आर्य
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आर्य शब्द (शुद्ध रक्त) और (शुद्ध संस्कृति)को दर्शाता है। इसका शाब्दिक अर्थ ', 'अच्छे हृदय वाला', 'आस्तिक', 'अच्छे गुणों वाला' आदि है। इसका उपयोग प्राचीन (आर्यावर्त ) के लोगों द्वारा स्व-पदनाम के रूप में किया गया था। इस शब्द का इस्तेमाल भारत में लोगों द्वारा एक जातीय लेबल के रूप में किया गया था।[1] अपने लिए और कुलीन वर्ग के साथ-साथ भौगोलिक क्षेत्र को आर्यावर्त के नाम से जाना जाता है,यह आर्यावर्त बनेगा जहां इंडो-आर्यन संस्कृति आधारित है। , उन्हें अनौपचारिक रूप से 'आर्य' कहा जाता है।[2][3][4][5] निकट से संबंधित ईरानी लोगों ने भी अवेस्ता शास्त्रों में अपने लिए एक जातीय लेबल के रूप में इस शब्द का इस्तेमाल किया, और यह शब्द देश के नाम ईरान के व्युत्पत्ति स्रोत का निर्माण करता है। 19 वीं शताब्दी में यह माना जाता था कि आर्य एक स्व-पदनाम भी था, जिसका उपयोग सभी प्रोटो-इंडो-यूरोपियों द्वारा किया जाता था, यह सिद्धांत जिसे अब छोड़ दिया गया है। ऋग्वैदिक आर्य गडरिये थे और उनका मुख्य व्यवसाय पशुपालन करना आरंभ किया था। उनकी संपत्ति का अनुमान उनके मवेशियों के संदर्भ में लगाया गया था। जब वे स्थायी रूप से उत्तर भारत में बस गए तो उन्होंने कृषि करना शुरू कर दिया।[6]
दस्यु और आर्य शब्द का इस्तमाल एक विशेषण के रुप में किया जाता था। 'आर्य' का अर्थ होता है 'आदर्श', 'अच्छे हृदय वाला', 'आस्तिक', 'अच्छे गुणों वाला' जो कोई भी हिंद-आर्य भाषा बोलने वाला व्यक्ति हो सकता है चाहे वह स्त्री हो या पुरुष। आर्य लोगो का निवास स्थान भूटान, तिब्बत, इंडोनेशिया, आधुनिक भारत...था उसे ही आर्यावर्त कहा गया हैं। आर्यावर्त । इसी प्रकार 'दस्यु' शब्द का अर्थ था 'राक्षस' या 'दैत्य' जिसका अर्थ है 'राक्षसी प्रवृत्ति' वाला जैसे कि बलात्कारी, हत्यारा, मांस भक्षी, 'दुराचारी' 'नास्तिक' आदि यह एक 'अवगुण' का सूचक था। [7] अपने लिए वर्ग के साथ-साथ भौगोलिक क्षेत्र को आर्यावर्त के नाम से जाना जाता है। [8][9][10][11] निकट से संबंधित ईरानी लोगों ने भी अवेस्ता शास्त्रों में अपने लिए एक जातीय लेबल के रूप में इस शब्द का इस्तेमाल किया, और यह शब्द देश के नाम ईरान के व्युत्पत्ति स्रोत का निर्माण करता है। 19 वीं शताब्दी में यह माना जाता था कि आर्यन एक स्व-पदनाम भी था, एक सिद्धांत जिसे अब छोड़ दिया गया है। विद्वानों का कहना है कि प्राचीन काल में भी, "आर्य" होने का विचार धार्मिक, सांस्कृतिक और भाषायी था।[12]
इतिहासिक उपयोग
[संपादित करें]सम्राट अशोक ने अपने ब्रह्मगिरी शिलालेख में अपने पुत्र के लिए आर्यपुत्र शब्द का उपयोग किया है ।
पंक्ति १. सुवंणगिरीते अयपुतस महामाताणं च वचनेन इसिलसि महामाता आरोगियं वतविया हेवं च वतविया देवाणं पिये आणपयति
-ब्रह्मगिरि शिलालेख I[13]
अनुवाद : सुवर्णगिरि से आर्यपुत्र (राजकुमार) और महामात्रों की आज्ञा से इषिला के महामात्यों का आरोग्य पूँछना चाहिए। देवानांप्रिय की विज्ञप्ति ( आदेश ) है
आर्यों की आदिभूमि
[संपादित करें]आर्य प्रजाति की आदिभूमि के संबंध में अभी तक विद्वानों में बहुत मतभेद हैं। भाषावैज्ञानिक अध्ययन के प्रारंभ में प्राय: भाषा और प्रजाति को अभिन्न मानकर एकोद्भव (मोनोजेनिक) सिद्धांत का प्रतिपादन हुआ और माना गया कि भारोपीय भाषाओं के बोलनेवाले के पूर्वज कहीं एक ही स्थान में रहते थे और वहीं से विभिन्न देशों में गए। भाषावैज्ञानिक साक्ष्यों की अपूर्णता और अनिश्चितता के कारण यह आदिभूमि कभी मध्य एशिया, कभी पामीर-कश्मीर, रही है। जबकि भारत से बाहर गए आर्यन के निशान कभी आस्ट्रिया-हंगरी, कभी जर्मनी, कभी स्वीडन-नार्वे और आज दक्षिण रूस के घास के मैदानों में ढूँढ़ी जात है। भाषा और प्रजाति अनिवार्य रूप से अभिन्न नहीं। आज आर्यों की विविध शाखाओं के बहूद्भव (पॉलिजेनिक) होने का सिद्धांत भी प्रचलित होता जा रहा है जिसके अनुसार यह आवश्यक नहीं कि आर्य-भाषा-परिवार की सभी जातियाँ एक ही मानववंश की रही हों। भाषा का ग्रहण तो संपर्क और प्रभाव से भी होता आया है, कई जातियों ने तो अपनी मूल भाषा छोड़कर विजातीय भाषा को पूर्णत: अपना लिया है। जहां तक भारतीय आर्यों के उद्गम का प्रश्न है, भारतीय साहित्य में उनके बाहर से आने के संबंध में एक भी उल्लेख नहीं है। कुछ लोगों ने परंपरा और अनुश्रुति के अनुसार मध्यदेश (स्थूण) (स्थाण्वीश्वर) तथा कजंगल (राजमहल की पहाड़ियां) और हिमालय तथा विंध्य के बीच का प्रदेश अथवा आर्यावर्त (उत्तर भारत) ही आर्यों की आदिभूमि माना है। पौराणिक परंपरा से विच्छिन्न केवल ऋग्वेद के आधार पर कुछ विद्वानों ने सप्तसिंधु (सीमांत, उत्तर भारत एवं पंजाब, बिहार को आर्यों की आदिभूमि माना है। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने ऋग्वेद में वर्णित दीर्घ अहोरात्र, प्रलंबित उषा आदि के आधार पर आर्यों की मूलभूमि को ध्रुवप्रदेश में माना था। बहुत से यूरोपीय विद्वान् और उनके अनुयायी भारतीय विद्वान् अब भी भारतीय आर्यों को बाहर से आया हुआ मानते हैं।
आर्य-आक्रमण के सिद्धांत में समय के साथ परिवर्तन
[संपादित करें]आर्य आक्रमण का सिद्धांत अपने आराम्भिक दिनों से ही लगातार परिवर्तित होते रहा है। आर्य-आक्रमण के सिद्धांत कि अधुनिक्तम परिकल्पन के अनुसार यह कोइ जाति विशेष नहीं थी अपितु यह केवल एक सम्मानजनक शब्द था जो कि आन्ग्ल्भाषा के SIR के समनर्थाक था।
आर्य धर्म और संस्कृति
[संपादित करें]कहते हैं कि मैक्स मूलर, विलियम हंटर और लॉर्ड टॉमस बैबिंग्टन मैकॉले इन तीन लोगों के कारण भारत के इतिहास का उजागर हुआ। अंग्रेंजों द्वारा लिखित इतिहास में चार बातें प्रचारित की जाती है। पहली यह की भारतीय इतिहास की शुरुआत सिंधु घाटी की सभ्यता से होती है। दूसरी यह की सिंधु घाटी के लोग द्रविड़ थे अर्थात् वे आर्य नहीं थे। तीसरी यह कि आर्यो ने बाहर से आकर सिंधु सभ्यता को नष्ट करके अपना राज्य स्थापित किया था। चौथी यह कि आर्यों और दस्तुओं के निरंतर झगड़े चलते रहते थे। क्या उपर्युक्त लिखी बातें सही है?
बहुत से इतिहासकार का यह मानना है कि आर्य बाहर से आये थे। कोई सेंट्रल एशिया कहता है, तो कोई साइबेरिया, तो कोई मंगोलिया, तो कोई ट्रांस कोकेशिया, तो कुछ ने आर्यों को स्कैंडेनेविया का बताया। अधिकतर मानते हैं कि वे मध्य एशिया के थे।
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आर्यन इन्वेजन थ्योरी : भारत की सरकारी किताबों में आर्यों के आगमन को 'आर्यन इन्वेजन थ्योरी' कहा जाता है। इन किताबों में आर्यों को घुमंतू या कबीलाई बताया जाता है। यह ऐसे खानाबदोश लोग थे जिनके पास वेद थे, रथ थे, खुद की भाषा थी और उस भाषा की लिपि भी थी। मतलब यह कि वे पढ़े-लिखे, सभ्य और सुसंस्कृत खानाबदोश लोग थे। यह दुनिया का सबसे अनोखा उदाहरण है।
यह थ्योरी मैक्स मूलर ने जानबूझकर गढ़ी थी या कि उसकी जानकारी अधूरी थी यह कहना मुश्किल है। मैक्स मूलर ने ही भारत में आर्यन इन्वेजन थ्योरी को लागू करने का काम किया था, लेकिन इस थ्योरी को सबसे बड़ी चुनौती 1921 में मिली। अचानक से सिंधु नदी के किनारे एक सभ्यता के निशान मिल गए। कोई एक जगह होती, तो और बात थी। यहां कई सारी जगहों पर सभ्यता के निशान मिलने लगे। इसे सिंधु घाटी सभ्यता कहा जाने लगा।
ऐसे में मैक्स मूलर की 'आर्यन इन्वेजन थ्योरी' समक्ष सवाल यह खड़ा हो गया कि यदि इस सिंधु सभ्यता को आर्य सभ्यता मान लिया जाए तो फिर थ्योरी का क्या होगा? ऐसे में फिर इतिहाकारों का मानना है कि सिंधु लोग द्रविड़ थे और वैदिक लोग आर्य थे। सिंधु सभ्यता आर्यों के आगमन के पहले की है और आर्यों ने आकर इस नष्ट कर दिया।
संभवत: विदेशी और उनके भारतीय अनुसरणकर्ताओं के लिए यह समझना मुश्किल रहा होगा कि सिंधु घाटी की सभ्यता तो विश्वस्तरीय शहरी सभ्यता थी इससे पूर्व तो पश्चिमी सभ्यता के पास ऐसे नगर नहीं थे। इस सभ्यता के पास टाउन-प्लानिंग का ज्ञान कहां से आया और उन्होंने स्वीमिंग पूल बनाने की तकनीक कैसे सीखी? वह भी ऐसे समय जबकि ग्रीस, रोम और एथेंस का नामोनिशान भी नहीं था।.. संभवत: यही सोचकर यह प्रचारित किया गया होगा कि यह वैदिक सभ्यता के नगर नहीं है या तो द्रविड़ सभ्यता के नगर है। सिंधु या कहें कि द्रविड़ सभ्यता और वैदिक सभ्यता दोनों अलग अलग सभ्यता है। सिंधु लोग द्रविड़ थे और वैदिक लोग आर्य। आर्य तो बाहर से ही आए थे और उनका काल सिंधु सभ्यता के बाद का काल है।,, इस थ्योरी को भी भारतीय'आर्यन इन्वेजन थ्योरी' की तरह मान जाता है।
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महाकुलकुलीनार्यसभ्यसज्जनसाधव:। -अमरकोष 7।3
अर्थात् : आर्य शब्द का प्रयोग महाकुल, कुलीन, सभ्य, सज्जन आदि के लिए पाया जाता है।
पौराणिक और संस्कृत ग्रंथों में आर्य का अर्थ श्रेष्ठ होता है। आर्य किसी जाति का नहीं बल्कि एक विशेष विचारधारा को मानने वाले का समूह था जिसमें श्वेत, पित, रक्त, श्याम और अश्वेत रंग के सभी लोग शामिल थे।
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कितनी प्राचीन है सिंधु सभ्यता : अंग्रेजों की खुदाई से माना जाता था कि 2600 ईसा पूर्व अर्थात् आज से 4616 वर्ष पूर्व इस नगर सभ्यता की स्थापना हुई थी। कुछ इतिहासकारों के अनुसार इस सभ्यता का काल निर्धारण किया गया है लगभग 2700 ई.पू. से 1900 ई. पू. तक का माना जाता है।
आईआईटी खड़गपुर और भारतीय पुरातत्व विभाग के वैज्ञानिकों ने सिंधु घाटी सभ्यता की प्राचीनता को लेकर नए तथ्य सामने रखे हैं। वैज्ञानिकों के मुताबिक यह सभ्यता 5500 साल नहीं बल्कि 8000 साल पुरानी थी। इस लिहाज से यह सभ्यता मिस्र और मेसोपोटामिया की सभ्यता से भी पहले की है। मिस्र की सभ्यता 7,000 ईसा पूर्व से 3,000 ईसा पूर्व तक रहने के प्रमाण मिलते हैं, जबकि मोसोपोटामिया की सभ्यता 6500 ईसा पूर्व से 3100 ईसा पूर्व तक अस्तित्व में थी। शोधकर्ता ने इसके अलाव हड़प्पा सभ्यता से 1,0000 वर्ष पूर्व की सभ्यता के प्रमाण भी खोज निकाले हैं।
वैज्ञानिकों का यह शोध प्रतिष्ठित रिसर्च पत्रिका नेचर ने प्रकाशित किया है। 25 मई 2016 को प्रकाशित यह लेख दुनियाभर की सभ्यताओं के उद्गम को लेकर नई बहस छेड़ गया है। वैज्ञानिकों ने सिंधु घाटी की पॉटरी की नई सिरे से पड़ताल की और ऑप्टिकली स्टिम्यलैटड लूमनेसन्स तकनीक का इस्तेमाल कर इसकी उम्र का पता लगाया तो यह 6,000 वर्ष पुराने निकले हैं। इसके अलावा अन्य कई तरह की शोध से यह पता चला कि यह सभ्यता 8,000 वर्ष पुरानी है। इसका मतलब यह कि यह सभ्यता तब विद्यमान थी।
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सिंधु सभ्यता का विस्तार : वैज्ञानिकों की इस टीम के अनुसार सिंधु घाटी सभ्यता का विस्तार हरियाणा के भिर्राना और राखीगढ़ी में भी था। उन्होंने भिर्राना की एकदम नई जगह पर खुदाई शुरू की और बड़ी चीज बाहर लेकर निकले। इसमें जानवरों की हड्डियां, गायों के सिंग, बकरियों, हिरण और चिंकारे के अवशेष मिले। डेक्कन कॉलेज के अराती देशपांडे ने बताया इन सभी के बारे में कार्बन 14 के जरिये जांच की गई। जिससे यह पता चला की उस दौर में सभ्यता को किस तरह की पार्यावरणीय स्थितियों का सामना करना पड़ा था। सिंधु सभ्यता की जानकारी हमें अंग्रेजों के द्वारा की गई खुदाई से ही प्राप्त होती है जबकि उसके बाद अन्य कई शोध और खुदाईयां हुई है जिसका जिक्र इतिहास की किताबों में नहीं किया जाता।
इसका मतलब यह कि इतिहास के ज्ञान को कभी अपडेट नहीं किया गया, जबकि अन्य देश अपने यहां के इतिहास ज्ञान को अपडेट करते रहते हैं। यह सवाल की कैसे सिंधु सभ्यता नष्ट हो गई थी इसके जवाब में वैज्ञानिक कहते हैं कि कमजोर मानसून और प्राकृति परिस्थितियों के बदलाव के चलते यह सभ्यता उजड़ गई थी। सिंधु घाटी में ऐसी कम से कम आठ प्रमुख जगहें हैं जहां संपूर्ण नगर खोज लिए गए हैं। जिनके नाम हड़प्पा, मोहनजोदेड़ों, चनहुदड़ो, लुथल, कालीबंगा, सुरकोटदा, रंगपुर और रोपड़ है।
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कौथ थे सिंधु घाटी के लोग : सिंधु घाटी के लोग बहुत सभ्य थे। वे नगरों के निर्माण से लेकर जहाज आदि सभी कुछ बनाना जानते थे। सिंधु सभ्यता एक स्थापित सभ्यता थी। स्थायी रूप से शहरी और नगरीय सभ्यता की शुरुआत इसलिए सिंधु घाटी से मानी जाती है क्योंकि इस काल के नगर मिले हैं। उक्त स्थलों से प्राप्त अवशेषों से पता चलता है कि यहां के लोग दूर तक व्यापार करने जाते थे और यहां पर दूर दूर के व्यापारी भी आते थे।
यहां के लोगों ने योजनाबद्ध तरीके से नगरों का निर्माण नहीं नहीं किया था बल्कि ये लोग व्यापार के भिन्न भिन्न तरीके भी जानते थे। अयात और निर्यात के चलते इनके मुद्राओं का प्रचलन होने से समाज में एक नई क्रांति का सूत्र पात हो चुका था। सिंधु घाटी सभ्यता के लोग धर्म, ज्योतिष और विज्ञान की अच्छी समझ रखते थे। इस काल के लोग जहाज, रथ, बेलगाड़ी आदि यातायात के साधनों का अच्छे से उपयोग करना सीख गए थे।
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जैन धर्म और सिंधु घाटी के लोग : कुछ लोग सिंधु घाटी की मूर्तियों में बैल की आकृतियों वाली मूर्ति को भगवान ऋषभनाथ जोड़कर इसलिए देखते हैं क्योंकि बैल ऋषभदेव का चिह्न है। यहां से प्राप्त ग्रेनाइट पत्थर की एक नग्न मूर्ति भी जैन धर्म से संबंधित मानी जाती है। मोहन जोदड़ो और हड़प्पा से प्राप्त मोहरों में जो मुद्रा अंकित है, वह मथुरा की ऋषभदेव की मूर्ति के समान है व मुद्रा के नीचे ऋषभदेव का सूचक बैल का चिह्न भी मिलता है।
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सिंधु घाटी से प्राप्त एक मुद्रा के चित्रण को चक्रवर्ती सम्राट भरत से जोड़कर देखा जाता है। इसमें दांई ओर नग्न कायोत्सर्ग मुद्रा में भगवान ऋषभदेव हैं जिनके शिरोभाग पर एक त्रिशूल है जो त्रि-रत्नत्रय जीवन का प्रतीक है। निकट ही शीश झुकाए उनके ज्येष्ठ पुत्र चक्रवर्ती भरत हैं जो उष्णीब धारण किए हुए राजसी ठाठ में हैं। भरत के पीछे एक बैल हैं जो ऋषभनाथ का चिह्न है। अधोभाग में सात प्रधान अमात्य हैं। हालांकि हिन्दू मान्यता अनुसार इस मुद्रा में राजा दक्ष का सिर भगवान शंकर के सामने रखा है और उस सिर के पास वीरभद्र शीश झुकाए बैठे हैं। यह सती के यज्ञ में दाह होने के बाद का चित्रण है।
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हिन्दू धर्म और सिंधु घाटी के लोग : सिंधु घाटी सभ्यता की खुदाई में पकी हुई मिट्टी के दीपक प्राप्त हुए हैं और मोहनजोदड़ो सभ्यता की खुदाई में प्राप्त भवनों में दीपकों को रखने हेतु ताख बनाए गए थे व मुख्य द्वार को प्रकाशित करने हेतु आलों की शृंखला थी। मोहनजोदड़ो सभ्यता के प्राप्त अवशेषों में मिट्टी की एक मूर्ति के अनुसार उस समय भी दीपावली मनाई जाती थी। उस मूर्ति में मातृ-देवी के दोनों ओर दीप जलते दिखाई देते हैं। इससे यह सिद्ध स्वत: ही हो जाता है कि यह सभ्यता हिन्दू आर्यों की ही सभ्यता थी।
हड़प्पा और मोहनजोदड़ो से कपड़ों के टुकड़े के अवशेष, चांदी के एक फूलदान के ढक्कन तथा कुछ अन्य तांबें की वस्तुएं मिली है। यहां के लोग शतरंज का खेल भी जानते थे और वे लोहे का उपयोग करते थे इसका मतलब यह कि वे लोहे के बारे में भी जानते थे। यहां से प्राप्त मुहरों को सर्वोत्तम कलाकृतियों का दर्जा प्राप्त है। हड़प्पा नगर के उत्खनन से तांबे की मुहरें प्राप्त हुई हैं। इस क्षेत्र की भाषा की लिपि चित्रात्मक थी। मोहनजोदड़ो से प्राप्त पशुपति की मुहर पर हाथी, गैंडा, बाघ और बैल अंकित हैं। हड़प्पा के मिट्टी के बर्तन पर सामान्यतः लाल रंग का उपयोग हुआ है। मोहनजोदड़ों से प्राप्त विशाल स्नानागार में जल के रिसाव को रोकने के लिए ईंटों के ऊपर जिप्सम के गारे के ऊपर चारकोल की परत चढ़ाई गई थी जिससे पता चलता है कि वे चारकोल के संबंध में भी जानते थे।
मोहनजोदेड़ो की खुदाई में इस नगर की इमारतें, स्नानघर, मुद्रा, मुहर, बर्तन, मूर्तियां, फूलदान आदि अनेक वस्तुएं मिली हैं। हड़प्पा सभ्यता के मोहजोदड़ो से कपड़ों के टुकड़े के अवशेष, चांदी के एक फूलदान के ढक्कन तथा कुछ अन्य तांबें और लोहे की वस्तुएं मिली है। यहां से काला पड़ गया गेहूं, तांबे और कांसे के बर्तन, मुहरों के अलावा चौपड़ की गोटियां, दीए, माप तौल के पत्थर, तांबे का आईना, मिट्टी की बैलगाड़ी, खिलौने, दे पाट वाली चक्की, कंघी, मिट्टी के कंगन और पत्थर के औजार भी मिले हैं। यहां खेती और पशुपालन संबंधी कई अवशेष मिले हैं। बताया जाता है कि सिंध के पत्थर और राजस्थान के तांबें से बने उपकरण यहां खेती में इस्तेमाल किए जाते थे। हल से खेत जोतने का एक साक्ष्य हड़प्पा सभ्यता के कालीबंगा में भी मिले हैं।
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आर्य और सिंधु : कुछ इतिहासकार मानते हैं कि आर्यों को बाहरी और आक्रमणकारी सिद्ध करने के लिए अंग्रेजों ने कोई कोरकसर नहीं छोड़ी। 1500 ईसा पूर्व से 500 ईस्वी पूर्व के बीच के काल को अंग्रेजों ने आर्यों का काल घोषित कर रखा है। उन्हीं के द्वारा कथित रूप से शोध किए गए इतिहास को हमारे यहां के इतिहासकारों ने मानक मानकर उस आधार पर की अपनी किताबें और शोध पुस्तकें प्रकाशित की। अंतत: समाज में यह भ्रांति फैलती गई की आर्यों ने दृविड़ों की सिंधु सभ्यता को नष्ट कर दिया। आर्य घोड़े पर सवार होकर आए और उन्होंने भारत पर आक्रमण कर यहां के लोगों पर शासन किया। 1500 ईसा पूर्व घोड़े के बारे में सिर्फ आर्य ही जानते थे।
अब यहां नीचे एक पुरातात्विक तथ्य से यह बात समझें...
मध्य पाषाण काल का युग 9000 ईसा पूर्व से 4000 ईसा पूर्व के बीच था। इस काल में व्यक्ति शिकार करता था। चीजों को एकत्र करके रखता था। पशुओं को पालने लगा था। आग का उपयोग करना सीख गया था। छोटे-छोटे पत्थरों ओजार, धनुष के बाण, मछली पकड़ने के ओजार आदि बनाना सीख गया था।
राजस्थान के भीलवाड़ा जिले में कोठारी नदी के किनारे बागोर और मध्यप्रदेश के होशंगामबाद में नर्मदा नदी के पास आदमगढ़ में 9000 ईसा पूर्व से 4000 ईसा पूर्व के बीच के पाषाण के अवशेष पाए गये हैं जिन पर आदमगढ़ में प्राचीन पत्थरों पर की गई चित्रकारी में उस काल के लोगों द्वारा धनुष बाण का उपयोग किए जाने और घोड़े पर सवारी किए जाने के चित्रों से पता चलता है कि भारत में लोग 9 हजार ईसा पूर्व घोड़ों पर बैठकर शिकार करते थे।
बागोर में यहां से मध्य पाषाण काल के पांच मानव कंकाल भी मिले हैं, जो सुनियोजित ढंग से दफ़नाए गए थे। भारत में घोड़े को पालतू बनाए जाने के प्रमाण बागोर में भी पाए गए हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि कथित रूप से बताए गए आर्यों के काल से पूर्व ही भारतीय लोग घोड़ों से परिचित थे और उस पर सवार होकर धनुष बाण से शिकार करते थे।
कुछ विद्वान मानते हैं कि अंग्रेजों के द्वारा स्थापित वैदिक युग को सिंधु सभ्यता के बाद का काल इसलिए माना जाता है क्योंकि ऋग्वेद को 1500 ईसा पूर्व से 1000 ईसा पूर्व लिखे होने की पुष्टि होती है। लेकिन यह उचित नहीं। ऋग्वेद का ज्ञान तो इससे पहले हजारों वर्षों की प्राचीन वाचिक परंपरा से चला आ रहा था जिसे लिखने के युग के शुरू होने के दौरान लिखा गया। माना जाता है कि ऋग्वेद के प्रथम आठ मंडल प्राचीन है। इसके बाद के मंडल 1000 ईसा से 600 ईसा पूर्व के बीच लिखे गए। ऋग्वेद का उपवेद है आयुर्वेद। आयुर्वेद में मानव और पशुओं की चिकित्सा की जानकारी है। ईसा से कई हजार वर्ष पूर्व जड़ी-बूटियों और वनस्पतियों के बारे में असाधारण ज्ञान होना इस बात की सूचना है कि भारतीय लोग इस काल में कितने सभ्य और ज्ञान संपन्न थे।
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सप्त सिंधु प्रदेश प्रदेश : आर्य का अर्थ श्रेष्ठ होता है। आर्य अपने मूल निवास स्थान को सप्त सिंधु प्रदेश कहते थे। दुनिया की सबसे प्राचीन किताब ऋग्वेद में आर्यों कौन थे इसका उल्लेख मिलता है। आर्य किसी जाति का नहीं बल्कि एक विशेष विचारधारा को मानने वाले का समूह था जिसमें श्वेत, पित, रक्त, श्याम और अश्वेत रंग के सभी लोग शामिल थे। नयी खोज के अनुसार आर्य आक्रमण नाम की चीज न तो भारतीय इतिहास के किसी कालखण्ड में घटित हुई और ना ही आर्य तथा द्रविड़ नामक दो पृथक मानव नस्लों का अस्तित्व ही कभी धरती पर रहा।
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डीनएनए गुणसूत्र पर आधारित शोध : फिनलैण्ड के तारतू विश्वविद्यालय, एस्टोनिया में भारतीयों के डीनएनए गुणसूत्र पर आधारित एक अनुसंधान हुआ। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डाँ. कीवीसील्ड के निर्देशन में एस्टोनिया स्थित एस्टोनियन बायोसेंटर, तारतू विश्वविद्यालय के शोधछात्र ज्ञानेश्वर चौबे ने अपने अनुसंधान में यह सिद्ध किया है कि सारे भारतवासी जीन अर्थात् गुणसूत्रों के आधार पर एक ही पूर्वजों की संतानें हैं, आर्य और द्रविड़ का कोई भेद गुणसूत्रों के आधार पर नहीं मिलता है, और तो और जो अनुवांशिक गुणसूत्र भारतवासियों में पाए जाते हैं वे डीएनए गुणसूत्र दुनिया के किसी अन्य देश में नहीं पाए गए।
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शोधकार्य में वर्तमान भारत, पाकिस्तान, बंगलादेश, श्रीलंका और नेपाल की जनसंख्या में विद्यमान लगभग सभी जातियों, उपजातियों, जनजातियों के लगभग 13000 नमूनों के परीक्षण-परिणामों का इस्तेमाल किया गया। इनके नमूनों के परीक्षण से प्राप्त परिणामों की तुलना मध्य एशिया, यूरोप और चीन-जापान आदि देशों में रहने वाली मानव नस्लों के गुणसूत्रों से की गई। इस तुलना में पाया गया कि सभी भारतीय चाहे वह किसी भी धर्म को मानने वाले हैं, 99 प्रतिशत समान पूर्वजों की संतानें हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि भारत में आर्य और द्रविड़ विवाद व्यर्थ है। उत्तर और दक्षिण भारतीय एक ही पूर्वजों की संतानें हैं।
शोध में पाया गया है कि तमिलनाडु की सभी जातियों-जनजातियों, केरल, कर्नाटक, आन्ध्रप्रदेश जिन्हें पूर्व में कथित द्रविड़ नस्ल से प्रभावित माना गया है, की समस्त जातियों के डीनएन गुणसूत्र तथा उत्तर भारतीय जातियों-जनजातियों के डीएनए का उत्पत्ति-आधार गुणसूत्र एकसमान है। उत्तर भारत में पाये जाने वाले कोल, कंजर, दुसाध, धरकार, चमार, थारू, दलित, क्षत्रिय और ब्राह्मणों के डीएनए का मूल स्रोत दक्षिण भारत में पाई जाने वाली जातियों के मूल स्रोत से कहीं से भी अलग नहीं हैं।
इसी के साथ जो गुणसूत्र उपर्युक्त जातियों में पाए गए हैं वहीं गुणसूत्र मकरानी, सिंधी, बलोच, पठान, ब्राहुई, बुरूषो और हजारा आदि पाकिस्तान में पाए जाने वाले समूहों के साथ पूरी तरह से मेल खाते हैं। जो लोग आर्य और दस्यु को अलग अलग बानते हैं उन्हें बाबासाहब आम्बेडकर की किताब 'जाती व्यवस्था का उच्चाटन' (Annihilation of caste) को अच्छे से पढ़ना चाहिए।
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सिंधु सभ्यता के लोग ही द्रविड़ आर्य थे : भारत और अमेरिका के वैज्ञानिकों के साझे आनुवांशिक अध्ययन अनुसार उत्तर और दक्षिण भारतीयों के बीच बताई जाने वाली आर्य-अनार्य असमानता अब नए शोध के अनुसार कोई सच्ची आनुवांशिक असमानता नहीं रही। अमेरिका में हार्वर्ड के विशेषज्ञों और भारत के विश्लेषकों ने भारत की प्राचीन जनसंख्या के जीनों के अध्ययन के बाद पाया कि सभी भारतीयों के बीच एक अनुवांशिक संबंध है। इस शोध से जुड़े सीसीएमबी अर्थात् सेंटर फॉर सेल्यूलर एंड मोलेक्यूलर बायोलॉजी (कोशिका और आणविक जीवविज्ञान केंद्र) के पूर्व निदेशक और इस अध्ययन के सह-लेखक लालजी सिंह ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में बताया कि शोध के नतीजे के बाद इतिहास को दोबारा लिखने की जरूरत पड़ सकती है। उत्तर और दक्षिण भारतीयों के बीच कोई अंतर नहीं रहा है।
सीसीएमबी के वरिष्ठ विश्लेषक कुमारसमय थंगरंजन का मानना है कि आर्य और द्रविड़ सिद्धांतों के पीछे कोई सचाई नहीं है। वे प्राचीन भारतीयों के उत्तर और दक्षिण में बसने के सैकड़ों या हजारों साल बाद भारत आए थे। इस शोध में भारत के 13 राज्यों के 25 विभिन्न जाति-समूहों से लिए गए 132 व्यक्तियों के जीनों में मिले 500,000 आनुवांशिक मार्करों का विश्लेषण किया गया।
इन सभी लोगों को पारंपरिक रूप से छह अलग-अलग भाषा-परिवार, ऊंची-नीची जाति और आदिवासी समूहों से लिया गया था। उनके बीच साझे आनुवांशिक संबंधों से साबित होता है कि भारतीय समाज की संरचना में जातियाँ अपने पहले के कबीलों जैसे समुदायों से बनी थीं। उस दौरान जातियों की उत्पत्ति जनजातियों और आदिवासी समूहों से हुई थी। जातियों और कबीलों अथवा आदिवासियों के बीच अंतर नहीं किया जा सकता क्योंकि उनके बीच के जीनों की समानता यह बताती है कि दोनों अलग नहीं थे।
इस शोध में सीसीएमबी सहित हार्वर्ड मेडिकल स्कूल, हार्वर्ड स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ तथा एमआईटी के विशेषज्ञों ने भाग लिया। इस अध्ययन के अनुसार वर्तमान भारतीय जनसंख्या असल में प्राचीनकालीन उत्तरी और दक्षिणी भारत का मिश्रण है। इस मिश्रण में उत्तर भारतीय पूर्वजों (एन्सेंस्ट्रल नॉर्थ इंडियन) और दक्षिण भारतीय पूर्वजों (एन्सेंस्ट्रल साउथ इंडियन) का योगदान रहा है।
पहली बस्तियाँ आज से 65,000 साल पहले अंडमान द्वीप और दक्षिण भारत में लगभग एक ही समय बसी थीं। बाद में 40,000 साल पहले प्राचीन उत्तर भारतीयों के आने से उनकी जनसंख्या बढ़ गई। कालान्तर में प्राचीन उत्तर और दक्षिण भारतीयों के आपस में मेल से एक मिश्रित आबादी बनी। आनुवांशिक दृष्टि से वर्तमान भारतीय इसी आबादी के वंशज हैं। अध्ययन यह भी बताने में मदद करता है कि भारतीयों में जो आनुवांशिक बीमारियाँ मिलती हैं वे दुनिया के अन्य लोगों से अलग क्यों हैं।
लालजी सिंह कहते हैं कि 70 प्रतिशत भारतीयों में जो आनुवांशिक विकार हैं, इस शोध से यह जानने में मदद मिल सकती है कि ऐसे विकार जनसंख्या विशेष तक ही क्यों सीमित हैं। उदाहरण के लिए पारसी महिलाओं में स्तन कैंसर, तिरुपति और चित्तूर के निवासियों में स्नायविक दोष और मध्य भारत की जनजातियों में रक्ताल्पता की बीमारी ज्यादा क्यों होती है। उनके कारणों को इस शोध के जरियए बेहतर ढंग से समझा जा सकता है।
शोधकर्ता अब इस बात की खोज कर रहे हैं कि यूरेशियाई अर्थात् यूरोपीय-एशियाई निवासियों की उत्पत्ति क्या प्राचीन उत्तर भारतीयों से हुई है। उनके अनुसार प्राचीन उत्तर भारतीय पश्चिमी यूरेशियाइयों से जुड़े हैं। लेकिन प्राचीन दक्षिण भारतीयों में दुनियाभर में किसी भी जनसंख्या से समानता नहीं पाई गई। हालांकि शोधकर्ताओं ने यह भी कहा कि अभी तक इस बात के पक्के सबूत नहीं हैं कि भारतीय पहले यूरोप की ओर गए थे या फिर यूरोप के लोग पहले भारत आए थे।
आर्य शब्द का अर्थ है प्रगतिशील। आर्य धर्म प्राचीन आर्यों का धर्म और श्रेष्ठ धर्म दोनों समझे जाते हैं। प्राचीन आर्यों के धर्म में प्रथमत: प्राकृतिक देवमण्डल की कल्पना है जो भारत, में पाई जाती रही है। इसमें द्यौस् (आकाश) और पृथ्वी के बीच में अनेक देवताओं की सृष्टि हुई है। भारतीय आर्यों का मूल धर्म ऋग्वेद में अभिव्यक्त है, देवमंडल के साथ आर्य कर्मकांड का विकास हुआ जिसमें मंत्र, यज्ञ, श्राद्ध (पितरों की पूजा), अतिथि सत्कार आदि मुख्यत: सम्मिलित थे। आर्य आध्यात्मिक दर्शन (ब्राहृ, आत्मा, विश्व, मोक्ष आदि) और आर्य नीति (सामान्य, विशेष आदि) का विकास भी समानांतर हुआ। शुद्ध नैतिक आधार पर अवलंबित परंपरा विरोधी अवैदिक संप्रदायों-बौद्ध, जैन आदि-ने भी अपने धर्म को आर्य धर्म अथवा सद्धर्म कहा।
सामाजिक अर्थ में "आर्य' का प्रयोग पहले संपूर्ण मानव के अर्थ में होता था। फिर अभिजात और श्रमिक वर्ग में अंतर दिखाने के लिए आर्य वर्ण और शूद्र वर्ण का प्रयोग होने लगा। फिर आर्यों ने अपनी सामाजिक व्यवस्था का आधार वर्ण को बनाया और समाज चार वर्णों में वृत्ति और श्रम के आधार पर विभक्त हुआ। ऋक्संहिता में चारों वर्णों की उत्पत्ति और कार्य का उल्लेख इस प्रकार है:-
- ब्राहृणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्य: कृत:।
- ऊरू तदस्य यद्वैश्य: पदभ्यां शूद्रोऽजायत॥10॥ 90। 22॥
(इस विराट् पुरुष के मुंह से ब्राह्मण, बाहु से राजस्व (क्षत्रिय), ऊरु (जंघा) से वैश्य और पद (चरण) से शूद्र उत्पन्न हुआ।)
यह एक अलंकारिक वाक्य हे | ब्रह्म तो अनंत हे | उस ब्रह्म के सद विचार, सद प्रवृत्तियां आस्तिकता जिस जनसमुदाय से अभिव्यक्त होती हे उसे ब्राहमण कहा गया हे | शोर्य और तेज जिस जन समुदाय से अभिव्यक्त होता हे वह क्षत्रिय वर्ग और इनके अतिरिक्त संसार को चलने के लिए आवश्यक क्रियाए जेसे कृषि वाणिज्य ब्रह्म वैश्य भाग से अभिव्यक्त होती है। इसके अतिरिक्त भी अनेक इसे कार्य बच जाते हे जिनकी मानव जीवन में महत्ता बहुत अधिक होती हे जेसे दस्तकारी, शिल्प, वस्त्र निर्माण, सेवा क्षेत्र ब्रह्म अपने शुद्र वर्ग द्वारा अभिव्यक्त करता हे |[14]
आजकल की भाषा में ये वर्ग बौद्धिक, प्रशासकीय, व्यावसायिक तथा श्रमिक थे। मूल में इनमें तरलता थी। एक ही परिवार में कई वर्ण के लोग रहते और परस्पर विवाहादि संबंध और भोजन, पान आदि होते थे। क्रमश: ये वर्ग परस्पर वर्जनशील होते गए। ये सामाजिक विभाजन आर्यपरिवार की प्राय: सभी शाखाओं में पाए जाते हैं, यद्यपि इनके नामों और सामाजिक स्थिति में देशगत भेद मिलते हैं।
प्रारंभिक आर्य परिवार पितृसत्तात्मक था, यद्यपि आदित्य (अदिति से उत्पन्न), दैत्य (दिति से उत्पन्न) आदि शब्दों में मातृसत्ता की ध्वनि वर्तमान है। दंपती की कल्पना में पति पत्नी का गृहस्थी के ऊपर समान अधिकार पाया जाता है। परिवार में पुत्रजन्म की कामना की जाती थी। दायित्व के कारण कन्या का जन्म परिवार को गंभीर बना देता था, किंतु उसकी उपेक्षा नहीं की जाती थी। घोषा, लोपामुद्रा, अपाला, विश्ववारा आदि स्त्रियां मंत्रद्रष्टा ऋषिपद को प्राप्त हुई थीं। विवाह प्राय: युवावस्था में होता था। पति पत्नी को परस्पर निर्वाचन का अधिकार था। विवाह धार्मिक कृत्यों के साथ संपन्न होता था, जो परवर्ती ब्राहृ विवाह से मिलता जुलता था।
प्रारंभिक आर्य संस्कृति में विद्या, साहित्य और कला का ऊँचा स्थान है। संस्कृत भाषा ज्ञान के सशक्त माध्यम के रूप में विकसित हुई। इसमें काव्य, धर्म, दर्शन आदि विभिन्न शास्त्रों का उदय हुआ। आर्यों का प्राचीनतम साहित्य वेद भाषा, काव्य और चिंतन, सभी दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। ऋग्वेद में ब्राहृचर्य और शिक्षणपद्धति के उल्लेख पाए जाते हैं, जिनसे पता लगता है कि शिक्षणव्यवस्था का संगठन आरंभ हो गया था और मानव अभिव्यक्तियों ने शास्त्रीय रूप धारण करना शुरू कर दिया था। ऋग्वेद में कवि को ऋषि (मंत्रद्रष्टा) माना गया है। वह अपनी अंतदृष्टि से संपूर्ण विश्व का दर्शन करता था। उषा, सवितृ, अरण्यानी आदि के सूक्तों में प्रकृतिनिरीक्षण और मानव की सौंदर्यप्रियता तथा रसानुभूति का सुंदर चित्रण है। ऋग्वेदसंहिता में पुर और ग्राम आदि के उल्लेख भी पाए जाते हैं। लोहे के नगर, पत्थर की सैकड़ों पुरियां, सहरुद्वार तथा सहरुस्तंभ अट्टालिकाएं निर्मित होती थीं। साथ ही सामान्य गृह और कुटीर भी बनते थे। भवननिर्माण में इष्टका (ईंट) का उपयोग होता था। यातायात के लिए पथों का निर्माण और यान के रूप में कई प्रकार के रथों का उपयोग किया जाता था। गीत, नृत्य और वादित्र का संगीत के रूप में प्रयोग होता था। वाण, क्षोणी, कर्करि प्रभृति वाद्यों के नाम पाए जाते हैं। पुत्रिका (पुत्तलिका, पुतली) के नृत्य का भी उल्लेख मिलता है। अलंकरण की प्रथा विकसित थी। स्त्रियां निष्क, अज्जि, बासी, वक्, रुक्म आदि गहने पहनती थीं। विविध प्रकार के मनोविनोद में काव्य, संगीत, द्यूत, घुड़दौड़, रथदौड़ आदि सम्मिलित थे।
आर्य और आर्य समाज
[संपादित करें]आज के युग में आर्यों से भिन्न एक गुट की स्थापना दयानन्द सरस्वती जी के द्वारा हुई है। उनका कार्य है भारत को वेदों की ओर लौटाना। वे ईश्वर के अद्वैत तथा अजन्मा सत्ता को स्वीकारकर कृष्णादि के ईश्वरत्व को न मानते हुए उन्हें महापुरुष की संज्ञा देते हैं तथा पौराणिक तथ्यों को पूर्णतया नकारते हैं[15]। हालांकि महर्षि दयानन्द जी के युग में ही उनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत यथा पुराण कल्पना तथा अवैदिक हैं, का खण्डन हो चुका है।[16] अतः यहाँ से आर्यों के मत का दो भाग हो गया। एक जो पुराण तथा वेद और ईश्वर के साकार निराकार दोनों सत्ताओं को मानने वाले तथा दूसरे केवल वेद और निराकार सत्ता को मानने वाले।
इन्हें भी देंखे
[संपादित करें]- सिन्धु घाटी की सभ्यता
- वैदिक सभ्यता
- आर्यन प्रवास सिद्धांत
- आदिम-हिन्द-यूरोपीय लोग
- प्राचीन भारत
- पितृवंश समूह आर१ए
सन्दर्भ
[संपादित करें]- ↑ "From the Aryan migration to caste, two books offer fascinating insights into India's ancient past".
- ↑ "हम सब प्रवासी हैं, जगह जगह से आए और भारतीय बन गए: रिसर्च".
- ↑ "Examining the evidence for 'Aryan' migrations into India: The story of our ancestors and where we came from".
- ↑ "The Long Walk: Did the Aryans migrate into India? New genetics study adds to debate".
- ↑ "Aryan migration: Everything you need to know about the new study on Indian genetics".
- ↑ Publication, Mocktime. GIST OF NCERT History Classwise Class 6-12 (8 Books in 1): for UPSC IAS General Studies Paper 1 (अंग्रेज़ी में). by Mocktime Publication.
- ↑ "From the Aryan migration to caste, two books offer fascinating insights into India's ancient past" जाँचें
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मान (मदद). - ↑ "हम सब प्रवासी हैं, जगह जगह से आए और भारतीय बन गए: रिसर्च". मूल से 29 दिसंबर 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 29 दिसंबर 2018.
- ↑ "Examining the evidence for 'Kaliya' migrations into India: The story of our ancestors and where we came from". मूल से 29 दिसंबर 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 29 दिसंबर 2018.
- ↑ "The Long Walk: Did the Aryans migrate into India? New genetics study adds to debate". मूल से 29 दिसंबर 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 29 दिसंबर 2018.
- ↑ "Kaliya migration: Everything you need to know about the new study on Indian genetics". मूल से 25 जून 2020 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 8 अप्रैल 2020.
- ↑ "क्या भारत सिर्फ आदि वासी के लिए है?". मूल से 5 जनवरी 2019 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 29 दिसंबर 2018.
- ↑ admin (2022-12-09). "ब्रह्मगिरि शिलालेख". ज्ञानप्रभा (अंग्रेज़ी में). अभिगमन तिथि 2024-03-11.
- ↑ "संग्रहीत प्रति" (PDF). मूल (PDF) से 19 सितंबर 2011 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 19 सितंबर 2011.
- ↑ पुस्तक "सत्यार्थ प्रकाश लेखक दयानन्द सरस्वती
- ↑ पुस्तक "वैदिकधर्मसत्यार्थप्रकाश" लेखक श्री शिवरामकृष्णशर्मा
१०.शुद्र कौन (डा. भीमराव अंबेडकर)
बाहरी कड़ियाँ
[संपादित करें]- न कोई आर्य है और न कोई द्रविड़ (नवीनतम अध्ययन)
- क्या आर्य विदेशी थे?
- सभी भारतीय एक पुरखों की संतान - विज्ञान ने भी आर्य-द्रविड़ के भेद को नकारा (विचारधारा, हिन्दी चिट्ठा)
- क्या भारतवर्ष या आर्यावर्त हमारा देश नहीं है? (क्या हम विदेशी हैं ?)
- 'Arya': Its Significance - (Aurobindo in 'Arya', September 1914)
- प्राचीन आर्य इतिहास का भौगोलिक आधार
- Indology : Omilos Meleton Cultural Institute
- New research debunks Aryan invasion theory (DNA)
- More than 50% of South Asians have Indian ancestry: study (The Hindu)
- Vedic Sanskrit older than Avesta, Baudhayana mentions westward migrations from India: Dr N Kazanas