अनुवाद अध्ययन
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अनुवाद अध्ययन (Translation studies) एक अन्तरविषयी अकादमिक विधा है जो अनुवाद एवं स्थानीकरण (localization) के सिद्धान्त, वर्णन एवं अनुप्रयोग का अध्ययन करती है। अन्तरविषयी विधा होने के कारण अनुवाद अध्ययन अन्य विधाओ से वे चीजें ग्रहण करती हैं जो अनुवाद को प्रोत्साहन देती हैं जैसे: तुलनात्मक साहित्य, कम्प्युटर विज्ञान, इतिहास, भाषा विज्ञान, सांस्कृतिक भाषाशास्त्र, संकेत विज्ञान एवं शब्दावली विज्ञान।[1]
"ट्रान्सलेशन स्टजीज" शब्द का सृजन एम्स्टेरडेम निवासी अमरीकी पण्डित जेम्स एस हॉल्म्स ने अपने शोध पत्र, 'द नेम एण्ड नेचर ऑफ ट्र्र्राँस्लेशन स्टडीज़' में किया था।[2] यह शोध पत्र इस विधा का उद्घोषक माना जाता है। अंग्रेज़ी के लेखक 'अनुवाद अध्ययन' के लिये आम तौर पर "ट्राँस्लेटॉलजी" शब्द का प्रयोग करते हैं, वहीं फ्राँस के लेखक "ट्रैडक्टॉल्जी" का। अमरीका में लोग 'अनुवाद एवं व्याख्या अध्ययन' रूपी शब्दावली का प्रयोग ज़्यादा पसंद करते हैं, वहीं यूरोपीय परम्परा, व्याख्या को अनुवाद अध्ययन का ही अभिन्न अंग मानती है।
प्रारम्भिक अध्ययन
[संपादित करें]एतिहासिक रूप से, अनुवाद अध्ययन एक निर्देशात्मक विधा रही है। यहाँ तक की अनुवाद के ऊपर हुइ वह चर्चा जो कि निर्देशात्मक न रही हो, अनुवाद की श्रेणी में ही नहीं आते। अनुवाद अध्ययन के इतिहासकार जब अनुवाद की प्रारंभिक पाश्चात्य विचारधारा का अनुरेखन करते हैं, वे सिसेरो के उस कथन से इस विधा की शुरुवात मानते हैं जिसमें उन्होंने यह कहा की ग्रीक से लेटिन में अनुवाद उन्होंने अपनी वकृत्व कला को निखारने हेतु किया। इसी सोच का विवरण सिसेरो से संत जेरोम ने 'भावनात्मक' अनुवाद के रूप में करा। इजिप्ट में व्याख्याकारों का वर्णनात्मक इतिहास हेरोडोटस द्वारा कई सदियों पूर्व दिया गया, लेकिन आम तौर पर इसे अनुवाद अध्ययन के अंतरगत नहीं माना जाता, शायद इसलिए क्योंकि यह अनुवादक को अनुवाद करने के तरीके के बारे में कुछ नहीं बताता। चीन में 'अनुवाद कैसे करें' पर चर्चा हान वंश के राज्यकाल में बौद्ध सूत्रों के अनुवाद से प्रारम्भ हुई।
अकादमिक विधा की माँग
[संपादित करें]सन १९५८ में मास्को में हुइ, 'सेकण्ड काँग्रेस ऑफ स्लएविस्ट्स' की बैठक में चर्चा का एक मुद्दा था की अनुवाद किस विधा के ज्यादा करीब है - भाषाविज्ञान के या साहित्यिक पहलू के? इस प्रश्न के उत्तर के रूप में यह सुझाव दिया गया की अनुवाद अध्ययन को एक भिन्न विज्ञान की जरूरत है, जो अनुवाद के हर पहलू को समझने में सक्षम हो, न कि सिर्फ उसके भाषा विज्ञान या साहित्यिक पहलू को। तुलनात्मक साहित्य के अन्तर्गत १९६० के दशक में अमरीकी विश्वविद्यालयों, जैसे आइओवा विश्वविद्यालय एवं प्रिंसटन विश्वविद्यालय में भाष्यान्तर कार्यशालाओं को प्रोत्साहित करा गया। १९५० और १९६० के दशकों में अनुवाद के विषय पर पद्धति-बद्ध, भाषा-विज्ञान केंद्रित शोध हुए। सन १९५८ में फ्रेंच भाषावैज्ञानिक विनय व डॉबर्ल्नेट ने फ्रेंच एवं अंग्रेज़ी के मध्यस्थ द्वि-भाषाई विप्रीतार्थी शोध किया। सन १९६४ में यूजीन नाईडा ने 'टुवर्ड अ साइंस ऑफ ट्रांस्लेटिंग' नामक पुस्तक लिखी जो की बाइबल अनुवादन का एक नियम-संग्रह था। यह नियम-संग्रह काफी हद तक हैरिस के 'रचनांतरण व्याकरण' से प्रभावित था।
सन १९५६ में जे सी कैटफर्ड ने भाषा-विज्ञान के संदर्भ में अपना अनुवाद का सद्धान्त दिया। १९६० व १९७० के शुरुवात में चेक पण्डित जिरि लेवि, स्लोवाक के पण्डित एन्टोन पोपोविक एवं फ्रांटिसेक मिको ने साहित्यिक अनुवाद की शैलीगत पहलू पर शोध-कार्य किया।
शोध के यह पहले कदम एक तटस्थ रूप से जेम्स एस होलम्स के शोध-पत्र में स्प्ष्ट रूप से शामिल करे गए। यह शोध-पत्र कोपनहागन में हुई, 'थर्ड इन्टर्नेशनल काँग्रेस ऑफ अप्लाइड लिंग्विस्टिक्स' में पढ़ा गया। इस शोध-पत्र के माध्यम से एक विभिन्न विधा की माँग की। इसी माँग के आधार पर गिडेन-टूरी ने सन १९९५ में एक 'नक्शा' अपने लेख, 'डिस्क्रिप्टिव ट्रांस्लेशन स्टडीज़' में रेखांकित किया। सन १९९० से पूर्व अनुवाद के विद्वान एक विशेष विषय के मत से आते थे - खास तौर पर तब जब अनुवाद की प्रक्रिया निहायती वर्णनात्मक व निर्धारित थी, तथा 'स्कोपोज़' तक सीमित थी। परन्तु १९९० के सांस्कृतिक मोड़ के उपरान्त, यह विधा शोध के विभिन्न आयामों में बंट चुकी है।
अनुवाद की विभिन्न विचारधाराएँ
[संपादित करें]अनुवाद की प्रचलित विचार धाराएँ कुछ प्रमुख सैद्धांतिक मूल्यों के इर्द-गिर्द सिमट कर रह गई हैं। इन में से कुछ सिद्धान्त अधिक चर्चा का विषय रहे हैं।
समतुल्यता का सिद्धांत
[संपादित करें]सन १९५० से १९६० के बीच अनुवाद अध्ययन में चर्चा बस यहीं तक सीमित थी कि दो भाषाओं के बीच समतुल्यता कैसे स्थापित की जाए। 'समतुल्य' शब्द के दो अर्थ हैं। रूसी परंपरा के अनुसार समतुल्यत का अर्थ है द्वि-भषाई शब्दों के अर्थ का समरूपी होना। वहीं फ्रेंच परंपरा में विनय एवं डॉर्ब्लनेट के अनुसार सम्तुल्यता का अर्थ है द्वि-भाषाई शब्दों के बीच एक ही कार्यात्मक प्रभाव होना। फ़्रेंच परंपरा के अंतर्गत यदि भाषाओं के प्रारूप में यदि कोइ भिन्नता भी आ जाए, तो भी कोई बड़ी बात नहीं हो जाती है।
वर्णनात्मक अनुवाद अध्ययन
[संपादित करें]'वर्णनात्मक अनुवाद अध्ययन' नामक व्याक्यांश टूरी द्वारा रचित पुस्तक, 'डिस्क्रिप्टिव ट्रांस्लेशन स्ट्डीज़ एण्ड बियॉण्ड' से लिया गया है। इस अध्ययन का लक्ष्य एक आनुभविक वर्णनात्मक विधा को विकसित करना है जो हॉल्म्स द्वारा दिये गये नक्षे के एक पहलू को पूरा कर सके। बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में रूसी रूपवादों ने इस विचार की संरक्षणा करी की वैज्ञानिक कार्य-प्रणाली भी सांस्क्रितिक गतिविधियों पर लागू हो सकती है। यही विचार धारा अब साहित्यिक अनुवादों पर भी लागू होने लगी। इस विचार धारा का अग्रिम रूप इवैन-ज़ोहार द्वारा सन १९९० में दी गयी 'बहु-प्रणाली' के सिद्धांत में देखी गयी। इस सिद्धांत के अन्तर्गत अनुवादित साहित्य, प्रायोजित साहित्यिक प्रणाली के उप-तंत्र के रूप में देखा जाता है।
गिडन-टूरी ने अपने सिद्धांत का आधार भी इस विचार धारा को बनाया की अनुसन्धान हेतु अनुवाद को ''प्रायोजित सन्स्क्रिति के तथ्यों के रूप में देखा जाए"। साहित्यिक अनुवादों के तहत ही 'छलयोजना' व 'संरक्षण' जैसे सिद्धान्तों को विकसित किया गया।
स्कोपोस का सिद्धान्त
[संपादित करें]अनुवाद के सिद्धान्त में एक अनोखा परिवर्तन यूरोप मेंसन १९८४ मेइन हुआ। उस वर्ष जर्मन भाषा में दो पुस्तकों का प्रकाशन हुआ: कैथरीना रेइज़ व हैंस फ़ेमीर द्वारा लिखित, 'फाउण्डेशन फॉर अ जनरल थ्योरी ऑफ ट्रांस्लेशन', एवं जस्टा-हॉल्ज़-मंटारी द्वारा रचित, 'ट्रांसलेटोरियल एक्शन' का। इन दोनों किताबों के ज़रिये ही 'स्कोपोस' के सिद्धान्त की रचना हुई - जो समतुल्य्ता के सिद्धान्त से कई अधिक तवज्जो अनुवाद के उद्देश्य को देती है।
सांस्कृतिक अनुवाद
[संपादित करें]अनुवाद की विधा के विकास में सांस्कृतिक अनुवाद ने बड़ा योगदान किया। इस सिद्धान्त का चित्रण सूसन बैस्नेट व एण्ड्र्यु लेफ़ेवर ने अपनी पुस्तक,'ट्रांस्लेशन-हिस्ट्री-कल्चर' में किया। सांस्कृतिक अनुवाद के सिद्धान्त की उत्पत्ति होमी के भाभा की पुस्तक, 'द लोकेशन ऑफ कल्चर' से हुई है। सांस्कृतिक अनुवाद का सिद्धान्त बदलाव की प्रक्रिया पर प्रकाश डालती है (भाषा या अन्य) जो एक विशिष्ट सांस्कृतिक वातावरण में पनपती है। यह सिद्धांत भाषायी अनुवादों के ज़रिये इन सांस्कृतिक बदलावों को समझने की चेष्टा करती है।
अनुवाद के क्षेत्र में निरीक्षण
[संपादित करें]अनुवाद का इतिहास - अनुवादकों के इतिहास व अनुवाद के इतिहास दोनों से सरोकार रखता है। अनुवाद का इतिहास किसी संस्कृति की उत्पत्ति, विकास व पतन को समझने का एक बेजोड तरीका है। अनुवाद के इतिहास को समझने हेतु कुछ सिद्धान्त पिम व लिवेन डी'ह्ल्ट्ज़ ने साझा की।
अनुवाद एक सामाज-शास्त्र के रूप में
[संपादित करें]एक सामाजिक शास्त्र के रूप में अनुवाद अध्ययन अनुवादक, उनके कार्यस्थल एवं इन से मिलने वाले तथ्यों से विभिन्न भाषाओं के बीच विचारों के आदान-प्रदान का अध्ययन करती है।
उत्त्तर उपनिवेशवाद एवं अनुवाद अध्ययन
[संपादित करें]उत्तर उपनिवेशवाद अध्ययन भूतपूर्व उपनिवेशों में होने वाले अनुवादों का अध्ययन करती है। यह विषय इस सोच की गहन जाँच करती है, जिस के अन्तर्गत यह माना जाता है कि दो भिन्न भाषओं और संस्कृतियों के बीच ही अनुवाद सम्भव है।
लैंगिक अध्ययन
[संपादित करें]लैंगिक अध्ययन में मूलतः अनुवादक के लिंग एवं ग्रंथों के लैंगिक स्वरूप की चर्चा की जाती है। लैंगिक अध्ययन, लैंगिक अलंकारो के प्रयोग की पड़ताल करती है, जिसके द्वारा अनुवाद की क्रिया का वर्णन करा जाता है। इस क्षेत्र में शेरि साइमन, कीथ हार्वे व लूइ वॉन फ्लोटो ने काफी योगदान दिया है।
नीति शास्त्र
[संपादित करें]नीति शास्त्र और अनुवाद के क्षेत्र के विकास का श्रेय एन्टोनि बेर्मेन व लॉरेंस वेनुटी को जाता है। इन्न दोनों के निबन्धों में मूल बात है दो संस्कृतियों की भिन्नत्ता एव्ं उस संस्कृति की भिन्नत्ता जिस में की अनुवाद हो रहा है। दोनों इसी बात पर ज़ोर देते हैं कि अनुवाद कि प्रक्रिया में सांस्कृतिक भिन्नताओं का संरक्षण किया जा सके। नवीनतम अध्ययन प्रखर पण्डित इमेनुअल लेविनॉस के आत्म्वाद व नीति-शास्त्र के सिद्धान्तों पर मनन करती है। कुछ विद्वान इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि अनुवाद एक नीति-बद्ध कार्य नहीं है, जबकी कई विद्वानों का मानना यह है कि लेखक और अनुवादक का रिश्ता आपसी मेल-जोल का है, जिस से यह प्रक्रिया पारस्परिक व बराबरी की हो चली है।
इन सभी अध्ययनों के सामानांतर अब अनुवादकों की ज़िम्मेदारी का आभास सब को हो चला है। अनुवादकों को अब भू-राजनीतिक मामलों में सक्रिय प्रतिभागियों के रूप में देखा जाने लगा है। इस बात से हम इस नतीजे पर पहुँचते हैं क़ि अनुवाद मात्र एक भाषा-संबंधी गतिविधि नहीं है, अपितु एक सामाजिक व राजनीतिक प्रक्रिया है।
भारत में अनुवाद अध्ययन के केंद्र
[संपादित करें]भारत में अनुवाद अध्ययन एक नयी विधा के रूप में पनप रहा है। सर्वप्रतिष्ठित तौर पर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अनुवाद अध्ययन विषय में शोध कार्य कराया जाता है। प्रो गंगा प्रसाद विमल विभाग के संस्थापक अध्यक्ष थे। फिलहाल विभाग में देवशंकर नवीन और गंगा सहाय मीणा प्राध्यापक के तौर पर काम कर रहे हैं। दोनों के प्रयास से अनुवाद अध्ययन में एम.ए. की पढाई भी शुरू हुई है। गुरु-शिष्य परम्परा में उनके शिष्य डॉ. आनंद कुमार शुक्ल ने हिंदी में अनुवाद के सैद्धांतिक पक्षों पर महत्त्वपूर्ण शोधपत्र प्रस्तुत किये हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल एवं आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी के अनुवाद कार्यों पर प्रस्तुत उनके शोध प्रबंध उल्लेखनीय हैं। इसके पश्चात हैदराबाद में स्थित दो केंद्रीय विश्वविद्यालयों में (हैदराबाद विश्वविद्यालय एवं इंग्लिश एण्ड फ़ॉरेन लेंग्वेजिज़ विश्वविद्यालय) अनुवाद अध्ययन के पृथक् विभाग हैं जहाँ शोध-कार्य करवाया जाता है। भारत में इस विधा के अन्य दिग्गजों की सूची में डॉ वी बी थाराकेश्वर का भी नाम शामिल है। उन्होनें अपना शोध कार्य हैदराबाद केंद्रिय विश्व्विद्यालय में करा, तथा अभी वे इंग्लिश एण्ड फ़ॉरेन लेंग्वेजेज़ विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।
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नाम के संदर्भ में जानकारी नहीं है। - ↑ James s., Holmes (1972/1988). The Name and Nature of Translation Studies. In Translated! Papers on Literary Translation and Translation Studies. Amsterdam: Rodopi. पपृ॰ 67–80.
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