दीघनिकाय

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त्रिपिटक

    विनय पिटक    
   
                                       
सुत्त-
विभंग
खन्धक परि-
वार
               
   
    सुत्त पिटक    
   
                                                      
दीघ
निकाय
मज्झिम
निकाय
संयुत्त
निकाय
                     
   
   
                                                                     
अंगुत्तर
निकाय
खुद्दक
निकाय
                           
   
    अभिधम्म पिटक    
   
                                                           
ध॰सं॰ विभं॰ धा॰क॰
पुग्॰
क॰व॰ यमक पट्ठान
                       
   
         

दीघनिकाय (संस्कृत:दीर्घनिकाय) बौद्ध ग्रंथ त्रिपिटक के सुत्तपिटक का प्रथम निकाय है। दीघनिकाय में कुल ३४ सुत्त (सूत्र) है। यह लम्बे सूत्रों का संकलन है। इन सुत्रों के आकार दीर्घ (लम्बा) हैं इसी लिए इस निकाय को दीघनिकाय (पालि दीघ=दीर्घ) कहा गया है[1]

परिचय[संपादित करें]

दीघनिकाय तीन वग्गों (वर्गों) में विभक्त है-

  • (१). सीलक्धवग्ग,
  • (२). महावग्ग, और
  • (३). पाथिकवग्ग।

पहले वग्ग में 13 सुक्त हैं, दूसरे में 10 हैं और तीसरे में 11। इस प्रकार इस निकाय में कुल 34 सुत्त हैं। पहले वग्ग का मुख्य विषय शील है। इसलिए उसका नाम सीलक्खंधवग्ग रखा गया है। दूसरे वग्ग में महापरिनिब्बान, महासतिपठ्ठान जैसे बड़े बड़े सुत्त संग्रहीत हैं। इसलिए उसका नाम महावग्ग रखा गया है। तीसरे वग्ग का नामकरण उसके पहले सुत्त के अनुसार हुआ है।

भगवान् बुद्ध ने निर्वाणप्राप्ति के लिए मध्यम मार्ग का उपदेश दिया है। यह अष्टांगिक मार्ग है। इसमें शील, समाधि और प्रज्ञा का समावेश है इसलिए अनेक स्थलों पर उन्होंने आर्यमार्ग का उपदेश शील, समाधि और प्रज्ञा के रूप में ही दिया है। दीघनिकाय के अनेक सुत्तों से भी यह बात स्पष्ट हो जाती है।

ब्रह्मजाल सुत्त में उस समय प्रचलित 62 दृष्टियों अर्थात् दार्शनिक मतवादों का विस्तृत वर्णन है। अन्य कई एक सुत्तों में भी उनका वर्णन संक्षेप में आया है। बुद्ध के समकालीन छ: तीर्थंकरों के सिद्धांतों का उल्लेख सामंंञफल सुत्त में आया है। उन तीर्थंकरों में भगवान महावीर भी थे। इनके निर्वाण और शिष्यों में धर्म संबंधी मतभेद की चर्चा पासादिक और संगीतिपरियाय सुत्तों में आई है। उस समय भारत में प्रचलित अनेक धार्मिक संप्रदायों में कठिन तपस्या का अभ्यास साधना का एक प्रमुख अंग था। भगवान बुद्ध उस पद्धति के समर्थक नहीं थे। कस्सपसीहनाद और उदुबरिकसीहनाद आदि सुत्तों में उन तपस्याओं और तत्संबंधी भगवान के विचारों पर प्रकाश पड़ता है।

पशुबलि द्वारा यज्ञ करना उस समय प्रचलित कर्मकांड का एक विशेष अंग रहा है। कूटदंत सुत्त में उन्होंने अहिंसात्मक यज्ञानुष्ठान का उपदेश दिया है।

बुद्धकालीन भारतीय समाज चतुर्वर्णी व्यवस्था पर स्थित था। भगवान बुद्ध जन्मना उच्च नीच के भी बड़े विरोधी थे। आचरण को ही इसकी कसौटी मानते थे। जातिवाद का विवेचन त्रिपिटक के अनेक स्थलों पर आया है। दीघनिकाय के अंबट्ठ सोगदंड और अग्गम्म सुत्तों में भी इस विषय की चर्चा और तत्संबंधी बुद्ध के विचार आए हैं।

कुछ लोग ऋद्धि प्राप्ति को धार्मिक साधना का लक्ष्य मानते थे। साधना के निम्न स्तरों पर ऋद्धियाँ प्राप्त होती हैं। जो साधक उनमें आसक्त हो जाते हैं, उनका पतन अवश्यंभावी है। इसलिए भगवान ने अपने शिष्यों को ऋद्धिप्रदर्शन करना नियमत: मना किया। उन्होंने बताया कि साधना द्वारा शांति प्राप्त करना और दूसरों को उस मार्ग का दर्शन कराना ही सबसे बड़ा चमत्कार है। इस विषय की चर्चा महालि और केवट्ट सत्तों में आई है।

बौद्ध परंपराकथा के अनुसार गौतम बुद्ध के पूर्व छह बुद्ध और हुए थे। उनके नाम इस प्रकार हैं : विपस्सी, सिखी, वेस्सभू, ककुसंध, कोणागमन और कस्सप। महापदान सुत्त में इनकी जीवनियों का वर्णन है। यह वर्णन पौराणिक कथाओं के ढंग पर है और गौतम बुद्ध की जीवनघटनाओं पर आधारित है। प्रथम चार निकायों में इन छ: बुद्धों का ही उल्लेख आया है। लेकिन खुद्दक निकाय के अंतर्गत बुद्धबंस में 28 बुद्धों का उल्लेख है। लक्खण सुत्त में 32 महापुरुष लक्षणों का विवरण है। इस सुत्त में यह भी बताया गया है कि किन किन कुशल कर्मों के फलस्वरूप ये लक्षण प्राप्त होते हैं।

चक्रवर्ती राजा की कल्पना अति प्राचीन है। महासुदस्सन और चक्कवत्तिसीहनाद सुत्तों में चक्रवर्ती राजा का जीवनआदर्श उपस्थित किया गया है। महासुदस्सन सुत्त में वर्णित चक्रवर्ती राजा बोधिसत्व ही थे।

जनवसभ, महागोविंद, महासमय, सवकपंह और आटानाटिय सुत्तों में देवताओं का उल्लेख आया है। पहले सुत्त के अनुसार बिंबिसार राजा मृत्यु के बाद जनवसभ नामक देवता होकर उत्पन्न हुआ। दूसरे सुत्त के अनुसार इंद्र, ब्रह्मा आदि देवगण भगवान के पास प्रकट हो त्रिस्न का गुणगान करते हैं। तीसरे सुत्त में अनेक देवताओं के नामों और वासस्थानों की लंबी तालिका दी गई है। चौथे सुत्त के अनुसार इंद्र भगवान के पास आकर प्रश्न पूछता है और भगवान उनका उत्तर देते हैं। पाँचवाँ सुत्त एक "परित्राण" है, जिसके विधायक देवता हैं। यह सुत्त महायान युग में रचित धारणियों की याद दिलाता है।

संगीतिपरियाय सुत्त में क्रमश: एक से लेकर दस तक धर्मपर्यायों का वर्गीकरण किया गया है। आध्यात्मिक जीवन में इन धर्मपर्यायों का महत्व दसुत्तर सुत्त में बताया गया है। ये दोनों सुत्त अन्य निकायों और सुत्तों के अंतर्गत धर्म पर्याय संबंधी वर्गीकरणों के आधार स्वरूप हैं।

वैसे तो हर सुत्त का अपना महत्व है, लेकिन निम्नलिखित सुत्तों का विशेष महत्व है- ब्रह्मजाल, सामंत्रफल, महापरिनिब्वान, महानिदान और सिंगालोवाद। ब्रह्मजाल सुत्त में बासठ मतवादों का विवरण है। सामंञफल में शील, समाधि और प्रज्ञा से युक्त बौद्ध साधनापद्धति का विवरण है। सतिपट्ठान में चार स्मृतिप्रस्थानों का विवरण है, जिनका कि बौद्ध योग में महत्वपूर्ण स्थान है। चार स्मृतिप्रस्थान इस प्रकार हैं- कामानुपश्यना, वेदनानुपश्यना, चित्तानुपश्यना और धर्मानुपश्यना। धर्मानुपश्यना में नीवरग, स्कंध, आयतन बोध्यांग और चार आर्य सत्यों का विवरण आया है। महापरिनिव्बान सुत्त में भगवान की अंतिम चारिका का वर्णन आया है। इस चारिका में भगवान ने 37 बोधिपक्षीय धर्मों के अभ्यास पर जोर दिया है। इस सुत्त में मगध नरेश अजातशत्रु और वज्जियों के बीच की तनातनी का भी उल्लेख आया है। महपरिनिर्वाण के बाद भगवान के शरीर का दाहसंस्कार, अस्थियों का विभाजन और उनपर स्तूपों का निर्माण इत्यादि बातों की चर्चा भी इस सुत्त में आई है। महानिदान में प्रतीप्त्यसमुत्पाद का विवरण है, जो बौद्ध धर्म और दर्शन का महत्वपूर्ण सिद्धांत है। सिंगालोवाद सुत्त में गृहस्थधर्म निर्दिष्ट है।

निकाय विभाजन[संपादित करें]

इस ग्रंथ में ३ प्रमुख वर्ग है, जो इस प्रकार है[1][2]-

शीलस्कन्ध-वर्ग[संपादित करें]

यह वर्ग दीघनिकाय का प्रथम वर्ग है। यह वर्ग में १३ सुत्र है। यह प्रायः गद्य मे लिखित है और शी, समाधि और प्रज्ञा से संबन्धित है[1]। इस वर्ग मे समहित सुत्र इस प्रकार है[1]-

  • ब्रह्मजाल-सुत्त
  • सामंञफल-सुत्त
  • अम्बट्ठ-सुत्त
  • सोणदण्ड-सुत्त
  • कूटदन्त-सुत्त
  • महालि-सुत्त
  • जालिय-सुत्त
  • महासीहनाद-सुत्त
  • पोट्ठपाद-सुत्त
  • सुभ-सुत्त
  • केवट्ट-सुत्त
  • लोहिच्च-सुत्त
  • तेविज्ज-सुत्त

महा-वर्ग[संपादित करें]

महावर्ग में १० सुत्र है। यह सभी सुत्र "महा" शब्द से शुरु होते है। अतः, इन्हे महावर्ग कहा गया है[1]। इस वर्ग में गद्य और पद्य मिश्रित है[1]। इस वर्ग मे समहित सुत्र इस प्रकार है[1]-

  • महापदान-सुत्त
  • महानिदान-सुत्त
  • महापरिनिब्बान-सुत्त (त्रिपिटकका सबसे लम्बा सुत्र जो भगवान बुद्ध के परिनिर्वाण को वर्णन करता है)
  • महासुदस्सन-सुत्त
  • जनवसभ-सुत्त
  • महागोविन्द-सुत्त
  • महासमय-सुत्त
  • सक्कपंह-सुत्त
  • महासतिपट्ठान-सुत्त
  • पायासिराजंञ-सुत्त

पाथिक वर्ग[संपादित करें]

यह वर्गका प्रथम सुत्र पाथिक से शुरु होता है, अतः, इन्हे पाथिक वर्ग कहा जाता है[1]। यह वर्ग में गद्य और पद्य मिश्रित है। इस वर्ग मे समहित सुत्र इस प्रकार है[1]-

  • पाथिक-सुत्त
  • उदुम्बरिक-सुत्त
  • चक्कवत्ति-सुत्त
  • अग्गंञ-सुत्त
  • सम्पसादनीय-सुत्त
  • पासादिक-सुत्त
  • लक्खण-सुत्त
  • सिंगाल-सुत्त
  • आटानाटिय-सुत्त
  • संगीति-सुत्त
  • दसुत्तर-सुत्त

टीका[संपादित करें]

  1. पृष्ठ ९, पुस्तकः बुद्धवचन त्रिपिटकया न्हापांगु निकाय ग्रन्थ दीघनिकाय, वीरपूर्ण स्मृति ग्रन्थमाला भाग-३, अनुवादक: दुण्डबहादुर बज्राचार्य, भाषा: नेपालभाषा, मुद्रकः नेपाल प्रेस
  2. "प्राचीन भारत की श्रेष्ठ कहानियाँ, लेखकः जगदीश चन्द्र जैन, प्रकाशक:भारतीय ज्ञानपीठ, प्रकाशित : मई ०९, २००३". मूल से 23 अक्तूबर 2007 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 7 सितंबर 2008.

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]