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सेनापति (कवि)

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सेनापति भक्ति काल एवं रीति काल के सन्धियुग के कवि हैं। अन्य प्राचीन कवियों की भाँति सेनापति का जीवनवृत संदिग्ध है। इनका मूल नाम ज्ञात नहीं है, 'सेनापति' उनका कवि-नाम है। इनके द्वारा रचित 'कवित्त रत्नाकर' के छन्द के आधार पर इतना ही ज्ञात है कि ये कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे तथा इनके पिता का नाम गंगाधर तथा पितामह का नाम परशुराम दीक्षित था। इनके एक पद 'गंगा तीर वसति अनूप जिन पाई है' के अनुसार ये बुलंदशहर जिले के अनूपशहर के माने जाते हैं। सेनापति मुसलमानी दरबारों में भी रह चुके थे। सेनापति के दो मुख्य ग्रंथ हैं- 'काव्य-कल्पद्रुम' तथा 'कवित्त-रत्नाकर'। जिसकी उपमाएँ अनूठी हैं।[1]

सेनापति राम के विशेष भक्त थे। शिव तथा कृष्ण विषयक कविता लिखते हुए भी रूचि राम की ओर अधिक थी। उत्तर प्रदेश के अनूपशहर के रहने वाले थे परन्तु बाद के दिनों में वे वृन्दावन में क्षेत्र संन्यास लेकर वहीं सारा जीवन व्यतीत किए। सेनापति के काव्य में रीतिकालीन काव्य-परम्परा की झलक अधिकांश छन्दों में स्पष्ट रूप से विद्यमान है। चमत्कार प्रियता तथा नायिका भेद के उदाहरण भी उनकी कृतियों में उपलब्ध हैं।

इनकी रचनाओं में हिन्दी साहित्य की दोनों धाराओं का प्रभाव पड़ा है जिनमें भक्ति और शृंगार दोनों का मिश्रण है। इनके ऋतु वर्णन में सूक्ष्म प्रकृति निरीक्षण पाया जाता है जो साहित्य में अद्वितीय है।

सेनापति ब्रजभाषा काव्य के एक अत्यन्त शक्तिमान कवि माने जाते हैं। इनका समय रीति युग का प्रारंभिक काल है। उनका परिचय देने वाला स्रोत केवल उनके द्वारा रचित और एकमात्र उपलब्ध ग्रंथ 'कवित्त रत्नाकर' है।

इसके आधार पर इनके पितामह का नाम परशुराम दीक्षित, पिता का नाम गंगाधर दीक्षित और गुरु का नाम हीरामणि दीक्षित था। 'गंगातीर बसति अनूप जिनि पाई है' से इनका अनूपशहर निवासी होना कुछ लोग स्वीकार करते हैं; परंतु कुछ लोग अनूप का अर्थ अनुपम बस्ती लगाते हैं और तर्क यह देते हैं कि यह नगर राजा अनूपसिंह बडगूजर से संबंध रखता है जिन्होंने एक चीते को मारकर जहाँगीर की रक्षा की थी और उससे यह स्थान पुरस्कार स्वरूप प्राप्त किया था और इस प्रकार उसने अनूपशहर बसाया। अनूप सिंह की पाँच पीढ़ी बाद उनकी संपत्ति उनके वंशजों में विभक्त हुई और किन्हीं तारा सिंह को अनूप शहर बँटवारे में मिला। ऐसी दशा में सेनापति के पिता को अनूपशहर कैसे मिल सकता था। परंतु, यह तर्क विषय संबद्ध नहीं है। अनूप बस्ती पाने का तात्पर्य उस बस्ती के अधिकार से नहीं, बल्कि अपने निवास के लिए सुंदर भूमि प्राप्त करने से है। ऐसी दशा में अनूपशहर से ऐसा तात्पर्य लेने में कोई असंभवता नहीं है।

सेनापति के उपर्युक्त परिचय तथा उनके काव्य की प्रवृत्ति देखने से यह स्पष्ट होता है कि संस्कृत के बहुत बड़े विद्वान थे और अपनी विद्वता और भाषाधिकार पर उन्हें गर्व भी था। अत: उनका संबंध किसी संस्कृत-ज्ञान-संपन्न वंश या परिवार से होना चाहिए। अभी हाल में प्रकाशित कवि कलानिधि देवर्षि श्रीकृष्ण भट्ट द्वारा लिखित, 'ईश्वर विलास' और 'पद्ममुक्तावली' नामक ग्रंथों में एक तैलंग ब्राह्मण वंश का परिचय मिलता है जो तेलंगाना प्रदेश से उत्तर की ओर आकर काशी में बसा। काशी से प्रयास, प्रयाग से बांधव देश (रीवाँ) और वहाँ से अनूपनगर, भरतपुर, बूँदी और जयपुर स्थानों में जा बसा।

इसी वंश के प्रसिद्ध कवि श्रीकृष्ण भट्ट देवर्षि ने संस्कृत के अतिरिक्त ब्रजभाषा में भी 'अलंकार कलानिधि', 'श्रृंगार-रस-माधुरी', 'विदग्ध रसमाधुरी', जैसे सुन्दर ग्रंथों की रचना की थी। इन ग्रंथों में इनका ब्रजभाषा पर अपूर्व अधिकार प्रकट होता है। ऐसी दशा में ऐसा अनुमान किया जा सकता है कि इसी देवर्षि भट्ट दीक्षितों की अनूपशहर में बसी शाखा से या तो स्वयं सेनापति का या उनके गुरु हीरामणि का संबंध रहा होगा। सेनापति और श्रीकृष्ण भट्ट की शैली को देखने पर भी एक-दूसरे पर पड़े प्रभाव की संभावना स्पष्ट होती है।

सेनापति का काव्य विदग्ध काव्य है। इनके द्वारा रचित दो ग्रंथों का उल्लेख मिलता है - एक 'काव्यकल्पद्रुम' और दूसरा 'कवित्त रत्नाकर'। परन्तु, 'कवित्त रत्नाकर' परन्तु, 'काव्यकल्पद्रुम' अभी तक प्राप्त नहीं हुआ। 'कवित्तरत्नाकर' संवत्‌ 1706 में लिखा गया और यह एक प्रौढ़ काव्य है। यह पाँच तरंगों में विभाजित है। प्रथम तरंग में 97 कवित्त हैं, द्वितीय में 74, तृतीय में 62 और 8 कुंडलिया, चतुर्थ में 76 और पंचम में 88 छंद हैं। इस प्रकार कुल मिलाकर इस ग्रंथ में 405 छंद हैं। इसमें अधिकांश लालित्य श्लेषयुक्त छंदों का है परन्तु श्रृंगार, षट्ऋतु वर्णन और रामकथा के छंद अत्युुत्कृष्ट हैं।

सेनापति कृत ‘कवित्त-रत्नाकर’ की चतुर्थ तरंग का यह कवित्त देखिये जिसमें रामकथा मुक्त रुप में लिखी है-

कुस लव रस करि गाई सुर धुनि कहि,
भाई मन संतन के त्रिभुवन जानि है।
देबन उपाइ कीनौ यहै भौ उतारन कौं,
बिसद बरन जाकी सुधार सम बानी है।
भुवपति रुप देह धारी पुत्र सील हरि
आई सुरपुर तैं धरनि सियारानि है।
तीरथ सरब सिरोमनि सेनापति जानि,
राम की कहनी गंगाधार सी बखानी है।
सिवजू की निद्धि, हनूमान की सिद्धि,
बिभीषण की समृद्धि, बालमीकि नैं बखान्यो है।
बिधि को अधार, चारयौ बेदन को सार,
जप यज्ञ को सिंगार, सनकादि उर आन्यो है॥
सुधा के समान, भोग-मुकुति-निधान,
महामंगल निदान, 'सेनापति' पहिचान्यो है।
कामना को कामधेनु, रसना को बिसराम,
धरम को धाम, राम-नाम जग जान्यो है॥

पाँचवी तरंग में ८६ कवित्त हैं, जिनमें राम-रसायन वर्णन है। इनमें राम, कृष्ण, शिव और गंगा की महिमा का गान है। ‘गंगा-महिमा’ दृष्टव्य है-

पावन अधिक सब तीरथ तैं जाकी धार,
जहाँ मरि पापी होत सुरपुरपति है।
देखत ही जाकौ भलौ घाट पहिचानियत,
एक रुप बानी जाके पानी की रहति है।
बड़ी रज राखै जाकौ महा धीर तरसत,
'सेनापति' ठौर-ठौर नीकी यैं बहति है।
पाप पतवारि के कतल करिबै कौं गंगा,
पुन्य की असील तरवारि सी लसति है।

सेनापति ने अपने काव्य में सभी रसों को अपनाया है। ब्रजभाषा में लिखे पदों में फारसी और संस्कृत के शब्दों का भी प्रयोग किया है। अलंकारों की बात करें तो सेनापति को श्लेष से तो विशेष मोह था।

सेनापति का काव्य अपने सुन्दर यथातथ्य और मनोरम कल्पनापूर्ण षट्ऋतु वर्णन के लिए प्रसिद्ध हैं। ऐसा ऋतु-वर्णन हिंदी-साहित्य में बहुत कम मिलता है।

लाल-लाल टेसू, फूलि रहे हैं बिसाल संग,
स्याम रंग भेंटि मानौं मसि मैं मिलाए हैं।
तहाँ मधु काज, आइ बैठे मधुकर-पुंज,
मलय पवन, उपबन-बन धाए हैं॥
'सेनापति' माधव महीना मैं पलास तरु,
देखि-देखि भाउ, कबिता के मन आए हैं।
आधे अनसुलगि, सुलगि रहे आधे, मानौ,
बिरही दहन काम क्वैला परचाए हैं।
केतकि असोक, नव चंपक बकुल कुल,
कौन धौं बियोगिनी को ऐसो बिकरालु है।
'सेनापति' साँवरे की सूरत की सुरति की,
सुरति कराय करि डारतु बिहालु है॥
दच्छिन पवन ऐतो ताहू की दवन,
जऊ सूनो है भवन, परदेसु प्यारो लालु है।
लाल हैं प्रवाल, फूले देखत बिसाल जऊ,
फूले और साल पै रसाल उर सालु हैं॥
बृष को तरनि तेज, सहसौ किरन करि,
ज्वालन के जाल बिकराल बरसत हैं।
तपति धरनि, जग जरत झरनि, सीरी
छाँह कौं पकरि, पंथी-पंछी बिरमत हैं॥
'सेनापति' नैक, दुपहरी के ढरत, होत
घमका बिषम, ज्यौं न पात खरकत हैं।
मेरे जान पौनों, सीरी ठौर कौं पकरि कौनौं,
घरी एक बैठि, कँ घामै बितवत हैं।
'सेनापति' ऊँचे दिनकर के चलत लुवैं,
नदी नद कुवें कोपि डारत सुखाइ कै।
चलत पवन, मुरझात उपवन वन,
लाग्यो है तपन जारयो भूतलों तचाइ कै॥
भीषण तपत, रितु ग्रीष्म सकुच ताते,
सीरक छिपत तहखाननि में जाइकै।
मानौ सीतकाल सीतलता के जमाइबे को,
राखे हैं बिरंचि बीज धरा में धराइ कै॥

भाव एवं कल्पना चमत्कार के साथ-साथ वास्तविकता का चित्रण सेनापति की विशेषता है। सबसे प्रधान तत्व सेनापति की भाषा शैली का है जिसमें शब्दावली अत्यंत, संयत, भावोपयुक्त, गतिमय एवं अर्थगर्भ है।

सेनापति की भाषा शैली को देखकर ही उनके छंद बिना उनकी छाप के ही पहचाने जा सकते हैं। सेनापति की कविता में उनकी प्रतिभा फूटी पड़ती है। उनकी विलक्षण सूझ छंदों में उक्ति वैचित्रय का रूप धारण कर प्रकट हुई है जिससे वे मन और बुद्धि को एक साथ चमत्कृत करने वाले बन गए हैं। (उनके छंद एक कुशल सेनापति के दक्ष सैनिकों की भाँति पुकारकर कहते हैं 'हम सेनापति के हैं'।)

संदर्भ ग्रंथ

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  • आचार्य रामचंद्र शुक्ल : हिंदी साहित्य का इतिहास, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी;
  • उमाशंकर शुक्ल : कवित्त रत्नाकर;
  • भगीरथ मिश्र : हिंदी रीति साहित्य

तथ्य सूची

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  1. "हिन्दी के कवि सेनापति (17वीं शताब्दी)". Brand Bihar. Com. मूल से 3 जनवरी 2010 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि १३ दिसंबर २००९. |access-date= में तिथि प्राचल का मान जाँचें (मदद)

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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