सदस्य वार्ता:Mati Patrika of kanpur

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-- नया सदस्य सन्देश (वार्ता) 06:24, 20 सितंबर 2016 (UTC)[उत्तर दें]

   समानान्तर कथा जाल


                 जर्मनी में प्रचलित जन कथा जो फेथफुल जान के नाम से जानी जाती है और दक्षिण भारत में प्रचलित राम और लक्ष्मण की पुरानी जन कथा में अद्दभुत समानता पायी जाती है। यह राम और लक्ष्मण महाकाब्य रामायण के राम और लक्ष्मण नहीं हैं। भले ही उनकी वफादारी और मित्रता महाकाव्यीय स्तर की हो। ऐसा लगता है कि जब आर्यों के विभिन्न कबीले अलग -अलग दिशाओं में चल पड़े तो उनके पास जनकथाओं का एक सम्मिलित भण्डार था एक कबीला गंगा और सिंन्ध की ओर चल पड़ा और दूसरा राइन और एल्बे की ओर।
                            इन कबीलों के पास जनकथा के मूल तत्व स्मृति में उपस्थित थे। एक अत्यन्त सुन्दरी राजकुमारी का चित्र के द्वारा या स्वप्न के द्वारा महान शक्तिशाली युवक राजकुमार के द्वारा देखा जाना। उस राजकुमारी की तलाश में अपने एक अत्यन्त विश्वश्त शूरवीर और शक्तिशाली साथी के साथ निकल पड़ना। घने जंगलों के बीच खुंखार पशुओं से मुठभेंड़ और रोमांचक विजय। ऊँचाई पर स्थित अभेद्य किले में बंद राजकुमारी तक पहुँचने के लिये आस -पास की गहरी जल भरी वर्तुल खदान में खुंखार जन्तुओं से लड़कर पार करने का प्रयास और किले की अभेद्य दीवालों पर चढ़कर करिश्मायी ढंग से अन्तर प्रवेश। प्रेम और मिलन और फिर दूर गये किसी अपावन शक्ति से जो किले में राजकुमारी को बन्द कर उसे विवश कर रहा था। जान लेवा मुकाबला विजय और विश्वश्त मित्र के साथ अपने राज्य की ओर प्रत्यागमन। रास्ते  में किसी पक्षी जोड़े की आपस में हुई बात चीत को सुनना। यह पक्षी चाहे  काग युग्म हो चाहे रात घुमन्तू उल्लू के प्रजाति के चाहे शुक -शुकी का जोड़ा हो या फिर हँस युग्म। राजकुमार का विश्वस्त मित्र उन सबकी भाषा का व्याख्याता विशारद तो होना ही  चाहिये  ताकि उनकी सूनी हुई बातों को वह समझ सके और राजकुमार और राजकुमारी को आने वाले संकठों से बचा सके। ऐसा करने में भले ही उसके प्राण जायँ या वह पथ्थर के रूप में बदल जाय इसकी उसे कोई चिन्ता नहीं होती और फिर अन्त में सुखद समाप्ति के पटाक्षेप का आयोजन होता है। सुखद पटाक्षेप का आयोजन अभिनीत हो जर्मनी की Faithful john शीर्षक नामक कहानी में राजकुमार सौन्दर्य सुन्दरी के चित्र को अपने पिता के महल की चित्र वीथिका में देखता है। राजा ने राज्य के अत्यन्त वीर और विश्वाश पात्र नवयुवक जान को चित्र वीथिका की रखवाली करने को कहा था। और उसे स्पष्ट निर्देश दिया था कि राज कुमार को कभी चित्र बीथिका में घुसने न दिया जाय और यदि वह आग्रह करे तो उसे सैनिकों द्वारा बन्दी बना लिया जाय पर जान था जो अपने बचपन के साथी राजकुमार के लिए एक क्या सैकड़ों जानें निछावर कर सकता था। सौन्दर्य सुन्दरी की तलाश में राज कुमार और जान दोनों एक नाव पर कीमती आभूषण और वस्त्र लाद  कर  व्यापारी के वेश में निकलते हैं। राजकुमारी के देश के पास समुद्र के किनारे नाव लंगर डालती है। नगर भर में आभूषणों ,वस्त्रों और प्रसाधन के सर्वथा नये साधनों से भरी नाव की चर्चा होने लगती है। राजकुमारी भी सैनिकों की रक्षा में नाव तक आती है। सैनिक किनारे खड़े होते हैं। राजकुमार नाव के अन्तिम हिस्से में चारो ओर से घिरे रेशम के एक गुम्मद नुमा विश्राम स्थल में बैठा है। फेथफुल जान राजकुमारी को भिन्न -भिन्न आभूषण दिखाता है और फिर उसे नाव में भरे विशाल आभूषण और वस्त्रों को देखने के लिये नाव पर चढ़ आने को कहता है। एक -एक करके देखती और आश्चर्य करती राजकुमारी और उसकी विश्वाश प्राप्त सहेली नाव पर आगे बढ़ती है। रेशमी गुम्बद को थोड़ा सा उठाकर राजकुमार राजकुमारी को देखता है और फिर जान को कुछ इशारा करता है अचानक तेजी से नाव चल पड़ती है और सैनिक जान ही नहीं पाते कि क्या हो रहा है। राजकुमारी और उसकी सुन्दरी सहेली आभूषणों को कलाईयों और गले में पहन -पहन कर देख रही है और बहाना कर रही है कि उन्हें नाव के चलने का पता ही नहीं है। शायद राजकुमारी ने भी राजकुमार का चित्र कहीं देखा हो या उसकी वीरता की चर्चा कहीं सुनी हो तो अब नाव को आगे तिरने दीजिये और आगे कौव्वा और कव्वी की बात चीत सुनकर फेथफुल जान के कारनामों की कहानी जानने  के लिये जर्मनी के कथा साहित्य पर नजर डालिये वहाँ अनेक छिपे रत्न आपको दिखाई पड़ जायेंगे। फिलहाल दक्षिण में प्रचलित जनकथा जिसे फेथफुल लक्ष्मण के नाम से अभिहित किया जा सकता है की ओर ले चलते हैं। राम ने किस प्रकार दक्षिणांचल की सौंदर्य सामग्री को लक्ष्मण की योजना से प्राप्त किया।
        इसका पूरा विवरण दक्षिण की कथा संग्रहों में आप पा सकते है। अभी तो हम राम और लक्ष्मण के साथ उनके गृह वापसी के दौरान क्या घटा इसकी चर्चा करना चाहेंगे। फेथफुल जान की तरह वफादार लक्ष्मण भी पक्षियों की भाषा का ज्ञाता है। राजकुमार और राजकुमारी रथ पर आगे जा रहे हैं। अश्वारोही लक्ष्मण रथ के कुछ पीछे आसपास सावधानी से देखता हुआ प्रेमी युगुल की रक्षा कर रहा है। अचानक एक पेंड़ की डाल पर बैठे दो उल्लुओं की बातचीत उसके कान में पड़ती है। नर उल्लू मादा उल्लू से कहता है कि राजकुमार और उसकी नवविवाहिता पत्नी पर तीन भयानक खतरे आने वाले हैं। पहला ख़तरा तो अभी कुछ देर बाद आयेगा जब एक बरगद के पेड़ की सड़कर गिरने वाली डाल उनके रथ पर गिरेगी। मादा उल्लू पूछती है कि दूसरा ख़तरा कौन सा आयेगा। नर उल्लू बताता है जब वह अपने नगर से पहले एक मेहराब के नीचे से गुजरेंगे तो वह मेहराब उन पर टूट कर गिरेगी। मादा उल्लू ने आगे तीसरे खतरे की बात जाननी चाही तो नर उल्लू बोला कि उसे आगे साफ़ -साफ़ दिखायी नहीं पड़ता ।  मादा उल्लू ने कहा   कि वह कोशिश करती है और देख कर बतायेगी फिर कुछ देर की चुप्पी हो गयी फिर मादा उल्लू बोली अरे यह तो एक काला नाग है जो राजकुमारी को काटने के लिये आगे बढ़ रहा है। नर उल्लू ने पूछा कि ऐसा कब और कहाँ होगा  ? मादा उल्लू बोली राजकुमार और राजकुमारी यानि राजा और रानी दोनों अपने शयन कक्ष में सो रहे होंगे। वफादार लक्ष्मण बाहर कुछ दूरी पर खड़ा होकर कभी स्फटिक शिला में बैठ कर उनकी सुरक्षा में जाग रहा होगा। एक काला नाग शिला के पास के भूतल में छिपे गुफा द्वार से निकलकर शयन कक्ष की ओर बढ़ता है और कपाटों की नीचे की सन्धि से शयन कक्ष की ओर घुस जाता है। रात्रि का तीसरा पहर है। राजकुमार और राजकुमारी प्रणय के बाद गहरी निद्रा में मग्न हैं। यह क्या सर्प ने राजकुमारी के मथ्थे पर दंश देने के लिये फन उठाया। पर यह मैं क्या देखती हूँ सजग लक्ष्मण पट खोलकर आ पहुचा और उसने अपनी कटार से विषधर का सिर अलग कर दिया। पर हाय -हाय विषधर के  मुँह की लार के साथ खून का कुछ अंश राजकुमारी के मथ्थे पर जा गिरा पर राजकुमारी अभी भी गहरी निद्रा में है। वह किसी गहरे स्वप्न लोक में डूबी है। नर उल्लू ने कहा तो अब क्या होगा। मादा उल्लू बोली कि वफादार लक्ष्मण नें अपने हाथ से विष भरे उस खून को साफ़ करना चाहा तो राजकुमारी जग जायेगी और उसे शक हो जायेगा कि फेथफुल लक्ष्मण के मन में कोई पाप छिपा है ।  नर उल्लू ने पूछा तो फिर लक्ष्मण को क्या करना चाहिये। मादा उल्लू ने कहा कि लक्ष्मण राजकुमारी के मथ्थे पर रेशम का एक हल्का रुमाल डाल दे। और जहाँ पर विष मिश्रित रक्त का बूँद पडा है उसे धीरे से अपनी जिव्हा से चाट ले। नर उल्लू ने कहा ऐसा करने में राजकुमारी जग भी तो सकती है। और फिर वफादार लक्ष्मण के म्रत्त्यु की आशंका भी तो है। मादा उल्लू बोली इसके आगे मुझे कुछ दिखायी नहीं देता अब सब कुछ होनहार पर निर्भर है। अश्वारोही लक्ष्मण ने नर और मादा उल्लू जोड़े के यह सब बातें सुनी और पूरी तरह समझ लीं तीनो खतरों में उसे क्या करना है यह तो उसने जान लिया पर यदि राज कुमारी जग गयी या राजकुमार जग गये तो उस पर क्या शक करेंगे इसे पूरी तरह से समझने में वह असमर्थ रहा ।  ,उसे विश्वास  था कि उसके निश्च्छल व वफादारी के उच्चतम आदर्श पर राजा (राजकुमार ) को कोई शक नहीं होगा। पर नियति के खेल को कौन जानता है । उल्लू जोड़े की सारी बातें आदर्श सखा लक्ष्मण नें पेंड़ की छाल काट कर बनाये गये एक पट्ट पर लिख लीं अन्त में उसमें   लिख दिया कि यदि उस पर राजा को कोई सन्देह हो जाता है तो काल के अधिष्ठाता नरसिंह उसे तुरन्त पथ्थर की मूर्ति में बदल दें। यदि विश्व की पवित्र शक्तियां उसे पथ्थर में नहीं बदलती तो पवित्र भावनाओं का सदैव के लिये अन्त हो जायेगा।


           सब कुछ वैसा ही हुआ जैसा उल्लू जोड़े के बीच बातचीत में बताया गया था। लक्ष्मण ने वट  वृक्ष की डाल  गिरने से पहले ही अपनी शक्ति के बल पर रास्ते से अलग खींच कर खड़ा कर दिया और उसे दूसरे मार्ग से खींच कर फिर राह पर ले आया। मेहराब के नीचे से गुजरते हुये रथ पर जब मेहराब गिरने को हुई तो उसने घोड़े पर खड़े होकर अपने हाँथों से मेहराब को तब तक गिरने से रोके रखा जब तक उनका रथ मेहराब के नीचे से निकल नहीं गया और अब तीसरे खतरे की बारी आ गयी। फूलों से सजे सुवासित शयन कक्ष में राजा और रानी के मिलन की अविस्मर्णीय रात। स्वर्गीय आनन्द की अनुभूति फिर गहरी निद्रा में स्वप्न संचरण। नियति के प्रतीक के रूप में नागराज का आना फन  उत्तोलन और कटार  से  उनका विखन्डीकरण। सभी कुछ उल्लू युग्म ने देख लिया था। अब अपने वस्त्र के नीचे से पेंड़ की छाल की पट्टिका पर लिखी गोलाकार आकृति में लिपटी पाती आदर्श लक्ष्मण नें अपने वस्त्र के नीचे से निकाली और उसे राजकुमार के सिरहाने रख दिया आदर्श लक्ष्मण जानता था कि आगे जो होगा वह नियति के हाँथ में है। उसने रेशम की झीनी पट्टिका राजकुमारी के मत्थे पर डाली। विष मिला रक्त पट्टिका के ऊपर उभर कर आ गया। उसे जिव्हाग्र से चाट कर जैसे ही उसने सिर उठाया उसने देखा कि राजा (राजकुमार ) जाग गये हैं राजकुमार की आँखों में विस्मय के साथ सन्देह भी था और थी एक भर्त्सना जो लक्ष्मण के ह्रदय को शूल के तरीके से भेद गयी। उसने आँखें बंद कीं और काल पुरुष नरसिंह का स्मरण किया। क्षण मात्र में ही वह खड़ा -खड़ा पत्थर  की मूर्ति में बदल गया। लक्ष्मण के चरित्र पर सन्देह करने वाला राजकुमार जिसे राम राजा कहकर पुकार सकते हैं। अपने  मुँह को दोनों हांथों से ढके सोच में पड़ा था , वह सोच रहा था क्या लक्ष्मण भी वासना के दलदल में फँसकर मित्र घात कर सकता है। उसने कुछ प्रश्न आँखें खोलकर लक्ष्मण की ओर फेंकें पर कोई उत्तर न मिला यह क्या लक्ष्मण तो हिलता -डुलता ही नहीं। राम राजा उठे राजकुमारी को उठाया रानी और राजा दोनों नें हाँथ का स्पर्श करके पाया कि वहाँ लक्ष्मण नहीं बल्कि लक्ष्मण की प्रस्तर मूर्ति खडी है। अचानक राम राजा की निगाहें सिरहाने के पास रखी पाती पर पड़ी। राजा और रानी दोनों नें ही उल्लू युग्म द्वारा दिये गये खतरे की पूर्व सूचना और उनके निवारण के लिये लक्ष्मण द्वारा किये प्रयत्नों की जानकारी पायी। सब कुछ जानकर राजकुमार और राजकुमारी फूट -फूटकर रो पड़े। हे श्रष्टि के नियन्ता यह हमनें क्या कर डाला हमें पाप मुक्ति दो युगों -युगों तक लक्ष्मण की पवित्रता व वफादारी घर -घर में चर्चा का विषय रहेगी पर युगों -युगों तक मुझे प्रायश्चित्त की अग्नि में जलना पड़ेगा। प्रस्तर की मूर्ति केचरणों के  पास बैठकर राज कुमार और राजकुमारी नें प्रार्थना की मित्र लक्ष्मण मुझे नर्क की व्यथा से उबार लो। मेरे क्षणिक सन्देह को युगों -युगों के पश्चाताप में मत बदलो कुछ अवधि तो निश्चित करो। हे मित्र ,हे सखा ,हे बन्धु मुझे मुक्ति का मार्ग तो दिखाओ। आश्चर्यों का आश्चर्य तब हुआ जब मूर्ति नें पलकें हिलायीं और एक गहरा गड़गड़ाता स्वर निकला जैसे नरसिंह की दहाड़ हो राजन जब आपके और राजकुमारी के संयोग से पहली सन्तान का जन्म होगा और जब वह घुटनों से चलकर मेरा पहला स्पर्श करेगी तब मैं अपनी नर आकृति पा जऊँगा। इसमें कितना समय लगेगा यह नियति का विधान है और फिर वह दैवी वाणी सपाट सन्नाटे में बदल गयी।


             अब यह पाठकों के  हाथ में है कि प्रस्तर मूर्ति लक्ष्मण को कब नर काया में बदल दें दरअसल यह उनके हाथ में नहीं उनकी परिवार योजना की परिधि में आने वाला विचारणीय प्रश्न है। नव दम्पतियों के अलग -अलग उत्तर हो सकते है।  लेखक तो राम राजा और लक्ष्मण सखा की दक्षिण भारतीय कहानी में दिये गये काल प्रसार को ही आप तक पहुँचा कर आपसे आज्ञां लेना चाहेगा।


                   आठ वर्ष गुजर गये और तब हँसता मुस्कराता स्वर्ग प्रसून सा एक शिशु रानी की गोद में आया। अभी कुछ समय सीमा और बाकी थी। कुछ पखवारे और कुछ मॉस और बीते और फिर उस शयन कक्ष में घुटनों के बल चलकर आनन्द की किलकारी गूँज उठने लगी और एक दिन जब राजा और रानी उसे गोद में उठाने के लिये आगे बढ़े तो उस दिब्य शिशु में न जाने कहाँ की शक्ति आ गयी। किलकारी मारता हुआ वह घुटनों के बल तेजी से चल पड़ा और उसने प्रस्तर मूर्ति के चरणों पर अपने दोनों हाँथों से स्पर्श किया। एक अद्दभुत घटना घटी मूर्ति की पलकें हिलीं और क्षण के सतांश में प्रस्तर मूर्ति नर काया में बदल गयी। रक्त स्पन्दन प्रारम्भ हुआ। मूर्ति नें झुक कर शिशु को हाँथो में  उठाया और उसके दिब्य मस्तक पर एक अमिट चुम्बन की छाप लगा दी। आप सब जानना चाहेंगे कि फेथफुल जान की जर्मन कहानी में क्या कुछ ऐसा ही घटित होता है जैसा दक्षिणावर्त की भारतीय कहानी में , दोनों सभ्यताओं के अन्तर और समानता की चर्चा हम आप तक फिर कभी पहुँचायेंगे। आप चाहें तो दक्षिण के इन लक्ष्मण को लक्ष्मण रेखा से भी जोड़कर देख सकते हैं।
 गन्ध मादन की गुफा से 
   गन्ध अपनें में न तो आनन्द देनें का सकारात्मक भाव छिपाये है न नकारात्मक । गन्ध में उपसर्ग जोड़कर ही हम उसे सुरूपता  या कुरूपता  प्रदान करते हैं । गन्ध जब सुगन्ध बन जाती है तब सभी उसकी चाहना करते हैं और गन्ध जब दुर्गन्ध बन जाती है तो उससे दूर हट जानें का प्रयास किया जाता है । पर सुगन्ध और दुर्गन्ध इन दोनों भावों के अतिरिक्त गन्ध की और कोई ऐन्द्रिक अनुभूतियाँ भी न केवल संभ्भव हैं बल्कि चर्चा का ठोस धरातल प्रस्तुत करती हैं । हमारे प्राचीन कथा ग्रंथों में गन्ध मादन पर्वत का अनेक बार उल्लेख हुआ है । गन्ध में मादन जोड़कर एक नये भाव की श्रष्टि की गयी है । मादन में मदमस्त करनें का भाव है ,मदन से सम्बन्धित होनें के कारण मदन काम भावना का उत्प्रेरक  भी है और मादन  में शिथिल ,निष्क्रिय किन्तु आनन्द तरंगायित जीवन जीनें का भाव भी छिपा हुआ है । अंग्रेजी में टेनीसन की प्रसिद्ध कविता ( Lotous Eaters) में जिस खुमार भरी मस्ती को अभिप्रेत बनाया गया है कुछ वैसी ही मनोभूमि गन्ध मादन पर्वत की समतल चट्टानों ,चोटियों और उपत्यकाओं में अनुभूति के स्तर पर जीवन्त होती जान पड़ती हैं । ग्रीष्म की प्राण लेवा गर्मी के बाद जब बादलों की बक पंक्ति पहली तीब्र बौछारें  छोडती है तब नंगीं ,जलती धरती से जो गन्ध निकलती है उसे न तो सुगन्ध कह देनें से सार्थकता मिलती है और दुर्गन्ध कहनें का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता । उस गन्ध को व्यक्त करनें के लिये कौन से अनुप्रास ,विशेषण या लोकभाषा के शब्द लिये जांय इसपर गहरी खोज की आवश्यकता है । 'माटी ' की वह गन्ध सोंधीं है ,हिँगाई है ,अदरखी है ,कसैली है ,नशैली है या निमैली है यह ठीक से नहीं कहा जा सकता । शायद वह यह सब है और इस सबके अतिरिक्त भी और कुछ है । तभी तो 'माटी 'कभी मरती नहीं  जीवन की आदि का प्रतीतात्मक प्रस्तार मानी जाती है । उसके अपार रंग ,रूप और आकार हैं पर वह निराकार भी है क्योंकि उसमें मिलकर सभी आकार निराकार हो जाते हैं । गन्ध मादन पर्वत की गुफाओं में   रहनें वाले मुनि असित अपनें पास ज्ञान पाने की अभिलाषा लेकर आने वाले जिज्ञासुओं को कुछ ऐसा ही उपदेश देते रहते थे । यदि जिज्ञासु जीवन और मरण के प्रश्न पूछते तो  उनका संक्षिप्त उत्तर यही होता था कि 'माटी 'ही जीवन है और 'माटी 'ही मृत्यु है । अभी तक यह मेरा देश है और वह तुम्हारा देश है ऐसा भाव मानव जाति के मन में नहीं आया था । चन्दन है 'माटी ' मेरे  देश की जैसे गीत अभी नहीं लिखे जाते थे क्योंकि पूरी धरती ही अभी सबका देश थी सम्पूर्ण आकाश का प्रस्तार और सम्पूर्ण धरित्री का विस्तार अभी तक मानव जाति की साझा सम्पत्ति थी ।
                               गन्ध मादन की भौगोलिक स्थिति के विषय में सुनिश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता । वह एक स्वतन्त्र पर्वत श्रृंखला थी या किसी पर्वत श्रंखला का कोई विशिष्ट पर्वतीय क्षेत्र था इस विषय में भी परस्पर विरोधी विचार व्यक्त किये गये हैं । मैक्समूलर से लेकर राहुल सांकृत्यायन ,डा ० संकालिया और नयन ज्योति (लाहिरी ) सभी नें पूर्व वैदिक काल में भिन्न -भिन्न नामों से अभिहित भौगोलिक श्रंखलाओं ,क्षेत्रों और स्थानों को कोई ठोस  वैज्ञानिक आधार प्रदान करनें में सफलता नहीं पायी है । क्या पता गन्ध मादन में उन सोम लताओं की महक हो जिनसे रस का पान करना वैदिक आर्यों के लिये अन्तरसुख की पराकाष्ठा मानी जाती थी और क्या पता गन्ध मादन में भी कस्तूरी हिरण फिर रहे हों जो आजकल सिक्किम राज्य के ऊपर हिमालयी क्षेत्रों में मिळते हैं । जो कुछ भी हो  यह तो मान कर चलना ही चाहिये कि गन्ध मादन की ऊँचाइयों पर आस -पास के आदिवासी ग्रामों के युवक और युवतियाँ आनन्दोत्सव मनानें के लिये तो घुमक्कड़ के रूप में आते ही होंगें । असित मुनि नें गन्ध मादन की उपत्यिकाओं में स्थित एक दीर्घाकार गुफा को अपना निवास स्थान  क्यों बनाया इस पर भी कोई बहुत विश्वसनीय तथ्य प्रस्तुत नहीं किये जा सकते । गहरे चिन्तन के बाद भी मैं अभी तक बिल्कुल स्पष्ट ढंग से यह नहीं समझ पाया हूँ कि ऋषियों और मुनियों में क्या अन्तर होता है ?क्या हर ऋषि मुनि भी होता है ?या यों कहें कि क्या हर मुनि ऋषि भी होता है ?मुझे लगता है कि कहीं इस विभाजन के पीछे भी कोई वर्ण व्यवस्था या धर्म सम्प्रदाय व्यवस्था रही होगी । इन दिनों तो जैन सम्प्रदाय में ही मुनियों ,महा मुनियों और परम मुनियों का यशोगान जोर -शोर से सुना जाता है । तो असित मुनि ऋषभ परम्परा में से थे । मृगछाला को अधोवस्त्र के रूप में पहनकर वे कटि से ऊपर का भाग अनावरित ही छोड़ देते थे । वे अभी तरुण ही थे और उनका पुष्ट शरीर और बालों से ढका विशाल वक्ष ,लम्बी केशराशि और श्मश्रु देखनें वाले पर गहरा प्रभाव छोड़ते थे । उनके चेहरे पर तरुणाई और ज्ञान की ज्योति झलकती थी । शरीर का रंग श्यामल होनें के कारण ही उन्हें असित कहा जाने लगा था । जिन दिनों की यह बात है उस काल में संसार छोड़कर परम तत्व की खोज में जंगलों ,पहाड़ों और गुफाओं में पूजा ,याचना और भिन्न -भिन्न यौगिक क्रियायें करना ही जीवन का  सर्वोत्तम लक्ष्य माना जाता था । सांसारिकता उपेक्षा की द्रष्टि से देखी जाती थी । ममत्व ,प्यार और लगाव इन सबको बन्धन के रूप में स्वीकृति मिली हुयी थी । मुनि असित भी सारी मोह रज्जुओं को काटकर जीव तत्व को अन्तरिक्ष में मुक्त रूप से भ्रमण करने योग्य बनानें के लिये प्रयत्न रत थे ।
                                               अब गन्ध मादन पर्वत के आस -पास घनें जंगलों में और उसकी निचली ढलानों की घनी सुगन्धित झाड़ियों में न जाने कितनें किस्म के वन्य पशु और पक्षी विचरण करते रहते थे । इनमें से कुछ वन्य पशु मांस जीवी भी होंगें पर अभी तक नर -मांस की आवश्यकता नहीं थी क्योंकि प्रकृति नें उनके लिये भोले -भाले वन्य प्राणियों के रूप में विपुल सामिग्री जुटा दी थी । मन को मुग्ध करने वाला रूप रंग लेकर हिरणों की न जानें कितनी प्रजातियाँ वन्य क्षेत्रों में घूमा करती थीं । गन्ध मादन के केन्द्र क्षेत्र में कुछ ऐसी मादक वायु चलती थी कि उसके नशे से खिंचकर हिरणों के झुण्ड वहां चले आते थे । हिरणों के एक ऐसे ही झुण्ड में एक गर्भवती हिरणी भा आ गयी और उसी क्षेत्र में उसके प्रसव का समय भी आ गया । पर न जानें कहाँ से 10 -15  श्यामल और सुरमयी आदिवासी युवक -युवतियों की टोली वहां वसन्तोत्सव मनानें के लिये अपनें गीतों को ऊँचें स्वरों में गाती आ पहुंचीं । कइयों के हाथ में पशुओं की सींगों से बनी हुयी तुरहियां थीं ,कइयों के हाथ में पशुओं के खाल से मढ़े हुये डफ और डमरू थे । एक दो तो वक्राकार लकड़ियों को आपस में टकराकर संगीत का कुछ ऐसा ही स्वर निकाल रहे थे जैसे मंजीरों की झंकार से निकलता है । उनको देखते ही हिरणी की टोली भग  खड़ी हुयी । सन्तान को जन्म देनें वाली हिरणी नें आस -पास भयभीत नेत्रों से देखा और पाया कि नवयुवक और नवयुवतियाँ उसे घेरने को बढ़ रहे है । कुछ क्षण वह ठिठकी हो सकता है अपनें प्राणों की बाजी लगाकर वह अपनी सदयजाता सन्तान के पास खड़ी रहना चाहती हो । पर  फिर आत्मरक्षा का भाव सन्तान प्रेम पर प्रबल पड़ा और वह भगकर झाड़ियों की ओट में ओझल हो गयी । तब हिरण शावक पैरों पर उठकर खड़ा होनें की कोशिश कर रहा था । अब मस्त युवक - युवतियों ने उसे चारो ओर से घेर लिया । कहा नहीं जा सकता कि वे क्या करते -उसे उठा ले जाते या उसे वहीं छोड़ देते ताकि उसकी माँ उसे अपनें साथ आकर ले जाय । यह भी हो सकता था कि खिलवाड़ -खिलवाड़ में मृग शावक के प्राणों पर बन आये । वह आदिवासी युवक यदि मांसाहारी रहे  हो तो उस नन्हें मृग शिशु के जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी खड़ी हो जाती । पर शायद ऐसा न भी होता क्योंकि उस समय कन्दमूल फल की इतनी प्रचुरता थी कि थोड़े परिश्रम से ही मुमुक्षा की शान्ति हो जाती थी जो  भी होता यह सब  अनुमान मात्र ही है पर जो हुआ उसे सुखद ही कहा जायेगा । ठीक इसी समय असित मुनि वहां घूमते आ पहुंचें । उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व नें उस तरुण टोली पर अपना असर छोड़ा । बिना कुछ बोले वे मृग शिशु के पास गये और उसे अपनी गोदी में उठाकर अपनी गुफा की ओर चल पड़े । तरुण -तरुणियों की टोली खिलखिलाती हुयी डफ और तुरही बजाती हुयी दूसरी दिशा में चली गयी ।
                          उत्सव में पागल तरुण -तरुणियों की टोली के हटते ही माँ हिरणी फिर उस स्थल पर आयी । अपने नवजात शिशु को वहां न पाकर उसनें आसपास अपनी भोली सुन्दर आँखों से देखा और फिर न जाने कैसी वह जा गयी कि उसका शिशु किस ओर ले जाया गया है । प्रकृति नें माँ बननें की क्षमता के साथ ही साथ पशुओं और पक्षियों में कुछ ऐसी प्राणशक्तियाँ भी विकसित कर दी हैं जिनके सहारे वे अपनें शिशुओं के स्थान को पहचान लेते हैं  । हिरणी असित मुनि के गुफा के द्वार पर आ गयी । असित मुनि नें उसे देखा और द्वार पर उसके शिशु को ले आये । हिरणी नें शिशु को चाट -पोंछकर और अधिक सुथरा बना दिया यों वह सुन्दर तो थी ही । शिशु स्तन पान में जुट गया । असित मुनि पास खड़े रहे ,माँ हिरणी उनसे तनिक भी भयभीत नहीं हुयी उनकी आँखों में अपार वात्सल्य का भाव था । माँ हिरणी को जैसे एक रक्षक मिल गया हो । स्तनपान करने के बाद जब शिशु हिरणी के पीछे चलनें जाने को हुआ तो उसकी माँ नें अपनें मुंह से शिशु को प्यार भरा धक्का देकर असित मुनि की ओर जाने को प्रेरित किया । मुनि असित हिरणी के मन का भाव समझ गये । उन्होंने आगे बढ़कर हिरणी के पीठ पर भी वात्सल्य भरा हाँथ फेरा । हिरणी उछलती -कूदती दूर चली गयी । असित मुनि को विश्वास हो गया कि अपनें शिशु को संरक्षित पाकर हिरणी निश्चिन्त हो गयी है अब वह गुफा पर थोड़े -थोड़े अन्तराल के बाद आती रहेगी और शिशु को तबतक स्तन पान कराती रहेगी जब तक वह वन में में उग रही घास -पात खाना सीख नहीं जाता ।
                   हिरणी का मातृत्व तो सम्पूर्णतः सफल रहा पर मुनि असित के जीवन में चिन्तन के धरातल पर एक हड़कम्प मच गया । ध्यान करते समय शिशु हिरणी उनके पास बैठी रहती । वह बाहर घूमते तो उनके साथ उनकी टांगों को प्यार भरा स्पर्श देती हुयी साथ -साथ चलती । कुछ दिन बाद जब वह घास -पात खानें लायक हो गयी तो वह माँ हिरणी के साथ बाहर अवश्य जाती पर फिर शाम को माँ हिरणी उसे गुफा के द्वार पर छोड़ जाती और वह सारी रात गुफा में ही असित मुनि के पास गुफा में सोती रहती । शिशु हिरणी की प्यार भरी भोली आँखें ,उसका सुन्दर लचीला शरीर और उसकी मनमोहक उछल -कूंद असित मुनि के मन में एक गहरे लगाव का भाव पैदा करनें लगी । कुछ दिन बाद एक दिन शाम को जब वह माँ हिरणी के साथ कुछ देर में आयी तो उन्हें लगा कि उनकी गुफा में कुछ सूनापन है कि उनका मन ध्यान में नहीं लग रहा है । कि कोई भोला नन्हां प्राणी अब उन्हें एकटक पास बैठा देख नहीं रहा है और यह अनुभूति उनके मन में विचलन पैदा कर रही है । असित मुनि नें ' ओम नमो : अरिहन्त का कई बार पाठ किया । निश्चय किया कि वह मोह से ऊपर उठेंगें और नन्हीं हिरणी जब अपनें पैरों पर खड़ी हो गयी है तो उसे माँ के साथ ही रहनें के लिये विवश करेंगें । वह टोली में रहना सीखे यही हिरण प्रजाति का प्रकृति द्वारा बनाया हुआ भाग्य है । उनके शिकार तो होते ही रहेंगें । क्या किया जा सकता है । अगले दिन जब माँ हिरणी उसे अपने साथ गुफा के द्वार तक लायी तो उन्होंने मुँह दूसरी ओर कर लिया और बेरुखी का भाव दर्शाया पर शिशु हिरणी उनके पीछे खड़ी होकर उनकी टांगों पर अपनें मुँह से प्यार भरा स्पर्श देने लगी । वह हटनें का नाम ही नहीं ले रही थी । माँ हिरणी नें कुछ देर तक प्रतीक्षा की फिर वह छलांगे  लगाकर वन में छिपी अपनी टोली में पहुँच गयी ,शिशु हिरणी वहीं खड़ी रही । असित मुनि का मन मुलायम होने लगा । चलो आज रात रख लेते हैं कल शाम से तो कतई नहीं आने देंगें । अगले दो -तीन दिन तक यही द्रश्य चलता रहा अन्तर इतना था कि हर शाम वह ज्यादा लम्बे समय तक मुँह उल्टा किये खड़े रहते ,धीरे -धीरे मुँह से दोहराते नहीं नहीं माँ के पास जाओ पर शिशु हिरणी थी जो अपने पोषक पिता के पास से जाने का नाम ही नहीं लेती । प्यार किसे कहते हैं इसका अनुभव अभी तक असित मुनि को नहीं हुआ था । इस शिशु हिरणी नें उन्हें सबसे पहली बार प्यार की अनुभूति प्रदान की । असित मुनि हारने लगे । लगभग दस एक दिन के बाद उन्होंने स्वप्न में देखा कि उनके मत के आदि गुरू ऋषभ  मुनि तारा पथ से उतरकर उनकी गुफा में आये और फिर उन्होंने असित मुनि के पास बैठे शिशु हिरणी की पीठ पर वात्सल्य भरा हाँथ रखा । उनकी नीन्द खुल गयी ,उन्होंने फिर दोहराया ॐ नमो अरिहन्त । एक बार फिर सोचा क्या मैं माया में फंस रहा हूँ और तय किया कि वे मोह के रज्जु काट देंगें । कुछ भी हो जाय वे अब शिशु हिरणी को गुफा में नहीं आने देंगें । अगली शाम जब माँ हिरणी उसे छोड़ने आयी तो उन्होंने मुँह तो पीछे किया ही पर बार -बार अपना दायां हाँथ पीछे चलाकर शिशु हिरणी को अपनी माँ के साथ जानें को विवश करते रहे । शिशु हिरणी कभी दूर खड़ी माँ के पास जाती फिर लौटकर उनकी टांगों पर पीछे से मुंह चलाकर प्यार भरा स्पर्श देती । इस प्रकार लगभग आधा पहर बीत गया । अन्धेरा घना होनें लगा । गुफा द्वार असित मुनि नें रोक ही रखा था । उधर माँ हिरणी अन्धेरे के डर से भगकर जाने लगी तो शिशु हिरणी भी उसके पीछे चल पडी । पर अभी कुछ ही समय बीता होगा जंगली कुत्तों के भूकनें की आवाज आयी । असित मुनि ध्यान पर बैठे ही थे कि गुफा के द्वार पर हाँफती भयभीत आँखें लिये और अपने पृष्ठ भाग में रक्त की बूँदें टपकाती उनकी शिशु हिरणी गुफा द्वार पर खड़ी दिखायी दी । जंगली श्वानों का दल इस उपत्यिका में उनके डर से नहीं आता था इसलिये अब शिशु हिरणी को प्राणों का ख़तरा नहीं था । असित मुनि उठकर गुफा द्वार पर आये अपनी हिरण पुत्री की आँखों को देखा । उन आँखों में इतनी अपार करुणा थी कि उनका निश्चय ढीला पड़ गया । जीव रक्षा ही तो अरिहन्त धर्म का सबसे समर्थतम सिद्धान्त है । उस रात स्वप्न में ऋषभ देव नें शिशु हिरणी पर वात्सल्य भरा हाँथ फेरा था । मैनें उसका गलत अर्थ लगाया ,उन्होंने मोह रज्जु काटनें की बात नहीं कही थी उन्होंने मोह रज्जु का सहारा लेकर  ऊपर उठनें की बात कही थी । मोह बांधता ही नहीं मुक्त भी करता है । अपनों के लिये ,अपनी सन्तान के लिये किया हुआ हमारा त्याग हमें उदार बनाता है । हम स्व से उठकर पर के लिये जीना सीखते हैं और उस पर में स्व की झांकी पाते हैं और फिर धीरे -धीरे परिवार का त्याग ही सामाधि ,राष्ट्र और मानवता के लिये त्याग करनें की प्रेरणा देता है । यही तो अरिहन्त दर्शन है । यही तो ऋषभ देव का सन्देश है ,उठकर उन्होंने अपना  वात्सल्य भरा हाँथ शिशु हिरणी की पीठ पर फेरा ,एक छोटा घाव उसकी पूँछ  पर था पर फिर भी वह उछलकर उनके पास आ खड़ी हुयी । असित मुनि के मन में करुणा की गंगा बह उठी । उन्होंने प्यार से शिशु हिरणी को वहीं गुफा में बैठने को कहा और स्वयं गुफा में रखे एक दण्ड को उठाकर बाहर निकल गये । कुछ औषधि गुण से भरी पत्तियाँ लानी होंगीं जिन्हें कुचलकर उस छोटे घाव को भरा जा सकेगा । असित मुनि इस उपचार से प्रभावी रूप से परिचित थे और उन्हें विश्वास था कि उनकी हिरण पुत्री अब एक लम्बा संरक्षित जीवन जियेगी ।
                              जब वे एक लता झालर से पत्तियाँ चुन रहे थे तो उन्होंने देखा कि उनके पास से सुरमयी रंग की एक सलोनी आकर्षक रंग की युवती उनकी ओर प्यार भरी द्रष्टि से देखती हुयी निकल गयी । इस युवती को आस -पास की लताओं के बीच कई बार देखा था पर आज तक उसके आकर्षक नेत्रों नें उनका ध्यान कभी नहीं खींचा था । पर आज इस अँधेरे में भी उस नवयुवती का आकर्षण उन पर जादू कर गया । पहली बार उन्होंने प्यार के कई रूपों की छवियाँ मानस पटल पर देखीं । कौन जाने हिरण पुत्री के लिये किसी मानसी माँ की तलाश शुरू हो जाय ?निर्मल प्यार की नौका पर सवार हुये बिना क्या यह भवसागर पर किया जा सकता है ।
    ह्रदय परिवर्तन


                   जबसे नारी अधिकारों की बात जोर -शोर पकड़ने लगी है रम्मो भी संवरिया से अक्सर झगड़ा कर बैठती है। झझ्झर में बहादुर गढ़ को जोड़ने वाली सड़क अब छह लेन की सड़क बनायी जायेगी। ठेका मनफूल सिंह को मिला है। उनका एक साथी उड़ीसा में किसी कोयले की कम्पनी का मैनेजेर है वह वहाँ से २० -२५ मजदूर ,मजदूरनियों की टोली जैसा काम हो वैसी एक मुश्त बोली देकर बाँध लेता है। काम कितने मजदूर कितने दिन में कर लेंगे इसका अन्दाजा मनफूल सिंह को इन्जीनियरों से मिल जाता है। वह उड़ीसा में अपने दोस्त को फोन कर देता है और मजदूर ठेके पर आ जाते हैं। आप पूछेंगे कि रम्मों और संवरिया की लड़ाई का ठेके से क्या सम्बन्ध है। अरे भाई सम्बन्ध है तभी तो कहानी लिखी जा रही है। बात यह है कि खर्चे के लिये ठेकेदार हर हफ्ते मजदूरों को कुछ पैसे दे देता है अब चूंकि रम्मों संवरिया की घरवाली है इसलिये वह दोनों की मजदूरी हिसाब लगाकर संवरिया को दे देता है । ठेका लगभग साल भर का है। रम्मों की गोद में एक -डेढ़ साल का एक बेटा भी है। बेटे को दूध पिलाकर वह गर्मी के दिनों में किसी पेंड़ के नीचे छांह में एक पुराना कपड़ा बिछाकर सुला देती है। सर्दी के मौसम में बच्चे को धूप में लिटा देती है। जगने पर बच्चा कीचड़ ,मिट्टी और कंकडों से खेलता रहता है। घण्टे दो घण्टे बाद रम्मों उसे देख जाती है। हफ्ते दो हफ्ते तो ऐसा चलता रहा पर तीसरे हफ्ते ठेकेदार नें संवरिया को तो पूरी मजदूरी दी पर रम्मों की मजदूरी आधी कर दी पूंछने पर उसने बताया कि आधी इसलिये की गयी है कि रम्मों तो आधा समय तो दूध पिलाने और खेल खिलाने में लगा देती है। संवरिया नें उसकी इस बात को मान लिया और ठेकेदार से कोई बहस नहीं की पर जब संवरिया नें रम्मों को यह बात बतायी तो रम्मों संवरिया से झगड़ बैठी। संवरिया बोला -इसमें झगड़े की क्या बात है फैसला तो ठीक है जब आधा काम किया तो आधे पैसे मिलेंगें।

रम्मों :-आधा काम कैसे ?बच्चे को दूध तो पिलाना ही पड़ेगा। सरकार भी बच्चा होने पर ६ महीने की छुट्टी तनख्वाह के साथ देती है। अब अगर हम दोनों के पास छोटा बच्चा है और उसकी देख -रेख में कुछ समय लग जाय तो क्या कोई पगार काट लेता है ? तुम ठेकेदार से कहो कि वह पूरे पैसे दे नहीं तो हमें काम की कोई कमीं नहीं है। और कहीं देख लेंगें।

                    सवरियां के आगे एक समस्या आ खड़ी हुयी। वह ठेकेदार की बात मान गया था पर अब बहस करेगा तो ठेकेदार का दिमाग गर्म हो जायेगा पर रम्मों की जिद्द के आगे उसकी एक न चली। रम्मों रात में रेडियो पर हर रोज ख़बरें सुनती थी। कई बार उसने सुना था कि स्त्री को पुरुष के बराबर ही अधिकार है और दोनों में कोई भेदभाव नहीं होना चाहिये और फिर वह संवरिया से कोई कम काम तो नहीं करती।  कितनी बार संवरिया बीड़ी पीता है और गपशप में लगा रहता है। वह तो बच्चे के अलावा और कोई समय खराब ही नहीं करती। काम में लगी रहती है। सवरियां नें ठेकेदार मनफूल सिंह से यह बात कही।

मनफूल सिंह :-तू अजीब आदमी है। पहले पूरी रजामन्दी से बात मान ली अब एक पंगा खड़ा कर रहा है।

संवरिया :-मैं तो मान गया पर वह तो नहीं मानती। कहती है सरकार आदमी औरत की मजदूरी में कोई फर्क डालना नहीं चाहती अगर मजदूरनी के पास छोटा बच्चा है और उसकी देख -रेख में थोड़ा बहुत टाइम लग जाता है तो ठेकेदार उसके पैसे नहीं काट सकता है। तुम चाहो तो रम्मो से खुद बात कर लो मुझे कोई एतराज नहीं है।

मनफूल सिंह अधेड़ होकर बुजुर्गी की ओर बढ़ रहे थे। उन्होंने उन दिनों में ठेकेदारी शुरू की थी जब औरत की मजदूरी आदमी से आधी थी। फिर आधे से बढ़कर तीन चौथाई पर आ गयी और अब तीन चौथायी से बढ़कर बराबर हो गयी। अब एक नया सिरदर्द यह शुरू हो गया कि अगर छोटा बच्चा है तो उसके ऊपर देख रेख में लगने वाला टाइम भी मजदूरी में शामिल किया जाय उनकी समझ में सरकार की सोच लंगड़ी दिखायी पड़ी उन्होंने फैसला किया कि वह रम्मों से बातचीत करेंगें। इन्हीं दिनों वाशिंगटन D.G.के एक अनुसन्धान संस्थान नें जो अंतरराष्ट्रीय खाद्य उपलब्धता पर नजर रखता है एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी। रिपोर्ट यह थी कि पाँच वर्ष के नीचे के बच्चों में बुखमरी की द्रष्टि से कौन देश कहाँ खड़ा है। रिपोर्ट में चार श्रेणियाँ रखीं गयीं थीं। भुखमरी किस स्तर की है। इसके लिये (1) Moderate,(2) Serious (3) Alarming (4) External alarming एशिया महाद्वीप में बँगला देश को छोड़कर और सभी देश भारत से ऊँचाई पर खड़े हैं। केवल बँगला देश भारत से एक श्रेणी नीचे है। चीन नम्बर 9 पर है ,पाकिस्तान 5 9 नम्बर पर है , नेपाल 5 6 वें नम्बर पर है और भारत, अफ्रीका के कितने ही लडखडाती अर्थव्यवस्था वाले देशों से नीचे के रैंक पर उदाहरण के लिये गिनी ,बिसाऊ ,टोंगो ,उटकीना ,फैसो ,सूडान ,खांडा और जिम्बाबे जैसे लडखडाते देश उसके ऊपर खड़े हैं। यह रिसर्च इस बात को लेकर की गयी थी कि पांच वर्ष के कितने बच्चे भुखमरी से मर जाते हैं या बीमारी से ग्रस्त हो जाते हैं या अपन्ग हो जाते हैं। अमरीका से की गयी इस सामाजिक रिसर्च के निष्कर्षों को भारत के रेडियो और टेलीविजन पर भी प्रसारित किया गया था और अखबारों में भी पीछे के पन्नों में दबी -दबी सूचना दे दी गयी थी पर कुछ अच्छे सोशल साइन्सेस के स्कूलों में इस रिपोर्ट पर विस्तृत चर्चा हुयी थी और इस सम्बन्ध में केन्द्र की सरकार को कुछ सुझाव भेजे गये थे। मनफूल सिंह इन ख़बरों से सदैव दूर रहते थे। पर उनकी छोटी बेटी जो शोसल साइन्सेस में भारत की गरीबी पर रिसर्च कर रही थी इस प्रकार की ख़बरों से अपनी रिसर्च के लिये कोई न कोई सामग्री जुटाती रहती थी। उस शाम काम ख़त्म होने के बाद जब राम्मों बच्चे को उठाकर संवरिया के साथ तम्बूनुमा घर में जाने को हुयी तो मनफूल सिंह नें उनको अपने पास बुलाकर रम्मों से पूंछा कि वह खाहमखांह की शिकायत क्यों कर रही है ? जितना काम करेगी उतना ही तो पैसा मिलेगा। रम्मों ने ठेकेदार से कहा कि वह पूरा काम करती है और उसे पूरा पैसा मिलना चाहिये। अगर कोई शक है तो सबका काम अलग -अलग कर दिया जाये ,वह अपना काम करके दिखायेगी फिर अपने बच्चे की ओर देख कर कहा इसका पेट भी भरूँगी और अपना काम भी करूँगी फिर आसमान की ओर देखकर कहा हे भगवान कैसी आजादी है किसी का बच्चा भूँखों मर जाय पर पाँच सात मिनट काम में हर्ज न हो और किसी के बच्चे इतना दूध पावें कि पोंकने लगें। बच्चे तो भगवान की मूरत होते हैं। पूरा खाना ,खेलना और आराम तो मिलना चाहिये। मनफूल सिंह नें रम्मों की ओर ताज्जुब से देखा उन्हें लगा कि अब औरतों में कुछ फर्क आ गया है। मजदूरनी भी बड़े -बड़े सवाल खड़े करने लगीं हैं। अरे भाई जिसके होगा उसके बच्चे खायेंगे जिसके नहीं होगा उसके बच्चे रोयेंगे। कोई क्या करे ? अब अगर कोई बच्चा बीमारी या कमजोरी से मर जाय तो हम इसमें क्या कर सकते हैं। मनफूल सिंह ने सोचा अगले हफ्ते फिर से वह मजदूरी देते समय रम्मों की टीका टिप्पणी पर ध्यान देंगें और यदि चुप न हुयी तो और कहीं काम देख ले। ठेकेदार साहब जब घर पहुँचे और खाने की मेज पर परिवार के सब लोग इकठ्ठे हुये तो उनकी छोटी बेटी नें उनको बताया कि शोसल साइंस की रिसर्च के काम में उसे एक चार्ट भरना है। इस चार्ट में सड़क बनाने के काम में लगे मजदूर परिवारों के पाँच वर्ष से छोटे बच्चे के खान-पान के सम्बन्ध में कुछ प्रश्न तालिकायें भरनी हैं। इसके लिये उसे काम करती और बच्चे पालती मजदूरनियों से सम्पर्क साधना होगा वह जानती थी कि उसके पिता के सड़क बनाने के ठेके में भी बीसों मजदूर परिवार हैं। उसने पिताजी से कहा कि अगले दिन काम पर लगी मजदूरनियों के बीच वह स्वयं जायेगी और उनसे जो उत्तर मिलेंगें उन्हें प्रश्न तालिका में भरकर प्रोजेक्ट को पूरा करेगी। रिसर्च के लिए फील्ड वर्क जरूरी है। छोटी बेटी सुधा की इस बात को मनफूल सिंह को बेचैन कर दिया। सुधा से बातचीत के दौरान अगर रम्मों नें उसे बता दिया कि उसे आधी मजदूरी दी जा रही है क्योंकि वह अपने बच्चे को दूध पिलाने के लिये सड़क के काम में से कुछ समय निकाल लेती है तो एक तरह से उनकी बदनामी हो जायेगी। उन्होंने सुधा से पूंछा कि तुम जो पढ़ाई -लिखायी कर रही हो उससे क्या गरीब मजदूरनियों को कोई फायदा हो सकेगा। सुधा नयी चेतना से संपन्न लड़की थी। उसने अपने माता -पिता को कई बार यह बात कही थी कि पैसा कमाने के लिये उन्हें ऐसा कुछ नहीं करना चाहिये जो गरीबों के जीवन को और अधिक दुखदायी बना दे। पैसे की अधिकता तृष्णा बन जाती है और जब आदमी अपनी मानवीय संवेदना खो देता है तो उसे देश के भविष्य की चिन्ता नहीं रहती। सुधा नें अपने पिता को बताया कि भारत की केन्द्रीय सरकार एक ऐसी योजना बना रही है उन सब माताओं को जिनके बच्चे पाँच वर्ष से छोटे हैं सेवा केन्द्रों में नि :शुल्क पौष्टिक आहार दिया जाय। यदि मातायें स्वस्थ होंगीं तो प्रारम्भ के दो तीन वर्ष उनके स्तन पान करके भारत की तरुणाई स्वस्थ बनकर निकलेगी। और बच्चे के कुछ बड़ा होने पर सरकार की अतिरिक्त सहायता से दूध के अतिरिक्त कुछ और पौष्टिक उपलब्ध कराया जायेगा। भारत वर्ष के लगभग 40 प्रतिशत बच्चे Under Weight होते हैं। पाँच वर्ष से नीचे बच्चो की म्रत्यु दर भी भारत में सबसे अधिक है। स्वास्थ्य विज्ञान कहता है कि यदि पाँच वर्ष तक बच्चे को सन्तुलित आहार मिल जाय तो भविष्य में उसके स्वास्थ्य की मजबूत नींव पड़ जाती है और यदि ऐसा नहीं होता तो आधे पेट रहने वाले बच्चे जी जाने पर भी जीवन का आनन्द नहीं उठा पाते। हमारा देश इन दिनों 8 -9 प्रतिशत की सालाना आर्थिक विकास दर से बढ़ रहा है विश्व में चीन के बाद यह सबसे बड़ी आर्थिक प्रगति है। अमरीका की आर्थिक प्रगति तो 2 -3 प्रतिशत ही है और यही हाल योरोप के विकसित कहे जाने वाले देशों का है। भारत वर्ष के कितने ही खरबपति अब संसार के सबसे धनी आदमियों में शामिल हो गये हैं। माना जाने लगा है कि मुकेश और अनिल अम्बानी मिलकर विश्व के किसी भी अमीर से आगे निकल जाते हैं। अकेले मुकेश की ही सम्पत्ति अमरीका के बिलगेट्स को पछाड़ रही है। मध्यम वर्ग में भी काफी सम्पन्नत : आ गयी है। सरकारी कर्मचारियों की तनख्वाहें इतनी बढ़ गयीं हैं कि वे आराम का जीवन बिता सकें। इतना धन होते हुये भी गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोग भारत के विकास का लाभ नहीं पा रहें हैं और करोड़ों तो ऐसे हैं कि जो अपने बच्चों को दूध तक नहीं दे सकते ऐसा इसलिए है कि इनकी माताओं के स्तन में खुराक के अभाव में पूरा दूध बन ही नहीं पाता फिर उसने अपने पिताजी से कहा कि भारत वासी अपने छोटे से स्वार्थ के लिये देश के भविष्य को दाँव पर लगा देते हैं। अगर हमारी नयी पीढ़ी स्वस्थ्य बनकर नहीं उभरती तो आर्थिक प्रगति से आने वाली अपार सम्पदा कुछ प्रतिशत लोगों में सिमट कर सारे राष्ट्र के लिये कैंसर बन जायेगी। पिताजी अब मेरी यह रिसर्च पूरी होने जा रही है। न जाने मेरे मन में हो रहा है कि वैभव का यह जीवन मेरी आत्मा को यानि मेरे अन्तर सुख को धीमा करता जाता है। हम जो लोग वंचित हैं उनके विषय में भी कुछ सोचना चाहिए। आप यदि सहमत हों तो मैं कुछ ठेकेदार परिवारों से सम्पर्क करके एक ऐसे सेवा केन्द्र की स्थापना करना चाहूँगी जिसमे शिशुओं और बालकों को दूध ,फलों का जूस ,पतला दलिया ,खिचड़ी और इसी प्रकार के अन्य हजम होने वाले पुष्ट भोजनों की मुफ्त व्यवस्था हो सके। चलिये इस विषय पर और इस दिशा में मेरी रिसर्च पूरी हो जाने पर सोचा जायेगा मैं जानती हूँ आप मना नहीं करेंगें। कल लगभग 11 बजे मैं अपनी दो लेडी प्रोफ़ेसर के साथ जहाँ पर अपना काम चल रहा है गाड़ी में आऊँगी। हमारी प्रोफेसर्स अमरीका के एक विश्वविद्यालय में अपने कुछ पेपर्स प्रिजेंट करेंगीं। वे चाहती हैं कि वे स्वयं अपनी आँखों से ईंट और गारा ढ़ोती मजदूरनियों का जीवन देंखें और अपने कानों से उनकी परेशानी ,उनके दुःख और उनके नारी स्वभाव सुलभ सहयोगिता के विचार सुने। मजदूरनियों का भी अपना स्वप्न संसार होता है और उनके छोटे बच्चे उनके लिये राजकुमार से कम नहीं होते। मनफूल सिंह जी यह सब सुनने के बाद न जाने क्या सोचते हुये अपने कमरे में चले गये। सुधा काफी देर तक बैठी माता जी से बातचीत करती रही।

                     अगले दिन दस बजे के आस -पास ठेकेदार मनफूल सिंह नें काम करते संवरिया को अपने पास बुलाया दो हफ़्तों से रम्मों की आधी कटी हुयी मजदूरी के पूरे पैसे संवरिया को दे दिये फिर कहा कि वह रम्मों को बुला लावे। रम्मों अपने बच्चे को दूध पिलाने में लगी थी जल्दी में अपना वक्ष आँचल से ढाकते हुये ठेकेदार के पास आयी बोली बाबूजी क्या बात है ? मनफूल सिंह नें उसकी ओर करुणापूर्ण द्रष्टि डालते हुये कहा बेटी मैंने तुम्हारी पूरी मजदूरी यानि पिछले दो महीनों की कटी हुयी रकम सवारिया को दे दी है तुम्हे अब संवरिया के बराबर मजदूरी तो मिलेगी ही साथ ही तुम दोनों के बच्चे को मैं अपना पोता मानकर पाँच वर्ष तक उसके लालन -पालन का सारा खर्च वहां करूँगा मेरी बेटी सुधा अभी तुम लोगों के बीच आने वाली है उसे मजदूरी काट लेने वाली बात मत बताना। रम्मों और संवरिया अवाक रह गये।  मनुष्य का ह्रदय भी परिवर्तन के कितने दौरों से गुजरता है। इसे सम्वेदना सम्पन्न प्रबुद्ध नर -नारी ही समझ सकते हैं।
   शब्द -समर


                          उत्तर मध्य भारत का अर्ध विकसित नगर जिसे त्रिविक्रमपुर के नाम से जाना जाता है त्रिपाठी सद्गृहस्थों का एक साफ़ सुथरा गृह । गृह के बाहर गोबर लिपी भित्ति से आवेष्ठित एक खुला प्राँगण ,सुरुचिपूर्ण मिट्टी से बनें ऊँचें धारक घेरों में तुलसी विटपों की सुहानी पंक्ति । गृह के भीतर सबसे पहले बैठका , फिर अगल -बगल के कई कक्ष , बीच में अन्तर आँगन फिर दोनों ओर कक्ष और कक्षों को जोड़ती हुयी एक चौड़ी दालान । गृह के पीछे हरे -भरे वृक्षों से शीतलता पाने वाला खुला मैदान । गृह के पीछे की भित्ति में पीछे निकलने के लिये एक द्वार मुख्यता घर और पड़ोस की महिलाओं के लिये आने -जाने का सुरक्षित मार्ग । चैत्र का महीना समाप्ति की ओर है । दिन के दस बजे हैं । अभी भीषण गर्मी अपनी प्रारम्भिक अवस्था में है । भरे -पुरे घर में स्त्रियों और बच्चों की चहल -पहल , भूषण नाम से अपनी पहचान बनाने वाले युवा कवि का आगमन । गृह में उसके दो बड़ी भाभियाँ ,उसकी माँ और उसके छोटे आँगन में दौड़ने -खेलने वाले भतीजे और भतीजियां । दोनों बड़े भाई बाहर वृक्षों और खेतों की देख -रेख में व्यस्त । भाइयों में सबसे छोटा भूषण अभी तक अविवाहित । मस्त -मौला , फक्कड़ पर अद्वितीय सृजनात्मक प्रतिभा का धनी । मुगल सम्राट अकबर , जहाँगीर और शाहजहाँ के इस्लामी सहिष्णु शासन का काल समाप्त प्राय । औरंगजेब के कट्टर इस्लामी शासन का प्रारम्भ । दाराशिकोह की पराजय और निर्मम ह्त्या । बहु संख्यक हिन्दू जनमानस में आक्रोश । मुसलमान शासकों द्वारा जजिया कर लागू करने की शुरआत । कवि भूषण के छन्दों में अन्याय को जला देने के लिये अग्नि की लपटें । आस -पास के सभी क्षेत्रों में उनका सम्मान । हर जगह से बुलावा । उनका ओजस्वी व्यक्तित्व, कविता पाठ । अतुल सम्मान पर गृह की आर्थिक व्यवस्था में योगदान न के बराबर । सदैव हड़बड़ी में ,शीघ्रता में क्योंकि सभी समूहों ,समितियों और सभाओं में उनकी उपस्थिति अनिवार्य । सिर पर सिर त्राण ( पगड़ी ), कटि से ऊपर एक लम्बा सिला हुआ वस्त्र जो भुजाओं में केवल कुहनियों तक पहुँचता है । कटि के नीचे सुथ्थन ढंग की धोती का पहिनाव । पैरों में पत्राण । आँगन में पहुंचने से पहले पैरों से जूतियाँ निकाल देते हैं । फिर लम्बे -चौड़े नाबदान पर बैठकर पैर धोते हैं । मिट्टी लगाकर हाथ साफ़ करते हैं । फिर मुँह पर भी पानी का हाँथ फेरते हैं । दूर खूंटी पर टंगे एक अंग पोछा से हाँथ और मुँह पोछते हैं । सिर त्राण पहले ही उतारा जा चुका था अब ऊपर का लम्बा वस्त्र भी निकाल देते हैं । भाभी रसोई के बाहर काष्ठ पीठ डाल देती है । कांसे की थाली में कटोरियों में दाल ,सब्जी और थाली में चावल रोटी रखकर सामने रख देती है । यह रोज का सुनिश्चित क्रम है । भाभी जानती हैं कि भोजन की इतनी मात्रा पर्याप्त है फिर भी कटोरदान पास रख कर कह देती हैं कि अगर मन हो तो और रोटियाँ ले ली जायँ , एक छोटी कटोरी में घृत भी है । फिर भाभी रसोई छोड़कर किसी छोटे बच्चे के हाँथ पाँव धोकर बाहर निकल जाती हैं । भूषण अपनी इस छोटी भाभी को बहुत सम्मान की द्रष्टि से देखते हैं । वह उन्हें माँ जैसा प्यार करती है । माँ अब बहुत वृद्ध हो गयी है । अलग कक्ष में पडी या बैठी रहती है । भोजन करने के बाद भूषण कुछ देर के लिये उनके साथ उठ -बैठ लेते हैं । माँ उनसे कविता के अतिरिक्त कोई और ऐसा काम करने को कहती है जो अर्थ उपार्जन की प्रकृति का हो । सुरुचिपूर्वक कवि भूषण भोजन का पहला ग्रास दाल में डुबोकर और सब्जी रखकर मुँह में डालते हैं । उन्हें लगता है कि दाल  सब्जी में नमक ना के बराबर है । कहीं भाभी भूल तो नहीं गयीं ? ग्रीष्म की ऋतु में भूषण शरीर से अधिक परिश्रम करते है क्योंकि लम्बे -चौड़े दिनों में उनका कहीं न कहीं आना -जाना होता रहता है । शरीर में काफी स्वेद स्रवित होता है कुछ अधिक नमक की माँग रहती है । भाभी को पुकार कर रसोई में आकर नमक देने की बात करते हैं । भाभी को समय लग रहा है । छोटे बच्चे को साफ़ -सुथरा करने में समय लगता ही है । भूषण फिर आवाज देते हैं भाभी कहती है आती हूँ लाला ,इतने बेताब क्यों हो रहे हो ?भूषण कौर लिये बैठे हैं । नमक की कमी में स्वाद किरकिरा हो रहा है । फिर तीसरी आवाज देते हैं । जल्दी करो भाभी मैं कौर लिये बैठा हूँ । कहाँ उलझ गयीं । भाभी गुस्से में छोटे बच्चे को पालने पर ही छोड़ देती है । छोटा बच्चा अभी तक शिशु ही है रोने लगता है । भाभी गुस्से से  हाथ धोकर रसोई में घुसती है ,चुटकी से थोड़ा पिसा सेंधा नमक थाली में रख देती है । कहती है ज्यादा नमक खाते हो इसलिये ज्यादा गुस्सा करते हो । । जब किसी को ब्याह कर लाना तो उसपर ऐसी हुकूमत करना । मुझे और भी तो कितने झंझट है ॥ खाते -खाते भूषण कहते हैं कि उन्हें भी बहुत सारे झंझट हैं । और उनके पास समय नहीं होता । बच्चे के रोने की आवाज भाभी  तक आती है । भाभी तैश में आकर कहती है , " लाला तुम तो ऐसे रोब से बातें कर रहे हो जितना कोई हाथी नसीन भी नहीं करता । "

............... भूषण का आत्म अभिमान चोट खाता है कहते हैं ," भाभी मैं क्या किसी हाथी नसीन से काम हूँ ।मेरी प्रशंसा क्या किसी हाथी नसीन से कम होती है । " भाभी को नहले पर दहला लगाना आता है । आखिर वह मतिराम की पत्नी है । उसके पति स्वयं जाने माने कवि हैं । फिर भी वह घर गृहस्थी चलाने के लिये जायदाद की पूरी देख -भाल करते हैं । अपना समय फिजूल की शेखियों में बरबाद नहीं करते । वह चोट करती है ,"सभी के भाग्य में हाथी नसीन होना नहीं होता । बेकार की शेखी मत बघारो लाला । मैनें तुमसे ज्यादा दुनिया देखी है । बोलो और नमक तो नहीं चाहिये वह छोटा विभीषण रो रहा है । " न जाने क्या होता है ? अद्धभुत प्रतिभा के धनी ,हिन्दू संस्कृति के प्रति पूर्णताः समर्पित भाभी के शब्दों का प्रहार झेलकर तिलमिला उठते हैं । पर अपने आवेश को नियन्त्रित कर शांत स्वर में कहते हैं ," देखो भाभी तुम मेरी आदरणीया हो ,तुम मेरी माँ तुल्य हो ,क्या जैसा जो कुछ मैं हूँ वह तुम्हारी माप पर खरा नहीं उतरता । यदि मैं हाथी नसीन हो जाऊँ तो क्या मैं कुछ बदल जाऊंगा । भूषण तो भूषण ही रहेगा । भाभी उसे बिकने के लिये बाध्य मत करो । उत्तर भारत में तो मेरा खरीददार दिखता ही नहीं । हलाहल कूट को बस त्रिनेत्र शिव ही कंठ में धारण कर सकते हैं । " बच्चे के रोने की आवाज तेज होती है । ,भाभी उठ खड़ी होती है, उठते -उठते कहती है जब ब्याह कर आयी थी तुम्हारे बड़े भाई भी इसी प्रकार की लम्बी -चौड़ी हाँका करते थे । कहते थे राजसी ठाठ से घर को मढ़ दूँगा । कहते थे स्वर्ण आभूषणों से मेरे रूप को कई गुना बढ़ा देंगें । अरे लाला तुम सभी भाइयों में अपना बड़प्पन दिखाने का मर्ज लग गया है । मेरे जेठ जी कुछ लिखते -विखते रहते हैं । बड़ी बहना भी कह रही थी कि इन लफ्फाजी करने वाले भाइयों में सभी केवल प्रशंसा का आसव पीकर मस्त रहते हैं । जीवन की कठोर सच्चायी से इनका कोई परिचय नहीं है । हमारी नसीब में बैलगाड़ी ही बनी रहे यही बहुत है । हमारी गैय्या बछड़े देती रहे तो खेती -बाड़ी चलती रहेगी । रथ हमारे भाग्य में कहाँ है और हाथी क्या हमारी जिन्दगी कभी हमारे दरवाजे पर खड़ा हो सकता है ।

                              भूषण ने अभी तक कुछ ही कौर मुँह में डाले हैं । तीन चौथाई भोजन थाली में अनछुआ  पड़ा है ,भाभी तो खड़ी ही थी खुद भी तमग कर उठ जाते हैं । कहते हैं भाभी मैं  अपना अपमान  तो बर्दाश्त कर सकता हूँ पर आपनें न केवल देवर का अपमान किया है बल्कि अपने पूज्य पति और ज्येष्ठ श्री का भी । हमारे पूज्य पिता आज नहीं हैं पर जो विरासत हमनें उनसे पायी है कि वह इतनी भब्य और ओजपूर्ण है कि वह हमें अमरत्व के द्वार तक पहुँचा सकती है । अच्छा तो सुनों  भाभी मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि अब इस घर के द्वार पर तभी आकर भाइयों को अपना मुँह दिखाऊंगा जब मैं सबसे आगे विशाल गजराज पर बैठा हूँगा और मेरे पीछे हाथियों की लम्बी कतार होगी । तब नमक देने में देरी तो नहीं करोगी भाभी ?
                                  भूषण यह कहकर उठ जाते हैं ,हाथ पैर धोते हैं, मुँह पर जल के  छींटे मारते हैं, सिर पर उष्णीष रखते हैं ,वक्ष वस्त्र पहनते हैं फिर  माँ के कक्ष में जाकर माँ के चरणों में सिर रखकर उसका आशीर्वाद मांगते हैं । माँ की श्रवण शक्ति बहुत कम है ,भाभी और देवर में क्या बातचीत हुयी है इसे वह नहीं जानती । माँ आशीर्वाद का हाँथ भूषण के सिर पर रखती है । कहती है बेटा ," रात्रि को जल्दी आ जाया करो । स्वर्ग जाने से पहले तुम्हारे पिता ने जो मुझसे कहा था सुनना चाहोगे ? उन्होनें कहा था हमारा भूषण हम दोनों को अमर कर देगा । भूषण के आँखों के जलबिन्दु माँ के चरणों पर पड़ते हैं । रुदन को रोककर, आँगन से बाहर आकर पादत्राण पहन लेते हैं और शीघ्रता  से गृह के मुख्य द्वार से बाहर निकल जाते हैं । सोचते जा रहे हैं कि उत्तरावर्त का शौर्य तो मर चुका ,मेरी रणभेरी किस नरसिंह को हिन्दू संस्कृति के सच्चे  उद्धारक के रूप में इतिहास के पटल पर अवतरित होने की प्रेरणा दे पायेगी । चलते हैं ओरछा से होकर महाराष्ट्र की ओर अब तो अन्याय पूर्ण मुल्ला संस्कृति को जड़मूल से उखाड़ ही फेंकना होगा । हिन्दू चिन्तन की सामासिकता कोई कालजयी राष्ट्र पुरुष देश का भविष्य रचने के लिये उभार कर सामने लायेगी । असमर्थ तो यह कर नहीं सकते
पर सम्भवतः समर्थ रामदास महाराष्ट्र की चेतना में पुनः नवचेतना का संचार कर दें ।
                     पटाक्षेप ......... दूर से गूँजती कविता की पंक्तियाँ, " शिवा जी न हो तो सुन्नत होत सबकी ।"

...... औरंगजेब के कट्टर इस्लामी जनून के कारण हिन्दुस्तान के इस्लाम से इतर अन्य दार्शनिक विचारधाराओं के अनुयायी दूसरी या तीसरी श्रेणी के नागरिक बन गये हैं । जजिया कर तो उनपर लगा ही है साथ ही ऊँचे पदों पर भी उनकी नियुक्ति रुक गयी है । औरंगजेब कट्टर मुल्लाओं की चपेट में है । शरियत की गलत -शलत व्याख्या की जा रही है । सर क़त्ल किये जा रहे हैं । मन्दिर गिराये जा रहे हैं । गुरु तेगबहादुर के दोनों पुत्रों को दीवार में जीवित चुनवा दिया गया । उन्होंने सर दिया पर सार न दिया ।ऐसे में माँ भवानी के पुजारी समर्थ राम दास से शक्ति प्राप्त करने वाला प्रेरणा पुरुष शिवा जी राजे महाराष्ट्र में स्वतन्त्रता का बिगुल बजा देते हैं । महाराज जै सिंह द्वारा आदर पूर्ण बराबरी के व्यवहार की आशा पर शिवाजी उनके साथ दिल्ली आये थे पर औरंगजेब के दरबार में उन्हें पाँच हजारी पंक्ति में खड़ा कर उनका घोर अपमान किया गया ।

          कवि भूषण ने लिखा है -


" सबन के आगे ठाढ़े रहिबे के जोग ,

 ताहि खड़ो कियो जाय प्यादन के नियरे ।"
                       शिवाजी ने भरे दरबार में ही निडर होकर अपना विरोध और क्रोध प्रकट किया । उन्हें महाराज जै सिंह के कहने पर महाराज जै सिंह के महल में ही कैद कर दिया गया । शिवाजी राजे  प्रकार मिठाई के लम्बे -चौड़े झाले में छिपकर नजर कैदी से मुक्त हो गये इसका विस्तृत विवरण "माटी "के पाठकों ने इतिहास के पन्नों में पढ़ा ही होगा । हिन्दू जाति के इस सिरमौर वीर का सँरक्षण पूरी सतर्कता के साथ हिन्दू संस्कृति के चिन्तक ,विचारक और संरक्षक करते रहे । एक लम्बे अर्से के बाद एक छद्म वेश में शिवाजी राजे माँ जीजाबाई के सामने उपस्थित होकर कोई भिक्षा पाने की प्रार्थना करने लगे । उनका वेष परिवर्तन इतनी कुशलता से हुआ था कि स्वयं उनकी माँ ही उन्हें प्रथम दृष्टि में पहचान नहीं पायी । अपनी लम्बी गुप्त यात्रा के दौरान शिवाजी ने भारत की लक्ष -लक्ष जनता के ह्रदय के भावों को पूरी तरह समझ लिया था । वे आश्वस्त थे कि औरंगजेब की कट्टर इस्लामी नीति के खिलाफ उन्हें न केवल हिन्दुओं का व्यापक समर्थन मिलेगा बल्कि सहिष्णु मुसलमान भाई भी उनका पूरा साथ देंगें । हिन्दुस्तान में जन्में ,पले पुसे और अकबरी परम्परा के मुस्लिम वर्ग सहकारिता और सहअस्तित्व को कैसे नकार सकते हैं । शिवाजी राजे का जय रथ माँ जीजाबाई का आशीर्वाद लेकर और समर्थ राम दास से शक्ति पाकर विजय यात्रा पर निकल पड़ा । मुग़ल साम्राज्य की सारी फ़ौज उन्हें पस्त करने में लगा दी गयी स्वयं शाहंशाह औरगजेब वर्षों दक्षिण में टिके रहे ताकि शिवाजी को पकड़ कर कैद कर लिया जाय या मार दिया जाय पर भारत का भविष्य अभी एक नयी गुलामी आने की प्रतीक्षा कर रहा था । शिवाजी द्वारा स्वतन्त्र स्थापित राज्य औरंगजेब के लिये न मिटनें वाला सरदर्द बन गया । काशी में शिवाजी को क्षत्रियत्व  प्रदान कर उन्हें चक्रवर्ती सम्राट के रूप में विभूषित किया गया । वे आज तक छत्रपति  शिवाजी महाराज के नाम से जाने जाते हैं । शिवा राजे तो उनके प्रारम्भिक विजय काल का सम्बोधन था । महाकवि भूषण को पहली बार दक्षिणावर्त की धरती पर पहली बार एक ऐसा जननायक देखने को मिला जिसमें श्री राम की वीरता और श्री कृष्ण की उदारता दोनों आदर्श रूप से समन्वित हुयी थी । इतिहास का सत्य तो इतिहासकार जानें पर जनश्रुतियाँ तो यह कहती हैं कि शिवाजी ने एक के बाद एक बावन विजयें हासिल कीं । "माटी " कोई इतिहास की पत्रिका नहीं है , इतिहास का  धूमिल आधार पाकर शब्द शिल्पियों की कल्पनायें और अधिक रंग -बिरंगी दिखायी पड़ने लगती हैं । " माटी " नहीं जानती कि वे बावन किले कौन -कौन से थे ?पर कुछ प्रसिद्ध विजयों से इतिहास के पन्ने भरे पड़े हैं जैसे सिंहगढ़  की विजय या पुरन्दर की विजय आदि आदि । कहते है महाकवि भूषण ने इन्हीं बावन विजयों के आधार पर शिवा बावनी लिखी जिसका एक एक सवैया छन्द हिन्दी भाषा का सबसे चमकदार नगीना है ।
  .................... कौन हिन्दी भाषा -भाषी प्रेमी है जो शिवा बावनी पढ़कर वीर काब्य के प्रभाव से अछूता रह जाय। और विजयों से भी अधिक था खुंखार कट्टरपंथियों के लिये शिवाजी का नाम और आतंक । उनके नाम से ही मुसलमान नवाब सेनापति और शासक थर्रा उठते थे । उनके नाम का यह आतंक मुसलमान शासकों के घरों में घुसकर उनकी बेगमों का दिल भी दहला देता था तभी तो भूषण ने शिवाजी के नाम के त्रास को अविस्मरणीय पंक्तियों में चित्रित किया है ।

" ऊँचे घोर मन्दर के अन्दर रहन वारी,

ऊंचे घोर मन्दर के अन्दर रहती हैं ।
कन्द मूल भोग करें ,कन्द मूल भोग करें ,
तीन बेर खाती वे तीन बेर खाती हैं ।
सरजा शिवाजी  शिवराज वीर तेरे त्रास ,
नगन जडाती ते वे नगन जडाती हैं ॥ "
                              छत्रपति शिवाजी की मृत्यु के बाद भी उनके वीरत्व और  स्वाभिमान की परम्परा मराठा साम्राज्य की शक्ति पेशवाओं के हाथ में आयी तब मराठा साम्राज्य का आतंक ,दिल्ली के सिहांसन पर बैठे नपुंसक सम्राटों को सदैव नतमस्तक किये रहता था । पेशवा बाजी राव प्रथम और द्वितीय की तुलना तो महान विजेता सम्राट स्कन्ध गुप्त से की जाती है । अश्वारूढ़ विशाल मराठा वाहिनी रात -रात भर में सैकड़ों मीलों का सफर कर शत्रु सेनाओं को रौंद कर रख देती थी । हिन्दी कविता प्रेमी सभी उस दोहे से परिचित होंगें जो ओरछा के राजा छत्रसाल ने पेशवा बाजीराव को लिखा था । जनश्रुति है और अधिकतर इतिहासकार इस जनश्रुति से सहमत है कि जब छत्रसाल की सेना चारो ओर मुग़ल सेना से घेर ली गयी और पराजय उनके सामने मुँह बाये खड़ी हो गयी तो उन्होनें एक कुशल अश्वारोही को कविता की दो पंक्तियाँ लिखकर हिन्दू धर्म रक्षक बाजीराव पेशवा के पास लिखकर भेजी । दोहा इस प्रकार था ।

" जो गति ग्राह् गजेंद्र की , सो गति बरनउ आज ,

बाजी जाति बुन्देल की वाजी राखौ लाज ।"

                       जिस समय यह पत्र बाजीराव को मिला उस समय उनकी विशाल सेना ओरछा से सैकड़ों मील दूर थी पर बुन्देल की लाज तो रखनी ही थी । रातों रात घोड़ों के खुरों से सैकड़ों मील धरती की परतें उघड गयीं । मुग़ल सेना दोहरी मार से पिटकर पराजित होकर भागी । न जाने कितने अस्त्र -शस्त्र और भार असवात छोड़ गयी । शव सड़ते रहे ,  घायल तड़पते रहे । भूषण जी ने इन  छत्रसाल की गुणगाथा में भी कुछ अत्यन्त प्रभावशाली वीर छन्द , सवैये लिखे हैं । सभी हिन्दी कविता प्रेमी ऐसी पंक्तियों से परिचित हैं ।

" रैया राव चम्पत के छत्रसाल महाराज

भूषण सकै करि बखान कोऊ बलन को

पक्षी पर छीने ऐसे परे पर छीने वीर

तेरी वरछी ने वर छीने हैं खलन के ।"

                                                             पर हम बात कर रहे थे महाकवि भूषण और उनकी भाभी द्वारा किये उनके तिरस्कार की । हम फिर से दोहराते हैं कि इतिहास का सत्य साहित्य  का सत्य नहीं होता है , सच पूँछो तो इतिहास का सत्य स्थिर होता है । जबकि साहित्य का सत्य चेतन होता है ,वह फलता -फूलता ,बढ़ता और विस्तारित होता है । जनश्रुति कहती है कि शिवाजी के सुपुत्र साहू जी और अन्य समर्थ मराठा सरदारों ने शिवा बावनी के एक -एक छन्द पर एक -एक हाथी देकर उन्हें पुरस्कृत किया । जनश्रुति यह भी कहती है कि महाराज छत्रसाल ने स्वयं उनकी पालकी उठाने में हाथ लगाया । " माटी " के पाठक साहित्य की ऊँचाइयों और गहराइयों से परिचित हैं जनश्रुति में कल्पना के पँख लग जाते है तो वह गगन बिहारी बन जाती है । वह सुरसा के मुँह का विस्तार पा जाती है और उसमें सभी असंभव संभव हो जाता है । तो जनश्रुति कहती है कि महाकवि भूषण बावन गजों की पंक्ति लेकर आगे के सबसे ऊँचे गजराज की पीठ पर बैठकर त्रिविक्रमपुर पहुँचे कहाँ से और कैसे निर्विघ्न पहुँच गये यह हाथियों के महावत जानते होंगें । पर उनके पहुँचनें की खबर पाकर त्रिविक्रमपुर की बाजार , गलियों और नुक्कड़ों पर भीड़ उमड़ पडी , हाथियों की पँक्ति भीड़ से रास्ता बनाती हुयी मतिराम त्रिपाठी के अगले द्वार पर पहुँच गयी । वृद्धा माँ तो कुछ सुन समझ नहीं पायी पर भाभियां  और बाल- बच्चे घबरा कर कक्ष  में छुपने के लिये भगे । उन्हें भ्रम हुआ कि शायद कोई नवाबी या लुटेरी मुस्लिम सेना का कोई सिपहसालार उनका घर और नगर लूटने आया है । बूढ़ी स्त्रियों , मर्दों और बच्चों को मार दिया जायेगा । नवयुवक यदि बच निकले तो उनका भाग्य नहीं तो कुत्तों और सियारों का भोजन बनेगें और नव युवतियां भेड़िया सिपाहियों के लिये कामेच्छा पूर्ति का साधन बनेंगी । पर मतिराम त्रिपाठी और उनके अग्रज जिनका नाम शायद मैं गलत हूँ कृपा राम था वीर पुत्र और वीर बन्धु थे । उन्होंने छत पर चढ़कर हस्तियों की उस लम्बी पंक्ति को देखा । उन्होंने देखा कि सबसे आगे सबसे ऊँचे गजराज पर उनका सबसे छोटा भाई भूषण बैठा है उसके सिर पर छत्र लहरा रहा है , वह राज कवि के वेष कीमती वस्त्र पहने है ,उसका महावत भी एक विशेष पगड़ी धारण किये हुये है । उन्हें भ्रम हुआ कि कहीं वह कोई सपना तो देख नहीं रहे हैं । उन्होंने फिर आँखें मलीं । हस्ति पंक्ति कुछ और नजदीक आ गयी थी । अरे हाँ यह तो भूषण ही है आश्चर्य से फटती हुयी आँखें लिये वह सीढ़ियों से शीघ्रता से उतर कर नीचे आये । कृपा राम और मतिराम ने अपनी अपनी गृहणियों और बच्चों को कक्ष से बाहर आने को कहा ,चिल्लाते गये कि छुटुवा आ गया है । माँ ने नहीं सुना ,पर उन्होंने जोर से चिल्ला कर कहा ,"अम्मा छुटुवा आ गया , भूषण घर आ गया , धन्य हुये हमारे भाग्य ।"भूषण का गजराज द्वार पर पहुँचा उसने सूंड उठाकर भाइयों का अभिवादन किया । भाइयों ने कुछ देर भूषण के नीचे उतरने की प्रतीक्षा की तब भूषण ने कहा भाभियाँ कहाँ हैं ? छोटी भाभी से कहो कि थाली में थोड़ा सा नमक डाल कर द्वार पर आये और मुझे नीचे उतरने का हुक्म दे । साहित्य्कार यह नहीं बताते कि छोटी भाभी नमक लेकर आयी या नहीं आयी हाँ यह अवश्य बताते हैं कि सिर ढके मुखड़ों को  नीचे झुकाकर सुख के आँसूं द्वार की देहरी पर टप -टप गिर पड़े । महा कवि भूषण महावत द्वारा हाथी को बिठालकर नीचे उतारे गये । उन्होंने ज्येष्ठ भ्राताओं  और भाभियों के चरण स्पर्श किये और वृद्धा माँ के पैरों पर गिरकर काफी देर चुपचाप रोते रहे । "माटी ' नहीं जानती कि वे क्यों रोये ?शायद दिवंगत पिता की याद में ,शायद अपरम्पार भगवत कृपा की कृतज्ञता के रूप में , शायद महा नायक अद्वतीय अश्वारोही हिन्दू धर्म उद्धारक छत्रपति शिवाजी की पावन स्मृति में । "माटी " के पाठक इस बारे में स्वतन्त्र निर्णय लेने के लिये पूर्ण रूप से बन्धन मुक्त हैं ।

मरुथल की छाती फोड़कर निकलने वाला जीवन्त अंकुर किसी सिचाई की मांग नहीं करता। योरोपीय सभ्यता प्राचीन यूनानी सभ्यता को अपने आदि स्रोत के रूप में स्वीकार करती है। निसन्देह ईसा पूर्व यूनान में विश्व की कुछ महानतम प्रतिभायें देखने को मिलती हैं। सुकरात ,प्लेटो (अफलातून )और अरिस्टों टल (अरस्तू )का नाम तो शिक्षित समुदाय में सर्वविदित ही है पर बुद्धि परक मीमांसा का शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र हो जहाँ प्राचीन यूनानी प्रतिभा ने अपनी अमिट छाप न छोड़ी हो इसी प्राचीन यूनान में स्पार्टा के नगर राज्य में मानव शरीर की प्राकृतिक विषमताओं से लड़ने की आन्तरिक क्षमता को मापने का एक अद्धभुत प्रयोग किया था। ऐसा माना जाता है कि स्पार्टा नगर राज्य में जन्म लेने वाला प्रत्येक शिशु नगर के छोर पर स्थित एक विशाल समतल प्रस्तर पर निर्वस्त्र छोड़ दिया जाता था । दिन रात के चौबीस घन्टे उसे अकेले चीखते,चिल्लाते छांह ,धूप ,प्रकाश,अन्धकार और कृमि कीटों से उलझते -सुलझते बिताने पड़ते थे । आंधी आ जाय या मूसलाधार वर्षा उसे आठ पहर ममता रहित उस चट्टान पर निर्वस्त्र काटने ही होते थे । इस दौरान यदि प्रकृति उसका जीवन समाप्त कर दे तो स्पार्टा का प्रशासन उसे मात्र भूमि की माटी में अर्पित कर देता था और यदि वह बच जाय तो उसका हर प्रकार से लालन -पालन कर उसे स्पार्टा नगर राज्य का समर्थ चट्टानी पेशियों वाला जागरूक नागरिक बनाया जाता था ।प्राचीन इतिहास के मनीषी पाठक जिन्होंने विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं का गहनतम अध्ययन किया है जानते ही हैं की स्पार्टा नगर राज्य और एथेन्स के नगर राज्य में बहुत लम्बे समय तक संघर्ष की स्थिति रही थी और अन्तत :अपनी सारी सम्रद्धि ,वैभव और ज्ञान विपुलता के बावजूद स्पार्टा का पलड़ा भारी रहा था । हमें स्वीकार करना ही होगा कि मरुथल की छाती फोड़कर निकलने वाला जीवन्त अन्कुर किसी सिचाई की मांग नहीं करता। ब्यक्ति का आन्तरिक सामर्थ्य जिसमें शारीरिक और मानसिक क्षमताओं का कान्चनमणि संयोग शामिल है उसे जीवन संग्राम में अपराजेय योद्धा के रूप में प्रतिष्ठित करती है। काया का बाह्य आकार अन्तर की विशालता का प्रतीक नहीं होता।शरीर की प्रतिरोधात्मक क्षमता किन्ही उन आन्तरिक शक्तियों से प्रतिचालित होती है जिन्हें मानव के वरण -अवरण की प्रक्रिया के द्वारा लाखो -लाख वर्षों में पाया है।बौद्धिक कुशाग्रता और जिसे हम प्राण शक्तियां प्राणवत्ता के रूप में जानते हैंवो भी चयन -अचयन की लाखों वर्षों की दीर्घ प्रक्रिया से गुजर कर आयी है। हर श्रेष्ठ मानव सभ्यता प्राचीन या अर्वाचीन इसी विरासत में पायी असाधारण आन्तरिक क्षमता को प्रस्फुटन -पल्लवन का काम करती है ।पोषण ,सिंचन और संरक्षण पाकर भी कुछ लता ,पादप- तरु थोड़ा बहुत बढ़कर सीमित विकास को समेटे विलुप्त होने की सनातन प्रक्रिया का अंश बन जाते हैं।और कुछ हैं जिन्हें ओक ,बरगद और देवदार बनना होता है। शताब्दियाँ उनको छूकर निकल जाती हैं और वे सिर - ताने खड़े रहते हैं।पर आकार की विशालता ही श्रेष्ठता का पैमाना नहीं है। रग पेशियों की द्रढ़ता प्रभावित अवश्य करती है पर सनातन नहीं होती।कुछ पैरों से निरन्तर दलित,मलिन होने वाली वनस्पति प्रजातियाँ भी हैं जो काल की कठोर छाती पर अपनी कील ठोंककर अजेय खड़ी हैं।विनम्र घास और सदाबहारी निरपात और प्रान्तीय लतायें इसी श्रेणी में आती हैं। सनातन धर्म वाले सनातन भारत का विश्व को यही सन्देश है कि केवल आन्तरिक ऊर्जा,दैवी स्फुरण , प्रज्ञा पारमिता या समाधिस्त संचालित जीवन ही काल को जीतकर अकाल पुरुष तक ले जाता है ।

            व्यक्ति का चाहना या न चाहना निर्मम प्रक्रति के विस्मयकारी और अबाधित गतिमयता में कोई परिवर्तन ला पाता है इस पर मुझे सन्देह है।पर यदि चाहना का कोई सकारात्मक प्रभाव होता है तो मैं चाहूँगा कि माटी अपनी अमरता अपने कलेवर में समेंट लेने वाली मन्त्र -पूत सामिग्री से सन्चित करे निर्वात दीप्त शिखा की भांति प्रकाश पुंजों की श्रष्टि ही उसके साधन बने और साध्य भी।आकाश गंगा की तारावलियां और ज्योतित पथ उसे अमरत्व का ऊर्ध्वगामी पथ दिखायें -इसी कामना के साथ ।
हर ऋतु का एक श्रंगार होता है । वह श्रंगार हमें मोहक लगे या भयावह ऋतु का इससे कोई सम्बन्ध नहीं होता । प्रकृति की गतिमयता अवाध्य रूप से प्रवाहित होती रहती है । ब्रम्हाण्ड में तिल  जैसा आकार न पाने वाली धरती पर साँसे लेता हुआ मानव समाज अपने को अनावश्यक महत्व देता रहता है । ब्रम्हांड के अपार विस्तार में हमारी जैसी सहस्त्रों धरतियाँ बनती -बिगड़ती रहती हैं । हम अमरीका के चुनाव ,यूरोजोंन की आर्थिक विफलता और इस्लामी देशों की मजहबी कट्टरता को लेकर न जाने कितने वाद -विवाद खड़े करते रहते हैं। साहित्य की कौन  सी विचारधारा, दर्शन की कौन सी चिन्तन प्रणाली ,संगीत की कौन सी रागनी ,शिल्प और हस्तकला की कौन सी विधा सार्थक या निरर्थक है । हम इस पर वहस करके अपने जीवन का सीमित समय समाप्त करते रहते हैं । प्रकृति का चेतन तत्व न जाने किस अद्रश्य में हमारे इन खिलवाडों पर हँसा करता है । पहाड़ झरते रहते हैं ,नदियाँ सूखती रहती हैं ,सागर मरुथल बन जाते हैं ,और मरुथल में सोते फूटते रहते हैं । असमर्थ मानव अपनी तकनीकी और प्रोद्योगकीय की शेखचिल्ल्याँ उड़ाता रहता है । पर प्रकृति की एक थपेड़ उसे असहाय या पंगु कर देती है । कहीं भूचाल है तो कहीं सुनामी ,कहीं प्रलयंकर आँधी है तो कहीं भयावह हिम स्खलन, स्पष्ट है कि हमें जीवन के प्रति एक ऐसा द्रष्टिकोण विकसित करना चाहिये जिसमें सहज तटस्थता हो ,और यह जीवन दर्शन भारत के दार्शनिक चिन्तन की सबसे मूल्यवान धरोहर है जो हम भारतीयों ने पायी है । यह हमारा बचकाना पन ही है कि हम जीवन सत्य खोजने के लिए तथा कथित विकसित देशों की अन्धी गुलामी भी कर रहे हैं । चक्रधारी युग पुरुष ने सहस्त्रों वर्ष पहले जब फल से मुक्त सदाशयी कर्म की स्वतंत्रता की बात की थी तो उसमें  मानव जीवन का  अब तक का सबसे बड़ा सत्य उद्दघाटित किया था। इसी सत्य को आधार बना  कर भारत की युवा पीढ़ी को अपने कर्म को उत्कृष्टता की श्रेणी तक निरन्तर गतिमान करना होगा। प्रेरणा के अभाव में आदि कर्म की स्वतंत्रता उत्कृष्टता की ओर न बढ़कर धरातलीय घाटों पर                                             फिसलने लगी है और यहीं से आधुनिक भारत के चारित्रिक पतन का सूत्रपात हो गया है ।                                                                     
                            तो हम क्या करें ? हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना ,दूसरों के किये गये अनुचित कार्यों के अपराध बोध से कुण्ठित हो जाना  क्या हमारे लिये श्रेयस्कर होगा? मैं समझता हूँ हमें इस चुनौती को झेलना ही होगा। बिना दो -दो हाथ किये कोई भी संस्कृति विश्व में अपना वर्चस्व कायम नहीं कर सकती । व्यक्ति से ही समूह का निर्माण होता है। इकाई से शून्य को जब अधिक महत्त्व दिया गया तो सांख्यकीय ने यही सिद्ध करने का प्रयास किया था कि अस्तित्वमान इकाई भी अपने में शक्ति की पराकाष्ठा छिपाये रखती है  महान नायकों से ही महान जागृतियों  और महान क्रान्तियों का संचालन होता है। गान्धी के आगमन के बिना भारतीय स्वतंत्रता का स्वप्न संभवत : एक मूर्त रूप न ले पाता। बुद्ध के बिना वर्ण व्यवस्था पर आधारित समाज का शुद्ध परिशोधन असम्भव ही होता। मानव जीवन यदि पशु की भांति भोजन ,प्रजनन और शारीरिक संरक्षण में ही बँधा रहे तो उस जीवन का पशु जीवन से अधिक महत्त्व भी नहीं है। तरुणाई का अर्थ विलास की नयी कलायें सीखने में नहीं है। तरुणाई का अर्थ है असंभव को संभव करना। अपराजेय को पराजित कर सत्य आधारित जीवन मूल्यों को अपराजेय बनाना । यदि हम चाहते हैं कि भारत दलालों का देश न हो ,यदि हम चाहते हैं कि भारत में नारी बिकने वाली वस्तु न बने ,यदि हम चाहते है कि  संयुक्त परिवार वाले छोटे बड़े की आदर व्यवस्था सार्थक बनी रहे , यदि हम चाहते हैं कि भारत के अति बृद्ध परिजन पुरजन सम्मान पायें तो भारत की तरुणाई को अपनी छाती पर विदेशों से आने वाले आघात झेल कर एक सकारात्मक कर्मशैली का विकास करना ही होगा । न जाने कितने अंतराल के बाद आजादी के प्रभात में भारत सो कर जगा था। ऐसा लगता है पिछले कुछ दशकों में वह कुछ नींद के झकोरे लेने लगा है । चिंतन की छीटों से ही उसका यह अलस भाव दूर किया जा सकता है। हमारे फिर उपनिषदों के व्यवहारिक  ज्ञान को आत्मशात करना है।  प्रारम्भिक शिक्षा का सबसे बड़ा सूत्र वाक्य सत्यंम वद ,धरमं चर हमारा प्रकाश स्तम्भ होना चाहिये ,हमारी जीवन वृत्ति ,हमारे परिश्रम ,और हमारी ईमानदारी से अर्जित होकर ईश्वरीय अमरत्व के प्रति  वन्दनीय वन जाती है । वही जीवन वृत्ति छोटे मोटे गलत कार्यों से शर्मिन्दगी वन जाती है और वही जीवन वृत्ति घोर नकारत्मक कार्यों से गन्दगी बन जाती है। अब हमें वन्दगी ,शर्मिन्दगी और गन्दगी के तीन रास्तों मेंसे किसी एक रास्ते को चुनना है । एक तरफ खंजन नयन सूरदास की चेतावनी है 'भरि -भरि उदर विषय को धाऊँ ऐसो सूकर गामी '। एक तरफ कबीर की चुनौती है ,'जिन खोजा तिन पाइयां गहरे पानी पैठ '। निराला की ललकार जागो फिर एक बार में सुनी  जा सकती है और महामानव गान्धी का करो या मरो भी गीता सन्देश का आधुनिक भाष्य ही था। 'माटी 'अपने क्षीण स्वर में अपने अस्तित्व का समूचा बल झोंककर आपको जीवन संग्राम अजेय योद्धा बनने की पुकार लगा रही है।  नपुंसकता मानव का श्रंगार नहीं होती। हम यह मान कर चलते हैं कि 'माटी ' आहुति धर्मा ,सत्य समर्पित ,स्वार्थ रहित ,कर्तब्य निष्ठ ,तरुण पीढी के निर्माण में अपनी भूमिका निभाने में प्रयत्न शील है। समान चिन्तन वाले अपने साथियों से मैं सार्थक सहयोग की मांग करता हूँ। किसी फिल्म की दो लाइनें स्मृति में उभर आयीं हैं । 'साथी हाँथ बढ़ाना -एक अकेला थक जायेगा मिलकर बोझ उठाना '।                                      

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   ईशा से सैकड़ों वर्ष पहले यूनान में एथेन्स की सड़कों पर नंगे पाँव घूमने वाले शासन द्वारा उपेक्षित, साधन रहित दार्शनिक के शब्दों में एक ऐसा जादू था जिसने एथेन्स के अधिकाँश युवा वर्ग को अपने आकर्षण में वांध लिया था।क्रास पर लटका दिये जाने वाले ईशु के शब्दों में तो अनन्त प्रकृति का सत्यबोलता ही था अभी बीसवीं शताब्दी में भारत में आधी टांगों में धोती लपेटे और हाथ में बांस की लाठी लिये नंगे फ़कीर का करिश्मा तो सबने देखा ही है। आइये धोड़ा सा ध्यान इस ओर दें कि आज के भारत में लच्छेदार भाषणों का जादू भी सामान्य जन को क्यों अपने सम्मोहन में घेर नहीं पाता। जहाँ तक मैं समझता हूँ इसका कारण यह है कि भाषा के  अधिकाँश शब्द निरर्थक हो गये हैं । खोखले शब्दों में आचरण के सत्य का अभाव है।' थोथा चना बाजे घना'।ढपोल शंखी निनाद बेअसर होकर कानों के आर-पार निकल जाता है । बड़े -बड़े डिग्री धारी विदेशों से जुटायी हुई ऊंचे लफ्फाजों से अलंकृत भाषा शैली के द्वारा भारतीय समाज में संजीवनी फूकने का दावा करतें हैं। इन डिग्री धारियों में से अधिकांश भारत के ग्राम्यों की सम्रद्ध सांस्कृतिक परम्परा से बिल्कुल कटे हुये हैं। विदेशों का आरोपित ज्ञान उन्हें भारत की समावेशी अस्मिता का अन्तर अवलोकन करने से बाधित करता है। ऐसा लगता है हमारी परम्परागत भाषाएँ आज के जीवन की सच्चाई को प्रभाव शाली ढंग से व्यक्त करने में समर्थ नहीं हो रही हैं। अंग्रेजी को छोड़ दें तो कुटिलता का जो मोहक व्यापार आधुनिक संसार में चल रहा है उसे व्यक्त करनें में भारतीय भाषायें तो लचर ही दिखलायी पड़ती हैं । सत्य के प्रति समर्पित समन्वयात्मक मानवता का पुजारी भारत छल -छद्म के झरोखे बनाने में पंगु होता जा रहा है ।हमें इन झरोखों की आवश्यकता भी नहीं है क्योंकि भारत के प्रवेश द्वार तो निरन्तर उन्मुक्त ही रहें हैं और चारो दिशाओं से आने वाली बयार हमें निरन्तर चिरन्तन सत्य की खोज की ओर प्रेरित करती रही है। 'सत्य मेव जयते '।Nothing but Truth. Truth is beauty. truth is true salvation . 'माटी 'चाहती है कि माटी के पाठक ऐसे लेखक और विचारक रचना के क्षेत्र में लाये जो शब्दों को एक नयी धार दे ,एक नयी चुभन ,एक अलबेली तराश और एक अनोखी अर्थवत्ता प्रदान करें ।हम  'माटी 'के पाठकों से संत कबीर का कोई सच्चा उत्तराधिकारी चाहते हैं हम 'माटी 'के पाठकों से उस विधि की खोज करवाना चाहते हैं जिस विधि की तलाश में मेवाड़ की मीरा भटकती रही थी। 'शूली ऊपर सेज पिया की किस विधि मिलणा  होय '।आचरण के ठोस आधार पर ही शब्दों की सार्थक भित्ति खड़ी की जा सकती है । भारत का हर सामान्य जन जानता है कि गधे की पीठ पर दर्शन शास्त्रों का बोझा लाद  देने से गधा दार्शनिक नहीं बन जाता ।आचरण की आग में पककर ही उपाधियों की लम्बे चोंगें वाली आतंकी वेष -भूषा की पहचान की असलियत जानी जा सकती है ।मानव समाज का आधार ही आचरण की शुद्धता पर टिका है।इसे दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि आधुनिक भारत का अधिकाँश कलुष उनके माथे पर लगा है जिनके नाम के आगे भारी भरकम डिग्रियां लगी हुई हैं। इसका यह अर्थ नहीं समझना चाहिये कि डिग्रियाँ ब्यर्थ हैं। इसका सिर्फ यही अर्थ है कि कोई भी उपाधि ,कोई भी तकनीकी ज्ञान, कोई भी ब्यापारिक सूझ -बूझ यदि पशुता के धरातल पर केवल अपने स्वार्थ के लिये है तो उसमें कोई भी सामाजिक पवित्रता न के बराबर है । सभी धर्म -ग्रन्थ मानव कल्याण को ही सर्वोपरि मानते हैं । कोई भी दर्शन या कोई भी विचारधारा जो मानव को जन्म के आधार पर विभाजित करती है विश्व के हर धर्म में तिरष्कृत की गयी है । सच्चाई तो यह है कि एक चरित्रवान अपढ़ उस दिमागी दिग्गज वकील से लाख गुना बेहतर है जो झूठ के कुटिल तर्कों और साक्षों के बल पर सच करके पेश करता है ।'माटी ' का सम्पादक माटी के माध्यम से एक ऐसी संस्कारित पीढ़ी को पल्लवित करना चाहता है जो भारत की ऋषि परम्परा से आचरण की पवित्रता ले और विवेकानन्द के दर्शन से आधुनिक जीवन संघर्ष में विजयी बन कर राष्ट्रीय गॉरव को समुन्नत कर सके। चारो ओर से उमड़ कर आते हुये तमस के दौर में माटी की टिमटिमाती लव प्रकम्पित हो रही है ।हमारा प्रयास है कि हम अपने अस्तित्व की बाजी लगाकर भी इस प्रकम्पित लव को बुझने न दें। गीता का यह सार वाक्य ही हमारा सहारा है।'कर्म करना ही मानव का अधिकार है । कर्म का फल तो विधाता यानि निरन्तर परिवर्तित होने वाली सामाजिक चेतना के हाथों में ही होता है। ठीक समय आने पर परिस्थितियाँ अनुकूल हो जाती हैं। और ठीक समय तभी आता है जब सामाजिक चेतना मानव जीवन के समानता वादी मानव मूल्यों को समग्र भाव से स्वीकार कर लेती है। तभी तो राम प्रसाद बिस्मिल नें आजादी के         

संघर्ष के दिनों में अपनी अमर पंक्तियों से एक न बुझने वाली सर्वस्व वलिदान लौ को प्रज्वलित किया था।

                    "वक्त आने पर बता देंगे ऐ आसमां , हम अभी से क्या बतायें क्या हमारें मन में है ।"
                   '  सच्चे सहयोग की पुकार के साथ '
हर ऋतु का एक श्रंगार होता है । वह श्रंगार हमें मोहक लगे या भयावह ऋतु का इससे कोई सम्बन्ध नहीं होता । प्रकृति की गतिमयता अवाध्य रूप से प्रवाहित होती रहती है । ब्रम्हाण्ड में तिल  जैसा आकार न पाने वाली धरती पर साँसे लेता हुआ मानव समाज अपने को अनावश्यक महत्व देता रहता है । ब्रम्हांड के अपार विस्तार में हमारी जैसी सहस्त्रों धरतियाँ बनती -बिगड़ती रहती हैं । हम अमरीका के चुनाव ,यूरोजोंन की आर्थिक विफलता और इस्लामी देशों की मजहबी कट्टरता को लेकर न जाने कितने वाद -विवाद खड़े करते रहते हैं। साहित्य की कौन  सी विचारधारा, दर्शन की कौन सी चिन्तन प्रणाली ,संगीत की कौन सी रागनी ,शिल्प और हस्तकला की कौन सी विधा सार्थक या निरर्थक है । हम इस पर वहस करके अपने जीवन का सीमित समय समाप्त करते रहते हैं । प्रकृति का चेतन तत्व न जाने किस अद्रश्य में हमारे इन खिलवाडों पर हँसा करता है । पहाड़ झरते रहते हैं ,नदियाँ सूखती रहती हैं ,सागर मरुथल बन जाते हैं ,और मरुथल में सोते फूटते रहते हैं । असमर्थ मानव अपनी तकनीकी और प्रोद्योगकीय की शेखचिल्ल्याँ उड़ाता रहता है । पर प्रकृति की एक थपेड़ उसे असहाय या पंगु कर देती है । कहीं भूचाल है तो कहीं सुनामी ,कहीं प्रलयंकर आँधी है तो कहीं भयावह हिम स्खलन, स्पष्ट है कि हमें जीवन के प्रति एक ऐसा द्रष्टिकोण विकसित करना चाहिये जिसमें सहज तटस्थता हो ,और यह जीवन दर्शन भारत के दार्शनिक चिन्तन की सबसे मूल्यवान धरोहर है जो हम भारतीयों ने पायी है । यह हमारा बचकाना पन ही है कि हम जीवन सत्य खोजने के लिए तथा कथित विकसित देशों की अन्धी गुलामी भी कर रहे हैं । चक्रधारी युग पुरुष ने सहस्त्रों वर्ष पहले जब फल से मुक्त सदाशयी कर्म की स्वतंत्रता की बात की थी तो उसमें  मानव जीवन का  अब तक का सबसे बड़ा सत्य उद्दघाटित किया था। इसी सत्य को आधार बना  कर भारत की युवा पीढ़ी को अपने कर्म को उत्कृष्टता की श्रेणी तक निरन्तर गतिमान करना होगा। प्रेरणा के अभाव में आदि कर्म की स्वतंत्रता उत्कृष्टता की ओर न बढ़कर धरातलीय घाटों पर                                             फिसलने लगी है और यहीं से आधुनिक भारत के चारित्रिक पतन का सूत्रपात हो गया है ।                                                                     
                            तो हम क्या करें ? हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना ,दूसरों के किये गये अनुचित कार्यों के अपराध बोध से कुण्ठित हो जाना  क्या हमारे लिये श्रेयस्कर होगा? मैं समझता हूँ हमें इस चुनौती को झेलना ही होगा। बिना दो -दो हाथ किये कोई भी संस्कृति विश्व में अपना वर्चस्व कायम नहीं कर सकती । व्यक्ति से ही समूह का निर्माण होता है। इकाई से शून्य को जब अधिक महत्त्व दिया गया तो सांख्यकीय ने यही सिद्ध करने का प्रयास किया था कि अस्तित्वमान इकाई भी अपने में शक्ति की पराकाष्ठा छिपाये रखती है  महान नायकों से ही महान जागृतियों  और महान क्रान्तियों का संचालन होता है। गान्धी के आगमन के बिना भारतीय स्वतंत्रता का स्वप्न संभवत : एक मूर्त रूप न ले पाता। बुद्ध के बिना वर्ण व्यवस्था पर आधारित समाज का शुद्ध परिशोधन असम्भव ही होता। मानव जीवन यदि पशु की भांति भोजन ,प्रजनन और शारीरिक संरक्षण में ही बँधा रहे तो उस जीवन का पशु जीवन से अधिक महत्त्व भी नहीं है। तरुणाई का अर्थ विलास की नयी कलायें सीखने में नहीं है। तरुणाई का अर्थ है असंभव को संभव करना। अपराजेय को पराजित कर सत्य आधारित जीवन मूल्यों को अपराजेय बनाना । यदि हम चाहते हैं कि भारत दलालों का देश न हो ,यदि हम चाहते हैं कि भारत में नारी बिकने वाली वस्तु न बने ,यदि हम चाहते है कि  संयुक्त परिवार वाले छोटे बड़े की आदर व्यवस्था सार्थक बनी रहे , यदि हम चाहते हैं कि भारत के अति बृद्ध परिजन पुरजन सम्मान पायें तो भारत की तरुणाई को अपनी छाती पर विदेशों से आने वाले आघात झेल कर एक सकारात्मक कर्मशैली का विकास करना ही होगा । न जाने कितने अंतराल के बाद आजादी के प्रभात में भारत सो कर जगा था। ऐसा लगता है पिछले कुछ दशकों में वह कुछ नींद के झकोरे लेने लगा है । चिंतन की छीटों से ही उसका यह अलस भाव दूर किया जा सकता है। हमारे फिर उपनिषदों के व्यवहारिक  ज्ञान को आत्मशात करना है।  प्रारम्भिक शिक्षा का सबसे बड़ा सूत्र वाक्य सत्यंम वद ,धरमं चर हमारा प्रकाश स्तम्भ होना चाहिये ,हमारी जीवन वृत्ति ,हमारे परिश्रम ,और हमारी ईमानदारी से अर्जित होकर ईश्वरीय अमरत्व के प्रति  वन्दनीय वन जाती है । वही जीवन वृत्ति छोटे मोटे गलत कार्यों से शर्मिन्दगी वन जाती है और वही जीवन वृत्ति घोर नकारत्मक कार्यों से गन्दगी बन जाती है। अब हमें वन्दगी ,शर्मिन्दगी और गन्दगी के तीन रास्तों मेंसे किसी एक रास्ते को चुनना है । एक तरफ खंजन नयन सूरदास की चेतावनी है 'भरि -भरि उदर विषय को धाऊँ ऐसो सूकर गामी '। एक तरफ कबीर की चुनौती है ,'जिन खोजा तिन पाइयां गहरे पानी पैठ '। निराला की ललकार जागो फिर एक बार में सुनी  जा सकती है और महामानव गान्धी का करो या मरो भी गीता सन्देश का आधुनिक भाष्य ही था। 'माटी 'अपने क्षीण स्वर में अपने अस्तित्व का समूचा बल झोंककर आपको जीवन संग्राम अजेय योद्धा बनने की पुकार लगा रही है।  नपुंसकता मानव का श्रंगार नहीं होती। हम यह मान कर चलते हैं कि 'माटी ' आहुति धर्मा ,सत्य समर्पित ,स्वार्थ रहित ,कर्तब्य निष्ठ ,तरुण पीढी के निर्माण में अपनी भूमिका निभाने में प्रयत्न शील है। समान चिन्तन वाले अपने साथियों से मैं सार्थक सहयोग की मांग करता हूँ। किसी फिल्म की दो लाइनें स्मृति में उभर आयीं हैं । 'साथी हाँथ बढ़ाना -एक अकेला थक जायेगा मिलकर बोझ उठाना '।                                      

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   ईशा से सैकड़ों वर्ष पहले यूनान में एथेन्स की सड़कों पर नंगे पाँव घूमने वाले शासन द्वारा उपेक्षित, साधन रहित दार्शनिक के शब्दों में एक ऐसा जादू था जिसने एथेन्स के अधिकाँश युवा वर्ग को अपने आकर्षण में वांध लिया था।क्रास पर लटका दिये जाने वाले ईशु के शब्दों में तो अनन्त प्रकृति का सत्यबोलता ही था अभी बीसवीं शताब्दी में भारत में आधी टांगों में धोती लपेटे और हाथ में बांस की लाठी लिये नंगे फ़कीर का करिश्मा तो सबने देखा ही है। आइये धोड़ा सा ध्यान इस ओर दें कि आज के भारत में लच्छेदार भाषणों का जादू भी सामान्य जन को क्यों अपने सम्मोहन में घेर नहीं पाता। जहाँ तक मैं समझता हूँ इसका कारण यह है कि भाषा के  अधिकाँश शब्द निरर्थक हो गये हैं । खोखले शब्दों में आचरण के सत्य का अभाव है।' थोथा चना बाजे घना'।ढपोल शंखी निनाद बेअसर होकर कानों के आर-पार निकल जाता है । बड़े -बड़े डिग्री धारी विदेशों से जुटायी हुई ऊंचे लफ्फाजों से अलंकृत भाषा शैली के द्वारा भारतीय समाज में संजीवनी फूकने का दावा करतें हैं। इन डिग्री धारियों में से अधिकांश भारत के ग्राम्यों की सम्रद्ध सांस्कृतिक परम्परा से बिल्कुल कटे हुये हैं। विदेशों का आरोपित ज्ञान उन्हें भारत की समावेशी अस्मिता का अन्तर अवलोकन करने से बाधित करता है। ऐसा लगता है हमारी परम्परागत भाषाएँ आज के जीवन की सच्चाई को प्रभाव शाली ढंग से व्यक्त करने में समर्थ नहीं हो रही हैं। अंग्रेजी को छोड़ दें तो कुटिलता का जो मोहक व्यापार आधुनिक संसार में चल रहा है उसे व्यक्त करनें में भारतीय भाषायें तो लचर ही दिखलायी पड़ती हैं । सत्य के प्रति समर्पित समन्वयात्मक मानवता का पुजारी भारत छल -छद्म के झरोखे बनाने में पंगु होता जा रहा है ।हमें इन झरोखों की आवश्यकता भी नहीं है क्योंकि भारत के प्रवेश द्वार तो निरन्तर उन्मुक्त ही रहें हैं और चारो दिशाओं से आने वाली बयार हमें निरन्तर चिरन्तन सत्य की खोज की ओर प्रेरित करती रही है। 'सत्य मेव जयते '।Nothing but Truth. Truth is beauty. truth is true salvation . 'माटी 'चाहती है कि माटी के पाठक ऐसे लेखक और विचारक रचना के क्षेत्र में लाये जो शब्दों को एक नयी धार दे ,एक नयी चुभन ,एक अलबेली तराश और एक अनोखी अर्थवत्ता प्रदान करें ।हम  'माटी 'के पाठकों से संत कबीर का कोई सच्चा उत्तराधिकारी चाहते हैं हम 'माटी 'के पाठकों से उस विधि की खोज करवाना चाहते हैं जिस विधि की तलाश में मेवाड़ की मीरा भटकती रही थी। 'शूली ऊपर सेज पिया की किस विधि मिलणा  होय '।आचरण के ठोस आधार पर ही शब्दों की सार्थक भित्ति खड़ी की जा सकती है । भारत का हर सामान्य जन जानता है कि गधे की पीठ पर दर्शन शास्त्रों का बोझा लाद  देने से गधा दार्शनिक नहीं बन जाता ।आचरण की आग में पककर ही उपाधियों की लम्बे चोंगें वाली आतंकी वेष -भूषा की पहचान की असलियत जानी जा सकती है ।मानव समाज का आधार ही आचरण की शुद्धता पर टिका है।इसे दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि आधुनिक भारत का अधिकाँश कलुष उनके माथे पर लगा है जिनके नाम के आगे भारी भरकम डिग्रियां लगी हुई हैं। इसका यह अर्थ नहीं समझना चाहिये कि डिग्रियाँ ब्यर्थ हैं। इसका सिर्फ यही अर्थ है कि कोई भी उपाधि ,कोई भी तकनीकी ज्ञान, कोई भी ब्यापारिक सूझ -बूझ यदि पशुता के धरातल पर केवल अपने स्वार्थ के लिये है तो उसमें कोई भी सामाजिक पवित्रता न के बराबर है । सभी धर्म -ग्रन्थ मानव कल्याण को ही सर्वोपरि मानते हैं । कोई भी दर्शन या कोई भी विचारधारा जो मानव को जन्म के आधार पर विभाजित करती है विश्व के हर धर्म में तिरष्कृत की गयी है । सच्चाई तो यह है कि एक चरित्रवान अपढ़ उस दिमागी दिग्गज वकील से लाख गुना बेहतर है जो झूठ के कुटिल तर्कों और साक्षों के बल पर सच करके पेश करता है ।'माटी ' का सम्पादक माटी के माध्यम से एक ऐसी संस्कारित पीढ़ी को पल्लवित करना चाहता है जो भारत की ऋषि परम्परा से आचरण की पवित्रता ले और विवेकानन्द के दर्शन से आधुनिक जीवन संघर्ष में विजयी बन कर राष्ट्रीय गॉरव को समुन्नत कर सके। चारो ओर से उमड़ कर आते हुये तमस के दौर में माटी की टिमटिमाती लव प्रकम्पित हो रही है ।हमारा प्रयास है कि हम अपने अस्तित्व की बाजी लगाकर भी इस प्रकम्पित लव को बुझने न दें। गीता का यह सार वाक्य ही हमारा सहारा है।'कर्म करना ही मानव का अधिकार है । कर्म का फल तो विधाता यानि निरन्तर परिवर्तित होने वाली सामाजिक चेतना के हाथों में ही होता है। ठीक समय आने पर परिस्थितियाँ अनुकूल हो जाती हैं। और ठीक समय तभी आता है जब सामाजिक चेतना मानव जीवन के समानता वादी मानव मूल्यों को समग्र भाव से स्वीकार कर लेती है। तभी तो राम प्रसाद बिस्मिल नें आजादी के         

संघर्ष के दिनों में अपनी अमर पंक्तियों से एक न बुझने वाली सर्वस्व वलिदान लौ को प्रज्वलित किया था।

                    "वक्त आने पर बता देंगे ऐ आसमां , हम अभी से क्या बतायें क्या हमारें मन में है ।"
                   '  सच्चे सहयोग की पुकार के साथ '