ज्ञानरंजन
ज्ञानरंजन | |
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जन्म | 21 नवंबर, 1936 अकोला, महाराष्ट्र |
पेशा | हिन्दी साहित्य |
भाषा | हिन्दी |
राष्ट्रीयता | भारतीय |
काल | आधुनिक |
विधा | कहानी |
ज्ञानरंजन (जन्म : 21 नवंबर, 1936 ) हिन्दी साहित्य के एक प्रसिद्ध कहानीकार तथा हिन्दी की सुप्रसिद्ध पत्रिका पहल के संपादक हैं।
परिचय
[संपादित करें]ज्ञानरंजन का जन्म 21 नवंबर 1936 को महाराष्ट्र के अकोला में हुआ था।[1][2] बचपन और किशोरावस्था का अधिकांश समय अजमेर, दिल्ली एवं बनारस में बीता तथा उच्च शिक्षा इलाहाबाद में संपन्न हुई। लंबे समय से उनका स्थायी निवास मध्यप्रदेश के जबलपुर में है। आज भी उनका प्रिय शहर इलाहाबाद ही है। जबलपुर का स्थान उसके बाद ही आता है।[3]
लेखन-कार्य
[संपादित करें]ज्ञानरंजन साठोत्तरी पीढ़ी के सर्वश्रेष्ठ कहानीकारों में से एक के रूप में मान्य हैं। साठोत्तरी पीढ़ी के 'चार यार' के रूप में प्रसिद्ध मंडली के चारों सदस्य -- ज्ञानरंजन, दूधनाथ सिंह, काशीनाथ सिंह एवं रवीन्द्र कालिया में से सबसे पहले सर्वाधिक प्रसिद्धि ज्ञानरंजन को ही प्राप्त हुई; हालांकि ये चारों अपने ढंग के श्रेष्ठ कहानीकार रहे हैं। प्रकाशित संग्रह के रूप में ज्ञानरंजन के छह कहानी संग्रह प्रकाशित हुए हैं, लेकिन यह बहुचर्चित तथ्य है कि इनकी कहानियों की कुल संख्या 25 है, जो कि सपना नहीं नामक संकलन में एकत्र प्रकाशित हैं। कम लिखने के संबंध में अनेक लोगों ने अनेक तरह की बातें कही हैं। किसी ने अनुभव के चूक जाने की बात की, तो किसी ने अगली पारी से पहले का विराम माना, तो किसी ने पहल जैसी पत्रिका की संपादकीय विवशता; परंतु स्वयं ज्ञानरंजन की नजर में कहानी-लेखन बंद करने का प्रमुख कारण उनके अपने दृष्टिकोण से सर्वश्रेष्ठता की कसौटी ही रही है। जो भी लिखें या तो सर्वोत्तम हो या फिर हो ही नहीं।[4] यही कारण है कि पुस्तक रूप में प्रकाशित 25 कहानियों में से किसी एक कहानी को भी किसी मान्य समीक्षक ने कमजोर या उपेक्षा के योग्य के रूप में विवेचित नहीं किया। ज्ञानरंजन साठोत्तरी पीढ़ी के लेखक हैं और अकहानी में शामिल लेखकों के मित्र भी। इसके बावजूद 'अकहानी' को दुःखद परिणति तक पहुँचाने वाली न्यूनताओं से उनकी कहानियाँ प्रायः मुक्त रही हैं। उनकी एक सुप्रसिद्ध कहानी 'घंटा' की समीक्षा करते हुए हिंदी कहानी के शीर्षस्थ समीक्षक सुरेन्द्र चौधरी ने लिखा था कि कथानकहीनता के सादृश्य के बावजूद 'अकहानी' के संयोजन से 'घंटा' का संयोजन अनिवार्यतः भिन्न है।[5] घंटा में मानव-संबंधों की विडंबना प्रत्यक्ष है। मानव-संबंधों की विडंबना की यह कहानी पूरे समय की विडंबना से गुजर जाती है।[6] चौधरी जी के इस विवेचनात्मक कथन में अनायास ही कहानी-समीक्षा का एक प्राथमिक परंतु व्यापक प्रतिमान भी झलक उठा है। ज्ञानरंजन की अधिसंख्य कहानियों में स्पष्ट दिखने वाली वैयक्तिकता रचनात्मकता के ही रास्ते जिस सफलता से सामाजिक हो जाती है, वह उनकी निजी और खास विशेषता है। 'घंटा' के अतिरिक्त संबंध, पिता, बहिर्गमन, फेंस के इधर और उधर आदि कहानियों ने भी एक तरह से अपने नाम का प्रतिमान रच डाला है।
कहानियों के अतिरिक्त अन्य विधाओं में भी ज्ञानरंजन ने जमकर नहीं लिखा है। मन की तरंगों के अनुरूप एकाध फुटकल रचनाएँ ही जब तब होती रही है। संस्मरण, व्याख्यान, संपादकीय, रचनात्मक निबंध, साक्षात्कार, अखबारी टिप्पणियाँ तथा एक उपन्यास-अंश आदि के साथ एक पत्र का संकलन भी उनकी पुस्तक कबाड़खाना में संकलित है। इसके अतिरिक्त मुख्यतः व्याख्यानों/वक्तव्यों एवं साक्षात्कारों के साथ कुछ अन्य विधाओं की रचनाओं की एक पुस्तक उपस्थिति का अर्थ नाम से प्रकाशित हुई है।[7] तात्पर्य यह कि संख्यात्मक रूप में तो ज्ञानरंजन की कुल जमा-पूँजी तीन पुस्तकों में समा गयी है, लेकिन गुणात्मक रूप में वे लंबे समय से प्रायः सभी मान्य समीक्षकों के द्वारा हिंदी के सर्वश्रेष्ठ कहानीकारों में से एक के रूप में मान्य रहे हैं।[8]
कहानियों के अनुवाद एवं अन्य गतिविधि
[संपादित करें]ज्ञानरंजन की कहानियाँ भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अनेक विदेशी भाषाओं में भी अनूदित हो चुकी हैं। भारतीय विश्वविद्यालयों के अतिरिक्त ओसाका, लंदन, सैनफ्रांसिस्को, लेनिनग्राद, और हाइडेलबर्ग आदि के अनेक अध्ययन केंद्रों के पाठ्यक्रमों में भी इनकी कहानियाँ शामिल हैं। लंदन पेंग्विन्स की भारतीय साहित्य की एन्थ्रूलॉजी में भी इनकी कहानी सम्मिलित है। अमेरिका में विलेज वॉयस द्वारा फिल्म का निर्माण किया गया है तथा दूरदर्शन द्वारा भी इनकी कहानियों पर आधारित दो फिल्मों का निर्माण हुआ है।[1]
हिन्दी की बहुचर्चित पत्रिका पाखी का सितंबर 2012 में ज्ञानरंजन पर केंद्रित उम्दा अंक प्रकाशित हुआ।
संपादन
[संपादित करें]ज्ञानरंजन ने हिंदी की सर्वोत्कृष्ट पत्रिकाओं में से निर्विवाद रूप से एक पहल का लंबे समय तक कुशल संपादन किया है। 'पहल' के 90 अंक निकालने के बाद सितंबर-अक्टूबर 2008 में लगातार शारीरिक, मानसिक एवं आर्थिक संघर्षों से ऊब कर उन्होंने 'पहल' का संपादन बंद कर दिया था। साहित्य-जगत में तब एक बड़ा खालीपन सा महसूस किया गया था। 3 वर्ष से अधिक के अंतराल के बाद[9] पुनः जनवरी 2013 के अंक-91 के साथ 'पहल' की दूसरी पारी भिन्न आकार एवं कुछ भिन्न रूप में पुनः आरंभ हो गयी और अप्रैल 2021 (अंक-125) तक अविराम रूप से जारी रही। अंक-125 के संपादकीय में इस अंक को इस यात्रा का आख़िरी अंक होने की घोषणा कर दी गयी।[10]
सम्मान
[संपादित करें]- सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार
- उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का 'साहित्य भूषण सम्मान'
- अनिल कुमार और सुभद्रा कुमारी चौहान पुरस्कार
- मध्यप्रदेश शासन, संस्कृति विभाग का 'शिखर सम्मान'
- सुदीर्घ कथा साधना, सृजनशीलता और बहुआयामी कार्यनिष्ठा के लिए वर्ष 2001-2002 के राष्ट्रीय 'मैथिलीशरण गुप्त सम्मान' से सम्मानित।
सन्दर्भ
[संपादित करें]- ↑ अ आ कबाड़खाना, ज्ञानरंजन, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, परिवर्धित संस्करण-2002, अंतिम आवरण फ्लैप पर लेखक परिचय में उल्लिखित।
- ↑ प्रतिनिधि कहानियाँ, ज्ञानरंजन, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, नवम संस्करण-2015, पृष्ठ-i.
- ↑ पाखी (पत्रिका) (सितम्बर 2012), सं॰-प्रेम भारद्वाज, पृष्ठ-17.
- ↑ पाखी (सितम्बर 2012), सं॰-प्रेम भारद्वाज, पृ॰-16.
- ↑ हिन्दी कहानी : प्रक्रिया और पाठ, सुरेन्द्र चौधरी, राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली, संस्करण-1995, पृ॰-164.
- ↑ हिन्दी कहानी : प्रक्रिया और पाठ, पूर्ववत्, पृ॰-161.
- ↑ उपस्थिति का अर्थ, ज्ञानरंजन, सेतु प्रकाशन, प्रथम संस्करण-2020, पृष्ठ-7-8.
- ↑ डाॅ॰ विश्वनाथ त्रिपाठी, 'पाखी' (सितम्बर 2012), सं॰-प्रेम भारद्वाज, पृ॰-24.
- ↑ पहल-91 (जनवरी 2013), संपादक- ज्ञानरंजन, राजकुमार केसवानी, पृष्ठ-5.
- ↑ पहल-125 (अप्रैल 2021), संपादक- ज्ञानरंजन, राजकुमार केसवानी, पृष्ठ-9.