सामग्री पर जाएँ

अफ़ीम युद्ध

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
अफ़ीम युद्ध

द्वितीय अफीम युद्ध के दौरान गुआंगजाउ (कैंटन)
तिथि 1839–1842, 1856–1860
स्थान पूर्वी चीन
परिणाम अंग्रेजों और पश्चिमी शक्तियों की जीत
क्षेत्रीय
बदलाव
हांगकांग द्वीप और दक्षिणी कोलून ब्रिटेन को दिये गए।
योद्धा
ब्रिटिश साम्राज्य
फ्रांस (1856–1860)

अमेरिका (1856 and 1859)
रूस (1856–1859)

चिंग साम्राज्य

उन्नासवीं सदी के मध्य में चीन और मुख्यतः ब्रिटेन के बीच लड़े गये दो युद्धों को अफ़ीम युद्ध कहते हैं। उन्नीसवीं शताब्दी में लम्बे समय से चीन (चिंग राजवंश) और ब्रिटेन के बीच चल रहे व्यापार विवादों की चरमावस्था में पहुँचने के कारण हुए। प्रथम युद्ध 1839 से 1842 तक चला और दूसरा 1856 से 1860 तक। दूसरी बार फ़्रांस भी ब्रिटेन के साथ-साथ लड़ा। दोनों ही युद्धों में चीन की पराजय हुई और चीनी शासन को अफीम का अवैध व्यापार सहना पड़ा। चीन को नान्जिन्ग की सन्धि तथा तियान्जिन की सन्धि करनी पड़ी।

इस द्वंद्व की शुरुआत ब्रिटेन की चीन के साथ व्यापार में आई कमी और ब्रिटेन द्वारा भारत से चीन में अफ़ीम की तस्करी को ले कर हुई। चीन के कानून के अनुसार अफ़ीम का आयात करना प्रतिबंधित था। पर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा पटना में निर्मित तथा कलकत्ता में नीलाम किये गए अफ़ीम की तस्करी से चीन नाराज था। लेकिन ब्रिटिश साम्राज्य के बढ़ते खर्च तथा चीन से रेशम और चाय के भुगतान के लिए अफ़ीम एक ऐसा द्रव्य था जिसकी चीनी जनता में बहुत मांग थी। पर इसके नशीले प्रभाव के कारण चिंग शासक इसके विरुद्ध थे।

युद्धों के परिणामस्वरूप चीन को अपने पाँच बंदरगाह (पत्तन) विदेशी व्यापार के लिए खोलने पड़े। हांगकाँग द्वीप पर ब्रिटेन का नियंत्रण हो गया और अफ़ीम का व्यापार भी होता रहा। युद्ध की वजह से चिंग राजवंश के खिलाफ़ चीनी जनता ने विद्रोह किये - इन विद्रोहों में चिंग वंश (यानि मंचू लोग) का पारंपरिक हान बहुमत से अलग संस्कृति और मूल का होना भी शामिल था। मंचूरिया पिछले राजवंशों के समय चीन का हिस्सा नहीं रहा था।

पृष्ठभूमि

[संपादित करें]

16वीं शताब्दी में चीन और यूरोप के बीच सीधा समुद्री व्यापार शुरु हो गया था। पुर्तगालियो के भारत में गोवा उपनिवेश बनाने के बाद, जल्द ही मकाउ भी अनुसरण करते हुए दक्षिणी-चीन में अपना उपनिवेश बनाया। स्पेन ने जब फिलिपीन (Philippines) पर अधिकार कर लिया तब तब चीन और पश्चिम देशों के बीच लेन-देन बड़ी तेज़ी से और बड़े नाट्कीय तरीके से बढ़ा। मनीला गैलिओन्स (Manila galleons) यह व्यापार के जहाज जो कि फिलिपीन और स्पेन के बीच चलते थे) इतना चाँदी का सामान चीन लाते थे जितना की वो प्राचीन धरती एशिया (the Silk Road) में लाते थे। चिंग राजवंश (जिसे कभी-२ मान्चू राजवंश के नाम से जाना है, इन्होंने 1644-1911 के बीच चीन में राज किया।) बाहरी संसार से सीमित सम्पर्क ही रखना चाहता था ताकि कोई उनके भीतरी मामलो में दखल ना दे। चिंग सिर्फ़ कैंटन के बंदरगाह (कैंटन को अब गुआंगझोऊ कहते हैं) से ही व्यापार कि आनुमति देते थे। बड़े कठिन कानून के साथ सिर्फ़ अनुज्ञा-प्राप्त एकाधिकारियो को ही व्यापार करने की अनुमति थी। इसका परिणाम यह हुआ कि आयातित खुदरा सामग्री के भारी दाम और कर (tax) जोकि आम आदमी नहीं खरीद सकता था। इसकी वजह से आयातित सामान की सीमित मांग थी। इसके बदले में चीन से रेशम और चाय का निर्तयात होता था। लेकिन अफ़ीम की कमी के कारण इसका दाम अधिक था और चीन को व्यापार मुनाफ़ा कम।

चीन ने 1798 के एक राजआदेश में ही अफ़ीन का सेवन प्रतिबंधिकत कर दिया था।

चीनी परंपरा में संपूर्ण संसार पाँच संकेन्द्रीय वृत्तों में बंटा था। अदर के तीन वृत्त चीनी और उनके पड़ोसियों (मंगोल, तिब्बती, थाई आदि) से आबाद था और बाहरी दो वृत्तों में बाहर और "दूर की बर्बर जातियाँ" रहती थी। परंपरा के अनुसार अंदर के तीन वृत्त के लोगों को ही स्वर्ग से शासन का अधिकार मिला है। इस प्रकार ब्रिटिश, चीनी शासन और जनता की नज़र में, सैनिक दृष्टि से हीन समझे जाते थे। लेकिन जब चीनी सम्राट ने उनके व्यापार को सीमिक और प्रतिबंधित करना चाहा तो अंग्रेज़ों ने उसका पहले राजनयिक और फिर सैनिक विरोध किया। राजनयिक विरोध तो कई बार अनसुनी कर दी गई - कई बार ये सोचकर कि ब्रिटिश बर्बर हैं। लेकिन सन् 1839 के बाद धारे धीरे सैनिक संघर्ष आरंभ हो गया।

चीनी सम्राट डाओगांग ने विद्रोहों के दमन के लिए जाने जाने वाले लिन त्सेशु को 1838 में कैंटन के मामलों का प्रभारी बनाया। कैंटन (आज का गुआंगजाउ) दक्षिण-पूर्वी चीन का पत्तन था जहाँ से मकाउ और हांगकांग निकट थे - और विदेशियों को केवल यहीं से व्यापार की इजाजत थी। लिन ने अंग्रेजों की स्थानीय लोगों को रिश्वत देकर अफ़ीम अंदर भेजने की नीति का विरोध किया। इससे अंग्रेज़ नाराज हुए। लेकिन लिन रुका नहीं - उसने अंग्रेज़ कप्तान चार्ल्स एलियट को व्यापार बंद करने की धमकी दी। इसके बाद एलियट ने समझौते के मुताबिक अफीम का व्यापार रोका - और 2000 टन अफ़ीम समुद्र में बहाने के लिए राजी हुआ। अफीम के बक्से लिन ने लिए और समुद्र में बहा दिया। इसके बाद जब ब्रिटिश जहाज़ नेमेसिस आया तो चीनियों की सैनिक धमकियाँ बेकार हो गईं क्योंकि अब अंग्रेजों के पास बेहतर हथियार और जहाज़ थे। अंग्रजों ने लड़ाई शुरु कर दी। हज़ारों चीनी मर गए।

चीनी सम्राट ने लिन को पद से वापस बुला लिया। इसके बाद बात को आगे न बढ़ता देख कर अंग्रेजों ने भी चार्ल्स एलियट को बुला लिया और उसकी जगह हेनरी पॉटिंगर को नियुक्त किया। पॉटिंगर ने युद्ध की दिशा बदल दी।

केंटॉन (गुआंगजाउ) पर आक्रमण 1841 में हुआ। इसके बाद यांग्त्सी नदी से लगे शांघाई और नानजिंग पर आक्रमण हुए। 20 हजा़र चीनी सैनिक मरे लेकिन ब्रिटिश क्षति सैकड़ों में थी।

नानजिन्ग की संधि

[संपादित करें]

1842 के शरद काल में नए चिंग आयुक्तों के प्रतिनिधि और अंग्रेजों के बीच संधि हुई। शर्तों के मुताबिक ब्रिटिश पाँच पत्तन पर व्यापार करने को स्वीकृत किए गए।

द्वितीय युद्ध

[संपादित करें]

नानजिंग की संधि के बाद कैंटॉन में ब्रिटिश व्यापार को अनुमति तो मिल गई लेकिन 1841-42 के ब्रिटिश आक्रमण के बाद स्थानीय जनता में अंग्रेजों के खिलाफ रोष फैल गया। शहर में घूम रहे ब्रिटिश और भारतीय (सिपाय) सैनिकों के साथ बुरा बर्ताव किया गया। इसके बाद अंग्रेज़ी सामाचार पत्रों, ब्रिटिश संसद तथा अन्य यूरोपीय शक्तियों (फ्रेंच, अमेरिकी तथा रूसी) के प्रोत्साहन के बाद ब्रिटिश सेना ने दुबारा आक्रमण 1856 में शुरु किया। इसमें बीजिंग को निशाना बनाया गया और चीनी सम्राट अपने भाई को उत्तरदयात्व सौंप कर

अफ़गान युद्धों में हार और भागने के बाद एक नैतिक बल मिला। साथ ही ब्रिटिश और पश्चिम की नज़रों में चीन को व्यापार के लिए खोल दिया गया। इस युद्ध के नायकों, चिंग सेनापति लिन ज़िसु को आज भी चीन में एक महान देशभक्त के रूप में याद किया जाता है और पश्चिम के विरोध में एक उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।

नानकिंग की संधि 29 अगस्त 1842 ई. हुई थी। प्रथम अफीम युद्ध में पराजय के पश्चात चीन को अंग्रेजों के साथ नानकिंग की संधि करने बाध्य होना पड़ा। नानकिंग की संधि की शर्तें थीं -

  1. अंग्रेजों को अब कैन्टन के अलावा अमोय, फूचो, निगपो एवं संघाई आदि कुल मिलाकर 5 बन्दरगाह बसने एवं व्यापार के लिये खोल दिये गये।
  2. हाँग-काँग का द्वीप अंग्रेजों को प्राप्त हो गया।
  3. चीन एवं ब्रिटेन के राजकर्मचारियों ने परस्पर समानता के आधार पर रहना स्वीकार किया।
  4. चीन ने आयात-निर्यात पर कर की दरें निश्चित कर प्रकाशित करने का आश्वासन दिया। को-हॉग माध्यम समाप्त कर दिया गया। अब व्यापार सीधे चीनी व्यापारियों के साथ किया जा सकता था। चीन ने निम्नानुसार 2 करोड़ 10 लाख डालर क्षतिपूर्ति देना स्वीकार किया -
  5. 60 लाख डालर नष्ट अफीम की कीमत 30 लाख डालर को-हॉग माध्यम पर ब्रिटिश व्यापारियों की देनदारी।
  6. 1 करोड़ 20 लाख डालर युद्ध क्षतिपूर्ति की राशि।
  7. अब ब्रिटिश अधिकारी पत्र व्यवहार में प्रार्थना पत्र के स्थान पर संदेश पत्र उपयोग करने स्वतंत्र हो गये।
  8. राज्य क्षेत्रातीत अधिकार के तहत यह स्वीकार कर लिया गया कि अंग्रेजों पर मुकदमे अब अंग्रेज कानूनों के अनुसार उन्हीं की अदालतों में चलेंगे।
  9. कोतो प्रथा समाप्त कर दी गई।
  10. चीन ने यह स्वीकार किया कि भविष्य में चीन जो सुविधायें अन्य देशों को देगा वह ब्रिटेन को स्वत: ही प्राप्त हो जायेंगी।

नानकिंग संधि की समीक्षा

[संपादित करें]

नानकिंग संधि से मंचू राजवंश की प्रतिष्ठा को आघात पहुँचा। ब्रिटिश बन्दूकों ने चीन में एक ऐसा छेद कर दिया जिसके द्वारा अन्य यूरोपीय शक्तियों ने भी ब्रिटेन में प्रवेश किया। ब्रिटेन के पश्चात् 1844 ई. में अमेरिका ने चीन के साथ ह्वांगिया की संधि सम्पन्न की। फ्रांस के साथ 1844 में हवामपोआ की संधि सम्पन्न की। 1845 में बेल्जियम के साथ एवं 1847 में नार्वे व स्वीडन के साथ संधि संपन्न कर चीन ने उन्हें व्यापारिक सुविधाएँ प्रदान की। इलियट एवं डाउसन के अनुसार अब चीन एक अन्तर्राष्टी्रय उपनिवेश बन गया।


यहाँ एक रोचक तथ्य है कि अफीम के व्यापार को लेकर यह युद्ध संपन्न हुआ था मगर अफीम व्यापार पर नियंत्रण संबंधी कोई संधि सम्पन्न नहीं हुई। अफीम का व्यापार निर्बाध गति से चलता रहा।

नानकिंन की संधि (१८४२)

[संपादित करें]

इस संधि की मुख्य शर्ते :- (१)ब्रिटिश लोगो को न केवल कैन्टन में ,अपितु फूचो ,निंगपो और शंघाई में भी बसने और व्यापार करने का अधिकार प्राप्त हो।