श्रीधर भास्कर वर्णेकर
श्रीधर भास्कर वार्णेकर | |
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जन्म | नागपुर, महाराष्ट्र, भारत |
पेशा | साहित्यकार |
भाषा | संस्कृत |
राष्ट्रीयता | भारतीय |
काल | आधुनिक काल |
विषय | संस्कृत |
उल्लेखनीय कामs | श्रीशिवराज्योदयम् |
डॉ श्रीधर भास्कर वार्णेकर (३१ जुलाई १९१८ - १० अप्रैल २०००) संस्कृत के विद्वान तथा राष्ट्रवादी कवि थे।
जीवनी
[संपादित करें]उनका जन्म आषाढ़ कृष्ण नवमी संवत् 1976 तदनुसार 31 जुलाई 1918 को महाराष्ट्र के नागपुर में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री भास्कर राव वर्णेकर तथा माता का नाम अन्नपूर्णा बाई वर्णेकर था। आप महाराष्ट्र के सतारा जिले के वर्णे नामक गाँव के मूल निवासी थे, जहाँ से बीसवीं शताब्दी में नागपुर में आकर रहने लगे।
डॉ. श्रीधर भास्कर वर्णेकर बचपन से ही अत्यधिक प्रतिभासंपन्न थे। इसी प्रतिभा के परिणामस्वरूप उन्होंने 13 वर्ष की अल्पायु में रघुवंश महाकाव्य के अनेक शब्द कंठस्थ कर लिए थे। वर्णेकर जी जब इतवारी मोहल्ले में रहते थे, तब उनके पड़ोस में काशी के वेदांताचार्य श्री हनुमन्त शास्त्री केवले रहने के लिए आए। हनुमान शास्त्री बधिर होने के कारण कहीं बाहर न जा कर घर पर ही रहते थे। वह व्याकरणाचार्य थे। सन् 1931 के आसपास सभी जगह महात्मा गांधी के आंदोलन की धूम मची थी। स्कूल कॉलेज बंद थे। ऐसे समय में वर्णेकर जी अपने पिताजी के कहने पर बड़े भाई श्री प्रभाकर जी के साथ शास्त्री जी के यहां संस्कृत सीखने जाने लगे। श्री हनुमन्त शास्त्री केवले से पारम्परिक पद्धति से अमरकोश तथा लघु सिद्धांत कौमुदी का अध्ययन किया। इस प्रकार प्राचीन शिक्षण पद्धति से ही संस्कृत शिक्षण का आरंभ हुआ। शास्त्री जी ने कुछ भी लिखने पर प्रतिबंध लगा रखा था। केवल सुनकर ही सब कुछ याद रखना होता था। इतना अध्ययन होने के पश्चात् वर्णेकर जी ने बंगाल संस्कृत एशोसियेशन संस्था द्वारा संचालित व्याकरण प्रथम की परीक्षा उत्तीर्ण किया। आपके गुरु व्याकरण तथा वेदान्त के अध्यापन में ही लगे रहते थे। काव्य शिक्षण के प्रति वे उदासीन रहते थे। अतः संस्कृत काव्य के अध्ययन के लिए उन्होंने मुझे नागपुर संस्कृत कॉलेज में अध्ययन के लिए भेजा। वहां श्री सावलापुरकर एवं श्री वराड पांडे शिक्षक थे। नागपुर संस्कृत कॉलेज में रघुवंशमहाकाव्यम् तथा कुमार संभवम् से प्रथम बार परिचय हुआ। बचपन से ही सुभाषित पद्यों को याद करने की इनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति था अतः रघुवंशमहाकाव्यम् तथा कुमार संभवम् की मधुरता से मोहित होकर स्वेच्छा से वह इसके कतिपय सर्ग कंठस्थ कर लिया। कालिदास के श्लोक गायन के अवसर पर उस प्रकार की पद्य रचना करने की प्रेरणा का उदय होने लगा। उन दिनों वर्णेकर ने मराठी भाषा में लिखित समर्थ गुरु रामदास के चरित ग्रन्थ (दासबोध) का अध्ययन किया। प्रतिदिन स्नान के बाद समर्थ रामदास द्वारा लिखित दासबोध का पाठ अप्रतिम श्रद्धा से साथ करते थे। इस प्रकार राम दास के प्रति श्रद्धा से वशीभूत होकर अनायास ही रामदास की स्तुति परक मालिनी वृत्त में संस्कृत श्लोक लिखकर अपने कवि जीवन का श्रीगणेश किया। इस प्रकार सप्तम कक्षा में के छात्र डॉ. वर्णेकर की कविता का आरम्भ श्री समर्थ रामदास की स्तुति से हुआ।
डॉ. वर्णेकर जी सन् 1927 ईस्वी में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ प्रथम परिचय हुआ। संघ के व्याख्यान में शिवाजी के चरित के विषय मे अनेक ऐतिहासिक कथाओं का श्रवण कर शिवाजी के प्रति असीम श्रद्धा हो गयी। संघ के कार्य में अण्णा सोहनी नामक तरुण कार्यकर्ता नागपुर में थे। उनसे डॉ. वर्णेकर का परिचय हुआ। वे ऐतिहासिक कथा सुनाने में प्रवीण थे। उन्होंने शिवाजी के चरित से जुड़े अनेक प्रकार के वीर और अद्भुत कथा सुनाया करते थे। नागपुर में ही दादा शास्त्री कायरकर नामक कीर्तन कला में निपुण व प्रख्यात थे। वे अपने कीर्तन में महाराष्ट्र के इतिहासिक कथाओं को अत्यन्त रोचकता के साथ वर्णन करते थे। उनसे भी इन्होंने शिवाजी के बारे में बार-बार सुना। 1930 ईस्वी में शिवाजी के 300 वें जन्मोत्सव के अवसर पर आनन्द पत्रिका में शिवाजी पर सचित्र विशेषांक प्रकाशित हुए। उसे इन्होंने अनेक बार पढ़ा। इस प्रकार शिवाजी से सम्बद्ध अनेक प्रेरक प्रसंगों ने इन्हें प्रभावित किया।
1936 से 1938 तक धनाभाव के कारण उच्च अध्ययन के लिए नागपुर के एक अंध विद्यालय में शिक्षक की नौकरी स्वीकार कर ली। विद्यालय के रूग्न में विद्यार्थियों के लिए पैदल चलकर ही औषधि लेने जाते थे। उन दिनों रामकृष्ण आश्रम में एक डॉ. होम्योपैथी का धर्मार्थ चिकित्सालय चलाते थे। वहां पंक्ति में नंबर आने तक दो-तीन घंटे तक प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। पंक्ति में बैठे बैठे-बैठे रामकृष्ण परमहंस की समस्त पुस्तकों का अध्ययन कर लिया। इस कारण उनकी परिचर्या आदि में सेवा आदि में अधिक समय लग जाने के कारण संस्कृत का अध्ययन लगभग स्थगित हो गया। 1938 में नागपुर विश्वविद्यालय से मैट्रिक की परीक्षा किसी प्रकार उत्तीर्ण किया।
1938 ईस्वी में इंटर की परीक्षा देनी थी। डॉ. वर्णेकर उस समय धंतोली के डांगे के घर पर कुछ विद्यार्थियों के साथ रहते थे। इंटर की परीक्षा के प्रपत्र का शुल्क ३५ रुपये था, परंतु अंतिम समय तक ३० रुपये की व्यवस्था हो पाई शेष ५ रुपये चचेरे भाई ने दिए। वर्णेकर जी ने कृतज्ञता पूर्वक यह कहते हैं कि यदि वे 5 रुपए नहीं मिले होते तो जीवन के 2 वर्ष व्यर्थ ही चले जाते। इसी वर्ष इन्होंने मदोर्मिमाला तथा शिवराजस्तवन पुस्तक लिखी। आगे की शिक्षा में गो. नी. दांडेकर की माता जी एवं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के भी भिशीकर जी आदि ने पर्याप्त सहायता की ।
डॉ. वर्णेकर जी 14 वर्ष की अल्पायु मैं निर्दोष काव्य रचना करने लगे थे, किंतु ध्यान आकर्षित करने योग्य उनकी प्रथम काव्य रचना मंगलाष्टक थी जिस की प्रशंसा महामहोपाध्याय मिरासी जैसे महान संस्कृतज्ञ ने भी की है। श्री राम बहादुर बाड़ेगांवकर ने इस मंगलाष्टक में 21 व्याकरण की त्रुटियों के होने का दावा किया, उनमें एक स्थान पर स्तुन्वन्ति के स्थान पर स्तुवन्ति का सुझाव दिया। डॉ. वर्णेकर जी ने तुरंत एवं यं ब्रह्मावरुनेन्द्ररूद्र यह पंक्ति सुना कर यह किस प्रकार शुद्ध है यह दिखा दिया तथा अन्य कई शब्दों की संगति इसी प्रकार सूत्रों से सिद्ध की। श्री इस पर वाडेकरगांवकर जी अत्यंत प्रसन्न हुए और वर्णेकर जी की शिक्षा का दायित्व स्वयं स्वीकार किया। उसके पश्चात बनर्जी वाडेगांवकर जी के यहां प्रत्येक अपराह्न सिद्धांत कौमुदी सीखने जाने लगे। इसी समय कर्नल कुकडे वर्णेकर जी को समाचार पत्र व पुस्तकें पढ़ कर सुनाने के लिए दस रूपये मासिक देते थे। इसी से 1 वर्णेकर जी का 1941 ईस्वी में संस्कृत विषय में एम.ए. तक का शिक्षण संभव हो सका। इसी समय अवधि में वर्णेकर जी को कमल ताई की संस्कृत विषय की ट्यूशन भी प्राप्त हो गई। बाद में कमल ताई की शादी वर्णेकर के साथ हुई। इसके बाद वर्णेकर नागपुर के ही धनवटे नेशनल कॉलेज में प्राध्यापक हो गए। 1965 ईस्वी में उन्होंने नागपुर विश्वविद्यालय से अर्वाचीन संस्कृत साहित्य का इतिहास पर डी. लिट की उपाधि प्राप्त की। इन्होंने नागपुर विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग में नियुक्त होकर विभागाध्यक्ष बने। संगीत में आपकी अभिरुचि बहुत पूर्व से थी, परंतु वह संगीत को विधिवत् सीख नहीं पाए थे। स्वयं शिक्षक होने के कारण विद्यार्थियों के मध्य सीखना संभव नहीं था। वह बाहर से संगीत ध्वनि सुनकर समाधान मान लिया करते थे। जब चतुर संगीत विद्यालय स्थापित हुआ है तब उसमें नित्य जाया करते थे। लगभग 1 माह तक विद्यालय में गए परंतु संगीत विद्यालय अधिक दूरी पर स्थित होने के कारण व शिक्षण छूट गया ।
1976 के आसपास कन्याकुमारी में विवेकानन्द केन्द्र की स्थापना हुई। तब वर्णेकर जी को एक माह तक संस्कृत में व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया गया। एक दिन वहां मद्रास के गुरुग दास नामक गायक वहां आए वर्णेकर जी ने उनका भजन सुना। उस संगीत की मोहिनी इनके अंतःकरण पर इतनी थी कि वह रात्रि सो नहीं सके। अगले दिन प्रातः काल समुद्र के किनारे घूमने जाने पर उन्हें नागपुर के भैयाजी बझलवार मिले। वे स्कूल के बच्चों को धुमाने लाए थे। वहीं वर्णेकर ने उन्हें प्रणाम कर कहा भैया जी आप मेरे गुरु और मैं आपका शिष्य हुआ । नागपुर में आप मुझे संगीत सिखाएंगे। नागपुर वापस आने पर उन्होंने संगीत की ट्यूशन की। उस समय वर्णेकर जी नाट्य गीत, कीर्तन आदि गाते थे। फिर भी संगीत के सात सुरों का भेद समझ नहीं आया था। 58 वर्ष की आयु में सीखना प्रारंभ किया। विलंब से ही परंतु हारमोनियम और तानपुरा लेकर संगीत सीखने लगे। इस प्रकार उन्होंने जीवन का एक और दृढ़ निश्चय पूरा किया।
आपने 1950 में संस्कृत भाषा प्रचारिणी सभा से साप्ताहिक 'संस्कृतम् भवितव्यम्' संस्कृत पत्रिका का आरम्भ किया था। इसके आप प्रथम सम्पादक थे। यह पत्रिका आज भी निरंतर प्रकाशित हो रही है। इसी प्रकार राष्ट्र शक्ति मराठी साप्ताहिक तथा योग प्रकाश मराठी मासिक के सम्पादक रहे।
नागपुर विश्वविद्यालय के संस्कृत विभागाध्यक्ष पद से डॉ. वर्णेकर जी ने 1979 ईस्वी में अवकाश ग्रहण कर लिया। आपने अन्य संस्थाओं के विभिन्न पदों को तथा पुरस्कारों को भी गौरवान्वित किया। चैत्र शुक्ल सप्तमी विक्रम संवत् 2057 सोमवार दिनांक 10 अप्रैल 2000 ईस्वी को नागपुर में वर्णेकर जी का निधन हो गया ।
श्रीधर भास्कर वर्णेकर के पांच भाई तथा एक बहन वत्सला हुए। वर्णेकर जी के 3 पुत्र तथा दो पुत्रियां हैं। पुत्र चंद्रगुप्त वर्णेकर का जन्म 1947 ईस्वी में हुआ । श्री चंद्रगुप्त वर्णेकर इलेक्ट्रॉनिकक्स से एम. ई. करने के पश्चात् पीएचडी की उपाधि ग्रहण की। अमेरिका में 2 वर्ष तक प्रोफेसर रहने के पश्चात् वर्तमान में वे गोदिया के इंजीनियरिंग कॉलेज में प्रोफेसर हैं । ये संस्कृत में विशेष अभिरुचि के कारण संस्कृत का उत्तम अध्ययन, वैदिक गणित का अध्यापन तथा सांस्कृतिक कार्यों में अग्रसर रहते हैं।
कृतित्व
[संपादित करें]उन्होंने बहुत से काव्य और श्लोकों की रचना की। 'श्रीशिवराज्योदयम्' उनकी सर्वाधिक प्रसिद्ध रचना है। इस पर १९७४ में उन्हे साहित्य अकादमी पुरस्कार (संस्कृत) प्रदान किया गया था।[1] यह ६८ सर्गो में वर्णित एक महाकाव्य है। यह पुस्तक संघ लोक सेवा आयोग के सिविल सेवा परीक्षा के लिये निर्धारित संस्कृत साहित्य के पाठ्यक्रम में भी सम्मिलित की गयी है। उनकी दूसरी प्रसिद्ध रचना है - 'संस्कृत वाङ्मय कोश'। यह दो भागों में प्रकाशित हुई है। उनकी प्रमुख कृतिया निम्नलिखित हैं-
- शिवराज्योदयम् - 68 सर्गों में लिखित तथा 1972 में प्रकाशित इस महाकाव्य में 4 सहस्र श्लोक हैं।
- मदोर्मिमाला - स्फुटकाव्य चतुःशती
- मन्दस्मितम् – मदोर्मिमाला उत्तरार्ध शतक काव्य
- स्वातंत्र्यवीरशतकम् (विनायकवैजयन्ती)
- जवाहरतरङ्गिणी (भारतरत्नशतकम्)
- वात्सल्यरसायनम् (श्रीकृष्णबाललीलाशतकम्) - यह 8 अंकी गीति नाट्य है। कृष्ण की बाल लीलाओं का दार्शनिक विवेचन किया गया है।
- श्रीरामकृष्णपरमहंसीयम् (युगदेवताशतकम्)
- मातृभूलहरी
- सत्यशतकम्
- रागकाव्य
- तीर्थभारतम् - गीति काव्य
- भारतरत्नशतकम्'
- विनायकवैजयन्ती – खण्डकाव्य
- कथावल्लरी – गद्य
- श्रीरामसंगीतिका - यह गीति नाट्य है। राम के चरित्र को गीतों की 12 विधियों के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है।
- श्रीकृष्णसङ्गीतिका – गीतिकाव्य [2][3]
- श्रमगीता - गाँधी जी से प्रेरित होकर 118 पद्यों में श्रम की महत्ता को वर्णित किया।
- संघगीता - इसमें संघ की महत्ता का वर्णन किया है।
- ग्रामगीतामृतम् - इसमें ४१ अध्याय है, जिसमें ग्राम कुटुम्ब, भू वैकुण्ठ, आदर्श जनतंत्र शासन और शोषणरहित समाज का वर्णन किया गया है।
- कालिदासरहस्यम् – खण्डकाव्य
- अध्यात्मशिवायनम्
- प्रार्थनास्तोत्रम्
- श्रीगजाननप्रार्थनास्तोत्रम्
- विवेकान्दविजयम् (महानाटकम्)
- शिवराज्याभिषेकम् (नाटक)
सम्पादन
[संपादित करें]- संस्कृत वाङ्मय कोश , दो भागों में
अन्य रचनायें
[संपादित करें]- महाभारतकथा- इसमें तीन भागों में महाभारत की कथा वर्णित है।
- प्रश्नावली विमर्श - संस्कृत आयोग के प्रश्नावली के उत्तर के लिए निबन्ध लिखे गये।
- अर्वाचीन संस्कृत साहित्य - मराठी में लिखित प्रबन्ध साहित्य।
- भारतीय विद्या - हिन्दी में लिखित प्रबन्ध साहित्य।
धारित पद एवं विशिष्ट कार्य
[संपादित करें]1. अध्यक्ष, भोसला वेदशास्त्र महाविद्यालय, नागपुर
2. अध्यक्ष योगाभ्यासी मंडल, नागपुर
3. संस्कृत विश्व परिषद अखिल भारतीय प्रचार मंत्री (1952 से 1956 तक)। इस निमित्त अखिल भारत में संस्कृत व्याख्यान के लिए प्रवास। (इसकी स्थापना कन्हैयालाल मुंशी ने की थी।)
4. भारत शासन की वैज्ञानिक एवं तकनीकी परिभाषा समिति के सदस्य
5. कार्यवाह, संस्कृत भाषा प्रचारिणी सभा, नागपुर
6. अध्यक्ष, महाराष्ट्र संस्कृत परिषद्
7. उपाध्यक्ष, संस्कृत विद्यापीठ समिति, महाराष्ट्र शासन द्वारा नियुक्त
8. सचिव, अखिल भारतीय विद्या परिषद का नागपुर अधिवेशन
9. सचिव, अखिल भारतीय शिक्षा परिषद का नागपुर अधिवेशन
10. संयोजक, अखिल भारतीय संस्कृत कथा स्पर्धा, यूनेस्को द्वारा प्रवर्तित (1953)
11. संस्कृत विद्यालय पाठशाला पुनर्गठन समिति सदस्य (1953)
12. प्रमुख मंत्री, संस्कृत विश्व परिषद्, नागपुर अधिवेशन (1954)
13. महाराष्ट्र शासन की स्थाई संस्कृत समिति सदस्य (1973 से 1983 तक )
14. नागपुर, कोल्हापुर, रायपुर, ग्वालियर, इंदौर, हैदराबाद आदि विश्वविद्यालयों के संस्कृत अभ्यास मंडल, विद्वत् सभा, पाठ्यपुस्तक समिति आदि की सदस्यता
15. अध्यक्ष, संस्कृत अभ्यास मंडल रायपुर विश्वविद्यालय
16. अध्यक्ष, विवेकानंद केंद्र, कन्याकुमारी, नागपुर विभाग
17. अध्यक्ष, विश्व हिंदू परिषद्, विदर्भ विभाग
18. अध्यक्ष, हस्तलिखित ग्रंथालय, नागपुर विश्वविद्यालय
19. अध्यक्ष, अखिल भारतीय संस्कृत परिषद्, पांडिचेरी
20. अध्यक्ष, रजत जयंती अधिवेशन, स्वाध्याय मंडल, गुजरात (1957)
21. अध्यक्ष, उत्कल संस्कृत परिषद् (1958)
22. अध्यक्ष, केरलीय संस्कृत परिषद् (1967)
23. अध्यक्ष, अखिल भारतीय संस्कृत परिषद् नाशिक अधिवेशन (1988)
24. अध्यक्ष, संत साहित्य प्रतिष्ठान, नागपुर
25. अध्यक्ष, महाराष्ट्र योग सम्मेलन अकोला अधिवेशन (1989)
26. साहित्य अकादमी जनरल काउंसिल तथा संस्कृत समिति की सदस्यता (1973 से 10 वर्षों तक)
27. संस्थापक संपादक, राष्ट्र शक्ति मराठी साप्ताहिक पत्रिका नागपुर (1956 से 60 तक)
28. संपादक, साहित्य विभाग, दैनिक तरुण भारत मराठी, नागपुर (1956 - 60 तक)
29. संपादक, योग प्रकाश मराठी मासिक पत्रिका (योगविषयक)
30. आकाशवाणी द्वारा आयोजित अखिल भारतीय कवि सम्मेलन 1961 से 1982 तक में संस्कृत काव्य गायन
31. 1983 में न्यूयार्क में विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित संस्कृत परिषद में भारत का प्रतिनिधित्व
32. विश्व हिंदू परिषद अमेरिका द्वारा आयोजित ऑरलैंडो फ्लोरिडा के अधिवेशन में प्रमुख वक्ता (1983)
33. संपादक, सत्यानन्दम् संस्कृत पत्रिका, जादवपुर
34. संस्थापक, सदस्य विश्व संस्कृत प्रतिष्ठानम्
पुरस्कार एवं सम्मान
[संपादित करें]- साहित्य अकादमी पुरस्कार - (१९७४ में ) शिवराज्योदयम् महाकाव्य हेतु प्रदान किया गया।
- कालिदास पुरस्कार - (1983 में) श्रीराम संगीतिका पुस्तक पर मध्य प्रदेश संस्कृत अकादमी द्वारा दिया गया ।
- कुवलयानंद योग पुरस्कार, पुणे (1985 )
- राष्ट्रपति पुरस्कार 1989
- महाराष्ट्र गौरव पुरस्कार 1990
- क्षमादेवी राव पुरस्कार 1990
- डॉक्टर हेडगेवार प्रज्ञा पुरस्कार 1990
- वाङ्मय चूड़ामणि पुरस्कार वाराणसी 1991
- श्रीमंत पेशावे पुरस्कार पुणे 1992
- जीजामाता पुरस्कार 1992
- विवेकानंद पुरस्कार 1992
- ज्ञानपीठ द्वारा विशिष्ट संस्कृत विषयक पुरस्कार 1993
- उत्तर प्रदेश संस्कृत अकादमी पुरस्कार 1994
- काशी स्वाध्याय मंडल तथा अखिल भारतीय तीर्थ पुरोहित संघ द्वारा प्रदत सुरभारती कण्ठाभरण उपाधि 1977
- हडसन अमेरिका वासी भारतीय समाज द्वारा भारत पुत्र उपाधि से सम्मानित 1983
- सत्यानंद ज्ञानपीठ, जादवपुर कोलकाता द्वारा प्रदत्त तथा शंकराचार्य काम कांची कामकोटि पीठाधीश्वर द्वारा समर्पित प्रज्ञाभारती उपाधि।
सन्दर्भ
[संपादित करें]- ↑ "अकादेमी पुरस्कार". साहित्य अकादमी. मूल से 15 सितंबर 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 4 सितंबर 2016.
- ↑ "अद्वितीयः संस्कृतकविः डा.श्रीधरभास्करवर्णेकरः". सम्भाषणसन्देशः (संस्कृत में). PTI. 2-1996. आइ॰एस॰एस॰एन॰ 2249-6440.
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में तिथि प्राचल का मान जाँचें (मदद)सीएस1 रखरखाव: अन्य (link) - ↑ सम्भाषणसन्देशः फेब्रुवरी १९९६
बाहरी कड़ियाँ
[संपादित करें]- संस्कृत वाङ्मय कोश, प्रथम खण्ड संपादक - डॉ. श्रीधर भास्कर वर्णेकर
- संस्कृत वाङ्मय कोश, द्वितीय खण्ड संपादक - डॉ. श्रीधर भास्कर वर्णेकर
- संस्कृत वाङ्मय कोश, प्रथम खण्ड (यूनिकोड देवनागरी में)
- श्री-शिवराज्योदयम् (श्रीधर भास्कर वार्णेकर)
- डॉ श्रीधर वार्णेकर का नेटवर्क
- संस्कृत में देशभक्ति (देशबन्धु)
- आधुनिककालस्य महाकाव्यानि (१७००ई.तः अद्यपर्यन्तम्) (संस्कृत में)
- He spoke Gods’ language, lived God’s spirit (The Hitavad)