षत्रिय )(राजपूत ) रखा गया गरवा जी द्वारा चलाया गया क्षत्रियों का यह समुदाय जब राजस्थान में भयंकर अकाल पड़े तो राजस्थान को छोड़कर मध्यप्रदेश पंजाब गुजरात और उत्तर प्रदेश की तरफ चले गए इन्होंने अबोहर पंजाब से लेकर हरियाणा के सिरसा हिसार तक सैकड़ों गांव बसआए हैं इस समुदाय में अनेक भोमिया शूरवीर सिर कट्टी झुंझार एवं सती महासती हुई है यहां पर कुछ झुंजारओं के नाम दिए जा रहे हैं जैसे कुंवर सिंह भाटी बिसरा जी भाटी ,कालोड जी राठौड,मेरथा जी परिहार, गढ़सीजी भाटी देदा जी भाटी पालाजी भाटी, लिखमा जी झुंजार, करण जी झुंझार, दामाजी झुंझार, रणजीत सिंह जी झुंझार, इस प्रकार अनेक हुए ह संत गरवा जी द्वारा चलाया गया यह समुदाय देश में आज अलग-अलग नामों से जाना जाता है जैसे पंजाब हरियाणा में मारू राजपूत, दिल्ली में राजकुमार क्षत्रिय, राजस्थान के भरतपुर में राजकुमार ,उत्तर प्रदेश के आगरा मथुरा बदायूं बिसौली में ठाकुर राजपूत, मध्यप्रदेश में मारू क्षत्रिय ,तो गुजरात में मारू राजपूत, महाराष्ट्र के अकोला जिले में रजपूत, जैसलमेर के महान भाटी संत गरवा जी द्वारा स्थापित यह समुदाय शुद्ध शाकाहारी है ! इनके घरों में शराब और मांसाहार का प्रचलन पूरी तरह से निषेध है !इस समुदाय में वर्तमान में राजपूतों की शाखाएं कुछ इस प्रकार है जैसे भाटी राठौड़ चौहान परिहार पवार सिसोदिया गोहिल तवर दया गौड़ कच्छावा सोलंकी गहरवार आदि है! जैसलमेर के इस घटनाक्रम के दौरान जैसलमेर के राजा राव मूलराज भाटी थे तो दिल्ली में सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी था ऊपर दिए गए इतिहास की पुष्टि क्षत्रियों की वंशावली लिखने वाले रावो द्वारा हस्तलिखित पिंगल भाषा के प्राचीन ग्रंथों के आधार पर है!


श्री गरवा पंथी मारू राजपूतों की शाखाएं कुछ इस प्रकार है

》भाटी राजपूतों से शाखाएं

मंगलराव भाटी बोरावड भाटी सोखल भाटी माहर भाटी झटवाल भाटी डाल भाटी

खूड़िया भाटी 

लिंबा भाटी

पोड भाटी 

भाटीवाल भाटी नोखवाल भाटी भीड़ानिया भाटी

》राठौड़ राजपूतों से शाखाएं

जालप राठौड़ चांडा राठौड़ कालोड़ राठौड़ किता राठौड़ सूतौड़ राठौड़ दांतलेचा राठौड़ रावड राठोड


》चौहान राजपूतों से शाखाएं

घोड़ेला चौहान सरसवा चौहान कारगवाल निर्वाण चौहान टाक चौहान

खटोड़ चौहान

नंदवाना ( नंदीवाल )चौहान मलेठिया मोहिल चौहान सिंघाठिया चौहान दादरवाल चौहान गुरिया चौहान किरोडीवाल चौहान सेवटा चौहान

》सिसोदिया राजपूत से शाखाएं

कुचोरिया सिसोदिया ओस्तवाल सिसोदिया देवरथ सिसोदिया

》पवार /परमार राजपूतों से शाखाएं

पेशवा पवार छापोला पवार लखेसर पवार दुघट पवार


》कछवाहा राजपूतों से शाखाएं

ढूंढाडा कच्छावा मारवाल कच्छावा


》परिहार/ प्रतिहार राजपूतों से शाखाएं

चांदोरा परिहार गंगपारिया परिहार गोहल परिहार मेरथा परिहार

श्री गरवा पंथी मारु राजपूतों मे निम्नलिखित राजपूतों की शाखाएं वर्तमान में पंजाब हरियाणा उत्तर प्रदेश गुजरात मध्य प्रदेश राजस्थान में

भाटी

राठौड़ 

चौहान

परिहार
पवार 

देया सिसोदिया गोहिल तोमर चंदेल कच्छावा बड़गुर्जर सेंगर सोलंकी Devraj singh kumbawat (वार्ता) 09:32, 17 मार्च 2020 (UTC)[उत्तर दें]