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ओदिसी

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ओडेसी का प्राचीन ज़ूनानी निदर्श चित्र

ओदिसी (प्राचीन यूनानी भाषा : Ὀδυσσεία Odusseia) , होमरकृत दो प्रख्यात यूनानी महाकाव्यों में से एक है। इलियड में होमर ने ट्रोजन युद्ध तथा उसके बाद की घटनाओं का वर्णन किया है जबकि ओदिसी में ट्राय के पतन के बाद ईथाका के राजा ओदिसियस की, जिसे यूलिसीज़ नाम से भी जाना जाता है, उस रोमांचक यात्रा का वर्णन है जिसमें वह अनेक कठिनाइयों का सामना करते हुए, 10 वर्ष बाद अपने घर पहुँचता है। ओडेसी ई.पू. आठवीं शताब्दी में लिखी गयी है। यह कहाँ लिखी गई इस संबंध में माना जाता है कि यह इस समय के यूनान अधिकृत में सागर तट आयोनिया में लिखी गई जो अब टर्की का भाग है।[1]

अपने शत्रुओं पर तीर चलाते हुए ओदिसियस

ओदेसी में ओडेस या उलीस नाम के एक पौराणिक नायक के ट्रॉय के युद्ध के बाद मातृभूमि वापस लौटते समय घटने वाले साहसपूर्ण कार्यों की गाथा कही गयी है। जिस प्रकार हिंदू रामायण में लंका विजय की कहानी पढ़कर आनंदित होते हैं। उसी प्रकार ओडिसी में यूनान वीर यूलीसिस की कथा का वर्णन आनंदमय है। ट्राय का राजकुमार स्पार्टा की रानी हेलेन का अपहरण कर ट्राय नगर ले गया। इस अपमान का बदला लेने के लिए यूनान के सभी राजाओं और वीरों ने मिलकर ट्राय पर आक्रमण किया। पर न नगर का फाटक टूटा और न प्राचीर ही लाँघी जा सकी। अंत में यूनानी सेना ने एक चाल चली। एक लकड़ी का खोखला घोड़ा पहिएयुक्‍त पटले पर जड़ा गया। उसे छोड़ वे अपने जहाजों से वापस लौट गए। ट्रॉय के लोगों ने सोचा कि यूनानी अपने देवता की मूर्ति छोड़कर निराश हो चले गए। वे उसे खींचकर नगर में लाए तो मुख्‍यद्वार के मेहराब को कुछ काटना पड़ा। रात्रि को जब ट्रॉय खुशियॉँ मना रहा था, खोखली अश्‍व मूर्ति से यूनानी सैनिकों ने निकलकर चुपचाप ट्रॉय का फाटक खोल दिया। ग्रीक सेना, जो वापस नहीं गई थी बल्कि पास में जाकर छिप गई थी, ट्रॉय में घुस गई।[2] एक हेलेन के पीछे ट्रॉय नष्‍ट हो गया ठीक वैसे ही जैसे सीता के पीछे रावण की स्‍वर्णमयी लंका नष्‍ट हुई थी। इसी से अंग्रेजी में ‘द ट्रॉजन हॉर्स’ का मुहावरा बना। ‘ओडेसी’ मनीषी ग्रीक कप्‍तान ओडेसस की साहसिक वापसी यात्रा की गाथा है। ट्राय से लौटते समय उनका जहाज तूफान में फस गया। वह बहुत दिनों तक इधर उधर भटकता रहा। इसके बाद अपने देश लौटा।

मंगलाचरण - हे देवी, तू उस कुशल मानव ओडेसियस की कथा गाने की शक्ति दे जिसने ट्राय के दुर्ग को धराशायी कर दिया और जो सारे संसार में भटकता रहा, जिसने विविध जातियों और नगरों को देखा तथा उत्ताल समुद्र की लहरों पर प्राणों की रक्षा के लिए घोर कष्ट सहन किया।

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ओडेसी का प्रथम अनुच्छेद ग्रीक मे

यह कथा चौबीस सर्गो में बताई गयी है, जिनमे सर्ग एक में ट्राय युद्ध के बाद दस वर्षों तक योद्धा ओडेसियस वरुण के क्रोध के कारण कष्ट भोगता एवं भटकता रहा। इस कष्टमय काल के अन्तिम भाग में कथा प्रारम्भ होती है। सर्ग चार में टेल्मेकस की मिनीलास एवं हेलेन से भेंट होती है। सर्ग नौ में, औडेसियन द्वारा सिकोनीजों के युद्ध की कहानी का वर्णन है।

ओडेसियस ने कहा जब ट्राय युद्ध समाप्त हुआ तब गृहागमन के रास्ते में हमने सिकोनीजों पर आक्रमण किया, पराजित हुए। नौ दिन नौ रात लगातार उत्तरी हवा के धक्के से हमारे रण-पोत रास्ते से बहुत दूर भटक गये। अन्त में हम लोटसों के देश में पहुँचे - यह लोटस एक मधुर वनस्पति है जिसके खाने से हमारे नाविक घोर प्रमाद में निमग्न हो गये। जबरदस्ती उन्हें घसीटकर पोत पर लाया गया। फिर आगे चलकर हम एक नयनवाले राक्षसों के देश में पहुँचे और अपनी मूर्खता से एक राक्षस की गुफा में कैद हो गये। फिर चतुरता से उसे शराब पिलाकर उसकी आँख बड़े कुन्दे से फोड़ दी एवं सवेरे राक्षस ने जब गुफाद्वार अपनी भेड़ों को बाहर निकलने के लिए खोला तब एक-एक भेड़ के साथ अपने को बाँधकर हम निकल गये। यह राक्षस समुद्र एवं भूकम्प के अधिपति वरुण (पोजीदून) का पुत्र था। इसी से वरुण हम पर क्रुद्ध हो गये।

सर्ग तेरह में आतिथेय राजा द्वारा ओडेसियन की यात्रा के प्रबन्धन का वर्णन है। सर्ग इक्कीस में एथनी द्वारा पिनीलोपी को स्वयंवर का सुझाव की कथा है। सर्ग 24 दुष्ट कुमारी की आत्माएँ अध यमलोक में वा उनके सम्बन्धियों द्वारा युद्ध की योजना और युद्ध प्रारम्भ होने वा अन्त में शान्ति एवं सन्धि की कथा है।

ओदिसी 24 अनुवाकों में विभक्त है और इसका घटनाकाल 42 दिन का है। आरंभिक अनुवाक् में देवताओं की सभा में ओदिसियस की संरक्षिका एथीना जीयस से शिकायत करती है कि ओदिसियस 10 वर्ष पूर्व ट्राय से रवाना हुआ था किंतु अभी तक घर नहीं पहुँच सका है; कारण, केलिप्सो नामक राक्षसी ने उसे ऑजीजिया नामक द्वीप में रोक रखा है जबकि ईथाका में पिनलापी (ओदिसियस की पत्नी) के पाणिग्रहणार्थी ऊधम ही नहीं मचा रहे हैं बल्कि ओदिसियस की संपत्ति भी चट कर रहे हैं। जीयस एथीना को यथाविवेक कार्य करने की अनुमति दे देता है और वह ओदिसियस के पुत्र टेलेमैकस के सम्मुख मेंटर (टेलेमैकस का शिक्षक) के रूप में उपस्थित होकर उसे परामर्श देती है कि वह अपने घर में पिनलोपी के पाणिग्रहणथियों का प्रवेश रोक दे तथा स्वयं अपने पिता का पता लगाने के लिए यात्रा करे। द्वितीय, तृतीय तथा चतुर्थ अनुवाकों में टेलेमैकस संबधी कथा चलती है। टेलेमैकस एक सभा का आयोजन कर उसमें पिनलोपी के पाणिग्रहणर्थियों की भर्त्सना करता है और मेंटर रूपी एथीना की सहायता से एक जहाज प्राप्त करके अपनी माँ को बताए बिना ही यात्रा पर चल पड़ता है। मेंटर के साथ वह पाइलॉस पहुँचकर वृद्ध नेस्टर से मिलता है जहाँ उसे ट्राजन युद्ध के असल विवरण ज्ञात होते हैं। पाइलॉस से वह स्पार्टा जाता है। वहाँ मेने लाउस की पत्नी हेलेन से मिलता है और घर लौटने की तैयारी करने लगता है। उसके तुरंत बाद कवि ईथाका स्थित ओदिसियस के प्रासाद की घटनाएँ प्रस्तुत करता है। एक ओर पिनलोपी अपने पुत्र के एकाएक लुप्त हो जाने से संत्रस्त है और दूसरी ओर उसके पाणिग्रहणार्थी बंदरगाह पर एनटीनस की देखरेख में एक जहाज भेजकर व्यवस्था करते हैं कि टेलेमैकस जैसे ही लौटे, उसकी हत्या कर दी जाय ताकि ओदिसियस की संपत्ति और पिनलोपी पर उनका कब्जा हो सके।

पाँचवें अनुवाक् में पुन: देवताओं की सभा का दृश्य है जिसमें एथीना एक बार फिर ओदिसियस की मुक्ति का प्रयत्न करती है। जीयस हरमीज को कैलिप्सो के पास भेजता है और उसके कहने से वह वृक्षों के लट्ठों का बेड़ा बनाकर ओदिसियस को ईथाका की ओर रवाना कर देती है। 17 दिन तक तारों की सहायता से यात्रा करने के बाद जैसे ही ओदिसियस फ़ियैशिया द्वीप के निकट पहुँचता है, समुद्र के देवता पोसीदोन के क्रोध के कारण उसका बेड़ा टूट जाता है और वह लहरों में डूबने उतराते लगता है। तभी समुद्र की अप्सरा लिउकोथिया उसे एक प्राणरक्षक रूमाल देती है जिसके सहारे वह अंतत: फ़ियैशिया पहुँचता है।

छठे अनुवाक् में फ़ियैशिया के राजा एलसिनस की बेटी नउसिकाआ स्वप्न में एथीना से आदेश पाकर अगली सुबह समुद्रतट पर अपने कपड़े धोने जाती है जहाँ उसकी भेंट नंगे ओदिसियस से होती है। सातवें अनुवाक् में वह उसे कपड़ा पहनाकर घर ले आती है। आठवें अनुवाक् में राजा एलसिनस दरबार में ओदिसियस का स्वागत करता है। इस अवसर पर भाट ट्राजन-युद्ध-संबंधी गीत गाता है तो ओदिसियस विचलित होकर रोने लगता है। राजा उससे रोने का कारण पूछता है तो ओदिसियस को अपना वास्तविक परिचय देना पड़ता है। अगले तीन अनुवाकों में ओदिसियसट्राय के पतन के बाद की अपनी 10 वर्ष की रोमांचक यात्रा का विवरण सबको सुनाता है। 12वें अनुवाक में ओदिसियमस फ़ियैशिया के जादुई जहाज पर ईथाका पहुँचता है जहाँ एथीना एक गड़ेरिए के रूप में उससे मिलती है और उसे भिखारी के रूप में परिवर्तित कर देती है ताकि उसकी पत्नी के पाणिग्रहणार्थी उसे पहचानकर कोई हानि न पहुँचा सकें। 13वें अनुवाक् में एथीना ओदिसियस को उसके शूकरपाल के यहाँ भेजकर स्वयं स्पार्टा जाती है और टेलेमैकस को शीघ्रता से ईथाका लौटने का आदेश देती है। 14वें अनुवाक् में ओदिसियस तथा शूकरपाल की बातचीत है।

15वें अनुवाक् में टेलेमैकस अपनी माँ के पाणिग्रहणार्थियों के षड्यंत्र से बचकर सुरक्षित घर लौट आता है। 16वें अनुवाक् में टेलेमैकस शूकरपाल के घर में अपने पिता को पहचान लेता है। पश्चात् पितापुत्र पिनलोपी के पाणिग्रहणार्थियों से छुटकारा पाने की योजना बनाते हैं। 17वें तथा 18वें अनुवाक् में भिक्षुकवेशी ओदिसियस अपने प्रासाद में पहुँचता है जहाँ उसका पुराना कुत्ता एरगस उसे पहचानकर खुशी के मारे दम तोड़ देता है। इसी समय ओदिसियस प्रासाद में उपस्थित पिनलोपी के पाणिग्रहणार्थियों का औद्धत्य देखता है जिससे आगे चलकर उन्हें मारने के उसके भयंकर कृत्य की उचित भूमिका भी बन जाती है। 19वें अनुवाक् में ओदिसिय तथा पिनलोपी की आमने सामने बातचीत होती है परंतु पिनलोपी अपने पति को पहचान नहीं पाती, जबकि उसकी पुरानी धाय यूरीक्लिया उसके पैर में बचपन में बने क्षतचिह्न को देखकर उसे पहचान जाती है। 20 वें अनुवाक् में ओदिसियस गुस्से के कारण रात भर जागकर अनेक बातें सोचता रहता है।

21 वें अनुवाक् में पिनलोपी अपने पाणिग्रहणार्थियों को चुनौती देती है कि वे सब पारी पारी ओदिसियस के धनुष का चिल्ला चढ़ाकर इस तरह तीर चलाएँ कि वह विशाल वृक्ष में टँगे 12 छल्लों के बीच से निकल जाए। सब असफल होते हैं किंतु भिक्षुकवेशी ओदिसियस छल्लों के बीच से तीर निकाल देता है। 22 वें अनुवाक् में महाकाव्य का चरमोत्कर्ष है। ओदिसियस पिनलोपी के सारे पाणिग्रहणार्थियों को तीरों से बेधकर मार देता है। कोई भी एक, बचकर निकल नहीं पाता, क्योंकि विशाल कक्ष के सभी दरवाजें पहले ही बंद कर दिए गए थे 23वें अनुवाक् में पिनलोपी अपने पति को पहचानती है और दोनों के मिलन का हृदयग्राही एवं मर्मस्पर्शी दृश्य सामने आता है। महा काव्य के अंतिम अथवा 24वें अध्याय में, जिसे कुछ आलोचक प्रक्षिप्त मानते हैं, देवदूत मरकरी पिनलोपी के सभी पाणिग्रहणार्थियों की आत्माओं को नरक के निचले एवं निकृष्ट प्रदेशों में ले जाता है जहाँ उन्हें विभिन्न प्रकार के त्रासमय दंड दिए जाते हैं। इसी बीच ओदिसियस नगर के बाहर खेतों में जाकर अपने पिता लैरटीज़ से मिलता है। अंत में ओदिसियस के घर लौट आने के उपलक्ष में शानदार दावत होती है और इथाका में सुखशांति स्थापित होने की सूचना के साथ ग्रंथ का समापन हो जाता है।[3]

कथा कौशल

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इलियड का कथानक महज 50 दिनों का है - दसवें वर्ष के अन्तिम दो मास के अन्दर की घटी घटनाएँ। यदि कथानक कथा के आरम्भ से प्रारम्भ होता तो उस लीडा एवं हंस के संयोग से प्रारम्भ होना चाहिए था। पर होमर कथा के अन्तिम भाग को पकड़ता है। बीच-बीच में वह पूर्व कथा का संकेत करता जाता है, वह भी एक क्रम से नहीं। ग्रीक श्रोतासमाज को कथा पहले ही से ज्ञात है। इसी से उसे कोई कठिनाई नहीं ज्ञात होती, अन्यथा एक अनजान व्यक्ति को कथा का प्रथमांश तभी स्पष्ट होगा जब एक बार वह सम्पूर्ण काव्य का पठन कर जाए। इलियट के बारे में दूसरी बात यह ध्यान में रखने की है कि उसका विषय जैसा कि मंगलाचरण से स्पष्ट है, एकिलेस के क्रोध का गान है। जहाँ यह क्रोध अपनी चरम परिणति के बाद समाप्त होता है। उससे कुछ आगे तक, अर्थात् इस क्रोध के प्रत्यक्ष फल पेट्राक्लस की मृत्यु एवं अप्रत्यक्ष फल हेक्टर की मृत्यु तक, चलकर कथा समाप्त हो जाती है पर एकिलेस की मृत्यु, ट्राय का ध्वंस आदि इस महाकाव्य में नहीं आते हैं। होमर अपने महाकाव्य में घोषित विषय पर बड़ी कड़ाई से ‘टु द प्वाइण्ट’ स्थित रहता है - जरा भी इधर-उधर नहीं जाता। इस घोर संयम का ही परिणाम है कथा-या ‘विषय की एकता’ (युनिटी ऑव ऐक्शन)। प्रत्येक घटना समूची डिजाइन के अन्दर कसी हुई आंगिक संगति के साथ बैठायी गयी है। भारतीय महाकाव्यों में इसी एकता एवं संगति का अभाव है एवं सारा ढाँचा ढीली-ढाली कथा व्यवस्था से पूर्ण है। वाल्मीकि रामायण का विषय है पोलस्त्यवध, पर उसमें अवान्तर घटनाएँ बहुत ढीले सूत्रों से जुड़ी हैं। महाभारत में तो यह ‘एकता’ बिलकुल नहीं - वह तो विश्वकोष की शैली में लिखा गया है। तुलसीदास के रामचरितमानस में अवश्य यह ‘गठीली एकता’ एवं ‘आंगिक संगति’ होमर की ही तरह मिलती है। जहाँ तक विषय की एकता एवं प्रभावान्विति (युनिटी आव इम्प्रेशन) का प्रश्न है तुलसीदास की समता कोई भी भारतीय कवि, चाहे वह कालिदास ही क्यों न हो, नहीं कर सकता। यह बात यहाँ अभिधार्थ में लिखी जा रही है।

होमर एकिलेस के क्रोध एवं उसके विकास का प्रतिफल एवं वर्णन 9 सर्गों में करता है और कथा को उसके प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष फलों तक ले जाकर समाप्त करता है। यदि वह आगे की घटना, एकिलीज की मृत्यु एवं ट्राय-ध्वंस, तक वर्णित करने के प्रलोभन में पड़ता तो काव्य में वह कटी-छटी गठीली ढाँचागत एकता नहीं आ पाती। ढाँचा (स्ट्रक्चर) ढीला हो जाता। अरस्तू ने होमर की प्रतिभा की सराहना ‘पोयटिक्स’ के उन अध्यायों में की है और होमर का ही अनुकरण का आदर्श बनाने की शिक्षा दी है, जहाँ वह ‘तीन एकताओं’ (देश, काल एवं विषय) एवं प्रभावान्विति की चर्चा करता है। ग्रीक साहित्य में ढाँचा (‘छन्द’, फार्म) पर बहुत ही अधिक जोर दिया गया है। यह रूप विधान की ज्यामितिक संगति (ज्यामेट्रिकल सिमट्री), उनकी मूर्तिकला, नाट्यकला आदि सभी के अन्दर स्पष्ट है। उन्होंने छन्द (ढाँचा) को भावानुभूति एवं अलंकार से कम महत्त्व नहीं दिया। होमर में यह प्रवृत्ति न केवल बीज रूप में विद्यमान है, बल्कि उसका सर्वोत्तम रूप होमर में ही मिलता है। इलियड में सारा ‘ऐक्शन’ वृत्ताकार है। जहाँ से प्रारम्भ होता है, वहीं पर आकर समाप्त होता है। जिन संस्कारों ने ग्रीक ट्रेजेडी को ढाँचा एवं भावभूमि प्रदान की, वे संस्कार ग्रीकों की जातीय निधि हैं और वे ही होमर की प्रतिभा में भी प्राण स्थापन करते हैं। इसी से होमर एवं कालान्तर के ट्रेजेडी साहित्य में ढाँचागत (स्ट्रक्चरल) एवं भावगत (इमोशनल) समानता है। ग्रीक ट्रेजेडी के ढाँचे का संयमन तीन तत्त्व - ‘एक देश’, ‘एक काल’, एवं ‘एक व्यापार या विषय’-करते हैं। इलियड में ‘देश’ एक ही है अर्थात् सारी घटना ट्राय के महलों एवं सामने के समुद्रतट पर ही होती है। ‘काल’ भी एक ही है, क्योंकि महाकाव्य का घटनासूत्र लगातार 50 दिन की अवधि का है। अर्थात्, ‘काल’ का एक अनवरत अखण्ड रूप दिया गया है - 10वें वर्ष के अन्तिम 50 दिनों को पकड़ कर। काव्यवृत्त को 10 वर्षों की सतह पर न फैलाकर वह 50 दिनों के अन्दर ही समेट लेता है। व्यापार या विषय भी एक ही है - एकिलेस का क्रोध, उसका शमन एवं उपसंहार के रूप में उसका फल। बस, यहीं महाकाव्य समाप्त हो जाता है।

ओडेसी का विषय विस्तृत है। महाकाव्य का नायक ओडेसियस ट्राय युद्ध के बाद 10 वर्ष तक भटकता रहा। इस दशक के अन्तिम भाग से इस महाकाव्य का भी प्रारम्भ होता है। ढाँचा ठीक इलियड जैसा है। इलियड के 50 दिनों की घटना में वर्तमान का ही प्राधान्य है - उन 50 दिनों में क्या घटित हुआ, इसी का वर्णन कवि का उद्देश्य है। पूर्व की घटनाएँ राह चलती चर्चा-सी कहीं-कहीं आ जाती हैं। परन्तु ओडेसी में यह बात नहीं। ओडेसी का विषय ही है ‘ओडेसियस का दुःखमय भ्रमण’। अतः यह 10 वर्षों का भ्रमण-वृत्तान्त ही उसका उद्देश्य है। वह इलियड की तरह ही दशक के अन्तिम छोर पर प्रारम्भ होता है अवश्य, परन्तु उसका उद्देश्य ‘वर्तमान’ से अधिक ‘अतीत’ से सम्बन्धित है। इसलिए होमर आधुनिक फिल्मों का फ्लैशबैक-टेकनीक का उपयोग करता है। महाकाव्य का आरम्भ होता है 10वें वर्ष में, जब ओडेसियस अप्सरा केलीप्सो के द्वीप से यात्रा शुरू करता है और उसका भग्न पोत डूब जाता है एवं वह नासिका के देश में बहकर लग जाता है। वहाँ के राजा को अपने 9 वर्षों की राम कहानी सर्ग 9 से 12 तक में सुनाता है। ‘पूर्व-स्मृति’ तकनीक (फ्लैशबैक टेकनीक) इसी 9वें से 12वें सर्गों में है। परन्तु इस पूर्व स्मृति के गर्भ में भी ‘अन्तःपूर्व स्मृति’ है 11वें सर्ग में, जब वह एकिलेस को ट्राय युद्ध की कथा का शेषांश सुनाता है। ओडेसी का काल संगठन बड़ा ही पेचीदा है। ‘वर्तमान’ के गर्भ में ‘पूर्व’ एवं उस पूर्व के गर्भ में ‘अन्तःपूर्व’ निहित है। समूचे काल-बन्ध (टाइम-अरेंजमेण्ट) को ‘मुकुल-पत्र-बन्ध’ की संज्ञा दी जा सकती है। कली में पंखुड़ियों की एक परत के अन्दर दूसरी परत, दूसरी के अन्दर तीसरी परत पड़ी रहती है। उसी भाँति ओडेसी का काल-बन्ध है।

यह काल-बन्ध द्विगुण पेचीदा इसलिए हो जाता है कि ओडेसी का ‘देश’ एक नहीं है। ओडेसी का विषय है, ‘भयंकर समुद्र-भ्रमण एवं गुहागमन’। अतः व्यापार के केन्द्र दो हो जाते हैं। एक तो है इथैका जहाँ उसकी रानी पिनीलोपी उसकी प्रतीक्षा में बैठी है और उसके पुत्र-कलत्र उसके शत्रुओं से घिरे हैं। दूसरा है ओडेसियस स्वयं एवं उसकी समुद्र-सतह पर की चलायमान स्थिति। इन दो ‘देशों’ के घटनाओं संचालन होता है महान सूत्रधार ज़ीयस द्वारा। ‘देश की एकता’ न होने पर भी विषय या व्यापार का एकता उसी तरह कटी-छँटी रूप में विद्यमान है जिस तरह ‘इलियड’ में। कवि बड़ी सावधानी से एक घटना की परत में दूसरी घटना रखकर समूचे व्यापार की संगति एवं सुडौलता की रक्षा बड़ी धीरता से करता है।

इलियड की विषय-वस्तु सीमित है। इसी से ट्रेजेडी का पैटर्न बैठ गया। बड़ी सरलता से कार्य-प्रभाव की एकता साध ली गयी। परन्तु ‘ओडेसी’ का विषय विस्तृत है। यह उपन्यास की तरह है। फिर भी इतनी सावधानी से कार्य एवं प्रभाव की एकता सम्पादित की गयी है कि आज के शैली-प्रधान या रूप-प्रधान उपन्यास भी उसके सामने फीके पड़ जाते हैं। एक आदि कवि के लिए-एक प्रारम्भकर्त्ता के लिए इतनी बड़ी कारीगरी आश्चर्य का ही विषय है। संक्षेप में इलियड का रूपायन (फार्म) ट्रेजेडीपरक है एवं ओडेसी का उपन्यासपरक।

इतना होते हुए भी ओडेसी बहुत-सी बातों में इलियड के समानान्तर है। इलियड और ओडेसी दोनों काव्यों का आरम्भ कथाकाल की अन्तिम छोर पकड़कर होता है। दोनों का अन्त भी प्रारम्भ में घोषित विषय पर होता है। दोनों की गति-रेखा वृत्ताकार है। दोनों में सर्गों की संख्या 24 है। इलियड के अन्त में हेक्टर का निधन है तो ओडेसी में पाणि-प्रार्थी राजकुमारों का। इलियड के अन्त में एक शान्त वातावरण, कुछ काल के ही लिए सही, उपस्थित हो जाता है जिसमें दोनों पक्ष मृतकों का दाह-संस्कार करते हैं। ओडेसी में तो अन्त में प्रियामिलन एवं स्थायी शान्ति आ जाती है। दोनों महाकाव्यों के अन्दर आये चरित्र एक ही पैमाने और साँचे में ढले ज्ञात होते हैं। एन्थनी जिस कुटिलता और तत्परता से ग्रीक योद्धाओं की सहायता इलियड में करती है उसी रूप में ओडेसी में भी। पोजीडॉन (वरुण) दोनों में एक क्रूर एवं उजड्ड देवता की तरह है। ओडेसियस दोनों महाकाव्यों में साहसी, वीर, क्रूरकर्मा एवं कुटिल रूप में चित्रित है। मिनीलास उसी प्रकार धनी, उदार हृदय योद्धा दोनों महाकाव्यों में है। बुद्धिमान् वृद्ध नेस्टर का मित्र भी वहीं रहता है। यदि इन महाकाव्यों के रचयिता अलग-अलग होते तो चरित्रों के चित्रण में फर्क अवश्य आ जाता। उदाहरण के लिए होमर का ‘डायोमीडिल’ या ‘अफ्रोदीती’ वर्जिल के डायोमीडिज या अफ्रोदीती (वीनस) से बिलकुल अलग हैं। कथानक एवं चरित्रों का समान पैटर्न बताता है कि दोनों काव्य एक ही व्यक्ति की प्रतिभा से निःसृत हैं।

इन्हें भी देखें

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सन्दर्भ

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  1. Rieu, D.C.H. (२००३). The Odyssey. पेंगुइन. पृ॰ xi. |access-date= में तिथि प्राचल का मान जाँचें (मदद); |access-date= दिए जाने पर |url= भी दिया जाना चाहिए (मदद)
  2. "अन्य देशों में मानवाधिकार और स्वत्व". मेरी कलम. मूल (एचटीएमएल) से 23 जुलाई 2015 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि २२ अप्रैल २००९. |access-date= में तिथि प्राचल का मान जाँचें (मदद)
  3. इस अनुभाग के अंतर्गत लिखी गयी पूरी सामग्री हिंदी विश्वकोश, खंड-2, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, द्वितीय संस्करण-1975 ई०, पृष्ठ-297-298 से यथावत उद्धृत है, जिसके मूल लेखक कैलासचंद्र शर्मा हैं।

बाहरी कड़ियाँ

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