चित्रित धूसर मृद्भाण्ड संस्कृति
भौगोलिक विस्तार | उत्तर भारत |
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काल | लौह युग |
तिथियाँ | c. 1200–600 BCE |
मुख्य स्थल | हस्तिनापुर मथुरा अहिच्छत्र पानीपत जोगनाखेड़ा रूपनगर भगवानपुर कौशाम्बी |
विशेषताएँ | विस्तृत लौह धातुकर्म निवासों की किलेबन्दी |
पूर्ववर्ती | Cemetery H culture Black and red ware Ochre Coloured Pottery culture |
परवर्ती | महाजनपद |
चित्रित धूसर मृदभांड संस्कृति (अंंग्रेजी-Painted Grey Ware Culture) उत्तर भारत की ताबा और लोहा से संबंधित संस्कृति है। इस संस्कृति से संबंधित स्थलों पर लोहे के प्रयोग के प्रारंभिक साक्ष्य मिले हैं ।उत्तर भारत के लौह युुग का इस संस्कृति से निकट का संबंध है। [1] यह मिट्टी केे बर्तनों की एक परंपरा है जिसमें स्लेटी रंग के बर्तनों पर काले रंग से डिजाइन किया जाता था।
खोज
[संपादित करें]इस संस्कृति को पहली बार 1940 से 1944 के बीच खुदाई केेे दौरान अहिच्छत्र (बरेली जिले) में खोजा गया था। इसके बाद 1950-52 के दौरान बी.बी.लाल द्वारा हस्तिनापुर के पूर्ण उत्खनन से इस संस्कृति के संदर्भ में महत्वपुर्ण साक्ष्य मिलें। उस समय (जब C-14 कालांकन विधि अस्तित्व में नहीं थी) हस्तिनापुर में इस संस्कृति का कालांकन 1100-800 बी सी ई के बीच किया गया। हस्तिनापुुुर में लाल की परियोजनाा के बाद के अन्वेषणों से हरियाणा, पंजाब, उत्तरी राजस्थान और उत्तर प्रदेश राज्य में 650 चित्रित धूसर मृदभांड संस्कृति के स्थल प्रकाश में आए।[2] जिससे इसकी भौतिक संस्कृति और कालक्रम के विषय में हमारेे ज्ञान में वृद्धि हुई।पाकिस्तान में खोजे गए स्थलों को छोड़कर भारत में अब तक इस संस्कृति से संबंधित लगभग 1161 पुरातात्विक स्थल खोजे जा चुके हैं।
भौगोलिक विस्तार
[संपादित करें]गंगा,सतलुज तथा घग्गर-हकरा नदियों के मैदान इस संस्कृति के केंद्रीय स्थल हैं।यह संस्कृति भारत के पंजाब, हरियाणा, उत्तर-पूर्वी राजस्थान, उत्तर प्रदेश, पूर्व-उत्तरी भारत, पाकिस्तान के सिंध और दक्षिणी पंंजाब तथा नेपाल के कुछ क्षेत्रों तक विस्तरित है। परंतु इसका सर्वाधिक संकेंद्रण पश्चिमी गंगा घाटी और पूर्वी घग्गर हकरा घाटी में है। उत्तर प्रदेश में अहिच्छत्र ,हस्तिनापुर ,कौशांबी ,श्रावस्ती ,श्रृंगवेरपुर ,मथुरा तथा बिहार में वैशाली, जम्मू में मांडा, मध्यप्रदेश में उज्जैन, पंजाब में रोपड़,राजस्थान में नोह और हरियाणाा में भगवानपुरा इस संस्कृति के प्रमुख स्थल हैं। इसका विस्तार क्षेत्र उत्तर में मांडा,दक्षिण में उज्जैन,पूर्व में तिलारकोट (नेपाल) और पश्चिम में लखियोपीर (सिंध, पाकिस्तान) तक है। ऊपरी गंगा घाटी में यह संस्कृति अधिक संकेंद्रित है। मध्य और निचली गंगा घाटी में इस संस्कृति के स्थल सीमित मात्रा में पाए गए हैं जो बाद की अवधि के आरंभिक उत्तरी काली पोलीस वाले मृदभांड के सांस्कृतिक चरण से प्राप्त किए गए हैं। जिससेेे यह स्पष्ट होता है कि पूर्व-उत्तरी भारत में चित्रित धूसर मृदभांड संस्कृति का विस्तार सीमित रूप सेेे और बाद की अवधि में हुआ।
कालक्रम
[संपादित करें]बी.बी.लाल ने व्यवधान के लिए लगभग 200 वर्ष का समय निर्धारित किया था। हस्तिनापुर में चित्रित धूसर पात्र-परम्परा का अन्त इस प्रकार 800 ई.पू. के लगभग निर्धारित किया गया। चित्रित धूसर पात्र-परम्परा के स्तरों का औसत निक्षेप 1.50 से 2.10 मीटर तक मिला है। चित्रित धूसर पात्र-परम्परा के इस समग्र सांस्कृतिक जमाव के लिए 300 वर्षों की अवधि अनुमानित की गई। इस प्रकार हस्तिनापुर में चित्रित धूसर पात्र-परम्परा की तिथि 1100 ई.पू. से 800 ई.पू. के मध्य निश्चित की गयी। लाल का मत है कि इस पात्र-परम्परा के प्रयोक्ता सरस्वती दृषद्वती की घाटियों में पहले आये तथा सतलज-यमुना के मध्यवर्ती क्षेत्र में बाद में पहुँचे इसलिए उत्तरी राजस्थान में इसकी प्राचीनतम सीमा रेखा 1200 ई.पू. के आस-पास खींची जा सकती है।
रोपड में चित्रित धूसर पात्र-परम्परा की तिथि पुरातात्त्विक साक्ष्यों के आधार पर लगभग 1000 ई.पू. से 700 ई.पू. के मध्य निर्धारित की गयी है। उत्तर प्रदेश के एटा जिले में स्थित अतरंजीखेड़ा के उत्खनन से भी चित्रित धूसर पात्र-परम्परा के कालक्रम पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है। उत्खाता आर.सी. गौड़ के अनुसार इस पुरास्थल पर विभिन्न संस्कृतियों का एक अविछिन्न क्रम मिलता है। अतरंजीखेड़ा में एन.बी.पी. पात्र-परम्परा के पहले तीन पुरातात्त्विक संस्कृतियों के प्रमाण मिले हैं : 1. प्रथम सांस्कृतिक काल : गैरिक मृद्भाण्ड, 2. द्वितीय सांस्कृतिक काल : कृष्ण-लोहित मृद्भाण्ड-परम्परा, 3. तृतीय सांस्कृतिक काल चित्रित धूसर पात्र - परम्परा । अतरंजीखेड़ा में चित्रित धूसर पात्र-परम्परा के काल का जमाव 80 सेमी से 2.20 मीटर तक मिला है। इस सम्पूर्ण जमाव को तीन उपकालों में विभाजित किया गया है 1. निचला उपकाल, 2. मध्यवर्ती उपकाल, 3. ऊपरी उपकाल। इस आधार पर यहाँ पर चित्रित धूसर पात्र-परम्परा के प्रचलन का प्राचीनतम समय बारहवीं शताब्दी ई.पू. माना गया है।
रेडियो कार्बन तिथियाँ कई उत्खनित पुरास्थलों से चित्रित धूसर पात्र-परम्परा से सम्बन्धित स्तरों की रेडियो कार्बन तिथियाँ उपलब्ध हैं। इन पुरास्थलों में हस्तिनापुर, अतरंजीखेड़ा, अहिच्छत्र तथा नौह आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। कार्बन तिथियों इस संस्कृति की कालावधि को 800 से 400
ई.पू.के मध्य निर्धारित करती है।
इस उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि चित्रित धूसर पात्र-परम्परा का तिथिक्रम विवादपूर्ण है। इस सम्बन्ध में किसी निश्चित निष्कर्ष तक पहुँचने के लिए उपलब्ध साक्ष्य पर्याप्त नहीं है। उपलब्ध तथ्यों के आलोक से इसका कालानुक्रम 1000-600- ई.पू. के मध्य प्रस्तावित किया जा सकता है।धि को 800 से 400 ई.पू. के मध्य निर्धारित करती हैं।
मृद्भाण्ड के प्रकार
[संपादित करें]चित्रित धूसर मृदभांड संस्कृति के बर्तन अपने पूर्ववर्ती संस्कृतियों से काफी अलग प्रकार की शैली प्रदर्शित करते हैं। इस संस्कृति के सभी स्थल कुछ क्षेत्रीय विविधताओं के साथ समरूपी हैं।इस संस्कृति के प्रमुख बर्तन कटोरे तथा थालियाँ हैं। पंजाब के रोपड़ जिले से एक लोटा भी प्राप्त हुआ है तथा कुछ बड़े आकार के बर्तन जैसे घड़े और अवतल किनारे वाले कटोरे भी प्राप्त हुए हैं।इन मृद्भांडों में मेज पर खाने के बर्तनों की अधिकता है जो संभवतः धनी वर्ग के लोगो द्वारा उपयोग किया जाता था।इस काल में काली परत वाले मृद्भाण्ड, चित्रहीन स्लेटी मृद्भाण्ड तथा काले और लाल मृद्भाण्ड भी प्रचलन में थे तथा चित्रित धूसर मृदभांड कुल बर्तनों का एक छोटा हिस्सा थे।
यह बर्तन तेज चाक पर अच्छी प्रकार से गूंदी हुई मिट्टी से बनाए जाते थे। मिट्टी चिकनी होती थी और बर्तनों का आधार काफी पतला बनाया जाता था। इनका पृष्ठभाग चिकना है तथा रंग धूसर से लेकर राख के रंग के बीच है।पकाने से पहले बर्तनों के आंतरिक और बाहरी सतह पर एक चिकनी परत लगाई जाती थी।
इन बर्तनों को काले रंग के डिजाइनों से अलंकृत किया जाता था। 50 से अधिक सजावटी पैटर्न की पहचान की गई है जिनमें से खड़े ,आडे़-तिरछे रेखा,बिन्दू समूह, वृत, अर्धवृत व स्वस्तिक चिन्ह प्रमुख हैं। यह चित्रण अधिकांशतः बाहरी सतह पर मिलते हैं परंतु कुछ बर्तनों में अंदर की सतह पर भी सजावट हैं। बर्तनों को पकाने से पहले अलंकृत किया जाता था।
इस संस्कृति के लोगों ने बर्तनों को मनचाहा रंग देने के लिए एक बहुत ही उन्नत और नवीन तकनीक का प्रयोग किया जिससे उनकी रचनात्मक कुशलता और विशेषज्ञता का पता चलता है।बर्तनों को 600 डिग्री सेल्सियस के तापमान पर लगातार कम होती आँच के साथ पकाया जाता था जिससे कि समान तापमान पर नहीं पक पाने के कारण बर्तनों का रंग लाल के बजाय धूसर या राख के रंग का हो जाता था तथा एक समान तथा सपाट स्लेटी रंग प्राप्त होता था। इससे यहां के लोगों की नवाचारी प्रवृत्ति का पता चलता है।[3]
लोहे का प्रयोग
[संपादित करें]==समाज और संस्कृति==bdh jshhwvvxvhhdgye
संस्कृति का अंत
[संपादित करें]संदर्भ
[संपादित करें]- ↑ Dangi, Vivek (2018). "Iron Age Culture of North India". researchgate.net. अभिगमन तिथि 7 मई 2021.
- ↑ Lal, B.B (1982). History of Civilization of Central Asia. 41 V.A.Bungalow Road,Jawahar Nagar,Delhi: Motilal Banarsidass Publication Private Limited. पपृ॰ 421–440.सीएस1 रखरखाव: स्थान (link)
- ↑ राय, डाॅ. सिद्धार्थ शंकर (2020). भारत का इतिहास-1 (PDF). नई दिल्ली: इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय. पपृ॰ 199–200. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-93-89969-68-9.