अचलपुर
अचलपुर Achalpur | |
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अचलपुर रेलवे स्टेशन | |
निर्देशांक: 21°15′25″N 77°30′32″E / 21.257°N 77.509°Eनिर्देशांक: 21°15′25″N 77°30′32″E / 21.257°N 77.509°E | |
देश | भारत |
प्रान्त | महाराष्ट्र |
ज़िला | अमरावती ज़िला |
ऊँचाई | 369 मी (1,211 फीट) |
जनसंख्या (2011) | |
• कुल | 1,12,311 |
भाषा | |
• प्रचलित | मराठी |
समय मण्डल | भामस (यूटीसी+5:30) |
पिनकोड | 444805, 444806 |
दूरभाष कोड | 07223 |
वाहन पंजीकरण | MH-27 |
अचलपुर (Achalpur) भारत के महाराष्ट्र राज्य के अमरावती ज़िले में स्थित एक नगर है।[1][2]
इतिहास
[संपादित करें]मध्यकाल में विशेषत: 9वीं शती से 12वीं शती ई. तक अचलपुर जैन संस्कृति के केन्द्र के रूप में विख्यात था। जैन विद्वान धनपाल ने अचलपुर में ही अपना ग्रन्थ 'धम्म परिक्खा' समाप्त किया था। आचार्य हेमचंद्रसूरि ने भी अपने व्याकरण में अचलपुर का उल्लेख किया है- 'अचलपुरेचकारलकारयोर्व्यत्ययो भवति' अर्थात् अचलपुर के निवासियों के उच्चारण में च और ल का व्यत्यय (उलटफेर) हो जाता है। आचार्य जयसिंहसूरि ने 9वीं शती ई. में अपनी धर्मोपदेशमाला में अयलपुर या अचलपुर के अरिकेसरी नामक जैन नरेश का उल्लेख किया है- 'अयलपुरे दिगंबर भत्तो अरिकेसरी राजा'। अचलपुर से 7वीं शती ई. का एक ताभ्रपट्ट भी प्राप्त हुआ है।
बैतूल गजेटियर के अनुसार इस किले को राजा इल - एल ने बनाया था जिसकी राजधानी एलिजपुर वर्तमान अचलपुर महाराष्टï्र थी। राजा ईल ने ही अजंता एलोरा की गुफाओं को बनाया था जो बाद में राजा ईल - एल के नाम पर एलोरा कहलाई गई। खेरला पर राज करने वाले एक अन्य राजा जैतपाल का जिक्र पढऩे को मिलता है जिसके बारे में कहा जाता है कि उसके पास पारस पत्थर था जिसका उपयोग वह लोहे को सोना बनाने में करता था। इस राजा के कार्यकाल में टैक्स लगान न चुकाने वाले किसानो के लोहे से बने सभी उपयोगी सामान जैसे गैची, सब्बल, कुल्हाड़ी, फावड़ा तक कुर्क कर लेता था जिसे वह बाद में पारस पत्थर से सोना बना कर अपने खजाने में रखता था। अपार सोना होने के चक्कर में ही लोगो ने इस किले को आज खण्डहर का रूप दे दिया.
राजा के पास पारस पत्थर होने का खामियाजा उसे कई बार भोगना पड़ा क्योकि हर कोई प्रतिद्घंदी शासक उस किले पर चढ़ाई सिर्फ पारस पत्थर को पाने के लिए ही करता था। मराठी के एक मात्र प्राचीन गं्रथ विवेक सिंधु में खेरला राजवंश की कई कहानियो को इस ग्रंथ के रचयिता मुकुंदराज स्वामी ने लिखा है। एक जनश्रुति के अनुसार बार -बार आक्रमण और लड़ाई - मारकाट से परेशान होकर अंत समय में राजा जैतपाल ने मुगलो के पास वह अनमोल पारस पत्थर न चला जाये इस डर से पारस पत्थर को बचाने के लिए उसे इस किले से ठीक सामने उसके द्घारा बनवाये गये रावणवाड़ी के तालाब में फेक दिया था। मुगलो के बाद जब अग्रेजी शासन आया और उसे भी इस किले के राजा द्घारा रावणवाड़ी के तालाब में पारस पत्थर होने की बात पता चली तो वे भी उसे पाने के लिए भरसक प्रयास किये जिसमें अंग्रेजो द्घारा रावणवाड़ी के तालाब के चारों ओर हाथियो के पांव में लोहे की साकल - चैन को बांध कर उसे तालाब के चारों ओर घुमाने तथा उसमें कि एक मात्र लोहे की चैन - साकल के सोने बन जाने की भी जनश्रुति सुनने को मिलती है।
मिश्रित गौंड एवं राजपूत राजाओं के इस किले के एक अन्य राजा एल - ईल से मुगल सेनापति रहमान शाह दुल्हा के बीच की लड़ाई को लेकर भी कई कहानियाँ सुनने को एवं पढऩे को मिलती है। विवेक सिन्धु के अनुसार मुगल सेनापति का और जैतपाल का युद्घ हुआ था लेकिन एलिजपुर वर्तमान अचलपुर में रहमान शाह दुल्हा के धड़ की मजार के पास बनी राजा इल की मजार इस कहानी को झुठलाती है। उसके अनुसार रहमान शाह दुल्हा और राजा इल का युद्घ हुआ था। मगल सेनापति मारा गया लेकिन राजा इल के मरने की कहानी कुछ अलग ही सुनने को मिलती है। बरहाल किसी जमाने में खेरला शक्तिशाली राज्य रहा होगा जिसमें निमाड़ के अलावा 35 परगने उसके अधीन थे। 13 वी एवं 14 वी तथा15 वी सदी के दौर में खेरला राजवंश का इतिहास काफी रोमांचकारी एवं दिल को दहला देने वाली शौर्यगाथाओं से भरा हुआ है। आज सरकारी उपेक्षा एवं देखरेख के अभाव में खेरला का किला महज एक प्राचीन भारत की पहचान बन कर रह गया है।
यूं तो भारत के कई राजा-महाराजाओं के किले उनके द्वारा जमा किये गये प्रचुर खजानों से भरे पड़े हैं . विश्व के जाने- माने इतिहासकार टोलमी के अनुसार वर्तमान काल का बैतूल बीते कल के अखण्ड भारत का केन्द्र बिन्दु था। इस बैतूल में ईसा पश्चात 13० से 161 कोण्डाली नामक राजा का कब्जा था जो कि अपने आपको गौंड़ जाति का मानता था। इस अखण्ड भारत का केन्द्र बिन्दु कहा जाने वाले बैतूल जिले पर यँू तो गोंड राजा- महाराजाओं की कई पीढिय़ो ने कई सदियो तक राज किया। मुगलो के आक्रमण के पश्चात ही 35 परगनो वाले खेरला (खेड़ला) राजवंश के किले को मुगलो ने अपने अनिश्चीत हमलो के बाद हुए समझौते के तहत उसका नाम बदल कर उसे नया नाम मेहमुदाबाद कर दिया .
बैतूल जिला मुख्यालय से लगभग दस कि॰मी॰ की दूर पर स्थित ऐतिहासिक महत्त्व की धरोहर कहलाने वाला खेड़ला किला आज भी जीर्ण-शीर्ण अवस्था में मौजूद है। खण्डहर में तब्दील हो चुके इस किले की दीवारों के बेजान पत्थर आज भी अपने साथ हुए बर्बरता पूर्वक व्यवहार को चीख-चीखकर गुजरे इतिहास की गाथा को ताजा कर यहाँ पर आने- जाने वालो को एक पल के लिए स्तब्ध कर देते हैं। इतिहास के पन्नों पर अपना स्वर्णिम नाम अंकित करा चुके इस किले के बारे में अनेक किस्से कहानियाँ सुनने को मिलती है। आज भी यही किस्से कहानियाँ इन किलो के हिस्सो में खुदाई का कारण बनते चले जा रहे हैं। बैतूल जिला मुख्यालय से मात्र दस किलो मीटर की दूरी पर स्थित रावणवाड़ी ऊर्फ खेडला ग्राम के पास स्थित खेडला का किला की कई बार खुदाई हो चुकी है। एक किवदंती के अनुसार किले के सामने 22 हेक्टर की भूमि पर बना बैतूल जिले का सबसे बड़ा तालाब जिसमें एक सोने का सूर्य मंदिर धंसा हुआ है। इस मंदिर के लिए कई बार खुदाई हो चुकी लेकिन बीच तालाब में मंदिर के धंसे होने के कारण उसे चारों ओर से हजारो टन मिटट्ी के मलबे को आज तक कोई भी पूर्ण रूप से निकाल बाहर कर पाया है।
इस मंदिर को लेकर आसपास के लोगो में प्रचलित एक अधंविश्वास के अनुसार मंदिर के लिए मंदिर की खुदाई करने वाले को उसके सपने में यह मांग की जाती है कि वह अगर मंदिर में छुपे खजाने को पाना चाहता है तो उसे सबसे पहलें अपने पहले पुत्र एवं पहली पुत्रवधु की नरबलि देनी होगी . आज यही कारण है कि मंदिर तक कोई भी पहँुच पाने में सफल नहीं हो सका है। दुसरा सच्चाई यह है कि आज जिस व्यक्ति की तथाकथित परिवारिक सम्पति बने इस तालाब से बीते वर्ष ग्राम पंचायत ने खुदाई करके सैकड़ो टेक्टर टाली मिटट्ी लोगो के खेतो में डाली है जो आज इन लोगो को भरपूर पैदावर दे रही है। एक अन्य किस्से के मुताबिक राजा जैतपाल की नगरी में एक बार बहुत जमकर अकाल पड़ा . सूखे व अकाल से प्रजा में त्राहि-त्राहि का आलम व्याप्त हो गया। तब कोई संत वहां से गुजरे . राजा ने उनकी आवभगत कर उनसे राज्य में फैले सूखे व अकाल के निदान का उपाय पूछा. राजा इल के आतिथ्य से प्रसन्न महात्मा ने राजा इल से कहा कि वह अपने किल के ठीक सामने 22 एकड़ की भूमि पर तालाब खुदवाये तथा उस तालाब की खुदाई के बाद उस तालाब के बीचो बीच भगवान भोलेनाथ के मंदिर का बनवा कर उसके परास शिवलिंग की स्थापना कर उसकी प्रथम पूजा अपने पहले पुत्र व पुत्र वधू से करवाये साथ ही सूर्य के ताप को कम करने के लिए उसे भगवान सूर्य का सोने का भव्य मंदिर बनवाना होगा अगर वह ऐसा करता है तो उसके राज्य में तथा इस तालाब में कभी पानी की कमी नहीं आएगी. महात्मा की सीख के अनुसार जब राजा ने अपने पुत्र व वधू मंदिर स्थापना के बाद पूजन के लिए भेजा तब पुत्र व वधू का पूजन पूरा भी नहीं हुआ था कि वह स्थान पूरा का पूरा जलमग्न हो गया और राजा और उसके पुत्र एवं वधू उस जल में जल मग्र हो गए।
राजा इल के पुत्र एवं वधू की जल समाधि के बाद से लेकर आज तक यहां कभी पानी की कमी लोगों को महसूस नहीं होती हैं। एक अन्य कथा के अनुसार राजा इल के पास चमत्कारिक पारस पत्थर था जो उन्हें किसी महात्मा ने सेवा से प्रसन्न होने पर दिया था। साथ ही इसका दुरूपयोग करने का मना किया था। आज खेती व्यवसाय का जो कर रूपयों में लिया जाता है वह राजा इल के जमाने में पोंढरा-छनी जो लोहे की हुआ करती थी, उसे कर के बदले लिया जाता था। इसे विशाल टाके में जमा कर राजा इल इस चमत्कारिक पारस पत्थर से छुआते थे, तब वह लोहे के टुकड़े सोने में बदल जाते थे। यह कार्य पूर्णत: गुप्त रूप से हुआ करता था। यह रहस्य राजा के मरने के बाद ही आम हो पाया था। इतिहास की किताबों में भी इस बात का उल्लेख मौजूद है। साथ ही यह उल्लेख भी है कि जब राजा का सिर कट गया था फिर भी वह भीषण युद्घ कर रहे थे। तभी राजा की किसी रानी ने अपने पास के अमूल्य पारस पत्थर को मगुल शासन न हथिया ले इस डर से महल से लगभग 1.5 किमी दूर स्थित बड़े तालाब में फेंक दिया था। इस तालाब में खेडला के राजा द्वारा मुगलो से आक्रमण के पश्चात उसके पास मौजूद अमूल्य पारस मणी को फेकने की एक कथा ने गोरे अग्रेंजो तक को विचलित कर दिया था। बताया जाता है कि चार हाथियो के पैरो में लोहे की मजबुत साकल बांध कर उन्हे तालाब के चारों ओर घुमाया गया था जिसमें से मात्र एक ही साकल के लोहे के होने की साकल के सोने के बन जाने की अफवाह ने भी इस तालाब में कई बार लोगो को खुदाई करने को मजबुर कर डाला है। जिला मुख्यालय बैतूल से लगभग दस किमी दूर स्थित तालाब के पास कालांतर में जो आबादी रही थी वही आबादी आज रावणवाड़ी ग्राम के नाम से जानी जाती है।
इतिहास व किले व तालाब की आज की स्थिति जानने के लिए बारिश के बाद छायी हरियाली में इसे देखने का मन बनाया. आदिवासी जिनका जंगलो से काफी पुराना रिश्ता रहा है। सतपुड़ाचंल के घने जंगलो के बीचो-बीच स्थित राजा इल का किला आज भी भले चारों ओर हरे भरे खेत और खलिहानो से घिरा हो लेकिन बीते कल वह जंगल और जंगली जानवरो से घिरा हुआ था। आदिवासी होने के कारण राजा 'इलÓ के किले का प्रवेश द्वार 7० से 8० फीट ऊंचा होने के कारण वह किसी भी सीधे हमला का उस पर कोई असर नहीं पड़ता था। लगभग दो ढ़ाई सौ बड़े मजबूत पत्थरों को कलात्मक रूप से तराशकर उनका उपयोग शानदार सीढिय़ों के निर्माण में किया गया था। प्रवेश द्वार से राजा के महल की दूरी साढ़ चार सौ गज की है। अधिक ऊंचाई पर बने राज इल के इस किले से पूरा आसपास का क्षेत्र दिखाई पड़ जाता है। किले तक पहँुचने वाली सभी संदिग्ध गतिविधियों पर पैनी नज़र रखने के बाद भी इस किले पर अनेक बार आक्रमण हुए हैं वह सिर्फ इस महल में छुपे खजाने एवं पारस पत्थर के कारण जो इन पंक्तियो के लिखे जाने तक न तो मुगलो को मिला न आज के लालची इंसान को जिसने इसकी खोज में पूरे किले को खण्डहर का रूप दे दिया है।
इन्हें भी देखें
[संपादित करें]सन्दर्भ
[संपादित करें]- ↑ "RBS Visitors Guide India: Maharashtra Travel Guide Archived 2019-07-03 at the वेबैक मशीन," Ashutosh Goyal, Data and Expo India Pvt. Ltd., 2015, ISBN 9789380844831
- ↑ "Mystical, Magical Maharashtra Archived 2019-06-30 at the वेबैक मशीन," Milind Gunaji, Popular Prakashan, 2010, ISBN 9788179914458