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06:16, 22 जनवरी 2020 का अवतरण

स्वागत!  नमस्कार Er. Krishan Kant Saxena जी! आपका हिन्दी विकिपीडिया में स्वागत है।

-- नया सदस्य सन्देश (वार्ता) 01:00, 27 सितंबर 2018 (UTC) *[उत्तर दें]

  • शिल्पा अग्रवाल की हास्य व्यंग्य*
  • रचना*

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  • श्री गणेश के साक्षात दर्शन*

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अमरीका आकर हमें महिला शब्द का एक नया संधि- विच्छेद पता चला : महिला = मही+हिला , मही अर्थात धरती, अतः महिला का अर्थ हुआ जो चले तो धरती को हिलाए। यहाँ की पिज्जा-बर्गर की डाइट में स्थूलकाय होना कोई मुश्किल कार्य तो है नही, इसलिये हमने तो पहले ही सचेत रहने की ठानी और फिटनैस की ओर पहला कदम बढाते हुए हम सोमवार सुबह जल्दी उठ गये, जिम के लिये तैयार हुए और चल दिये सोसाइटी के जिम की ओर।

ज्यादा लोगों के जिम में होने पर हम ज़रा सहज नहीं रह पाते इसलिये अकेलेपन में सुविधाजनक रूप से व्यायाम करना अच्छा लगता है। हमने सोचा था, इतनी सुबह तो कोई होगा नही वहाँ, इसलिये हमें कोई उलझन नही होगी। पर ये क्या, हमारी आशाओं के विपरीत द्वार पर पँहुचते ही अन्दर से आ रही खटपट से हम समझ गये कि कोई हमसे भी पहले उठकर इलिप्टिकल मशीन पर कब्जा जमा चुका है। मन मसोस कर अंदर घुसे तो विस्मित रह गये। देखा कि एक तरफ श्री गणपति की सवारी मूषक महाराज ट्रेड-मिल पर दौड़ लगा रहे हैं और दूसरी ओर साक्षात गणेश जी महाराज स्नीकर्स और ट्रेकसूट पहन, कानों में हेडफ़ोन लगाकर, अपने आईपॉड टच की प्ले-लिस्ट खटाखट बदलते हुए, धमाधम इलिप्टिकल मशीन पर कैलोरीज बर्न कर रहे हैं।

हमने लम्बोदर को दण्डवत प्रणाम किया और उनसे पूछ भी लिया "प्रभु आप यहाँ अमरीका में।" मुस्करा कर विघ्नहरण बोले "देवलोक एअरलाइन्स ने आजकल हवाई टिकट के दाम कम कर दिये हैं, तो मैने सोचा ऋद्धि-सिद्धि को अमरीका ही दिखा लाऊँ।"

हमने कहा, "ये तो आपने बहुत ही अच्छा किया, इसी बहाने यहाँ की अपावन धरती भी आपके पावन चरण पड़ने से पवित्र हो गयी और हमारे जैसे भक्तों को प्रभु के दर्शन भी हो गये, वर्ना यहाँ आकर तो त्यौहारों के इस महीने का पता ही नही चलता।"

इस पर मंगलकरण मुझे सही करते हुए बोले "नही पुत्री ऐसा नही है,कल ही तो मैं ऋद्धि- सिद्धि के साथ गरबा खेलने गया था, अपने मुम्बई के लोगों से कम जोश नही था वहाँ पर। विशुद्ध भारतीय परिधानों में सजी हुई अब अमरीकी हो चुकी भारतीय बालाएँ बीयर पीकर काफी सहजता से बालिवुडिया ताल पर डांडिया खेल रही थी। इस स्थूलकाया के साथ मैं तो ज्यादा देर वहाँ टिक नही पाया और वहाँ से खिसक लिया।"

इस पर हमने पूछा, " हे गणपति! आखिर ऐसा क्या हुआ कि आपको इस जिम को अपने पावन चरणों से पवित्र करना पङा।" इतना सुनकर महादेव-पुत्र का मुख उदास हो गया बोले- "पुत्री आज तुमसे मैं मन की बात कह ही देता हूँ, देवलोक में सारे देवताओं की बालिवुडिया हीरो के जैसी मस्कुलर बाडी देखकर मैं हीनभावना का शिकार होता जा रहा हूँ, और तो और पिताश्री शिव जी महाराज भी ताँडव नृत्य कर तथा पदमासन में बैठकर सिक्स पैक एब्स बनाकर अब तक छरहरे बने हुए हैं, मुझसे ज्यादा अप्सराएँ उन्हें देख कर रीझती हैं, उनको देखकर तो मुझे ठीक वैसा ही लगता है जैसा अभिषेक बच्चन को अमिताभ बच्चन के फैन्स को देखकर।”

अभी श्री विनायक जी ने इतना ही बताया था कि उनका आई फोन "यू आर माय लव ओ जानेजाना" की धुन बजा कर, घनघना उठा और प्रभु “क्षमा करें” कहकर किनारे हो लिये। उधर से गणेश जी के वाम विराजने वाली माता ऋद्धि की आवाज आ रही थी, "प्राणनाथ आज तो आप हमें डिज़्नीलैण्ड लेकर जाने वाले थे, सुबह- सुबह अपनी सवारी लिए कहाँ चले गये?" गजमुखी ने अतिशय मिठास वाणी में घोलकर कहा "प्रिये, अन्यथा न लो, मैं शीघ्र ही आता हूँ।"

जैसे-तैसे माता ऋद्धि को समझाकर फोन रख कर गणपति अपने जिम के बैग में से एक जीरो कैलोरी ड्रिंक निकाल कर पीने लगे, फिर बोले "ये फुल-क्रीम दूध का भोग लगा कर सबने मेरा वज़न बढ़ाने की ठान ली है, अब आजकल मैं थोड़ा ध्यान करता हूँ और कैलोरी कंट्रोल कर रहा हूँ।"

फिर अपनी घड़ी देखकर जाने को उद्धत होते हुए एकदंत बोले - "एक बात और इस बार दीवाली पर भोग लगाते हुए मीठे पर नियंत्रण रखना, देसी घी की जगह ओलिव आयल के मोदक भी चढ़ाओगे तो मुझे बुरा नहीं लगेगा, दरअसल मैं डाइटिन्ग पर हूँ, और अपने मित्रों को भी अवश्य बताना।"

अब प्रभु की आज्ञा शिरोधार्यकर - हमने आप सब को उनका संदेश देकर इस शुभ कार्य का श्री गणेश किया है, अब आप भी जल्दी से ट्वीट करें, फेसबुक वाल पर शेयर करें, गूगल प्लस पर जोड़े या ब्लाग करें पर और गणेश जी की इस इच्छा के बारे में अपने मित्रों को अवश्य बताएँ, देखें फिर कैसे विघ्न-हरण कैसे आपके विघ्नों को हरते हैं।

२४ अक्तूबर २०११

story

  • रामकिशन भँवर की हास्य* *व्यंग्य रचना*

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  • हाय मेरी प्याज*

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क्या पता था कि प्याज के दिन ऐसे बहुरंगे कि वह सौ फीसदी वी.आई.पी. हो जाएगा। प्याज खाना हैसियत वाले आदमी की पहचान बन गई है। क्यो भाई साब... प्याज खा रहे है, वह भी सलाद में, क्या ठाठ है। सब्जी मंडी में प्याज के दुकानदार के चेहरें की रौनक के भी क्या कहने! अब वह पहले वाला दुकानदार नहीं है कि आप गए और बैठकर छाँटने लगे - प्याज। बात यहीं कोई एक हफ्ते पहले की है जब प्याज २० रुपए किलो पर ठनठना रहा था। अपनी औकात और छुई-मुई शान के वास्ते आधा किलो प्याज ली, चलते वख्त रास्ते में एक प्याज गिर गई, मैंने गाड़ी रोककर उसे ऐसे सहेजते हुए उठाया, जैसे कोई गिन्नी गिर गई हो। उन दिनों की वह खरीदी गई आधा किलो प्याज कितने दिन मेरे घर पर मुख्य अतिथि की तरह रही, इसकी गणना यह लिखते समय मेरे पास ठीक-ठीक उपलब्ध नही है।

अभी कल ही तो दिल्ली में सस्ती प्याज पाने के लिए लोगों की ऐसी लम्बी लाईन थी कि टेलीविजन का चौखटा काफी छोटा पड़ गया। होटल में खाने की मेज पर यदाकदा सलाद की प्लेट में एक दो लच्छे दिख भर जाएँ तो ऐसा लगता कि जैसे मैं आम आदमी से तुरंत खास बन गया। लोगों की नजरें चुराकर प्याज के दो छल्लों को कपोल कवलित करने के बजाए पतलून की जेब में रख लेता हूँ, घर पहुँचने पर उन छल्लों को बच्चों को दिखा कर कहता हूँ कि देख लाले, यह है प्याज, हो गए न हम मोहल्लें में इनीगिने लोगों की हैसियत वाला। मेरा बच्चा छल्ला देखकर एक बार रोमांचित होकर बोल पड़ा था, हाय पापा, सुमित बहुत नक्शा मारता था, कि उसके पापा मार्केट से रोज प्याज लाते है। अब तो मै भी कह सकता हूँ कि मेरे पापा दि ग्रेट...। मेरा मन अंदर से कह रहा था कि उससे कह दूँ कि स्कूल के बैग में प्याज का छल्ला रख लें और फिर साथियों को दिखा कर वापस ले आना। पर हाय मेरा मोह माया। मन नही हो रहा था कि प्याज को अपने हाथ से एक पल के लिए दरकिनार करूँ। प्याज तू न गई मेरे मन से... यही माकूल टाईटिल होता न, यदि दिनकर जी जिंदा होते। दिगम्बरी भाई लोग जो तरह-तरह की रोक टोक की बिना पर प्याज को नाकारा समझते थे... वह भी प्याजगोशों को समझाने में लग गए है... अरे एक मुझे देखों प्याज खाते ही नहीं, प्याज न खाने वाले( महँगी के कारण न खरीद पाने वाले) उनकी टोली में आ गए है।

आम आदमी के पसीने उस समय छूटने लगते है जब दुकानदार मुँहतोड़ जवाब फेंकता है, ओ बाबू साहेब... प्याज है प्याज, घुइयाँ नहीं। लेना हो तो लो, वरना आगे देखों। प्याज जिनके यहाँ थोड़ी बहुत स्टॉक में थी, उनके कहने ही क्या। उनके दिन सुनहरे ही समझिये। मंडी का अपना विज्ञान है। भाव कब चढ़ेंगे और कित्ते दिन चढ़े रहेंगे, यह उनका अपना गणित है। मेरे एक परिचित आमदनी वाले विभाग में कार्यरत है, मैंने उनसे एक दिन कहा - भई कभी अपनी नजरें प्याजखोरों पर तिरछी कर लो। बोले, 'क्या तिरछी नजरे करूँ खाक, प्याज मिल रही है आगे से न सही पीछे से।'

२० रुपए किलो वाली प्याज में से एक प्याज लेकर आप सुबह सुबह सामने रखकर बैठ जाइए, धीरे-धीरे पहले ऊपर का छिल्का उतारिये फिर आगे के छिलके उतारते चले जाइए। सावधान आप मन में सब्जी बनाने का इरादा न कीजियेगा। जो छिल्का उतार रहे है न, समझिये वही वही प्याज है। अब आप क्या पाते है कि प्याज है और है तो वह छिलकों में। बचा सिर्फ शून्य। यही शून्य परम तत्व है। परम विज्ञान है। भगवत प्राप्ति का संतसम्मत साधन। छिल्कों की पर्त के संगठन का नाम प्याज है और उनके बिखराव में प्याज तिरोहित हो रही है। शून्य बच रहा है। जो दिख रहा है वो है नहीं... और जो नहीं है वो दिख रहा है। सरकार इस दिशा में किसी न किसी तरह से प्रयोग कर सकती है। एक अपील जारी कर सकती है। लीजिए एक प्याज और भोरहरे उठ बैठिए, प्याज साधना कीजिये... सारे मर्ज दूर। न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी।

जैसे एक सीढ़ी होती है, कोई चढ़ता है फिर उतरता है - यह एक सामान्य सा नियम है। चढ़ा है तो उतरेगा और उतरा है तो चढ़ेगा। यहीं है न। पर जरूरत की वस्तुओं के भाव मंडी में तो ऊँचान तक बड़ी देर तक रुके रहते है। चढ़ गए तो चढ़ गए, अब लखियों मनौती मनाओं... पर उतरेंगे नहीं। बस चढ़े है तो...। जैसे जरूरतों के बाजार में भाव मरखैना सांड़ हो गया हो। और अपनी प्याज... चढ़ी जो चढ़ती चली गई।

कल के लिए कागज के पन्ने कोरे है सिर्फ यह लिखने के वास्ते कि बेटा वह भी समय था जब २० रुपए किलो वाली प्याज तुम्हारें दादा जी बाजार से लाते थे। और २१ वीं सदी का लल्ला बोल उठेगा...हाय...सच ममी...तब इत्ती सस्ती थी प्याज...।

१८ जनवरी २०१० Er. Krishan Kant Saxena (वार्ता) 02:49, 13 जनवरी 2020 (UTC)[उत्तर दें]

Krishan Kant Saxena Er. Krishan Kant Saxena (वार्ता) 12:55, 13 जनवरी 2020 (UTC)[उत्तर दें]

Story Er. Krishan Kant Saxena (वार्ता) 14:45, 13 जनवरी 2020 (UTC)[उत्तर दें]

Very nice Nishikant Saxena (वार्ता) 14:51, 16 जनवरी 2020 (UTC)[उत्तर दें]

Story

  • रामकिशन भँवर की हास्य* *व्यंग्य रचना*

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  • हाय मेरी प्याज*

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क्या पता था कि प्याज के दिन ऐसे बहुरंगे कि वह सौ फीसदी वी.आई.पी. हो जाएगा। प्याज खाना हैसियत वाले आदमी की पहचान बन गई है। क्यो भाई साब... प्याज खा रहे है, वह भी सलाद में, क्या ठाठ है। सब्जी मंडी में प्याज के दुकानदार के चेहरें की रौनक के भी क्या कहने! अब वह पहले वाला दुकानदार नहीं है कि आप गए और बैठकर छाँटने लगे - प्याज। बात यहीं कोई एक हफ्ते पहले की है जब प्याज २० रुपए किलो पर ठनठना रहा था। अपनी औकात और छुई-मुई शान के वास्ते आधा किलो प्याज ली, चलते वख्त रास्ते में एक प्याज गिर गई, मैंने गाड़ी रोककर उसे ऐसे सहेजते हुए उठाया, जैसे कोई गिन्नी गिर गई हो। उन दिनों की वह खरीदी गई आधा किलो प्याज कितने दिन मेरे घर पर मुख्य अतिथि की तरह रही, इसकी गणना यह लिखते समय मेरे पास ठीक-ठीक उपलब्ध नही है।

अभी कल ही तो दिल्ली में सस्ती प्याज पाने के लिए लोगों की ऐसी लम्बी लाईन थी कि टेलीविजन का चौखटा काफी छोटा पड़ गया। होटल में खाने की मेज पर यदाकदा सलाद की प्लेट में एक दो लच्छे दिख भर जाएँ तो ऐसा लगता कि जैसे मैं आम आदमी से तुरंत खास बन गया। लोगों की नजरें चुराकर प्याज के दो छल्लों को कपोल कवलित करने के बजाए पतलून की जेब में रख लेता हूँ, घर पहुँचने पर उन छल्लों को बच्चों को दिखा कर कहता हूँ कि देख लाले, यह है प्याज, हो गए न हम मोहल्लें में इनीगिने लोगों की हैसियत वाला। मेरा बच्चा छल्ला देखकर एक बार रोमांचित होकर बोल पड़ा था, हाय पापा, सुमित बहुत नक्शा मारता था, कि उसके पापा मार्केट से रोज प्याज लाते है। अब तो मै भी कह सकता हूँ कि मेरे पापा दि ग्रेट...। मेरा मन अंदर से कह रहा था कि उससे कह दूँ कि स्कूल के बैग में प्याज का छल्ला रख लें और फिर साथियों को दिखा कर वापस ले आना। पर हाय मेरा मोह माया। मन नही हो रहा था कि प्याज को अपने हाथ से एक पल के लिए दरकिनार करूँ। प्याज तू न गई मेरे मन से... यही माकूल टाईटिल होता न, यदि दिनकर जी जिंदा होते। दिगम्बरी भाई लोग जो तरह-तरह की रोक टोक की बिना पर प्याज को नाकारा समझते थे... वह भी प्याजगोशों को समझाने में लग गए है... अरे एक मुझे देखों प्याज खाते ही नहीं, प्याज न खाने वाले( महँगी के कारण न खरीद पाने वाले) उनकी टोली में आ गए है।

आम आदमी के पसीने उस समय छूटने लगते है जब दुकानदार मुँहतोड़ जवाब फेंकता है, ओ बाबू साहेब... प्याज है प्याज, घुइयाँ नहीं। लेना हो तो लो, वरना आगे देखों। प्याज जिनके यहाँ थोड़ी बहुत स्टॉक में थी, उनके कहने ही क्या। उनके दिन सुनहरे ही समझिये। मंडी का अपना विज्ञान है। भाव कब चढ़ेंगे और कित्ते दिन चढ़े रहेंगे, यह उनका अपना गणित है। मेरे एक परिचित आमदनी वाले विभाग में कार्यरत है, मैंने उनसे एक दिन कहा - भई कभी अपनी नजरें प्याजखोरों पर तिरछी कर लो। बोले, 'क्या तिरछी नजरे करूँ खाक, प्याज मिल रही है आगे से न सही पीछे से।'

२० रुपए किलो वाली प्याज में से एक प्याज लेकर आप सुबह सुबह सामने रखकर बैठ जाइए, धीरे-धीरे पहले ऊपर का छिल्का उतारिये फिर आगे के छिलके उतारते चले जाइए। सावधान आप मन में सब्जी बनाने का इरादा न कीजियेगा। जो छिल्का उतार रहे है न, समझिये वही वही प्याज है। अब आप क्या पाते है कि प्याज है और है तो वह छिलकों में। बचा सिर्फ शून्य। यही शून्य परम तत्व है। परम विज्ञान है। भगवत प्राप्ति का संतसम्मत साधन। छिल्कों की पर्त के संगठन का नाम प्याज है और उनके बिखराव में प्याज तिरोहित हो रही है। शून्य बच रहा है। जो दिख रहा है वो है नहीं... और जो नहीं है वो दिख रहा है। सरकार इस दिशा में किसी न किसी तरह से प्रयोग कर सकती है। एक अपील जारी कर सकती है। लीजिए एक प्याज और भोरहरे उठ बैठिए, प्याज साधना कीजिये... सारे मर्ज दूर। न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी।

जैसे एक सीढ़ी होती है, कोई चढ़ता है फिर उतरता है - यह एक सामान्य सा नियम है। चढ़ा है तो उतरेगा और उतरा है तो चढ़ेगा। यहीं है न। पर जरूरत की वस्तुओं के भाव मंडी में तो ऊँचान तक बड़ी देर तक रुके रहते है। चढ़ गए तो चढ़ गए, अब लखियों मनौती मनाओं... पर उतरेंगे नहीं। बस चढ़े है तो...। जैसे जरूरतों के बाजार में भाव मरखैना सांड़ हो गया हो। और अपनी प्याज... चढ़ी जो चढ़ती चली गई।

कल के लिए कागज के पन्ने कोरे है सिर्फ यह लिखने के वास्ते कि बेटा वह भी समय था जब २० रुपए किलो वाली प्याज तुम्हारें दादा जी बाजार से लाते थे। और २१ वीं सदी का लल्ला बोल उठेगा...हाय...सच ममी...तब इत्ती सस्ती थी प्याज...।

१८ जनवरी २०१० Er. Krishan Kant Saxena (वार्ता) 02:52, 13 जनवरी 2020 (UTC)[उत्तर दें]

Krishan Kant Saxena Er. Krishan Kant Saxena (वार्ता) 12:55, 13 जनवरी 2020 (UTC)[उत्तर दें]

Stories

  • लघुकथाओं के क्रम में महानगर की कहानियों के अंतर्गत प्रस्तुत है*
  • पवन शर्मा की लघुकथा*

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  • तनाव*

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साल में एक बार छोटा आता ही है परिवार सहित। और जब भी छोटा आता है बड़े के दिमाग में एक तनाव बना रहता है। ये तनाव तब तक बना रहता है जब तक छोटा इस घर में रहता है। यह बात वह किसी से कहता नहीं, किसी को मालूम भी नहीं होने देता, अपनी पत्नी को भी नहीं। ये तनाव क्यों होता है जानता है वह।

जैसे ही फोन पर कबर मिलती है कि छोटा आ रहा , तब घर का नक्शा ही बदल जाता है। पूरे घर की साफ-सफाई होती है सोफे के कवर और खिड़कियाँ, दरवाजे के पर्दे बदल दिये जाते हैं। ये सब माँ ही करती है। उसकी समझ में नहीं आता कि क्यों? बैंक में मैनेजर है छोटा। ऊँची पोस्ट पर है। ऊँची सोसायटी में उठता बैठता है, शायद इसी वजह से। छोटा चाय नहीं, काफी पीता है। बच्चे हार्लिक्स पीते हैं। खाने पीने पर खास ध्यान दिया जाता है। माँ उसके ही बच्चों में खोई रहती है।

इस बीच वह यह भी महसूस करता है कि जब तक छोटा इस घर में रहता है उसका महत्त्व कम हो जाता है। किसी भी बात के लिये उससे सलाह नहीं ली जाती, नही उससे कुछ पूछा जाता है। पिताजी बैठे बैठे छोटे से ही बतियाते रहते हैं। यदि वह वहाँ पहुँच जाए तो चुप हो जाते हैं। बस, यही कारण है उसके तनाव का, वह महसूस करता है।

मोटर साइकिल स्टैंड पर खड़ी करते हुए उसने देखा कि छोटा और पिताजी ड्राइंग रूम में बैठे हुए बातें कर रह हैं। सामने टीवी चल रहा है। माँ उठकर दरवाजे पर आ गयी। माँ ने पूछा, "आज बहुत देर कर दी, कहाँ था?

"कहीं नहीं, यहीं ऐसे ही।" कहता हुआ वह अपने कमरे की ओर बढ़ गया। वह साफ झूठ बोल गया। तनाव की वजह से वह पिक्चर हाल में जाकर बैठ गया था। पिक्चर छूटने के बाद भी वह इधर-उधर घूमता रहाष रात के पूरे ग्यारह बजे तक।

वह कमरे में घुसा। बच्चे सो चुके थे। उसकी पत्नी पलंग पर लेटी हुई कोई मैगजीन पढ़ रही थी। कपड़े उतार कर वह बाथरूम में फ्रेश होने चला गया। वहाँ से आया तो तौलिये से हाथ मुँह पोंछते हुए पत्नी से बोला, "खाना लगा दो... बहुत भूख लगी है।" "अकेले ही खाओगे?" पलंग से उठती हुई पत्नी बोली। "क्यों"? "पिताजी और भाई साहब भी बिना खाना खाए बैठे हैं अभी तक... उन्होंने भी खाना नहीं खाया है। कब से तुम्हारी राह देख रहे हैं।" पत्नी ने कहा। "अरे, उन्हें खा लेना चाहिये था।" कभी तुम्हारे बगैर खाया है उन्होंने सब एक साथ ही तो खाते हैं। पत्नी ने कहा और खाना लगाने चली गई।

वह ठगा सा खड़ा रह गया उसका गहरा तनाव बर्फ बनकर पिघल गया। खाना खाने के बाद वह पूरी तरह तनावमुक्त था।

२३ जनवरी २०१२ Er. Krishan Kant Saxena (वार्ता) 15:12, 14 जनवरी 2020 (UTC)[उत्तर दें]

story

  • लघुकथाओं के क्रम में महानगर की कहानियों के अंतर्गत प्रस्तुत है*
  • पवन शर्मा की लघुकथा*

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  • तनाव*

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साल में एक बार छोटा आता ही है परिवार सहित। और जब भी छोटा आता है बड़े के दिमाग में एक तनाव बना रहता है। ये तनाव तब तक बना रहता है जब तक छोटा इस घर में रहता है। यह बात वह किसी से कहता नहीं, किसी को मालूम भी नहीं होने देता, अपनी पत्नी को भी नहीं। ये तनाव क्यों होता है जानता है वह।

जैसे ही फोन पर कबर मिलती है कि छोटा आ रहा , तब घर का नक्शा ही बदल जाता है। पूरे घर की साफ-सफाई होती है सोफे के कवर और खिड़कियाँ, दरवाजे के पर्दे बदल दिये जाते हैं। ये सब माँ ही करती है। उसकी समझ में नहीं आता कि क्यों? बैंक में मैनेजर है छोटा। ऊँची पोस्ट पर है। ऊँची सोसायटी में उठता बैठता है, शायद इसी वजह से। छोटा चाय नहीं, काफी पीता है। बच्चे हार्लिक्स पीते हैं। खाने पीने पर खास ध्यान दिया जाता है। माँ उसके ही बच्चों में खोई रहती है।

इस बीच वह यह भी महसूस करता है कि जब तक छोटा इस घर में रहता है उसका महत्त्व कम हो जाता है। किसी भी बात के लिये उससे सलाह नहीं ली जाती, नही उससे कुछ पूछा जाता है। पिताजी बैठे बैठे छोटे से ही बतियाते रहते हैं। यदि वह वहाँ पहुँच जाए तो चुप हो जाते हैं। बस, यही कारण है उसके तनाव का, वह महसूस करता है।

मोटर साइकिल स्टैंड पर खड़ी करते हुए उसने देखा कि छोटा और पिताजी ड्राइंग रूम में बैठे हुए बातें कर रह हैं। सामने टीवी चल रहा है। माँ उठकर दरवाजे पर आ गयी। माँ ने पूछा, "आज बहुत देर कर दी, कहाँ था?

"कहीं नहीं, यहीं ऐसे ही।" कहता हुआ वह अपने कमरे की ओर बढ़ गया। वह साफ झूठ बोल गया। तनाव की वजह से वह पिक्चर हाल में जाकर बैठ गया था। पिक्चर छूटने के बाद भी वह इधर-उधर घूमता रहाष रात के पूरे ग्यारह बजे तक।

वह कमरे में घुसा। बच्चे सो चुके थे। उसकी पत्नी पलंग पर लेटी हुई कोई मैगजीन पढ़ रही थी। कपड़े उतार कर वह बाथरूम में फ्रेश होने चला गया। वहाँ से आया तो तौलिये से हाथ मुँह पोंछते हुए पत्नी से बोला, "खाना लगा दो... बहुत भूख लगी है।" "अकेले ही खाओगे?" पलंग से उठती हुई पत्नी बोली। "क्यों"? "पिताजी और भाई साहब भी बिना खाना खाए बैठे हैं अभी तक... उन्होंने भी खाना नहीं खाया है। कब से तुम्हारी राह देख रहे हैं।" पत्नी ने कहा। "अरे, उन्हें खा लेना चाहिये था।" कभी तुम्हारे बगैर खाया है उन्होंने सब एक साथ ही तो खाते हैं। पत्नी ने कहा और खाना लगाने चली गई।

वह ठगा सा खड़ा रह गया उसका गहरा तनाव बर्फ बनकर पिघल गया। खाना खाने के बाद वह पूरी तरह तनावमुक्त था।

२३ जनवरी २०१२ Er. Krishan Kant Saxena (वार्ता) 15:12, 14 जनवरी 2020 (UTC)[उत्तर दें]

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I will change everything

जनवरी 2020

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