पंजी (मिथिला)
मिथिला (भारत और नेपाल दोनों में) के ब्राह्मण एवं मैथिल कर्ण कायस्थ समुदायों की लिखित वंशावली को पंजी या पंजी प्रबन्ध कहते हैं। यह हरिद्वार में प्रचलित हिन्दू वंशावली जैसी ही है।
पंजीप्रथा का आरम्भ सातवीं सदी में हुआ। इसके अंतर्गत लोगों का वंशवृक्ष रखा जाता था। विवाह के समय इस बात का ध्यान रखा जाता था कि वर पक्ष से सात पीढ़ी और वधू पक्ष से छह पीढ़ी तक उत्पत्ति एक हो। प्रारंभ में यह कंठस्थ था। बाद में स्थानीय स्तर पर कुछ पढ़े-लिखे लोगों ने इसका विवरण रखना शुरू किया। प्रारंभिक छह-सात सौ वर्षों तक यह पूरी तरह व्यवस्थित नहीं हुआ था।[1]
1326 ई. में मिथिला के कर्नाट वंशी शासक हरिसिंह देव के शासनकाल में इसे औपचारिक रूप से लिपिबद्ध और संग्रहित किया गया। इसके लिए उन्होंने रघुनंदन राय नामक एक ब्राह्मण को गाँव-गाँव भेजा। उन्होंने स्थानीय लोगों से बात कर उनके वंशवृक्ष के बारे में जानकारी एकत्र की और उसे लिपिबद्ध किया। बाद में भी इसे पीढ़ी दर पीढ़ी अद्यतन किया जाता रहा और अब तक यह कार्य चल रहा है।
पंजी में 1700 गांवों की चर्चा है। इसमें 180 मूल वास स्थान हैं, जहां आदि पूर्वजों का जन्म हुआ। 1520 मूलक ग्रामों का उल्लेख है, जहां मूल वास स्थान से स्थानांतरित होने के बाद उनके पूर्वज जाकर बसे।
मिथिला के कर्नाट वंशी शासक हरिसिंह देव के समय मैथिल ब्राह्मणों के साथ साथ उस क्षेत्र में रहनेवाले कायस्थ, भूमिहार, राजपूत, वैश्य वर्ण में शामिल कुछ जातियों के भी पंजी बनने का उल्लेख मिलता है। बाद में अद्यतन नहीं करने के कारण विवाह में इनका उपयोग नहीं हो पाता था जिससे अधिकांश पंजियां नष्ट हो गईं। अब केवल मैथिल ब्राह्मणों और मैथिल कर्ण कायस्थ की पंजी मिलती है। इन दोनों जातियों में वैवाहिक संबंध तय करते समय अभी भी पंजी के सहारे वंशवृक्ष मिलाना आवश्यक माना जाता है। मिलान के बिना विवाह पर हंगामा होने लगता है।
सन्दर्भ
[संपादित करें]इन्हें भी देखें
[संपादित करें]बाहरी कड़ियाँ
[संपादित करें]- मैथिल ब्राह्मण तथा कर्ण कायस्थ पंजी व्यवस्था
- Bihar government site about Mithila including Panjikars
- A history of Panji system in North India
- Times Of India article on Brahmins Panjis
- JSTOR article on the usage of Panjis on Mithila and Bengal
- Times of India article on Saurath Sabha in Madhubani
- Kinship ritual and visual imagery in Mithila
- Review of the book 'Panjik Sarvekshan'