हेमिपटेरा

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
खटमल

हेमिपटेरा (Hemiptera, हेमि (hemi) आधा, टेरॉन (pteron) एक पंख) के अंतर्गत खटमल, जूँ, चिल्लर, शल्क कीट (जैसे लाख का कीड़ा), सिकाडा (Cicada) और वनस्पति खटमल (जिसे गाँवों में लाहीं कहते हैं)। इन्हें 'मत्कुणगण' भी कहा जाता है। मत्कुण का अर्थ होता है खटमल। इस प्रकार की कीटों को हेमिप्टेरा नाम सबसे पहिले लीनियस (Linnaeus) ने 1735 ई. में दिया था। इस नाम का आधार यह था कि इस गण की बहुत सी जातियों में अग्रपक्ष (आगे के पंख) का अर्ध भाग झिल्लीमय और शेष अर्ध भाग कड़ा होता है। किंतु यह विशिष्टता इस गण के सब कीटों में नहीं पाई जाती। सबसे महत्वपूर्ण लक्षण जो इस गण की सभी जातियों में मिलता है और जिसकी ओर सबसे पहले फेब्रीसियस (Fabricius) का ध्यान सन्‌ 1775 में गया था, इन कीटों के मुख भाग हैं। मुख भाग में चोंच के आकार का शुंड होता है, यह सुई के समान नुकीला और चूसनेवाला होता है। इससे कीट छेद बना सकता है अधिकांश कीट पौधों के रस इसी से चूसते हैं। इससे ये पौधों को अत्यधिक हानि पहुंचाते हैं। हानियाँ दो प्रकार से हो सकती हैं- एक तो रस के चूसने से और दूसरी विषाणु (virus) के प्रविष्ट कराने से। इन कीटों का रूपांतरण अपूर्ण होता है। इनमें से अधिकांश कीट छोटे अथवा मध्य श्रेणी के होते हैं किंतु कोई कोई बहुत बड़े भी हो सकते हैं, जैसे जलवासी हेमिप्टेरा और सिकाडा। साधारणतया इन कीटों का रंग हरा या पीला होता है किंतु सिकाडा लालटेन मक्खी और कपास के हेमिप्टेरे के रंग प्राय: भिन्न होते हैं।

शरीररचना[संपादित करें]

शिर की आकृति विभिन्न प्रकार की होती है। शृंगिकाएँ प्राय: चार या पाँच खंडवाली होती हैं, किंतु सिलाइडी (Psyllidae) वंश के कुछ कीटो में दस खंडवाली और काकसाइडी वंश के कुछ नरों में पचीस खंडवाली भी होती हैं। मुखभाग छेद करके भोजन चूसने के लिए बने होते हैं। चिबुकास्थि (mandible) जंभिका (maxilla) सुई के आकार की होती हैं, सब आपस में सटे रहते हैं और मिलकर शुंड बनाते हैं। प्रत्येक जंभिका में दो खाँचेश् होते हैं और दोनों जंभिका आपस में इस प्रकार सटी रहती हैं कि दोनों ओर के खाँचों से मिलकर दो महीन नलियाँ बन जाती हैं। इस प्रकार बनी हुई नलियों में से ऊपरवाली चूषणनली कहलाती है और इसके द्वारा भोजन चूसा जाता है। नीचेवाली नली से होकर पौधे के भीतर प्रवेश करने के लिए लार निकलती है इसलिए इसको लारनली कहते हैं। लेबियम में कई खंड होते हैं। यह म्यान के आकार का होता है; इसमें ऊपर की ओर एक खाँच होती है जिसमें अन्य मुखभाग, जिस समय चूसने का कार्य नहीं करते, सुरक्षित रहते हैं। लेबियम भोजन चूसने में कोई भाग नहीं लेता। जंभिका तथा लेबियम की स्पर्शिनियों का अभाव रहता है। वक्ष के अग्रखंड का ऊपरी भाग बहुत बड़ा तथा ढाल के आकार का होता है। टांगों के गुल्फ (tarsus) दो या तीन खंडवाले होते हैं। पक्षों में विभिन्नताएँ पाई जाती हैं और शिराओं (veins) की संख्या बहुत कम रहती है। यह गण पक्षों की रचना के आधार पर दो उपगणों में विभाजित किया गया है। एक उपगण हेटरॉप्टेरा (Heteroptera) के अग्रपक्ष हेमइलायटरा (hemelytra) कहलाते हैं। इनका निकटस्थ भाग चिमड़ा होता है और इलायटरा से मिलता जुलता है, केवल अर्ध भाग ही इलायटरा की तरह होता है, इसी कारण इस उपगण को हेमइलायटरा या अर्ध इलायटरा कहते हैं। पक्षों का दूरस्थ भाग झिल्लीमय होता है। पश्चपक्ष सदा झिल्लीमय होते हैं और जब कीट उड़ता नहीं रहता उस समय अग्रपक्षों के नीचे तह रहते हैं। अग्रपक्षों का कड़ा निकटस्थ भाग दो भागों में विभाजित रहता है। अगला भाग जो चौड़ा होता है, कोरियम (Corium) कहलाता है, तथा पिछला भाग जो सँकरा होता है केवस (Clavus) कहलाता है। कभी कभी कोरियम भी दो भागों में विभाजित हो जाता है। दूसरा उपगण होमोपटेरा (Homoptera) है क्योंकि इनके समस्त अग्रपक्ष की रचना एक सी होती है। अग्रपक्ष पश्चपक्षों की तुलना में प्राय: अधिक दृढ़ होते हैं। इस उपगण की बहुत सी जातियाँ पक्षहीन भी होती हैं, किन्हीं किन्हीं जातियों के केवल नर ही पक्षहीन होते हैं, या नरों में केवल एक ही जोड़ी पक्ष होते हैं। अंडरोपण इंद्रियाँ प्राय: ही पाई जाती हैं।

परिवर्धन[संपादित करें]

अधिकांश हेमिपटेरा गण के अर्भक (nymph) की आकृति प्रौढ़ जैसी ही होती है केवल इसके पक्ष नहीं होते और आकार में छोटा होता है। यह अपने प्रौढ़ के समान ही भोजन करता है। र्निर्मोको मोल्ट्स (moults) की संख्या भिन्न भिन्न जातियों में भिन्न भिन्न हो सकती है। सिकाडा का जीवनचक्र बहुत लंबा होता है, किसी किसी सिकाडा की अर्भक अवस्था तेरह से सत्रह वर्ष तक की होती है, इसका अर्भक बिल में रहता है इसलिए इनमें बिल में रहनेवाले कीटों की विशेषताएँ पाई जाती हैं। काकसाइडी (Coccidae) वंश के नरों में तथा एल्यूरिडाइडी (Aleurididae) वंश के दोनों लिंगियों में प्यूपा की दशा का आभास आ जाता है, अर्थात्‌ इनमें निंफ के जीवन में प्रौढ़ बनने से पूर्व एक ऐसा समय आता है जब वे कुछ भी खाते नहीं हैं। यह प्यूपा की प्रारंभिक हुआ है। ये कीट इस प्रकार अपूर्व रूपांतरण से पूर्ण रूपांतरण की ओर अग्रसर होते हैं। अधिकांश हिटरॉपटेरा में एक वर्ष में एक ही पीढ़ी होती है, किंतु होमोप्टेरा में जनन अति शीघ्रता से होता है। इतनी शीघ्रता से जनन का होना बहुत महत्व रखता है और इनको बहुत हानिकारक बना होता है। ग्रीष्मकाल में बहुत से एफिड की एक पीढ़ी सात ही दिन में पूरी हो जाती है। हेरिक (Herrick) ने अनुमान लगाया है कि गोभी की एफिड में 31 मार्च से 15 अगस्त तक बारह पीढ़ियाँ उत्पन्न हो जाती हैं, इतने दिनों में एक मादा 5,64,08,72,57,50,92,54,552 एफिड उत्पन्न कर सकेगी, इनकी तौल लगभग 8,27,62,72,50,543 सेर होगी अर्थात्‌ एक वर्ष में 20,69,06,81,267 मन एफिड उत्पन्न हो जाएगी किंतु सच तो यह है कि कोई भी कीट अपनी अधिक से अधिक जननशक्ति को नहीं पहुँच पाता है, क्योंकि अनेक विपरीत परिस्थितियाँ होती हैं, अनेक शत्रु होते हैं जो इनको खा जाते हैं, जिनके कारण इनकी संख्या इतनी अधिक नहीं बढ़ने पाती। इसलिए इतनी अधिक जननशक्ति होते हुए भी इनकी संख्या बहुत नहीं बढ़ती।

जीवन[संपादित करें]

अधिकतर हेमिप्टेरागण पौधों के किसी भाग का रस चूसकर अपना निर्वाह करते हैं, केवल थोड़े से ही ऐसे हेमिप्टेरा हैं जो अन्य कीटों का देहद्रव या स्तनधारियों और पक्षियों का रक्त चूसते हैं। एफीडाइडी (Aphididae), काकसाइडी और सिलाइडी (Psyllidae) वंशों की कुछ ऐसी जातियाँ हैं जो पिटिका (gall) बनाती हैं। देहद्रव चूसनेवाले अधिकांश अन्य कीटों का ही शिकार करते हैं। ऐसी प्रकृति रिडुवाइडी (Reduvidae) वंश की कीटों और जलमत्कुणों में पाई जाती है, कुछ बड़े जलमत्कुण छोटी छोटी मछलियों और बेंगचियों (tadpole) पर भी आक्रमण करते हैं। रक्त चूसनेवाले मत्कुण कशेरुकदंडियों (Vertebretes) का रक्त चूसते हैं। रिड्डवाइडी वंश के ट्रायटोमा (Triatoma) की जातियाँ, जो अयनवृत्त में पाई जाती हैं, बुरी तरह से रक्त चूसती हैं। ट्रायटोमा मेजिस्टा (Triatoma megista) प्राणनाशक 'चागस' (Chagas) रोग मनुष्यों में फैलाता है। खटमल संसार के समस्त देशों में उन मनुष्यों के साथ पाया जाता है जो गंदे रहते हैं। ऐसा विश्वास है कि यह अनेक प्राणनाशक रोगों का संचारण करता है जैसे प्लेग, कालाआजार, कोढ़ आदि। रिडुवाइडी वंश की कुछ जातियाँ पक्षियों का भी रस चूसती हैं।

पौधों का रस चूसनेवाले कीड़े अपने सुई के समान मुखभागों को बड़ी सरलता से पौधों में घुसा देते हैं, इनकी लार में एन्जाइम (enazyme) होते हैं जो इनकी इस कार्य में सहायता करते हैं। इनमें से कुछ कीटों की लार में ऐसे एन्जाइम होते हैं जो पौधों की कोशिकाभित्ति (cell wall) को घुला देते हैं और ऊतकों को द्रव बना देते हैं। किन्हीं किन्हीं मत्कुणों की लार का एन्जाइम स्टार्च को शर्करा बना देता है। बहुत से हेमोप्टेरा के भोजन में शर्करा अधिक होती है जिसको ये बूँद बूँद कर अपनी गुदा से नि:स्रवण करते हैं। यह नि:स्राव मधु-ओस (honey-dew) कहलाता है। मधु-ओस चींटियाँ बहुत पसंद करती हैं अत: वे इनकी खोज में घूमती फिरती हैं। कोई कोई चींटियाँ मधु-ओस का नि:स्राव करनेवाली (एफिड) को अपने घोसलों में मधु-ओस प्राप्त करने के लिए ले जाती हैं और देखभाल तथा रक्षा करती हैं।

जलवासी मत्कुणों, की जल में रहने के कारण तैरने और श्वसन के लिए, देहरचना में परिवर्तन आ गए हैं। वे कीट जो जलतल पर रहते हैं उनक देह नीचे की ओर से मखमल की तरह मुलायम बालों से ढँकी रहती है जिस कारण ये कीट भीगने से बचे रहते हैं। वास्तविक जलवासियों की शृंगिकाएँ गुप्त रहती हैं क्योंकि जल में डूबे हुए कीटों को तैरने में बाधा डालते हैं। इनकी टाँगें पतवार की तरह हो जाती हैं। श्वसन के लिए भी बहुत से परिवर्तन आ जाते हैं, श्वसन इंद्रियाँ इनके पुच्छ की ओर पाई जाती हैं, ये बार बार जलतल पर आते हैं और इन इंद्रियों द्वारा श्वसन करते हैं। किन्हीं किन्हीं कीटों में वायु को अपने पास रखने का भी प्रबंध होता है, जिस कारण उनको इतनी शीघ्रता से जलतल पर नहीं आना पड़ता है और इस वायु को श्वसन करने के काम में लेते रहते हैं।

बहुत से मत्कुणों में ध्वनि उत्पन्न करनेवाली इंद्रियाँ होती हैं। ढालाकर मत्कुणों की पश्च टाँर्गों पर बहुत छोटी छोटी गुल्लिकाएँ होती हैं। जब ये कीट अपनी ये टाँगें अपने उदर पर, जो खुरखुरा होता है, रगड़ते हैं तो ध्वनि उत्पन्न होती है। कोरिक्साइडी (Corixidae) वंश के कीटों के गुल्फाग्रिका (Pretarsus) पर दंत होते हैं। जब ये दंत दूसरी ओर वाली टाँग की उर्थिका (फीमर, Femur) पर की खूटियों पर रगड़े जाते हैं तो ध्वनि उत्पन्न होती है। सिकाडा में पश्चवक्ष के नीचे की ओर एक जोड़ी झिल्लियाँ होती हैं, इन झिल्लियों में विशिष्ट प्रकार की पेशियों द्वारा कंपन होता है और इस प्रकार ध्वनि होती है। किसी किसी सिकाड़ा में ये झिल्लियाँ उदर के अग्रभाग में दोनों ओर पाई जाती हैं और ढकनों द्वारा सुरक्षित रहती हैं। हिमालय को घाटियों के जंगलों में पाए जानेवाले सिकाडा की ध्वनि लगभग बहरा करनेवाली और थकानेवाली होती है।

हानि और लाभ[संपादित करें]

मत्कुणगण पौधों को अत्यधिक हानि पहुँचाते हैं अत: इनका मनुष्य के हित से अत्यधिक संबंध रहता है। अत्यधिक हानि पहुँचानेवाली जातियों में ईख का पायरेला (Pyrilla) है जो पौधों का रस चूस ईख की वृद्धि रोक देता है। धान का मत्कुण (Leptocorisa) बढ़ते हुए धान के दानों का रस चूस लेते हैं और इस प्रकार अंत में केवल धान की भूसी ही रह जाती है। कपास का मत्कुण (Dysdercus) कपास की बोड़ियों को छेदकर हानि पहुँचाते हैं। सेब की ऊनी एफिस (Eriosoma) काश्मीर के सेबों को बहुत हानि पहुँचाता है। संतरे की श्वेत मक्खी (Dialeurodes citri) और आइसेरिया परचेसी (Icerya purchasis), जो भारत में लगभग 30 वर्ष पूर्व आस्ट्रेलिया से आई थीं, मध्य भारत में संतरे और मौसमी को बहुत हानि पहुँचाती हैं। असम में चाय मुरचा (Tea blight), जो हिलियोपिल्टिस (Heliopeltis) द्वारा होता है, चाय को बहुत हानि पहुँचाता है। सच तो यह है कि काकसाइडी और एफोडाइडी दोनों ही वंशों के कीट बहुत हानिकारक हैं। कुछ श्वेत मक्खियाँ, ट्रयूका (एफिड) और कुछ अन्य मत्कुण पौधों में वायरस प्रवेश कर भिन्न भिन्न प्रकार के रोग उत्पन्न कर हानियाँ पहुँचाते हैं।

यदि मनुष्य के लाभ की दृष्टि से देखा जाए तो लाख का कीट (Lacifer lacca) बहुत ही महत्व रखता है। इन कीटों से लाख बनती है और लाख से चपड़ा बनाया जाता है।

भौगोलिक वितरण[संपादित करें]

मत्कुणगण का वितरण बड़ा विस्तृत है, पर ये संसार के ठंडे भागों में नहीं पहुँच सके हैं। इस गण की अधिकांश जातियाँ भारत में पाई जाती हैं।

भूवैज्ञानिक वितरण[संपादित करें]

मत्कुणगा लोअर पर्मिएनयुग (Lower Permian) की कानसस (Kansas) और जर्मनी की चट्टानों में पाए गए हैं। जर्मन फासिल यूगरान (Eugeron) के मुखभाग मत्कुणगणीय हैं, केवल एक ही अंतर है कि लेबियम दो होते हैं जिनका आपस में समेकन नहीं हुआ है। पक्षों का शिराविन्यास (Venation) लगभग काक्रोच की तरह का तरह का है। इन लवणों के कारण इसको एक लुप्त हुआ पृथक्‌ गण माना जाता है और इसका नाम प्रमत्कुणगण (Protohemiptera) रखा गया है। कानसस की चट्टानों में वास्तविक मत्कुणगण सबसे प्रथम इप्सविच्‌ के अपर ट्रायस (Uppertrias of Ipswich) में मिले हैं। जुरेसिक (Jurassic) समय के पश्चात्‌ मत्कुणगा के अस्तित्वाशेष अधिकता से पाए जाते हैं। जुरेसिक समय में दोनों उपगण मिलते हैं।

वर्गीकरण[संपादित करें]

मत्कुणगण पक्षों की रचना के आधार पर दो उपगणों में विभाजित किए गए हैं - होमाप्टेरा (Homaptera) में समस्त अग्रपक्ष एक सा होता है, किंतु हिटराप्टेरा (Heteroptera) में समस्त अग्रपक्ष एक सा नहीं होता है अर्थात्‌ इसका निकटस्थ भाग कड़ा और दूरस्थ भाग झिल्लीमय होता है।

संदर्भ ग्रंथ[संपादित करें]

  • ए. डी. इम्स : ए जेनरल टेक्स्ट बुक ऑव इंटामालोजी रिवाइज्ड बाई ओ. डब्ल्यू. रिचर्ड्स ऐंड आर. जी. डेविस (1957);
  • टी. वी. आर. ऐयर : ए हैंडबुक ऑव इकोनामिक इंटामालोजी फार साउथ इंडिया (1940);
  • ए. डी. इम्स ऐंड एन. सी. चटर्जी : इंडियन फारेस्ट मेमॉइर 3 (1915);
  • डब्ल्यू. एल. डिसटैंड : फोना ऑव ब्रिटिश इंडिया (1902-18);
  • एच. एम. लेफराम : इंडियन इंसेक्ट्स लाइफ (1909)