सदस्य वार्ता:D.The.Shah
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-- नया सदस्य सन्देश (वार्ता) 06:19, 14 मई 2019 (UTC)
बावरी साहिबा[संपादित करें]
बावरी साहिबा निर्गुण ब्रह्मा की उपासिका थीं। बावरी साहिबा का जन्म सन् १४७२ में हुआ। कुछ इतिहासकारों के अनुसार बावरी साहिबा का जीवनकाल सन् १५४२ - १६०५ रहा। बावरी साहिबा का असल नाम ज्ञात नहीं। उनके लेखों से पता लता है वो संस्कार गत मुसलमान परिवार से थीं। उन्हें 'बावरीपंथ' की संस्थापिका माना जाता है। उनकी साधना उच्च कोटि की थी, इसीलिए लोगों ने उन्हें 'साहिबा' कहकर आदर तथा मान-सम्मान दिया।
समय काल
कुछ इतिहासकारों के अनुसार बावरी साहिबा का जन्म सन् १४७२ [1] में हुआ। इससे अधिक बावरी साहिबा का जीवन-वृत्तान्त नहीं मिलता। इनके भजनों में कबीर दास, सेन, रैदास और पीपाजी जैसे सन्तों का नाम भी आता है। इससे स्पष्ट है कि बावरी साहिबा उनसे परवर्तित होंगी। बावरी साहिबा के चार पद गुरुग्रन्थ साहिब में संग्रहित हैं। यह भी कहा जाता है कि वे दिल्ली के किसी उच्च कुलीन घराने की थीं। किन्तु परमात्मा के प्रति इनकी प्रीत ने इन्हें भक्ति का दीवाना बना दिया।
बावरी पन्थ परम्परा (डॉ. भगवती प्रसाद शुक्ल)[2]
राघवानन्द → रामानन्द → कृष्ण पौहारिया → जोगानन्द → मायानन्द →बावरी → बीरू → यारी → बूला → गुलाल
बावरी पन्थ परम्परा (पं. परशुराम चतुर्वेदी)[3]
अनन्तानन्द → कृष्ण पायहारी → योगानन्द → मायानन्द → दयानन्द → बावरी→ बीरू → यारी
प्रेम दीवानी
बावरी साहिबा प्रेम दीवानी थीं। संसार के सारे सुख-ऐश्वर्य, घर-द्वार, लोकलाज त्यागकर वे ‘प्रेम दीवानी’ होकर घूमने लगी थीं। परमात्मा को ‘प्रीतम’ मानकर उसके प्रेम में पागल होकर वह निकल पड़ी थीं। वह न किसी विशेष पहनावे में विश्वास करती थीं, न ही कोई तिलक लगातीं, न ही पूजा पाठ करती थीं। वह निर्गुण उपासना करती थीं। परमात्मा से मिलने की प्रार्थना करतीं और उसी का ध्यान करती थीं।
बावरी रावरी का कहिये, मन ह्वै कै पंतग भरै नित भांवरी।
भांवरी जनहिं संत सुजन जिन्हें हरिरूप हिये दरसाव री।
सांवरी सूरत, मोहनी मूरत, दैकर ज्ञान अनन्त लखाव री।
खावरी सौंह, तिहारी प्रभू गति रखरी देखि भई मति बावरी।
भक्ति साधना
बावरी साहिबा का नाम तो कुछ और ही रहा होगा, किन्तु उनकी साधना और भक्ति में जो दीवानापन था, जो प्रेम का उदात्त रूप था, उसी कारण उन्हें लोगों ने ‘बावरी’ कहा होगा। और चूंकि उनकी भक्ति, उनका तप, उनकी साधना उच्च कोटि की थी, इसलिए लोगों ने उन्हें ‘साहिबा’ कहकर आदर दिया। बावरी साहिबा की भक्ति प्रेम-मार्गी थी। वह निर्गुण ब्रह्मा की उपासक थीं और सूफ़ियों के ‘आत्मा’-‘परमात्मा’ की साधना-पद्धति को भी मानती थीं। परमात्मा प्रेमी है और आत्मा प्रेमिका। बस प्रेम के इसी दीवानेपन में बावरी साहिबा खो गई थीं। वह प्रेम को ही सर्वस्व मानती थीं। प्रेम को ही जीवन की उदात्त अवस्था मानती थीं। उस परमतत्व से अपना रिश्ता जोड़कर वह कहती थीं-
"मैं बंदी हौं परमतत्व की, जग जनत की भोरी।"
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बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]
- ↑ https://books.google.co.in/books?id=jskTPJOM6D8C&pg=PA85&lpg=PA85&dq=bawari+sahiba&source=bl&ots=J26G8lp7hU&sig=ACfU3U1239T2O8zGkHKv8LLI8TtcqHPHLg&hl=en&sa=X&ved=2ahUKEwjGnL_K99zmAhWcILcAHdB6CicQ6AEwBHoECAkQAQ#v=onepage&q=bawari%20sahiba&f=false
- ↑ https://shodhganga.inflibnet.ac.in/bitstream/10603/182514/4/04_chapter%202.pdf
- ↑ https://shodhganga.inflibnet.ac.in/bitstream/10603/182514/4/04_chapter%202.pdf
- ↑ https://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%B5%E0%A4%B0%E0%A5%80_%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%AC%E0%A4%BE
- ↑ https://sufinama.org/poets/sant-bawari-sahiba/all