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भारत में लिव-इन सम्बन्ध

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भारत में लिव-इन सम्बन्ध क़ानूनी दृष्टि से वैध हैं। हालाँकि आधुनिक काल में इनका प्रचलन काफ़ी बढ़ा है, पर फिर भी सामाजिक रूप से उन्हें व्यापक मान्यता प्राप्त नहीं हुई है। भारत में लिव-इन सम्बन्ध ग्रामीण क्षेत्रों में शायद ही कभी देखे गए हैं, जबकि ऐसे सम्बंध शहरी इलाक़ों और विशेष रूप से मेट्रो शहरों में आम हैं। एक ही शहर में यह सम्बंध कुछ क्षेत्रों में ज़्यादा देखे जाते हैं जहाँ उद्योग, व्यापार और लोगों की जीवन शैली में प्रगति और विलासिता देखी गई है। जबकि उसी शहर के पारम्परिक या "पुराने शहर" कहने वाले इलाक़ों में ये कम ही देखे गए हैं। मुम्बई जैसे कुछ शहर में तो म्यारेज ब्यूरो की तरह विशेष रूप से लिव-इन सम्बन्धों के बनाने में सहायता करने वाले लोग और संस्थाएँ मौजूद हैं।

न्यायालय के निर्णय

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घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम, २००५ ऐसे "सम्बंध को मान्यता देता है जो विवाह के भाव में हैं" और स्त्रियों को घरेलू हिंसा से संरक्षण प्रदान करता है। ऐसी जीवन साथी धन और अन्य राहत के उपायों का दावा कर सकती है।[1]

एस खुश्बू और कनिअम्मल व अन्य मुक़दमे में[2] भारत के उच्चतम न्यायालय ने उसी के पूर्व निर्णय के आधार पर जो लता सिंह और उत्तरप्रदेश व अन्य में सुनाया गया था,[3] यह घोषित किया किया कि लिव-इन सम्बन्ध केवल विपरीत लिंग के अवैवाहित व्यक्तियों के बीच ही सम्भव हैं। १३ अगस्त २०१० को उच्चतम न्यायालय ने मदन मोहन सिंह व अन्य और रजनि कान्त व अन्य मुक़दमे में[4] एक बार फिर से लिव-इन सम्बन्धों की वैधता पर और इस सम्बंध से होने वाले बच्चों पर बहस छेड़ी। न्यायालय ने जहाँ भूमि विवाद की एक याचिका को खारिज कर दिया, यह निर्णय सुनाया कि ऐसे लोगों के बीच जो एक लम्बे समय से लिव-इन सम्बंध में हैं, एक वैवाहित परिकल्पना से जुड़े हैं और इसे 'चले-आओ चले-जाओ' सम्बंध का नाम नहीं दिया जा सकता है। भारत माता व अन्य और आर विजया रेंगानाथन व अन्य[5] मुक़दमे में जो लिव-इन सम्बंध से होने वाले बच्चों के जायज़ होने से सम्बंधित था, उच्चतम न्यायालय ने निर्णय लिया कि लिव-इन सम्बंध से होने वाले बच्चे अपने माता पिता की किसी भी जायदाद का उत्तराधिकार प्राप्त हो सकता है परन्तु इन लोगों को हिन्दू पूरवजों की सहदायिकी जायदाद (Hindu ancestral coparcenary property) पर कोई अधिकार प्राप्त नहीं है।

दिल्ली उच्च न्यायालय ने १० अगस्त २०१० को दिए गए आलोक कुमार और राज्य व अन्य मुक़दमे में अपने निर्णय में[6] यह सुनाया कि "'लिव-इन सम्बन्ध' एक चले-आओ चले-जाओ सम्बंध है। इस सम्बंध से कोई बंदिश तय नहीं होती और न ही यह सम्बंध दोनों पक्षों में को क़ानूनी रिश्ता बनाता है। यह साथ रहने का एक समझौता है जिसे प्रति दिन नवीकृत किया जाता है। इसे किसी भी पक्ष द्वारा दूसरे पक्ष की सहमति के बिना समाप्त किया जा सकता है और एक पक्ष किसी भी समय बाहर निकल सकता है।" (पैरा ६)

उच्चतम न्यायालय ने डी वेलुस्वामि और वी डी पट्चैअम्मल मुक़दमे में[7] यह निर्णय सुनाया था कि २००५ के अधिनियम के अनुसार ‘विवाह के भाव में सम्बंध’ माने जाने के लिए निम्न लिखित शर्तों का पूरा होना आवश्यक है:

(a) जोड़े को समाज के आगे पति-पत्नि जैसे सम्बंधधारियों के रूप में प्रस्तुत करना चाहिए।
(b) दोनों विवाह की क़ानूनी आयु के होना चाहिए।
(c) अन्य शर्तों के आधार पर यह लोग क़ानूनी शादी की आयु में होना चाहिए, जिसमें उनका अवैवाहित होना शामिल है।
(d) यह लोग स्वेच्छापूर्वक साथ रहना चाहिए और संसार के आगे पति-पत्नि जैसे सम्बंधधारियों के रूप में एक अच्छी-खासी अवधि के लिए प्रस्तुत करना चाहिए, और दोनों ‘एक ही साझे घर’ में रहना चाहिए जैसे कि अधिनियम के अनुच्छेद 2(s) में परिभाषित है। केवल सप्ताहांत इकट्ठे रहने या एक रात गुज़ारने से इसे ‘घरेलू सम्बंध’ नहीं माना जा सकता है। निर्णय में यह भी स्पष्ट किया गया कि यदि किसी पुरुष के पास कोई ‘रखेल’ हो जिसका आर्थिक भार वह उठा रहा हो और उसे मुख्यत: यौन सम्बंध और/ या नौकरानी के तौर पर प्रयोग में लाया जा रहा है तो, हमारे विचार से, यह विवाह के भाव में सम्बंध नहीं माने जा सकते हैं’।

इन्हें भी देखें

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सन्दर्भ

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  1. Sections 2(a), 12 read with Sections 18, 19, 20, 21 and 22.
  2. JT 2010 (4) SC 478
  3. AIR 2006 SC 2522
  4. (Civil Appeal No. 6466 of 2004, decided on August 13, 2010) (Paras 19-22)
  5. (C.A. No. 7108 of 2003; Decided on 17-05-2010)
  6. "Alok Kr. v. State (Cr. M.C. No. 299/2009, decided on August 9, 2010)" (PDF). High Court of Delhi. मूल (PDF) से 21 जुलाई 2011 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 25 August 2010.
  7. CRIMINAL APPEAL NOS. 2028-2029 Of 2010

बाहरी कड़ियाँ

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